चुनावों में नदियों का मुद्दा नदारद है

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अपने अस्तित्व के लिए जूझती छोटी-बड़ी नदियां तमाम कोशिशों के बावजूद चुनावी मुद्दा नहीं बन सकी हैं। नदियों की निर्मलता और अविरलता का दावा करने वाले वे लोग भी नदारद हैं, जो समय-समय पर खुद को भगीरथ बताते हुए अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश करते हैं। नदियों की सुरक्षा के लिए उसकी जमीन को चिन्हित करने, रीवर-सीवर को अलग रखने, अविरल प्रवाह सुनिश्चित करने, अवैध उत्खनन और अतिक्रमण को लेकर किसी भी ठोस योजना का उल्लेख न करने पर कोई सवाल नहीं उठ रहे हैं। कुछ ही पार्टियों ने जीवनरेखा कही जाने वाली नदियों को अपने घोषणापत्रों में जिक्र करके कर्तव्य की इतिश्री की और कुछ ने इतना करने की जरूरत भी नहीं समझी है। कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े दलों ने भले ही अपने घोषणापत्रों में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने और नदियों को जोड़ने की बात कही है लेकिन किसी ने भी नदियों के पुनर्जीवन की कारगर रणनीति का विस्तार से उल्लेख करना जरूरी नहीं समझा है।

इन दोनों बड़ी पार्टियों के नेता भी नदियों के प्रदूषण पर चुनावी मंच से बोलना उचित नहीं समझ रहे हैं। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के सदस्य बी.डी. त्रिपाठी के मुताबिक, नदियों के प्रदूषण का मसला एक वोट बैंक में तब्दील नहीं हो सका है, इसलिए कोई बई राजनीतिक दल इसे प्रमुखता से अपने घोषणापत्र में जगह नहीं देना चाहता है। 1986 में बनारस के राजेंद्र प्रसाद घाट पर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा कार्य योजना के प्रथम चरण का उद्घाटन किया था।

प्रथम और द्वितीय चरण के ऊपर 1500 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी नतीजा सिफर रहा है। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता मे राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण बना। बीते तीन सालों में इसकी महज तीन बैठकें हुई हैं। गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया गया है लेकिन उसे बचाने के लिए कोई कानून नहीं बनाया गया है। ऐसे में देश की छोटी नदियों की हालत का अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है।

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी बनारस के लोगों के सामने भले दावा कर गए हों कि उन्होंने साबरमती नदी की किस्मत बदल दी है इसलिए वे गंगा की हालत मे भी बदलाव ला सकते हैं लेकिन हकीकत यह है कि देश में सर्वाधित प्रदूषित नदियां महाराष्ट्र और गुजरात में हैं।

महाराष्ट्र में 19 गुजरात में 28 नदियां प्रदूषित हैं। बहराल, मोदी इन दिनों नदियों को जोड़ने की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर दावे कर रहे हैं। इसका उल्लेख भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में भी है। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के आर. के. सिन्हा का कहना है कि यदि नदियों को बेसिन के भीतर जोड़ा जाता है तो कोई खतरे की बात नहीं है लेकिन यदि नदियों को अंतर बेसिन में जोड़ा जाता है तो वह काफी चिंता की बात है। सिन्हा के अनुसार ताल-तलैया हमारी नदियों के प्राणि हैं और वे भूजल को रिचार्ज करते हैं लेकिन उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है।



शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद ‘हर हर मोदी’ को लेकर तो सख्त एतराज जता रहे हैं लेकिन कांग्रेस और भाजपा के घोषणापत्रों में नदियों की सुरक्षा के लिए उसकी जमीन को चिन्हित करने, रीवर-सीवर को अलग रखने, अविरल प्रवाह सुनिश्चित करने, अवैध उत्खनन और अतिक्रमण को लेकर किसी भी ठोस योजना का उल्लेख न करने पर कोई सवाल नहीं उठ रहे हैं।

सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने संगम तट पर चुनावी रैली की शुरुआत करते हुए गुजरात की नदियों की बदहाली का जिक्र करते हुए नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश की थी लेकिन उनका ध्यान उत्तर प्रदेश की गंगा-यमुना समेत तमाम तिल-तिल मरती छोटी नदियों की तरफ नहीं गया। छोटी नदियां बचाओ अभियान से जुड़ीं मोनिका आर्य के अनुसार, कुंभ के मौके पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सूबे की छोटी नदियों के लिए कानून बनाने और उनके संरक्षण का आश्वासन दिया था। उन्होंने दो नदियों पर काम शुरू कराने का वादा भी किया था लेकिन अभी तक वह काम अधूरा है।

मोनिका ने छोटी नदियों के लिए बनाए गए राइट टू वॉटर सिक्योरिटी बिल (गैर सरकारी) को संसद में रखने के लिए 80 सांसदों को पत्र लिखा था लेकिन उसमें से सिर्फ सपा के राज्यसभा सदस्य चौधरी मुनव्वर सलीम ने बेतवा और दूसरी छोटी नदियों के अस्तित्व का सवाल उठाया था।

नाले में तब्दील हो चुकी इन नदियों के बारे में हमारे सांसद कितने फिक्रमंद हैं इसे इस तरह समझा जा सकता है कि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने बीते पांच साल में न तब अपने पुराने चुनाव क्षेत्र की हिंडन को प्रदूषण मुक्त कराने को लेकर गंभीरता दिखाई और न ही अब गोमती को लेकर कोई चिंता जता रहे हैं। शायद उन्हें यकीन है कि मोदी की बयार में नदियों के प्रदूषण का मुद्दा भी हवा हो जाएगा।

राजस्थान की सात नदियों को पुनर्जीवित कर चुके ‘जलुरुष’ राजेंद्र सिंह घोषणापत्रों की तुलना चूहेदानी से करते हुए कहते हैं कि उनमें लिखी गई बातें रोटी के उस टुकड़े की तरह होती हैं, जिसमें फंसकर आम आदमी वोट डाल आता है। विभिन्न दलों के नए-पुराने घोषणापत्रों का अध्ययन करने के बाद राजेंद्र सिंह ने पाया कि न तो नेता इन घोषणाओं को पूरा करने के प्रति गंभीर होते हैं और न ही इसे पूरा करने के लिए कोई जिम्मेदारी तय की गई है।

1984 में पहली बार कांग्रेस ने हिंदू मतों को खींचने के लिए गंगा का प्रदूषण मुक्त बनाने की बात कही थी, जिसका उसे काफी फायदा पहुंचा था। इसी तरह 2009 में गंगा बेसिन अथॉरिटी बनाने और गंगा पर बनाए जा रहे तीन बड़े बांध का काम रद्द करने पर भी इसे बड़ा जनसमर्थन मिला था, इसके बावजूद इन नदियों की कांग्रेस द्वारा उपेक्षा की जा रही है। भाजपा की नदी जोड़ो परियोजना भी भ्रष्टाचार और प्रदूषण को जोड़ने की परियोजना है।

इस तरह की योजनाओं के जाल में अक्सर लोग इसलिए फंस जाते हैं क्योंकि उन्हें सपना दिखाया जाता है कि जहां पानी का अकाल है, वहां पर इसके जरिए पानी पहुंचा देंगे। सरकारें कभी इस तरह के दावे नहीं करतीं कि वे लोगों को जलाधिकार दिलाएंगी या फिर पानी का निजीकरण नहीं होने देंगी क्योंकि उससे कारपोरेट और कांट्रेक्टर का हित नहीं सधता। राजेंद्र सिंह के अनुसार, कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में नदियों की गंदगी दूर करके करोड़ों-अरबों खर्च करने का वादा कर रही है लेकिन वह यह कहने से कतरा रही है कि गंदे पानी को अच्छे पानी में नहीं मिलाएंगे।

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