भारतः जनसंख्या घनत्व, वितरण तथा वृद्धि

16 Apr 2018
0 mins read
भारत जनसंख्या का वितरण
भारत जनसंख्या का वितरण


अब तक हमने भारत के प्राकृतिक संसाधनों के बारे में जानकारी हासिल की। इन संसाधनों के अन्तर्गत भूमि, मृदा, जल, वन, खनिज तथा वन्य-जीव इत्यादि आते हैं। हमने इन उपरोक्त संसाधनों के वितरण एवं दोहन की दर एवं दिशा तथा विकास के कार्यक्रमों में उनकी उपयोगिता के बारे में भी जानकारी प्राप्त की। इन्हीं संसाधनों का यहाँ के देशवासियों के सनदर्भ में अध्ययन करना है। लोगों या जनता से अभिप्राय यहाँ की जनसंख्या को केवल उपभोक्ता की संख्या के रूप में ही नहीं बल्कि उन्हें यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धक के रूप में मानने से है।

इसके लिये सही मायने में लोगों के शैक्षिक तथा स्वास्थ्य स्तर, उनके व्यावसायिक, तकनीकी एवं सामाजिक दक्षता पर ध्यान देते हैं। और इससे भी अधिक लोगों की आकांक्षाओं एवं प्रचलित मान्यताओं के साथ कार्य नीति पर ध्यान देने की जरूरत है। इस संदर्भ में आप अनुभव करेंगे कि लोग प्राकृतिक संसाधनों के केवल उपभोक्ता ही नहीं अपितु ये देश की अनमोल परिसम्पति हैं। इस पाठ में हम भारत की जनसंख्या के आकार का मूल्यांकन विश्व जनसंख्या के सनदर्भ में करेंगे। इसलिये पहले जनसंख्या के वितरण एवं घनत्व तथा इन पहलुओं को प्रभावित करने वाली विभिन्न कारकों का अध्ययन करेंगे। अन्त में जनसंख्या में वृद्धि करने वाली प्रवृत्तियों तथा उन्हें प्रभावित करने वाले निर्धारकों के साथ परिणामों का भी विश्लेषण करेंगे।

 

संबंधित लेख : - शहरीकरण रुके तो कार्बन उत्सर्जन थमे 

 

उद्देश्य
इस पाठ का अध्ययन करने के पश्चात आपः
- विश्व जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में भारत की जनसंख्या के आकार को समझा सकेंगे ;
- भारत में जनसंख्या के असमान वितरण के लिये उत्तरदायी कारकों का विश्लेषण कर सकेंगे ;
- भारत के मानचित्र पर सघन, सामान्य तथा विरल जनसंख्या वाले क्षेत्रों को दर्शा सकेंगे ;
- जनसंख्या के वितरण, घनत्व तथा उसकी वृद्धि के बारे में आँकड़ों की व्याख्या कर सकेंगे ;
- पिछले सौ वर्षों (1901-2001) में जनसंख्या में हुई वृद्धि की प्रवृत्ति का विवेचन कर सकेंगे ;
- जनसंख्या में होने वाली तीव्र-वृद्धि के लिये उत्तरदायी कारकों की पहचान कर सकेंगे ;
- जनसंख्या विवेचन में प्रयुक्त बहुत सी शब्दावलियाँ, जैसे-जन्म-दर, मृत्यु-दर, इत्यादि की भलीभाँति व्याख्या कर सकेंगे ;
- जनसंख्या में लगातार हो रही वृद्धि को कम करने की आवश्यकता को महसूस कर सकेंगे;
- देश के किसी भी क्षेत्र में आप्रवासन एवं उत्प्रवासन के कारणों एवं परिणामों का विश्लेषण कर सकेंगे।

26.1 भारत की जनसंख्या
विश्व में जनसंख्या की दृष्टि से चीन के बाद दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश भारत है। एक मार्च सन 2001 को भारत की कुल जनसंख्या 1027 मिलियन याने एक अरब 27 करोड़ हो चुकी थी। यह संख्या विश्व की कुल जनसंख्या के 16.7 प्रतिशत के बराबर है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि विश्व का हर छठवां व्यक्ति भारतीय है। चीन हमसे एक कदम आगे है क्योंकि विश्व में हर पाँचवा व्यक्ति चीन का है। भारत में उपलब्ध भूमि विश्व की कुल भूमि का 2.42 प्रतिशत ही है और इतनी ही भूमि पर विश्व की कुल जनसंख्या का करीब 17 प्रतिशत भारत में है।

क्षेत्रीय प्रसार की दृष्टि से विश्व में भारत का स्थान रूस, कनाडा, चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील और आस्ट्रेलिया के बाद सातवां है। चीन को छोड़ दें तो बचे पाँचों बड़े क्षेत्रफ़ल वाले देशों की कुल जनसंख्या भारत की जनसंख्या के मुकाबले बहुत कम है। इन पाँचों देशों के क्षेत्रफ़ल को मिला दें तो वह भारत के क्षेत्रफ़ल से 16 गुना बड़ा क्षेत्रफ़ल होगा और इस क्षेत्रफ़ल में रहने वाली आबादी की मिली जुली जनसंख्या भारत की जनसंख्या से बहुत कम है। यह तथ्य दर्शाता है कि सीमित भूमि संसाधन में इतनी विशाल जनसंख्या के कारण हम कितने असहाय एवं अवरोधों से ग्रसित हैं।

 

संबंधित लेख: - कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन (भाग-2)



यह भी दृष्टव्य है कि तीन महाद्वीपों-उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या को जोड़ दिया जाए तो भी भारत की जनसंख्या से कम है। और इसके साथ विडम्बना यह कि प्रति वर्ष हमारी जनसंख्या में 1 करोड़ 70 लाख व्यक्तियों का इजाफा हो रहा है। यह संख्या आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या से ज्यादा है। विश्व की सबसे घनी आबादी वाले चीन में जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि-दर भारत की वार्षिक दर से कम है।

26.2 जनसंख्या का घनत्व तथा वितरण
संसार की जनसंख्या अथवा किसी भी देश की जनसंख्या उसके सभी भागों में समान रूप से वितरित नहीं होती। भारत के लिये भी यह तथ्य लागू होता है। देश के कुछ भागों में घनी जनसंख्या है कुछ भागों में मध्यम जनसंख्या है तो कुछ भाग विरल बसे हैं।

विभिन्न क्षेत्रों की जनसंख्या के आकार की तुलना कई तरीकों से की जा सकती है। इनमें से एक तरीका है कि विभिन्न क्षेत्रों की पूरी जनसंख्या के आकार की तुलना करना। परन्तु इस विधि में जनसंख्या तथा उस क्षेत्र या प्रांत के क्षेत्रफ़ल अथवा उसके आधार संसाधनों के बीच के सम्बन्धों के बारे में कुछ भी नहीं जान सकते। अतः क्षेत्रों के बीच तुलनात्मक अध्ययन गुमराह कर सकता है। उदाहरण स्वरूप सिंगापुर की जनसंख्या 42 लाख है और चीन की जनसंख्या 1 अरब 30 करोड़ (1,300 मिलियन) है। सिंगापुर का क्षेत्रफ़ल मात्र 630 वर्ग कि.मी. है जबकि चीन का क्षेत्रफ़ल 95 लाख वर्ग कि.मी. है। एक इतना छोटा और दूसरा इतना विशाल।

इससे स्पष्ट है कि चीन की तुलना में सिंगापुर कितना भीड़-भाड़ वाला है। इसलिये विभिन्न देशों की जनसंख्या की तुलना सामान्यतः उन देशों के जनसंख्या के घनत्व के रूप में की जाती है। इस विधि में मनुष्य और भूमि के अनुपात को ध्यान में रखते हुए तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। इस तरीके में किसी क्षेत्र की कुल जनसंख्या के वितरण को देश के क्षेत्रफ़ल में समान रूप से वितरित मानते हुए प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में कितनी जनसंख्या समाहित होती है, इसकी गणना की जाती है। इसे अंक-गणितीय जनसंख्या का घनत्व कहते हैं। किसी भी क्षेत्र या देश की कुल जनसंख्या को उस क्षेत्र के या देश के जमीनी क्षेत्रफ़ल से भाग देने पर प्रति वर्ग किमी जनसंख्या का घनत्व प्राप्त हो जाता है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत वर्ष में जनसंख्या का घनत्व 324 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।

पिछले सौ वर्षों में जनसंख्या का घनत्व चौगुना से भी ज्यादा बढ़ा है। सन 1901 में यह घनत्व 77 था जबकि सन 2001 में यह 324 हो गया। अब एक बात और समझने की है। जब यह कहा जाए कि भारत में जनसंख्या का घनत्व 324 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. है, इससे यह मतलब नहीं निकालना चाहिये कि देश के प्रत्येक वर्ग कि. मी. पर आबादी 324 व्यक्तियों की होगी। वास्तव में जनसंख्या का वितरण भारत वर्ष में बहुत ही अनियमित है। अरुणाचल प्रदेश में औसतन जनसंख्या 13 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. है, जबकि दिल्ली में सन 2001 की जनगणना के अनुसार 9,294 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. है।

 

संबंधित लेख: - जल संरक्षण से ही जन संरक्षण 



- विभिन्न क्षेत्रों अथवा देशों की जनसंख्या का तुलनात्मक अध्ययन सार्थक एवं उचित तभी हो सकता है जब उन देशों की जनसंख्या के औसत घनत्व को आधार मान कर अध्ययन किया जाए।
- घनत्व से व्यक्ति और भूमि के बीच अनुपातिक सम्बन्ध का बोध होता है।
- किसी क्षेत्र अथवा देश की जनसंख्या के घनत्व को इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं।
घनत्व = देश की कुल जनसंख्या/देश का सकलभूमि का क्षेत्रफ़ल

26.3 जनसंख्या के वितरण एवं घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक
जैसा कि पहले हमलोगों ने चर्चा की, भारत की जनसंख्या का स्थानीय वितरण एक समान नहीं है। इसमें बहुत अधिक क्षेत्रीय विभिन्नताएं हैं। आइये देखें वे कौन से कारक हैं जो इस विभिन्नता को बनाते हैं। वे सब कारक जो जनसंख्या के घनत्व एवं उसके वितरण को प्रभावित करते हैं उन्हें दो श्रेणियों में बाँट सकते हैं। ये हैं (क) भौतिक कारक (ख) सामाजिक-आर्थिक कारक।

(क) भौतिक कारक - ये जनसंख्या के घनत्व एवं वितरण को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। भौतिक कारकों में सम्मिलित हैं- भूमि की बनावट या आकृति, जलवायु, मृदा इत्यादि। यद्यपि विज्ञान एवं तकनीक में बहुत अधिक प्रगति हुई है परन्तु फि़र भी भौतिक कारकों का प्रभाव बरकरार है।

