भरत की आंखों से

1 Mar 2011
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किनारे पर खड़े रहकर समुद्र की शोभा को निहारने में हृदय आनंद से भर जाता है। यह शोभा यदि किसी ऊंचे स्थान से निहारने को मिले तब तो पूछना ही क्या? जहाज के ऊपर के हिस्से या देवगढ़ जैसे टापू के सिर पर से समुद्र के किनारे पर होने वाला आक्रमण देखने में एक अनोखा ही आनंद आता है। मन में यह भाव उत्पन्न होते ही की हम समुद्र के राजा हैं और तरंगों की यह फौज हमारी ही ओर से सामने के भूमि-भाग को पादाकान्त कर रही है, हमारे हृदय में एक प्रकार का अभिमान स्फुरित होने लगता है। ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि समुद्र का हरा-हरा या काला-काला पानी मस्ती में आकर सफेद बालू के किनारे पर जोरों से आक्रमण करता है और आखिरी क्षण में ‘अजी, यह महज विनोद ही था’ कहकर हंस पड़ता है। तब उसके इस मिथ्या-भाषण पर हम भी खिलाखिला कर हंस पड़ते हैं।

समुद्र-किनारे रहने वालों को इस तरह के दृश्य कभी भी देखने को मिल जाते है। मगर समुद्र और बालु का-पट अखंड जलक्रिड़ा करते हों, उस दिशा में समकोण में ऊंचाई पर खड़े रहकर बालू का यह जल विहार और तरंगों का सिकता विहार निहारने का सौभाग्य यदि किसी दिन प्राप्त हो तो मनुष्य ‘अद्य में सफला यात्रा; धन्योंSहं अप्प्रसादतः।’ क्यों नहीं गायेगा?

सन् 1895 में मैंने जिस गोकर्ण की यात्रा की थी और जिस गोकर्ण के दर्शन मैंने श्री गंगाधर राव देशपांडे के साथ दस साल पहले किये थे, उसी गोकर्ण के पवित्र किनारे पर संगववेला में समुद्र के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होने से मैं आनंद-विभोर हो गया था। गोकर्ण का समुद्र-तट काफी विस्तृत और भव्य है। दाहिनी यानी उत्तर की ओर कारवार के पहाड़ और टापू धुंधले क्षितिज पर अस्पष्ट-से दिखाई देते हैं; बायीं यानी दक्षिण की ओर रामतीर्थ पहाड़ और उस पर खड़ा भरत का छोटा-सा मंदिर दिखाई देता है। और सामने अगाध अनंत सागर ‘अमर होकर आओ’ कहता हुआ अहोरात्र आमंत्रण देता है। इस तरह का हृदय को उन्मतक रनेवाला दृश्य एक बार देख लेने पर भला कभी भूला जा सकता है? रामतीर्थ की पहाड़ी पर जाकर वहां के झरने में स्नान करने का यदि संकल्प न किया होता, तो सागर के इस भव्य दृश्य में तैरते रहना ही मैंने पसंद किया होता। नारियल के बगीचों और खुरदरी शिलाओं को पार करके हम रामतीर्थ तक पहुंचे। वहां की धारा के नीचे बैठकर नहाने का सात्त्विक जीवनानंद या स्नानानंद आपाद-मस्तक लेकर रामेश्वर के दर्शन किये। शांडिल्य महाराज नामक एक साधु ने असंख्य लोगों में उत्साह प्रकट करके यहाँ के मंदिर का निर्माण मुफ्त में करवा लिया था। यह मंदिर समुद्र में घुसे हुए एक उन्नत पहाड़ पर स्थित है। मंदिर की ऊंचाई पर से बालू का पट और लहरों का पट जहां एक-दूसरे का आलिंगन करके क्रिड़ा करते हैं, उसका मीलों तक फैला हुआ सौंदर्य हम देख सके। नारियल के दो-एक वृक्षों ने इसी स्थान पर खड़े रहकर सागर-सिकता-मिलन के दृश्य का आनंद सेवन करने की बात तय की थी। अपनी डालियां हिलाकर उन्होंने हमसे कहाः ‘आइये, आइये! बस यही स्थान अच्छा है। यहां से सिकता-सागर के मिलन की रेखा नजर के सामने सीधी दीख पड़ती है।’

यहां से मैंने देखा कि पानी की तरंगों को सागर के गहरे पानी का सहारा था। लेकिन बालू के पट को सहारा कौन दे? कोई पहाड़ी नजदीक में नहीं थी, इसलिए नारियल और सरो जैसे पेड़ों ने यह जिम्मेदारी अपने सिर पर उठा ली थी। ये ऊंचे पेड़ और सागर का गहरा पानी-दोनों के हरे रंग में फर्क तो जरूर था; किन्तु उनके कार्य में कोई फर्क नहीं मालूम होता था। पेड़ अपने पांवों के नीचे की बालू को आशीर्वाद देते और समुद्र का गहरा पानी लहरों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देता। यह दृश्य देखकर भला कौन तृप्त होगा?

किसी दृश्य से मनुष्य तृत्पि अनुभव नहीं करता, इसलिए एक जगह खड़े रहकर उसी का पान करते रहना भी मनुष्य को पसन्द नहीं आता। मैंने देखा कि रामतीर्थ के झरने की ओर रामेश्वर के मंदिर की मानो रखवाली करने के लिए श्री रामचंद्र जी के प्रबंधक प्रतिनिधि भरत यहां की पहाड़ी की ऊपर खड़े हैं। उनके दर्शन तो करने ही चाहिये। और हो सके तो योग्य ऊंचाई पर जाकर उनकी दृष्टि से भी सागर को देखना चाहिये। बिना ऊंचे चढ़े विशाल दृष्टि कैसे प्राप्त हो? सीढ़ियों ने निमंत्रण दिया, इसलिए नाचता और कूदता या उड़ता हुआ मैं भरत के मंदिर तक पहुंच गया, मानों मुझे पंख लग गये हों। वहां छोटे शुभ्रकाय भरत जी सुंदर पीतांबर पहनकर समुद्र-दर्शन कर रहे थे।

मेरी दृष्टि से भरत की मूर्ति के आसपास मंदिर बनाना ही नहीं चाहिये था। उन्हें ताप, पवन और बरसात की तपश्चर्या ही करने देना चाहिए था। समुद्र पर से आने वाले शीतल पवन में सूर्य का ताप वे आसानी से सह लेते। और लोग यह कैसे भूल गये कि भरत आखिर सूर्यवंशी राजपुत्र थे? वायुपुत्र हनुमान का और सूर्यवंशी राघवों का स्मरण करते हुए हम वहां काफी देर तक खड़े रहे। हृदय में भक्तिभाव उमड़ रहा था और सामने समुद्र के पानी में ज्वार चढ़ रही थी।

उस दिन के उस भव्य और पावन दर्शन के लिए रामातीर्थ का और दिक्पाल भरत महाराज का मैं सदा आभारी रहूंगा।

मई, 1947

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