1. भू-आकृति - यह जनसंख्या वितरण के प्रतिरूप को प्रभावित करता है। भू-आकृति का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है उसमें मौजूद ढ़लान तथा उसकी ऊँचाई। इन दोनों गुणों पर जनसंख्या का घनत्व एवं वितरण बहुत कुछ आधारित रहता है। इसका प्रमाण पहाड़ी एवं मैदानी क्षेत्र की भूमि ले सकते हैं। गंगा-सिंधु का मैदानी भूभाग घनी आबादी का क्षेत्र है जबकि अरुणाचल प्रदेश समूचा पहाड़ियों से घिरा उबड़-खाबड़ पर्वतीय भूभाग है, अतः जनसंख्या का घनत्व सबसे कम एवं वितरण भी विरल एवं फ़ैला हुआ है। इसके अलावा भौतिक कारकों में स्थान विशेष का जल-प्रवाह क्षेत्र, भूमि जलस्तर जनसंख्या वितरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

2. जलवायु - किसी स्थान की जलवायु जनसंख्या के स्थानिक वितरण एवं प्रसार को प्रभावित करती है। अब राजस्थान के गरम और सूखे रेगिस्तान साथ ही ठंडा एवं आर्द्रता, नमी वाले पूर्वी हिमालय भूभाग का उदाहरण लें। इन कारणों से यहाँ जनसंख्या का वितरण असमान तथा घनत्व कम है। केरल एवं पश्चिम बंगाल की भौगोलिक परिस्थितियाँ इतनी अनुकूल हैं कि आबादी सघन एवं समान रूप से वितरित है। पश्चिमी घाट पर्वत श्रृंखला के पवन-विमुख भाग तथा राजस्थान के भागों में घनत्व कम है।

3. मृदा - यह बहुत हद तक जनसंख्या के घनत्व एवं वितरण को प्रभावित करता है। वर्तमान औद्योगीकरण एवं उद्योग प्रमुख समाज में मृदा कैसे जनसंख्या को प्रभावित करने में सक्षम हो सकती है। यह स्वाभाविक प्रश्न हो सकता है। परन्तु इस सच्चाई से कि आज भी भारत की 75 प्रतिशत जनता गाँवों में बसती है, कोई इन्कार नहीं कर सकता। ग्रामीण जनता अपना जीवन-यापन खेती से ही करती है। खेती के लिये उपजाऊ मिट्टी चाहिये। इसी वजह से भारत का उत्तरी मैदानी भाग, समुद्र तटवर्ती मैदानी भाग एवं सभी नदियों के डेल्टा क्षेत्र उपजाऊ एवं मुलायम मिट्टी की प्रचुरता के कारण सघन जनसंख्या वितरण प्रस्तुत करते हैं। दूसरी ओर राजस्थान के विशाल मरुभूमि क्षेत्र, गुजरात का कच्छ का रन तथा उत्तराखण्ड के तराई भाग जैसे क्षेत्रों में मृदा का कटाव तथा मृदा में रेह का उत्फ़ुलन (मिट्टी पर सफ़ेद नमकीन परत चढ़ जाना जो उसकी उपजाऊपन को नष्ट कर देती है) विरल जनसंख्या वाले क्षेत्र हो जाते हैं।

किसी भी क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व एवं वितरण एक से अधिक भौतिक एवं भौगोलिक कारकों से प्रभावित होते हैं। उदाहरण स्वरूप भारत के उत्तर-पूर्वी भाग को लें। यहाँ अनेक कारक प्रभावशील है - जैसे भारी वर्षा, उबड़-खाबड़, उतार-चढ़ाव वाली जमीनी बनावट, सघन वन एवं पथरीली सख्त मिट्टी। ये सब एक साथ मिलकर जनसंख्या के घनत्व एवं वितरण को विरल बनाते हैं।

(ख) सामाजिक - आर्थिक कारक- भौतिक कारकों के समान ही सामाजिक-आर्थिक कारक भी जनसंख्या के वितरण एवं घनत्व को प्रभावित करते हैं। परन्तु इन दोनों कारकों के सापेक्षिक महत्त्व के विषय में पूर्ण एकरूपता नहीं भी हो सकती है। कुछ स्थानों पर भौतिक कारक ज्यादा प्रभावशील होते हैं तो कुछ जगहों पर सामाजिक एवं आर्थिक कारक अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सामान्य तौर पर आम सहमति है कि सामाजिक एवं आर्थिक (अभौतिक) कारकों की भूमिका बढ़ी है। विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारक जो जनसंख्या की बसावट में विभिन्नता लाते हैं, इस प्रकार हैं- (1) सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनैतिक कारक (2) प्राकृतिक संसाधनों का दोहन।

 

संबंधित लेख:-  पोस्टर : बढ़ती जनसंख्या घटता पानी 



1. सामाजिक - सांस्कृतिक एवं राजनैतिक कारक- मुम्बई-पुणे औद्योगिक कॉम्पलेक्स (संकुल) एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह दर्शाता है कि किस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक कारकों के समूह ने इस कॉम्पलेक्स की जनसंख्या और घनत्व की तीव्र वृद्धि की हैं। आज से दो सौ वर्षों से भी पहले पश्चिमी समुद्री तटवर्ती थाणे इलाके के सकरी खाड़ी में महत्त्वहीन छोटे-छोटे बिखरे द्वीप समूह थे। साहसी पुर्तगाली नाविकों ने इन द्वीप समूहों पर अपना अधिकार कायम कर लिया था। चूँकि अधिग्रहित द्वीपों का स्वामित्व उनके राजा के पास था। पुर्तगाल के राजा ने इसे इंग्लैंड के राजघराने को दहेज स्वरूप भेंट कर दिया। इस द्वीप में निवास करने वाले मछुआरों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि किसी दिन उनकी यह बसावट एक विशाल जनसंख्या के समूह के रूप में विकसित हो जाएगा।

इंग्लैंड की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इन द्वीपों पर एक व्यापारिक केन्द्र को स्थापित किया जिसे बाद में बाम्बे प्रेसीडेन्सी के राजधानी शहर में परिर्वितत कर दिया। उद्यमी व्यापार कुशल सम्प्रदायों ने (जैसे पारसी, कच्छी, गुजराती लोग) यहाँ कपड़ा बनाने की मिलों को स्थापित किया और इसके लिये आवश्यक जलशक्ति का विकास किया। इतना ही नहीं पश्चिमी घाट पर्वत श्रृंखला के आर-पार सड़क तथा रेलमार्ग का निर्माण किया। इससे पृष्ठ प्रदेश आवागमन के साधनों से सम्पन्न हो गया। आशा के विपरीत स्वेज नहर का निर्माण हो जाने से बॉम्बे (अब मुम्बई) भारत का ऐसा बन्दरगाह बन गया जो यूरोप का सबसे नजदीक व्यापारिक केन्द्र सिद्ध हुआ। मुम्बई में शिक्षित युवकों की मौजूदगी तथा कोंकण के सस्ते, सशक्त एवं अनुशासित मजदूरों की आसान उपलब्धता ने यहाँ की क्षेत्रीय जनसंख्या को तेजी से पनपने में बहुत बड़ा योगदान दिया।

कुछ समय पश्चात मुम्बई के नजदीक अरब सागर के उथले क्षेत्र में तेल (पेट्रोलियम) तथा गैस-भण्डार की खोज ने इस क्षेत्र में पेट्रो-रसायन उद्योग को उभरने में बहुत बढ़ावा दिया। आज मुम्बई भारत की वाणिज्यिक एवं व्यापारिक राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित है। इसलिये यहाँ अन्तरराष्ट्रीय एवं घरेलू हवाई-अड्डे स्थापित हैं। मुम्बई देश तथा विदेश के प्रमुख समुद्री बन्दरगाहों से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग एवं रेल-मार्ग का अन्तिम छोर मुम्बई है। लगभग ऐसी ही स्थिति औपनिवेशक शासकों द्वारा भारत के अन्य प्रमुख महानगर कोलकाता तथा चेन्नई के साथ लागू होती है।

2. प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता - छोटा नागपुर का पठार हमेशा से एक पर्वतीय, पथरीला एवं उबड़-खाबड़ क्षेत्र रहा है। वर्षा एवं वनों से आच्छादित यह भाग अनेकों आदिवासियों का निवास स्थान रहते आया है। यह आदिवासी क्षेत्र जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से देश के विरल क्षेत्रों में से एक गिना जाता है। किन्तु प्रचुर मात्रा में खनिज अयस्क जैसे लोहा, मैगनीज, चूना पत्थर, कोयला आदि के उपलब्ध होने के कारण पिछली शताब्दि के दौरान अनेक औद्योगिक केन्द्र तथा नगरों की स्थापना हुई है। लौह अयस्क तथा कोयले की खदाने आस-पास मिलने से बड़े औद्योगिक उपक्रमों एवं कारखानों के स्थापित होने का आकर्षण बना रहा।

इस कारण लोहा तथा इस्पात उद्योग, भारी-इन्जिनियरिंग उद्योग धातुकर्म उद्योग तथा यातायात में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों को बनाने के कारखाने खुले। इस क्षेत्र में उत्तम गुणों के कोयला उपलब्ध होने के कारण शक्तिशाली राष्ट्रीय ताप विद्युत संयत्रों की स्थापना हुई। इन केन्द्रों से विद्युत की आपूर्ति तथा वितरण दूर-दराज के क्षेत्रों को भी किया जाता है। उदारीकरण के बाद से इस क्षेत्र में अनेकों विदेशी बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ एवं भारतीय कम्पनियाँ अपने-अपने कारखाने एवं संयंत्रों को स्थापित करने में संलग्न हैं।

26.4 राज्य स्तर पर जनसंख्या घनत्व
किसी खास उद्देश्य के अनुसार जनसंख्या के आंकड़ों को कई प्रकार से अंकित एवं आलेखित किया जा सकता है। यदि जनसंख्या के वितरण के प्रतिरूप की जानकारी हासिल करनी हो तो जनसंख्या के आंकड़ों को राज्य-स्तर पर या राज्य के बड़े क्षेत्र के जनसंख्या के आंकड़ों को इकट्ठा कर उन्हें अंकित एवं आलेखित किया जाता है। यदि बारीक तौर पर जानकारी हासिल करनी हो, तो जनसंख्या के आंकड़ों को छोटी-छोटी इकाइयों में जैसे जिला स्तर या तहसील के स्तर पर अंकित किया जाता है। आइये, अब भारत में जनसंख्या वितरण एवं घनत्व के प्रतिरूप के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

भारत में राज्य स्तर पर उपलब्ध जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर जनसंख्या घनत्व को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता हैः अधिक घनत्व वाले क्षेत्र, मध्य घनत्व वाले क्षेत्र तथा कम घनत्व वाले क्षेत्र।

(क) अधिक घनत्व वाले क्षेत्र - दिए गए भारत के मानचित्र (चित्र 26.1) में जनसंख्या के वितरण को दर्शाया गया है। जहाँ जनसंख्या का घनत्व 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से ज्यादा पाया जाता है। ऐसे क्षेत्र अधिक घनत्व वाले क्षेत्र कहलाते हैं। इन क्षेत्रों में घनी आबादी होने का मुख्य कारण उपजाऊ मृदा तथा भरपूर वर्षा का पाया जाना है। इससे सघन एवं सशक्त खेती द्वारा उपज मिलती है। इन कारणों से प्रति वर्ग कि.मी. क्षेत्र में बसी जनसंख्या के अधिकांश लोगों को पर्याप्त भोजन मिल जाता है। ऐसे क्षेत्र तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल राज्य में आते हैं। परन्तु, केन्द्र शासित संघीय क्षेत्र जैसे दिल्ली, चण्डीगढ़ एवं पॉण्डिचेरी की स्थिति भिन्न है।

यहाँ जनसंख्या सघन होने का मुख्य कारण उच्च शहरीकरण तथा आधुनिकीकरण है। इसके कारण लोगों को व्यवसाय तथा नौकरी के अवसर मिलते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जिन क्षेत्रों में उपजाऊ मृदा तथा सघन कृषि होती है तथा जिन क्षेत्रों में रोजगार, व्यवसाय व नौकरी के अच्छे अवसर उपलब्ध होते हैं, वहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है।

भारत जनसंख्या घनत्व(ख) मध्यम घनत्व वाले क्षेत्र - इस श्रेणी में वे राज्य तथा संघ शासित क्षेत्र आते हैं, जिनका जनसंख्या घनत्व 100 से 400 व्यक्ति प्रतिवर्ग कि.मी. के बीच होती है। ये राज्य आन्ध्र प्रदेश, असम, दादर एवं नगर हवेली, गोवा, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान, त्रिपुरा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, त्रिपुरा एवं मेघालय हैं। इस श्रेणी के अन्तर्गत देश के अधिकांश क्षेत्र शामिल हो जाते हैं। मध्यम घनत्व की आबादी होने का मुख्य कारण उबड़-खाबड़ जमीन के चलते कृषि में अवरोध, वर्षा की निम्न व अनियमित मात्रा तथा सिंचाई के लिये जलाभाव है।

यदि उपयुक्त सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ तो प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर के व्यावसायिक कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं तथा इसकी प्रबल संभावनाएँ भी मौजूद हैं। उदाहरण के तौर पर छोटा नागपुर क्षेत्र को लिया जाए। स्वतंत्रता के समय यह क्षेत्र विरल आबादी का था। किन्तु इस क्षेत्र में विद्यमान अनेकों प्रकार के खनिज एवं अयस्क का खनन एवं खदानों के विकास के साथ बहुत से उद्योग एवं कारखाने स्थापित होते गए और हो भी रहे हैं। इसके प्रभाव से लोगों का आना तथा उनकी आबादी की बसावट भी बढ़ते-बढ़ते मध्यम घनत्व के दर्जे में पहुँच गई है।

(ग) कम घनत्व वाले क्षेत्र - उपरोक्त दोनों वर्गों के घनत्व वाले क्षेत्र के अलावा शेष बचे क्षेत्र इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। इस श्रेणी में शामिल क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व 100 व्यक्ति या उससे भी कम प्रति वर्ग कि.मी. होता है। भारत के राज्य एवं केन्द्र शासित संघीय क्षेत्र जो इसके अन्तर्गत आते हैं, वे हैं - अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम तथा अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह। कम घनत्व के प्रमुख कारणों में - ऊँची-नीची तथा विषम भू-आकृतियाँ, कम वर्षा तथा अस्वास्थ्यकर जलवायु का होना है।

 

संबंधित लेख:-   बढ़ती आबादी के बढ़ते दबाव



इन्हीं कारणों से जीवन-यापन करने के लिये रोजगार के अवसरों की बहुत कमी होती है। अधिक शीत या अति शुष्क क्षेत्र में भी कृषि का विकास नहीं हो पाता। उबड़-खाबड़, भूमि, कठिन जलवायु तथा निम्न कृषि के कारण नगरीकरण तथा औद्योगीकरण की सम्भावनाएँ अवरुद्ध हो जाती है। इसलिये ऐसे क्षेत्रों में प्रति इकाई क्षेत्र में व्यक्तियों की संख्या, जिन्हें भरण-पोषण की सुविधा उपलब्ध हो सके, स्वतःकम हो जाती है। पहाड़ी एवं पर्वतीय क्षेत्रों में धरातलीय आकृतियों के चलते न केवल आवागमन के साधन तथा संचार माध्यमों का विस्तार करना कठिनाइयों से भरा हुआ है बल्कि कुल मिलाकर विकासात्मक आर्थिक स्तर निम्न होता है। इन सब कारकों के चलते जनसंख्या का घनत्व इन क्षेत्रों में काफ़ी कम है।

- जनसंख्या के अधिक घनत्व वाले राज्य पश्चिम बंगाल, केरल, बिहार, पंजाब, तमिलनाडु, दिल्ली, उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा हैं। केन्द्रशासित संघीय क्षेत्र चण्डीगढ़, लक्षद्वीप, पॉण्डिचेरी और दमन व दिव भी इसमें शामिल हैं।

- इन सभी उपरोक्त क्षेत्रों में कृषि कार्य अथवा द्वितीय या तृतीय श्रेणी के विभिन्न व्यवसायों द्वारा लोगों को रोजगार प्राप्त करने के भरपूर अवसर प्राप्त होते हैं।

- जनसंख्या के कम घनत्व वाले राज्य अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम, अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह हैं।

- ये क्षेत्र या तो कम वर्षा, या पहाड़ी उबड़-खाबड़ जमीन या अवास्थ्यप्रद जलवायु या इन सभी कारणों के मिले-जुले प्रभाव से घनत्व कम है।

26.5 जिलास्तर पर जनसंख्या का घनत्व
जनसंख्या के आँकड़ों का सूक्ष्म अवलोकन इस तथ्य को उजागर करता है कि प्रत्येक राज्य में जनसंख्या के घनत्व की एक से अधिक श्रेणियां मिलती हैं। जनसंख्या के वितरण का भौगोलिक अथवा स्थानिक प्रारूप और भी स्पष्ट होता है जब जनसंख्या के आंकड़ों को जिलास्तर पर अंकित कर विश्लेषित करते हैं। जनसंख्या के वितरण की विषमताएँ मुख्यतः विविध भौतिक कारकों की मौजूदगी, स्थान विशेष के आर्थिक विकास प्राकृतिक संसाधन के वितरण में विषमताओं एवं दशाओं द्वारा प्रभावित होती है। हिमाचल प्रदेश के लाहुल एवं स्पीति जिलों में घनत्व 2 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हैं तो दिल्ली में 29,395 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. की घनी आबादी है। देश के शीर्ष 20 जिलों में या तो पूर्णतः शहरीकरण हो गया है अथवा शहरीकरण का व्यापक प्रभाव मौजूद है।

इसके अंतर्गत दिल्ली राज्य के सभी 9 जिले (कोलकाता, हावड़ा, उत्तरी 24 परगना (पश्चिम बंगाल में) ( मुम्बई एवं मुम्बई से लगे चारों तरफ़ अर्ध विकसित नगरीय बसावट वाले क्षेत्र (महाराष्ट्र में) हैदराबाद (आंध्र प्रदेश में) एवं केन्द्रशासित संघीय राज्य चण्डीगढ़ शामिल हैं। समूचे भारत की जनसंख्या के सघन घनत्व को 2 अविछिन्न तथा स्पष्ट पट्टियों में विभक्त कर समझा जा सकता है। ये पट्टियाँ (क) उत्तरी भारत का विशाल मैदानी भूभाग (पंजाब से पश्चिम बंगाल तक) तथा (ख) समुद्री तटवर्त्ती क्षेत्र, पूर्व में उड़ीसा से लेकर आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल के पश्चिम तटवर्ती क्षेत्र होकर कोंकण तट तक फ़ैली है।

एक मध्यम उच्च घनत्व की पेटी सम्पूर्ण महाराष्ट्र, गुजरात के मैदानी भाग, तेलंगाना, दक्षिणी कर्नाटक तथा झारखण्ड के छोटा नागपुर क्षेत्र को शामिल करती है। निम्न घनत्व के क्षेत्र सामान्यतः देश के पर्वतीय क्षेत्रों, वनाच्छादित, हिमाच्छादित क्षेत्रों अथवा राजस्थान की शुष्क मरुभूमि में पाए जाते हैं। ये क्षेत्र मुख्यतः हिमालय के अधिकांश भाग राजस्थान के मरुस्थलीय इलाके (जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर इत्यादि) तथा गुजरात के कच्छ के रन के अंतर्गत आते हैं।

 

संबंधित लेख:- भारतः जनसंख्या घनत्व, वितरण तथा वृद्धि 



पाठगत प्रश्न 26.1
1. अधिक जनसंख्या घनत्व वाले तीन राज्यों के नाम लिखिये -

2. किन्हीं तीन केन्द्र शासित संघीय क्षेत्रों के नाम लिखिए जहाँ जनसंख्या घनत्व अधिक हो -

3. किन्हीं तीन ऐसे राज्यों के नाम लिखिये जो जनसंख्या की कम घनत्व वाली श्रेणी में आते हैं-

4. किसी एक केन्द्रीय शासित संघीय क्षेत्र का नाम लिखिए जहाँ जनसंख्या का कम घनत्व है।

5. कोष्ठक में दिए गए शब्दों से सर्वाधिक उपयुक्त शब्द चुनकर रिक्त स्थान को भरिये -

(क) ऐसे क्षेत्र जहाँ पर्याप्त वर्षा तथा उपजाऊ मृदा उपलब्ध है वहाँ जनसंख्या घनत्व _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ होने की संभावना है। (अधिक, मध्यम, निम्न)

(ब) ऐसे क्षेत्र जो उबड़-खाबड़ है तथा अक्सर सूखे का प्रभाव बना रहता हो उन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व _ _ _ _ _ _ होने की संभावना है। (अधिक, मध्यम, निम्न)

26.6 जनंसख्या की वृद्धि
किसी भी क्षेत्र में जनसंख्या की वृद्धि वहाँ के जन्मदर, मृत्युदर तथा प्रवास पर निर्भर करती है। जन्मदर को प्रति वर्ष प्रति हजार जनसंख्या पर जीवित बच्चों की संख्या से गणना की जाती है। इसी प्रकार मृत्यु दर को किसी क्षेत्र में प्रति हजार व्यक्तियों में से प्रति वर्ष मरने वाले व्यक्तियों की संख्या से गणना की जाती है। साधारणतया विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं जनसंख्या के आयुगत ढाँचे का प्रभाव जन्मदर पर पड़ता है। जन्म दर तथा मृत्यु दर के अन्तर को प्राकृतिक वृद्धि दर कहा जाता है। लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान या एक देश से दूसरे देश में स्थानान्तरण को प्रवास कहते हैं। एक देश से दूसरे देश में जाकर बसने की प्रक्रिया जनसंख्या प्रवास कहलाती है। जनसंख्या प्रवास की दर उस क्षेत्र में रहने वाली जनसंख्या में व्यक्तियों की संख्या बढ़ने या घटने से जनसंख्या वृद्धि दर को प्रभावित करती है।

जनसंख्या वृद्धि की दर धनात्मक या ऋणात्मक हो सकती है। धानात्मक वृद्धि दर तब होती है जब किसी क्षेत्र में जन्मे बच्चे तथा अप्रवासी (बाहर से आने वाले) व्यक्तियों की संख्या उस क्षेत्र में मरने वाले व्यक्तियों तथा उत्प्रवासी (क्षेत्र से बाहर जाने वाले लोगों) व्यक्तियों की संख्या से ज्यादा हो। ऋणात्मक वृद्धि दर में उपरोक्त बातें ठीक उल्टी लागू होती हैं तथा इससे किसी क्षेत्र की जनसंख्या में लगातार कमी होती जाती है।

 

संबंधित लेख:-  पर्वतीय क्षेत्रों में प्रवास की समस्या: प्रभाव एवं निराकरण

 

 

 

सारिणी 26.1 जनसंख्या वृद्धि (1901-2001)

जनगणना वर्ष

जनसंख्या करोड़ में

मूल बदलाव करोड़ में

बदलाव प्रतिशत में

औसत वार्षिक वृद्धि प्रतिशत में

1901

23.840

-

-

-

1911

25.209

+1.370

5.75

0.56

1921

25.132

-0.077

-0.31

-0.03

1931

27.898

+2.766

11.0

1.04

1941

31.866

+3.968

14.22

1.33

1951

36.109

+4.243

13.31

1.25

1961

43.923

+7.815

21.64

1.96

1971

54.816

+10.892

24.80

2.22

1981

68.333

+13.517

24.66

2.22

1991

84.339

+16.306

23.86

2.14

2001

102.702

+18.063

21.34

1.93

 

जिलास्तर पर जनसंख्या वृद्धि प्रतिरूप
जिलास्तर पर आंकड़े का विश्लेषण यह प्रदर्शित करता है कि 19 जिलों में वृद्धि दर काफ़ी ऊँची है यानी पचास प्रतिशत से भी ज्यादा। इसके दूसरी ओर 58 जिलों में वृद्धि दर बहुत ही कम है यानी दस प्रतिशत से भी कम। उच्च वृद्धि दर के 19 जिलों में से पाँच जिले नागालैण्ड के तथा चार जिले दिल्ली के हैं। इसी तरह कम वृद्धि दर के 58 जिलों में से 40 जिले दक्षिणी भारत में हैं। इन 40 जिलों में से 20 तमिलनाडु, 11 केरल, 5 आन्ध्र प्रदेश तथा 4 कर्नाटक में पाये जाते हैं। अगर जिलास्तर पर वृद्धि का प्रतिरूप देखें तो पूरे सिंधु-गंगा के मैदानी प्रदेशों, पश्चिम में हरियाणा से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल तक उच्च वृद्धि दर पाया जाता है। सतपुड़ा पर्वत श्रेणी से उत्तर की ओर मालवा के पठार तक, वृहत भारतीय मरुस्थल सहित पूरा राजस्थान, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा उत्तर पूर्व राज्यों के भागों में उच्च वृद्धि दर दर्ज की जा रही है।

इसके दूसरी ओर गोदावरी नदी घाटी, छत्तीसगढ़ का मैदान, छोटानागपुर का पठार, पश्चिम बंगाल का पश्चिमी भाग, तथा उड़ीसा में निम्न वृद्धि-दर अंकित की जाती है। काफ़ी निम्न वृद्धि दर पंजाब, उत्तराखण्ड तथा दक्कन के पठार के दक्षिणी भाग में पाई जाती है।

सारिणी 26.1 को देखिये, आप पायेंगे कि हमारा देश (आज की राजनैतिक सीमाओं के ही अंतर्गत) की कुल आबादी सन 1901 में मात्र 23.84 करोड़ थी। सन 2001 के जनगणना के अनुसार यह संख्या 102.70 करोड़ हो गई है। यानी पिछले एक सौ वर्ष में यह वृद्धि 78.86 करोड़ की हुई है। यह वृद्धि सन 1901 से अब तक 4.3 गुणा की है। अगर पिछले सौ वर्षों की जनसंख्या वृद्धि को देखें तो इसे सामान्यतः चार निम्नलिखित वर्गों में रखा जा सकता हैः-

(i) गतिहीन वृद्धि दर का काल (सन 1921 से पहले)
(ii) नियमित वृद्धि दर का काल (सन 1921 से सन 1951 तक)
(iii) तीव्र वृद्धि दर का काल (सन 1951 से सन 1981 तक)
(iv) घटती हुई वृद्धि दर का काल (सन 1981 के बाद)

आइए प्रत्येक काल के बारे में संक्षिप्त विवेचन करते हैं-

(i) सन 1921 से पहले जनसंख्या में वृद्धि यंत्र-तंत्र, अनियमित तथा मंद थी। इसका मुख्य कारण उच्च जन्मदर एवं उच्च मृत्यु दर था। अतः प्राकृतिक वृद्धि नगण्य थी। सन 1911-21 के बीच मूल वृद्धि में थोड़ी कमी हुई। इसका मुख्य कारण अकाल, भुखमरी, महामारी इत्यादि का घटित होना था। सन 1921 के बाद जनसंख्या बढ़ती रही है। इसी कारण सन 1921 को भारत के जनसंख्या अध्ययन में जनसांख्यिकी विभाजक के रूप में जाना जाता है।

(ii) सन 1921 से सन 1951 तक जनसंख्या में नियमित वृद्धि होती रही। इसका मुख्य कारण मृत्यु दर में नियमित ह्रास था। मृत्युदर में ह्रास का कारण स्वच्छता तथा चिकित्सा में सुधार था। अन्य कारक सड़क सुविधा का विकास है जिससे आपातकालीन स्थिति में देश के एक भाग से दूसरे भाग में खाद्यान्न को पहुँचाने में मदद मिली जिससे अकाल मृत्यु को रोका जा सका। इसके साथ ही कृषि अर्थव्यवस्था में भी काफ़ी सुधार इसके लिये जिम्मेदार हैं। अतः इस काल में जनसंख्या वृद्धि मृत्यु रोधक वृद्धि के नाम से जाना जाता है।

(iii) जहाँ तक भारत में जनसंख्या वृद्धि का सम्बन्ध है, सन 1951 से सन 1981 के बीच का काल बहुत ही संकटकालीन अवस्था का है। इस तीस वर्ष के काल में भारत की जनसंख्या दोगुनी हो गई। इस काल में तीव्र गति से मृत्युदर में ह्रास हुआ जबकि जन्मदर में नाम मात्र का ह्रास रहा। सारिणी संख्या 26.2 से स्पष्ट है कि सन 1951 से 1981 के बीच जन्म दर में कमी 41.7 प्रति हजार से 37.2 प्रति हजार ही है जबकि मृत्युदर में यह कमी 28.8 प्रति हजार से 15.0 प्रति हजार तक पहुँच गयी। अतः जन्मदर एवं मृत्युदर में काफ़ी बड़ा अंतर रहा जिसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक वृद्धिदर काफ़ी ऊँची रही। इसका मुख्य कारण विकासात्मक गतिविधि में तेजी, चिकित्सा सुविधाओं में और अधिक सुधार, लोगों के जीवन-निर्वाह की दशा में उन्नति इत्यादि रहा। जनसंख्या वृद्धि का यह काल उत्पादकता रोधक वृद्धि से संबोधित किया जाता है।

(iv) अंत के दो दशकों यानी सन 1981 से सन 2001 तक में जनसंख्या वृद्धि की दर में धीरे-धीरे कमी आना प्रारम्भ हुआ। इसने भारत के जनसांख्यिकी इतिहास में एक नये दौर के प्रारंभ का संकेत दिया। इस काल में जन्मदर में तेजी से कमी आयी। यह कमी 1971-81 के 37.2 प्रति हजार से 1991-2001 में 24.8 प्रति हजार तक अंकित की गयी। दूसरी तरफ़ मृत्युदर में कमी घटती दर में अंकित की गयी। इसी अवधि में मृत्यु दर 15.0 प्रति हजार से घटकर 8.9 प्रति हजार हो गयी। प्राकृतिक वृद्धि में यह घटती हुई प्रवृत्ति एक धनात्मक दिशा की ओर संकेत करती है। सरकार द्वारा चलाये जा रहे परिवार कल्याण कार्यक्रमों और लोगों की जागरूकता को इसका श्रेय जाता है।

 

संबंधित लेख:- बढ़ती जनसंख्या, घटते संसाधन 

 

 

 

सारिणी 26.2 वार्षिक जन्मदर, मृत्युदर तथा प्राकृतिक जनसंख्या वृद्धि दर

(भारत जनगणना 1901 से 2001 तक)

दशक

जन्म दर प्रति हजार पर

मृत्यु दर प्रति हजार पर

प्राकृतिक वृद्धि दर प्रति हजार पर

प्राकृतिक वृद्धि दर प्रतिशत में

1901-11

49.2

42.6

6.6

0.66

1911-21

48.1

47.2

0.9

0.09

1921-31

46.4

36.3

10.1

1.01

1931-41

45.2

31.2

14.0

1.40

1941-51

39.9

27.4

12.5

1.25

1951-61

41.7

22.8

18.9

1.89

1961-71

41.2

19.0

22.2

2.22

1971-81

37.2

15.0

22.2

2.22

1981-91

32.7

11.7

21.0

2.10

1991-2001

24.8

8.9

15.9

1.59

 

- जनसंख्या की वृद्धि दर जन्म दर, मृत्यु दर तथा प्रवास कारकों के कार्यात्मक परिणाम है। जन्मदर तथा मृत्यु दर के अन्तर को जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि कहते हैं।

- भारत की जनसंख्या सन 1921 से लगातार तेज-गति से बढ़ती रही है। इसका सबसे प्रमुख कारण मृत्यु दर का तेजी से घटना है।

26.7 राज्यस्तर पर जनसंख्या वृद्धि के प्रतिरूप
भारत के सभी प्रांतों में जनसंख्या की वास्तविक वृद्धि दर एक समान नहीं है। देश के कुछ भागों में वृद्धि दर अन्य भागों के मुकाबले ज्यादा है। 1991-2001 के दशक में पूरे देश की औसत वृद्धि दर 21.39 प्रतिशत थी। यदि अन्तर-राज्य स्तर पर वृद्धि दरों के अन्तर पर ध्यान दें तो पता चलता है कि केरल में सबसे कम वृद्धि दर 9.42 प्रतिशत है जबकि नागालैण्ड में सर्वाधिक वृद्धि दर 64.41 प्रतिशत। राज्य स्तर के प्रतिरूपों पर सरसरी तौर पर ध्यान देते हैं तो उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत के राज्यों की जनसंख्या वृद्धि के बीच एक विभाजक की मौजूदगी साफ़ दिखाई देती है। पूरे उत्तर भारत एवं पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में अधिक वृद्धि दर दर्ज हुई है जबकि समस्त दक्षिण भारत के राज्यों में यह वृद्धि दर कम दर्ज हुई है। इसका प्रमुख कारण सामाजिक व आर्थिक विकास में बहुत अन्तर होना है। दक्षिण भारत के राज्यों में शिक्षा एवं साक्षरता का स्तर, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की व्यापक सुविधा, अधिक शहरी जनसंख्या, सुधरी एवं सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के कारण जनमानस जागृत एवं ज्यादा समझदार हैं।

भारत जनसंख्या वृद्धिपाठगत प्रश्न 26.2
1. सबसे उपयुक्त उत्तर पर (√) का निशान लगाइये-
(क) भारत में जनसंख्या की उच्च वृद्धि दर का सबसे प्रमुख कारण हैः
(i) तेजी से बढ़ती हुई जन्म दर (ii) तेजी से घटती मृत्यु दर
(iii) बाहर से लोगों का अधिक अप्रवास (iv) बहुत ऊँची जन्मदर तथा मृत्यु दर
(ख) भारत में जनसंख्या वृद्धि दर लगातार बढ़ रही है -
(i) 1901 से (ii) 1921 से (iii) 1951 से (iv) 1981 से
2. उस राज्य का नाम लिखिये जहाँ जनसंख्या की वृद्धिदर सबसे अधिक है।
3. उस राज्य का नाम लिखिये जिसकी जनसंख्या वृद्धि दर सबसे कम है।

 

संबंधित लेख:- अन्न जल सुरक्षा के ​लिए चुनौती है बढ़ती जनसंख्या

 


26.8 प्रवास
पहले ही हमने चर्चा की है कि जनसंख्या की वृद्धि दर जन्मदर, मृत्युदर तथा प्रवासियों की संख्या पर निर्भर करती है। व्यक्तियों के एक स्थान से दूसरे स्थान में जाकर बसने की क्रिया को प्रवास कहते हैं। इसके कई प्रकार हो सकते हैं। किसी दूसरे स्थान में आकर बसावट की प्रकृति के आधार पर इस प्रवास को (i) स्थाई अथवा (ii) अस्थाई कह सकते हैं। स्थाई प्रवास में आए हुए व्यक्ति बसावट करने के बाद वापस अपने मूल स्थान नहीं जाते हैं। इसका सबसे सुन्दर एवं सरल उदाहरण ग्रामीण जनसंख्या का अपने-अपने गाँवों से रोजगार की तलाश में पलायन करके शहरों में आकर स्थाई रूप से बसना। अस्थाई प्रवास के अन्तर्गत वे लोग आते हैं जो कुछ समय रोजगार धंधा इत्यादि करके अपने मूल निवास स्थान को लौट जाते हैं।

उदाहरण के लिये मौसमी प्रवास को लिया जा सकता है। फसल कटाई के समय बिहार के खेतिहर मजदूरों का पंजाब एवं हरियाणा प्रदेश में आकर रहना अस्थाई प्रवास है क्योंकि ये सब फिर से अपने-अपने गाँवों को वापस लौट जाते हैं। बड़े-बड़े शहरों जैसे कोलकाता, चेन्नई, मुम्बई तथा अन्य बड़े शहरी क्षेत्रों में लोग सुबह आकर काम काज करके सायंकाल में वापस अपने घर चले जाते हैं। इस प्रकार के जनसंख्या के आवागमन को दैनिक प्रवास कहा जाता है।

पर्वतीय क्षेत्रों में सामान्यतः लोग ग्रीष्मकाल में अपने पशुओं के साथ घाटी इलाके से चलकर ऊँची पहाड़ियों पर पहुँच जाते हैं। जैसे ही शीत ऋतु का आगमन होता है, ये लोग अपने मवेशियों के साथ उतरकर पुनः अपने घाटी के इलाके में लौट आते हैं। इन लोगों का मूल स्थायी आवास घाटी में होता है तथा पर्वतीय ढलानों पर पशुओं को चराने के लिये चले जाते हैं। जब सर्दी में उच्च पर्वतीय ढाल ठंडे होने लगते हैं, वे लोग निम्न भागों की ओर घाटी में लौट आते हैं। आमतौर पर वार्षिक आवागमन के रास्ते तथा चारागाह भी वस्तुतः तय एवं निश्चित होते हैं। इस प्रकार, ऊँचाई के अनुसार प्रवास को ऋतु प्रवास कहते हैं। हिमाचल प्रदेश की गद्दी जनजाति तथा जम्मू-कश्मीर राज्य की बकरवाल जनजाति प्रतिवर्ष ऐसा प्रवास करते हैं।

प्रवासी लोगों के मूलस्थान तथा निर्दिष्ट स्थान के आधार पर प्रवास को चार भागों में बाँटा जा सकता है-

(क) ग्रामीण क्षेत्र से ग्रामीण क्षेत्र में
(ख) ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय क्षेत्र में
(ग) नगरीय क्षेत्र से नगरीय क्षेत्र में
(घ) नगरीय क्षेत्र से ग्रामीण क्षेत्र में

- लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बसने को प्रवास कहा जाता है।
- प्रवास स्थाई, अस्थाई और दैनिक हो सकता है।
- मौसम की अनुकूलता के अनुसार लोगों का अस्थाई रूप से दो निर्दिष्ट स्थानों के बीच अपने सामान एवं पशुओं के साथ एक निश्चित मार्ग से होकर आवागमन करना ऋतु प्रवास कहलाता है।

26.9 भारत में प्रवास की प्रवृत्तियाँ
हमारे देश के एक अरब 2 करोड़ लोगों में से करीब 30 प्रतिशत यानी 30 करोड़ 70 लाख लोगों के नाम प्रवासी (जन्मस्थान के आधार पर) के रूप में दर्ज हैं। जनगणना के समय लोगों की गिनती उनके जन्मस्थान के अतिरिक्त अन्य जगहों पर होती है तो उन्हें प्रवासी की श्रेणी में रखा जाता है। सन 2001 की जनगणना में 30 प्रतिशत का आंकड़ा (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर), 1991 की जनगणना के 27.4 प्रतिशत से अधिक है। वास्तव में पिछले कई दशकों से इन प्रवासी लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।

यदि 1961 तथा 2001 की जनगणना की तुलना करें तो प्रवासी लोग 1961 में 14 करोड़ 40 लाख थे जबकि 2001 में इनकी संख्या 30 करोड़ 70 लाख हो गई है। पिछले दशक में अर्थात 1991-2001 के बीच इन प्रवासी लोगों की संख्या में (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) वृद्धि 32.9 प्रतिशत हुई है। इन प्रवासियों की जनसंख्या, उनके लिंगभेद, प्रवास का स्रोत एवं गंतव्य स्थान की जानकारी सारिणी 26.3 में दी गई है।

 

सारिणी 26.3 कुल प्रवासियों की संख्या- 2001

प्रवासी के प्रकार

जनसंख्या

कुल प्रवासी

30 करोड़ 71 लाख

पुरूष

9 करोड़ 4 लाख

स्त्री

21 करोड़ 67 लाख

- अन्तः जिला प्रवास

18 करोड़ 17 लाख

- अन्तर जिला प्रवास

07 करोड़ 68 लाख

- अन्तर राज्य प्रवास

04 करोड़ 23 लाख

- विदेशों से प्रवास

61 लाख

 

 

संबंधित लेख:- बाढ़ आपदा क्या है, बाढ़ आने के कारण और उपाय ( What is a flood disaster, causes of floods and measures to prevent floods)

 

यदि हम इन प्रवासियों के आगमन के प्रतिरूप पर ध्यान दें तो यह पाया गया कि महाराष्ट्र में सबसे अधिक अप्रवासियों की संख्या (79 लाख), इसके बाद दिल्ली (56 लाख) फिर पश्चिम बंगाल (55 लाख), है। दूसरी तरफ़ उत्प्रवासी लोगों के आधार पर उत्तर प्रदेश, बिहार एवं राजस्थान का स्थान है। परन्तु यदि अप्रवासी एवं उत्प्रवासी लोगों की संख्या के अन्तर को देखें तो महाराष्ट्र सर्वोपरि (23 लाख), दिल्ली (17 लाख), गुजरात (6.8 लाख) तथा हरियाणा (6.7 लाख) में प्रवासी हैं।

आइये, अब इन प्रवासियों की रूपरेखा को कुछ विस्तार से जानें। प्रवासियों की गणना उनकी उम्र तथा उस स्थान पर रहने की अवधि से की जाती है। जनगणना में पहले वाले को जन्म स्थान के आधार पर तथा दूसरे वाले को पिछले निवास के स्थान के आधार पर प्रवासी करार दिया जाता है। अतः पहला उत्प्रवासी तथा दूसरा अप्रवासी होता है।

(क) आयु-वर्ग के अनुसार प्रवासी - आयु-वर्ग के प्रवासी को समझाने के लिये अन्तरराज्यीय प्रवास तथा अन्तःराज्यीय प्रवास का उदाहरण लेते है। कुल 25 करोड़ 80 लाख अन्तःराज्यीय प्रवासियों में से 17.4 प्रतिशत, 15-24 वर्ष आयु वर्ग के हैं, 23.2 प्रतिशत लोगों का आयु वर्ग 25-34 वर्ष का है तथा 35.6 प्रतिशत प्रवासी लोग 35-59 वर्ष आयु वर्ग के हैं। इसी प्रकार अन्तरराज्यीय प्रवासियों में से 4 करोड़ 20 लाख (18.5 प्रतिशत) लोग 15-24 वर्ष के आयु वर्ग के, 24.7 प्रतिशत लोग 25-34 वर्ष की आयु वर्ग तथा 36.1 प्रतिशत लोग 35-59 वर्ष के आयु वर्ग वाले हैं। दोनों वर्गों के प्रवासी यानी अन्तरराज्यीय एवं अन्तःराज्यीय प्रवासी में 36 प्रतिशत आर्थिक कार्य में लिप्त तथा अधिक आयु वर्ग के हैं। इन दोनों श्रेणियों के प्रवासियों पर विस्तारपूर्वक चर्चा अगले अनुच्छेदों में की जायेगी।

(ख) पिछले निवास स्थान के आधार पर प्रवासी - इस प्रकार के आंकड़े का संकलन क्षेत्र में प्रवासियों की जनसंख्या को समझने के लिये किया जाता है। यह संभव है कि कोई व्यक्ति जन्म स्थान से निकल अन्यत्र प्रवास कर सकता है और बाद में उसके प्रवास के स्थान बदल सकते हैं। जन्मस्थान के आधार पर प्रवास की प्रक्रिया का अध्ययन एक कालीय घटना के अध्ययन समान है। परन्तु प्रवास के पूर्व निवास स्थान की जानकारी प्राप्त करने से पिछले कई वर्षों के अन्तराल में किये गए प्रवासों की भी जानकारी उपलब्ध हो जाती है। सन 2001 की जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार पिछले निवास स्थान के अनुसार भारत में प्रवासियों की संख्या 31 करोड़ 40 लाख है।

यदि इनके प्रवास के दौरान बिताए वर्षों पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट है कि इन 31 करोड़ 40 लाख लोगों में से एक वृहद समुदाय (10 करोड़ 10 लाख) 20 वर्ष पहले से ही प्रवास कर रहे हैं। करीब 9 करोड़ 83 लाख लोग पिछले दशक में अर्थात 0-9 वर्ष के अन्तराल में प्रवासित हुए हैं। अतः पिछले दशक में हुए प्रवासन को दो वर्गों में बाँट कर विश्लेषण करेंगे (i) अन्तः राज्यीय प्रवास तथा (ii) अन्तरराज्यीय प्रवास।

(i) अन्तः राज्यीय प्रवास - प्रवासियों की बहुत बड़ी संख्या इसी श्रेणी के अन्तर्गत आती है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार 8 करोड़ 7 लाख प्रवासी लोग अन्तः राज्यीय श्रेणी में आते हैं। राज्य के अन्तर्गत एक गाँव से दूसरे गाँव में प्रवासित लोगों का हिस्सा 60.5 प्रतिशत हैं। जबकि केवल 12.3 प्रतिशत लोग ही शहर से शहर में प्रवासित हुए हैं। शेष 17.6 प्रतिशत प्रवासित लोग शहर में गाँवों से आकर बस गए तथा 6.5 प्रतिशत शहर छोड़ कर गाँव में बसे। बचे 3.1 प्रतिशत ऐसे प्रवासी हैं जो किसी श्रेणी में सम्मिलित नहीं होते हैं क्योंकि ये लोग जनगणना के समय उचित जानकारी उपलब्ध नहीं करा पाए।

इन अन्तःराज्यीय प्रवासियों में 70 प्रतिशत संख्या स्त्रियों की है। इतना ऊँचा प्रतिशत मुख्यतः शादियों के फ़लस्वरूप हो सका है। स्त्रियों में 69 प्रतिशत गाँव से गाँव में प्रवासित श्रेणी में आती हैं। 13.6 प्रतिशत स्त्री प्रवासी गाँव छोड़कर शहर में प्रवासित हुईं। 9.7 प्रतिशत स्त्रियाँ एक शहर से दूसरे शहर में प्रवासित हुईं। केवल 5.6 प्रतिशत स्त्री प्रवासी शहर से गाँव में बसी। शेष 2.6 प्रतिशत प्रवासित स्त्री अवर्गीकृत श्रेणी में है।

पुरूष प्रवासियों में 41.6 प्रतिशत लोग गाँव से गाँव में आकर बसने वाले हैं। 18.3 प्रतिशत पुरूष प्रवासी एक शहर से दूसरे शहर में आने वाले हैं तथा 27.1 प्रतिशत संख्या उन पुरूषों की है जो गाँव छोड़कर शहर में बस गए। 8.6 प्रतिशत पुरूष शहर छोड़कर गाँव में बसने वाले हैं। जनसंख्या के प्रवास में सबसे बड़ी संख्या उन लोगों की है जो रोज़गार की तलाश में एक गाँव से दूसरे गाँव में आकर बस जाते हैं।

(ii) अन्तरराज्यीय प्रवास - भारत में ऐसा प्रवास अन्तःराज्यीय प्रवास की तुलना में सीमित प्रतिशत में होता है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार एक करोड़ 70 लाख लोग इस प्रवास की श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। इन प्रवासियों में 26.6 प्रतिशत, एक राज्य के गाँव से दूसरे राज्य के गाँव में आकर बसने वालों का है। इसी प्रकार 26.7 प्रतिशत उन लोगों का है जो एक शहर से दूसरे शहर में जाकर बस गए। 37.9 प्रतिशत उन लोगों का है जो गाँव से आकर शहर में बस जाते हैं। केवल 6.3 प्रतिशत लोग शहर छोड़कर गाँव में बसे हैं 2.6 प्रतिशत प्रवासी किसी भी श्रेणी में वर्गीकृत नहीं होते हैं।

अन्तरराज्यीय प्रवासियों में करीब आधे लोग पुरूष वर्ग के हैं और इन पुरूष वर्गों के बीच 26.6 प्रतिशत गाँव से गाँव में प्रवास करते हैं। करीब 26.7 प्रतिशत लोग शहर से शहर में प्रवास करते हैं। 37.9 प्रतिशत प्रवासी पुरूष गाँव से आकर शहर में बसते हैं। 6.3 प्रतिशत पुरूष शहर छोड़कर गाँव में प्रवास करते है।

26.10 प्रवास के कारण
प्रवास अनेकों कारकों के मिले-जुले एवं पारस्परिक क्रियाओं का प्रतिफ़ल होता है। सामान्य रूप से प्रवास को प्रभावित करने वाले कारकों को दो समूहों में बाँट सकते हैं- (i) अपकर्ष तथा (ii) प्रतिकर्ष कारक। मूल स्थान पर निवास करने वाले व्यक्तियों को प्रतिकर्ष कारक वहाँ से प्रवास करने के लिये मजबूर करता है, जबकि अपकर्ष कारक किसी भी क्षेत्र विशेष में व्यक्तियों को आकर्षित करता है। जब तक दोनों समूहों के कारक एक साथ क्रियाशील होकर प्रभावित नहीं करेंगे तब तक जनसंख्या में प्रवास करने की न तो मजबूरी रहेगी और न ही आकर्षण। दोनों समूहों को प्रभावित करने वाले कारक आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक घटकों को शामिल करते हैं। इनकी संक्षिप्त विवेचना नीचे दी जा रही है।

- प्रवास अनेकों कारकों के मिले-जुले एवं पारस्परिक क्रियाओं का प्रतिफ़ल है। इन्हें दो, अपकर्ष तथा प्रतिकर्ष वर्गों में रखा जा सकता है।

- अपकर्ष तथा प्रतिकर्ष दोनों समूहों के कारक आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक हो सकते हैं।

(क) आर्थिक कारक - सामान्यतः लोगों की प्रवृत्ति उसी स्थान में निवास करने की होती हैं जहाँ उन्हें आजीविका प्राप्ति के अवसर होते हैं। इसलिये उस क्षेत्र से जहाँ की मृदा अनुपजाऊ, आवागमन के साधान कम विकसित, निम्न औद्योगिक विकास एवं रोजगार की कम संभावनाएँ हों वहाँ से लोग पलायन कर जाते हैं। ये कारक प्रवास के लिये प्रतिकर्षित करते हैं। दूसरी तरफ़ वे क्षेत्र जहाँ पर रोजगार की गुंजाइश हो तथा जीवनस्तर भी अपेक्षाकृत ऊँचा हो, लोगों को उत्प्रवास के लिये आकर्षित करता है। अतः इन कारकों को आकर्षणकारी समूह कहते हैं। इस प्रकार वे सभी क्षेत्र जहाँ की मृदा उपजाऊ, खनिज संसाधन की उपलबधता, आवागमन के सुविकसित साधन, संचार माध्यम का विकास, कारखानों एवं औद्योगिक इकाइयों का सुव्यवस्थित विकास एवं शहरीकरण हों, लोगों को बसने के लिये आकर्षित करते हैं।

आप ने शायद ध्यान दिया होगा कि काफ़ी बड़ी संख्या में लोग दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता एवं चेन्नई जैसे महानगरों में आस-पास के क्षेत्रों से तथा दूर-दराज के भागों से पहुँचते हैं। बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ से लोग काफ़ी बड़ी संख्या में इन शहरों में पिछले अनेकों वर्षों से प्रवास कर रहे हैं। इन राज्यों में संभावनाएं सामान्यतः कम हैं। इन सभी लोगों को प्रवास के लिये उत्प्रेरित करने वाली प्रमुख प्रेरणा आर्थिक लाभ प्राप्त करना है। कुछ लोग शहर में मौजूद आमोद-प्रमोद के साधारण, जीवन की सुख-सुविधाएँ तथा अन्य शहरी चकाचौंध से प्रभावित एवं आकर्षित होकर प्रवासी बन जाते हैं।

- प्रवास को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारक – उपजाऊ मृदा, खनिज संसाधनों की उपलब्धता, यातायात एवं संचार के उन्नत साधन, उच्चस्तरीय नगरीकरण एवं औद्योगिक विकास तथा रोजगार की संभावनाएँ हैं।

- प्रवास को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारक (प्रतिकर्ष कारक) अनुपजाऊ मृदा, यातायात एवं संचार साधनों की कमी, बहुत ही कम स्तर का औद्योगिक विकास एवं शहरीकरण तथा रोजगार व धंधे का अभाव है।

(ख) सामाजिक-राजनैतिक कारक - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः वह चाहता है कि वह अपने निकटतम सम्बन्धियों के साथ रहे। साधारणतः एक ही धर्म, भाषा तथा समान सामाजिक रीति-रिवाज़ों को मानने वाले लोग एक साथ रहना पसंद करते हैं। इसके ठीक विपरीत यदि कोई व्यक्ति ऐसे स्थान में रह रहा हो जहाँ लोगों का रहन-सहन, सामाजिक रीति-रिवाज अलग हो तो वह अन्यत्र प्रवास करना चाहेगा। बहुत से लोग धार्मिक महत्त्व के स्थानों पर जाना पसनद करते हैं भले ही वह अस्थाई रूप में ही हो जैसे बद्रीनाथ, तिरूपति, वाराणसी आदि। इन्हीं सब कारणों से प्रेरित होकर शहरों के विभिन्न भागों में खास समुदाय के लोगों का संकेन्द्रण हो जाता है। अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों का धार्मिक, सामाजिक दबाव में आकर एक खास स्थान पर प्रवास करना तभी होता है जब बहुसंख्यक समुदाय उनसे असहिष्णु हो जाते हैं।

(ग) जनांकिकीय कारक - जनांकिकी में उम्र की अहम भूमिका होती है। युवा व्यक्तियों में प्रवास ज्यादा मिलता है जबकि बच्चों एवं वृद्धों में कम। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि युवा व्यक्ति कार्य की तलाश या बेहतर संभावनाओं की खोज में अन्यत्र प्रवास करते हैं।

जनसंख्या प्रवास में राजनैतिक कारकों में से अधिकांश का सम्बन्ध सरकार की नीति से होता हैं। आधुनिक युग में ऐसे राजनैतिक कारक बहुत प्रभावशाली होते जा रहे हैं। इसके चलते प्रवास की गति, दिशा एवं स्तर प्रभावित हो रहा है। कई बार सरकारी नीतियाँ क्षेत्र के अल्पसंख्यकों को प्रवासित करने को बाध्य कर देती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश के भारत एवं पाकिस्तान के रूप में विभाजन के परिणामस्वरूप वृहद पैमाने पर दोनों देशों के बीच प्रवास हुआ।

- लोग अपने धर्म अथवा रीति-रिवाज़ों को मानने वाले लोगों के साथ रहना पसनद करते हैं।
- बहुसंख्यक समुदाय के हाथों अल्पसंख्यक लोगों का दमन भी मजबूरी में प्रवास करने का महत्त्वपूर्ण कारक हो सकता है।

 

संबंधित लेख:-  हिमस्खलन आपदा और उससे बचाव के उपाय (Avalanche disaster and its prevention methods in Hindi)

 



26.11 जनसंख्या प्रवास के परिणाम
जनसंख्या प्रवास के कारणों की तरह ही परिणाम भी विविध होते हैं। प्रवास के परिणाम दोनों स्थानों में, अर्थात जहाँ से लोग निकलते हैं तथा जहाँ पर लोग उत्प्रवास कर बसते हैं, दिखाई पड़ते हैं। परिणामों को तीन प्रकार के वर्गों में रखा जा सकता है- आर्थिक, सामाजिक तथा जनसांख्यिकीय।

(क) आर्थिक परिणाम - प्रवास के आर्थिक परिणामों में से सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम, जनसंख्या तथा संसाधनों के बीच के अनुपात पर प्रभाव है। प्रवास के उद्गम स्थान में तथा प्रवास के बसावट, दोनों स्थानों पर इस अनुपात में बदलाव आता है। इनमें से एक स्थान तो कम जनसंख्या वाला हो जाता है तो दूसरा स्थान अधिक जनसंख्या वाला या फिर उचित या आदर्श जनसंख्या वाला। कम जनसंख्या के क्षेत्र में लोगों की संख्या तथा मौजूद संसाधन में असंतुलन होता है, नतीजतन संसाधन का उचित उपभोग एवं विकास दोनों अवरुद्ध होते हैं। ठीक इसके विपरीत अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र में लोगों की बहुलता होती है, फ़लस्वरूप संसाधनों पर दबाव बढ़ जाता है।

इस तरह लोगों का जीवनस्तर गिरने लगता है। यदि किसी देश की जनसंख्या इतनी हो कि प्रतिव्यक्ति संसाधनों का विकास एवं उपभोग बिना किसी अवरोध अथवा बाधा के उपलब्ध रहे तथा लोगों के जीवनस्तर में कोई विपरीत प्रभाव न पड़ता हो तो उतनी जनसंख्या को उक्त देश अथवा क्षेत्र के लिये आदर्श जनसंख्या कहा जाता है। यदि प्रवास की प्रक्रिया में लोग अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र से कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों में जा रहे हों तो यह अच्छा संकेत है क्योंकि इससे दोनों क्षेत्रों में जनसंख्या एवं संसाधनों के बीच अनुपात एवं संतुलन बना रहेगा। अन्यथा विपरीत परिस्थितियाँ दोनों क्षेत्रों के लिये हानिकारक हो सकती हैं।

प्रवास दोनों क्षेत्रों में विद्यमान जनसंख्या की व्यावसायिक संरचनाओं को प्रभावित करता है। जिस क्षेत्र से लोगों का उत्प्रवास होता है, उस क्षेत्र में आमतौर पर क्रियाशील लोगों का अभाव हो जाता है तथा जिन क्षेत्रों में उत्प्रवासी लोग जाकर बसते हैं वहाँ क्रियाशील व्यक्तियों की संख्या बढ़ जाती है। उत्प्रवासित क्षेत्र यानी जहाँ से लोग प्रवास के लिये बाहर निकल आए वहाँ कार्यशील व्यक्तियों की कमी होने से उन पर आश्रितों की संख्या बढ़ जाती है। आजकल प्रवास का सबसे गंभीर एवं दूरगामी परिणाम हमारे देश में देखा जा रहा है- उच्च-शिक्षा प्राप्त कर प्रतिभाशाली व्यक्तियों का अन्य देशों के लिये पलायन कर जाना।

इस प्रक्रिया को प्रतिभा-पलायन (ब्रेन-ड्रेन) कहते हैं। इस प्रक्रिया में गरीब एवं विकासशील देशों से प्रतिभा सम्पन्न युवक विभिन्न तकनीकी ज्ञान में निपुणता प्राप्त कर धनोपार्जन की लालसा में विकसित देशों में प्रवासी बन कर बस जाते हैं। भारत इसका बहुत सटीक उदाहरण है। यहाँ से इंजीनियर, चिकित्सक तथा अन्य तकनीकी एवं वैज्ञानिक विधाओं के कुशल एवं कार्यशील व्यक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, तथा कनाडा में प्रवासी रूप में बस गए हैं।

यद्यपि इस प्रकार के प्रवास का किसी भी क्षेत्र में विद्यमान संसाधन एवं जनसंख्या के अनुपात में कोई विशेष प्रभाव पड़ता नज़र नहीं आता क्योंकि उत्प्रवासी व्यक्तियों की संख्या बहुत कम होती है, फिर भी उद्गम क्षेत्रों में यानी जहाँ के लोग पलायन करते हैं वहाँ की जनसंख्या की गुणवत्ता पर कुप्रभाव पड़ता ही है। प्रतिभाशाली एवं कुशल वैज्ञानिक, इंजीनियर, चिकित्सकों के चले जाने से उद्गम स्थान के संसाधनों के विकास में काफ़ी बाधा एवं रुकावटें आती हैं।

(ख) सामाजिक परिणाम - प्रवास के कारण विभिन्न संस्कृतियों के साथ पारस्परिक क्रिया होती हैं। प्रवास क्षेत्रों में भिन्न संस्कृतियों वाले व्यक्तियों के आने से इन क्षेत्रों की संस्कृति अधिक समृद्ध हो जाती हैं। भारत की आधुनिक संस्कृति अनेक संस्कृतियों की पारस्परिक क्रिया के फ़लस्वरूप प्रस्फ़ुटित एवं पल्लवित हुई है। कभी-कभी विभिन्न संस्कृतियों का मिलन सांस्कृतिक संघर्ष को भी जन्म देता है।

बहुत से प्रवासी (विशेष कर पुरूष वर्ग) जो शहरों में अकेले रहते हैं, उन लोगों को विवाहेत्तर एवं असुरक्षित यौन सम्बन्धों में लिप्त पाया जाता है। इनमें से कुछ लोग एच.आई.वी. जैसी संक्रामक बीमारियों से ग्रसित पाए गए। इतना ही नहीं अस्थाई प्रवास के पश्चात जब ये अपने स्थाई निवास क्षेत्रों में वापस जाते हैं तो वहाँ भी इन संक्रामक बीमारियों के फ़ैलाने के साधन बन जाते हैं। इस तरह इनकी पत्नी एवं होने वाले बच्चे भी इस बिमारी का शिकार बन जाते हैं। ऐसा क्यों होता है?

- सही जानकारी की कमी के कारण,
- असुरक्षित यौन सम्बन्धों के कारण,
- यौन सम्बन्धों की जिज्ञासा,
- नशीली दवाओं का सेवन एवं मदिरापन,

- प्रवास क्षेत्रों में सांस्कृतिक समृद्धि को बढ़ावा मिलता है। यद्यपि कई बार सांस्कृतिक मनमुटाव अथवा संघर्ष भी उत्पन्न हो जाते हैं।
- प्रवास के कारण उत्प्रवासित क्षेत्र एवं अप्रवासित क्षेत्र दोनों जगहों में संसाधन एवं जनसंख्या के अनुपात में परिवर्तन आ जाता है।
- प्रतिभा-पलायन भी एक गंभीर दुष्परिणाम है जो प्रवास की प्रक्रिया के कारण आ जाता है।

(ग) जनांकिकीय परिणाम - प्रवास के कारण दोनों स्थानों की जनसंख्या में गुणात्मक परिवर्तन आता है, खासकर जनसंख्या के आयुवर्ग तथा लैंगिक वर्ग के अनुपात में। इस कारण जनसंख्या की वृद्धि दर भी प्रभावित होती है। आमतौर पर जहाँ से युवा वर्ग उत्प्रवासित होकर अन्यत्र चले जाते हैं वृद्धों, बच्चों एवं महिलाओं की संख्या बढ़ती है। दूसरा स्थान, जहाँ पर युवा वर्ग के प्रवासी आकर बस जाते हैं वहाँ की जनसंख्या की संरचना में वृद्धों, बच्चों की एवं महिलाओं की संख्या अपेक्षाकृत कम हो जाती है। यही कारण है कि जहाँ से युवा वर्ग बाहर निकला है वहाँ लिंगानुपात ज्यादा होता है तथा जहाँ आकर युवा वर्ग प्रवासित होता है वहाँ लिंगानुपात कम हो जाता है। इसका कारण युवा पुरूषों का ज्यादा प्रवास होना है।

इस प्रकार दोनों स्थानों की जनसंख्या में बदलाव तो होता ही है जनसंख्या की संरचना में भी परिवर्तन हो जाता है। इसके कारण दोनों ही क्षेत्रों में जन्मदर, मृत्युदर एवं इसके परिणामस्वरूप वृद्धि दर में परिवर्तन होता है। जिस क्षेत्र से युवा वर्ग प्रवास में बाहर चले जाते हैं वहाँ की जन्मदर घट जाता है, अतः जनसंख्या में वृद्धि दर का कम पाया जाना स्वाभाविक परिणाम है। ठीक इसका उल्टा प्रभाव एवं परिणाम उस क्षेत्र की जनसंख्या में जन्मदर एवं वृद्धि दर पर पड़ता है जहाँ पर अधिक युवा प्रवासी आकर बस जाते हैं।

- बच्चों, महिलाओं एवं वृद्धों का अनुपात उस क्षेत्र में बढ़ता हैं जहाँ से युवा वर्ग बाहर चले जाते हैं तथा यही अनुपात घट जाता है जहाँ प्रवासित युवा वर्ग बसते हैं। इन्हीं कारकों से दोनों स्थानों की जनसंख्या की आयु संरचना, स्त्री-पुरूष का अनुपात, जनसंख्या वृद्धि की दर में परिवर्तन होता है।

पाठगत प्रश्न 26.3
1. रिक्त स्थानों की पूर्ति कोष्ठक में दिए उपयुक्त शब्द चुनकर कीजिए-
(क) लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने को _ _ _ _ _ _ कहते हैं। (प्रवास/ऋतु प्रवास)
(ख) लोगों का प्रतिदिन आस-पास के क्षेत्रों से शहरों में आना-जाना _ _ _ _ _ _ कहलाता है। (दैनिक प्रवास/ऋतु प्रवास)
(ग) अपने पशुओं के साथ लोगों का मौसम के अनुसार किन्हीं निश्चित मार्गों से प्रवास को _ _ _ _ _ _ _ _ कहते हैं। (दैनिक प्रवास/ऋतु प्रवास)
(घ) प्रवास के कारण उन स्थानों में जहाँ से युवा वर्ग का उत्प्रवास होता है वहाँ की जनसंख्या में युवा व्यक्तियों के अनुपात के _ _ _ _ _ _ _ _ की संभावना होती है। (बढ़ने/घटने)
(ड) अप्रवास के क्षेत्रों में कार्यशील जनसंख्या के अनुपात के _ _ _ _ _ _ की संभावना होती है।(बढ़ने/घटने)
(च) विकासशील देशों जैसे भारत से तकनीकी कुशल लोगों का विकसित देश में प्रवास को _ _ _ _ _ _ _कहते हैं। (उत्प्रवास/प्रतिभा-पलायन)
(छ) प्रवासी लोगों में बहुसंख्यक _ _ _ _ _ _होते हैं। (स्त्री/पुरूष)

आपने क्या सीखा
मानव संसाधन किसी भी क्षेत्र की प्रमुख परिसम्पत्ति है। मानव संसाधन की संख्या की अपेक्षा गुणवत्ता अधिक महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि इन पर देश का आर्थिक विकास निर्भर करता है।

संसार में चीन के बाद भारत दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। जनसंख्या के वितरण का अध्ययन उसके घनत्व से किया जाता है। भारत में जनसंख्या का घनत्व सर्वत्र समान नहीं है। जनसंख्या के घनत्व के आधार पर भारत को तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। अधिक घनत्व, मध्यम घनत्व, तथा निम्न घनत्व। उन सभी कारकों को जो जनसंख्या के घनत्व एवं वितरण को प्रभावित करते हैं, दो प्रमुख वर्गों में बाँटा जाता है- भौतिक कारक, सामाजिक-आर्थिक कारक।

सन 1921 से क्रमशः भारत की जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती रही है क्योंकि जनसंख्या की वृद्धि दर में भी बढ़ोत्तरी होती रही है। जनसंख्या वृद्धि दर का निर्धारण- जन्मदर, मृत्युदर तथा प्रवासी लोगों की संख्या से होता है। जनसंख्या घनत्व तथा उसके वितरण में असमानता के समान ही वृद्धि दर भी सम्पूर्ण देश में असमान है।

जनसंख्या प्रवास जनसंख्या वृद्धि दर को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक है। प्रवास को विभिन्न वर्गों में बाँटा जा सकता है। इस तरह प्रवास स्थायी या अस्थाई वर्ग में बँट सकता है। जहाँ से प्रवास होता है तथा जिस स्थान में अप्रवास होता है, उसके आधार पर प्रवासी जनसंख्या को गाँव से गाँव, ग्रामीण से शहरी, नगर से नगर, तथा नगर से ग्रामीण क्षेत्र में वर्गीकृत किया जाता है। प्रवास के इन चारों प्रकारों को दो बड़ी श्रेणियों अन्तःराज्यीय प्रवास तथा अन्तरराज्यीय प्रवास में वर्गीकृत किया जा सकता है।

लोग एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर आर्थिक, सामाजिक-राजनैतिक तथा जनांकिकीय कारणों के प्रभाव से प्रवास करते हैं। प्रवास के कारणों का अध्ययन प्रतिकर्ष या अपकर्ष कारकों के सनदर्भों में किया जा सकता है। प्रवास के परिणाम अनेकानेक हैं। उनका अध्ययन भी आर्थिक, सामाजिक एवं जनांकिकीय परिप्रेक्ष्य में ही किया जाता है। प्रवासी का विवाहेत्तर यौन सम्बन्ध तथा मादक दवाइयों के सेवन से अनेकों बीमारियों का शिकार होते हैं तथा जब ये अपने घर वापस जाते हैं तो इन बीमारियों के प्रसार का जरिया बनते हैं।

पाठान्त प्रश्न
1. भारत में जनसंख्या वितरण की संक्षिप्त चर्चा कीजिए। उच्च, मध्यम तथा निम्न जनसंख्या के घनत्व के कुछ क्षेत्रों के नाम बताइए।

2. भारत में जनसंख्या वृद्धि की प्रमुख प्रवृत्तियाँ क्या हैं? उचित उदाहरण देते हुए इसके लिये उत्तरदायी कारकों का वर्णन कीजिये।

3. जनसंख्या प्रवास से क्या तात्पर्य है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए प्रवास के विभिन्न प्रकारों को परिभाषित कीजिए।

4. प्रवास के प्रमुख कारणों तथा परिणामों का संक्षिप्त विवरण दीजिये।

पाठगत प्रश्नों के उत्तर
26.1
1. पश्चिम बंगाल, केरल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु एवं हरियाणा (कोई भी तीन)
2. दिल्ली, चण्डीगढ़, पॉण्डिचेरी, लक्षद्वीप एवं दमन व दिव (कोई भी तीन)
3. सिक्किम, मिजोरम, अरूणाचल प्रदेश
4. अण्डमान एवं निकोबार द्वीप
5. (क) उच्च (ख) निम्न

26.2
1. (क) (ii)
(ख) (ii)
2. नागालेंड
3. केरल

26.3
(क) प्रवास (ख) दैनिक या प्रति दिन (ग) ऋतु प्रवास
(घ) घटना (3) बढ़ना (च) प्रतिभा पलायन (छ) पुरूष

पाठान्त प्रश्नों के लिये संकेत
1. देश में जनसंख्या का वितरण बहुत ही असमान है। भारत को जनसंख्या के घनत्व के आधार पर तीन प्रमुख भागों में बांटा जा सकता है- अधिक घनत्व वाले, मध्यम घनत्व वाले तथा निम्न या कम घनत्व वाले। इन क्षेत्रों की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन जनसंख्या के घनत्व के संदर्भ में कीजिये। अधिक, मध्यम तथा निम्न घनत्व के क्षेत्रों के नाम लिखिये। (अधिक वर्णन के लिये अनुच्छेद 26.2 एवं 26.4 देखिए)

2. भारत की जनसंख्या की वृद्धि दर सन 1921 से क्रमशः बढ़ती रही है। इस तथ्य को उजागर कीजिये तथा इसके कारण को संक्षेप में प्रस्तुत करिए। (अधिक जानकारी के लिये अनुच्छेद 26.6 देखिए)

3. लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना प्रवास कहलाता है। प्रवास की अवधि के आधार पर यह अस्थाई, मौसमी और स्थाई हो सकता है। इस आधार पर कि प्रवास देश के अन्दर होता है या दो देशों या दो से अधिक देशों के बीच होता है, प्रवास को राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय कहा जाता है। (अधिक जानकारी के लिये अनुच्छेद 26.8 देखिए)

4. संक्षेप में प्रवास के कारणों तथा परिणामों की चर्चा कीजिए। (अधिक जानकारी के लिये अनुच्छेद 26.10 और 26.11 देखिये)

 

चिंतन के बिन्दु

एच.आई.वी. संक्रमण बचाव

एच.आई.वी. का अर्थ हैः

 

एच = मानव ए = एक्वायरड

आई = प्रतिरक्षा की कमी आई = इम्युनो

वी = वाइरस, रोगाणु डी = डेफिशिएन्सी

एस = सिन्ड्रोम

 

ऐसी बहुत सी सावधानियों को अमल में यदि लाया जाए तो आप अपने आप को एच.आई.वी. जैसे संक्रामक रोग से बचा सकते हैं -

 

- उन सत्य एवं तथ्यपूर्ण जानकारियों को समझिये कि आप कैसे बड़े होते हैं और एच.आई.वी./एड्स क्या है।

 

- आप अपने शक या भय के बिना इन उपरोक्त बातों पर बेझिझक बात करें। साथ ही समझने का प्रयास करें।

 

- अपने समकक्ष दोस्त या हम जोली के दबाव या बहकावे में आकर किसी प्रकार की असुरक्षित हरकतें न करें।

 

- मादक नशीली दवाएँ तथा मद्यपान करने से बचें, खासकर यौन सम्बन्ध बनाने की प्रक्रिया में। इससे आपका मस्तिष्क असंतुलित हो जाता है तथा आपकी निर्णयात्मक बुद्धि आपको गलत तथा असुरक्षित यौन सम्बन्धों में ढकेल सकती है।

 

- यौन सम्बन्ध बनाने से परहेज करें। जहाँ तक संभव हो इससे जितनी दूरी बना सके श्रेयस्कर है। इसकी जगह और भी विकल्प हैं, उन्हें अमल में ला सकते हैं, जैसे- आलिंगन, गले लगाना, चुम्बन, स्वप्नावलोक में विचरण इत्यादि।

 

- यदि आप यौन सम्बन्धों से परहेज़ नहीं कर सकते हैं तो कम से कम सुरक्षित उपायों का इस्तेमाल करें। यौन सम्बन्ध केवल एक विश्वसनीय तथा असंक्रमित साथी के ही साथ होना चाहिये।

 

- इस बात से आश्वस्त होना जरूरी है कि आप के साथी को किसी प्रकार का संक्रामक रोग जैसे एच.आई.वी. या कोई यौन संक्रामक बीमारी (STIs) तो नहीं है अन्यथा कॉन्डोम का हर बार प्रयोग करें।

 

- यदि आप सुई, सिरिंज या ऐसी ही किसी प्रकार की चीज का जो आपकी चमड़ी में छेद करें, प्रयोग करते हैं तो जरूरी है कि उन्हें पहले अच्छी तरह उबालकर रोगाणुमुक्त कर दिया जाये।

 

- रक्त चढ़ाने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि रक्त जाँचा हुआ है। ''एच.आई.वी. मुक्त'' प्रमाणित रक्त का ही प्रयोग करें।

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading