डेंगू का डंक

21 Apr 2018
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एडीज एजिप्टी
एडीज एजिप्टी


डेंगू संक्रमण संत्रस्त करने वाला है। इसका नाम सुनते ही सकते में आ जाना पड़ता है। जानकारों के अनुसार इसके नाम का सम्बन्ध स्पेनिश व स्वाहिली से ही है। एक मान्यता है कि स्वाहिली के ‘का-डिंगा-पेपो’ अर्थात पापी प्रदत्त टीसता दर्द जैसे शब्द से डेंगू या डेंगी बना। दूसरी मान्यता है कि स्पेनिश ‘हार्ड टू प्लीज’ या ‘केयरफुल’ से गढ़ा गया क्योंकि डेंगू के मरीज को हड्डियों समेत जोड़ों में हाड़तोड़ दर्द होता है। इसे ‘ब्रेकबोन बुखार’ बुलाते हैं।

सन 1789 में इम्पेरियल कॉलेज प्रेस के दस्तावेज में सर्वप्रथम ‘ब्रेक बोन फीवर’ का उल्लेख डॉ. बेंजामिन रश ने किया था लेकिन सन 1828 के बाद ही डेंगू शब्द प्रचलित हुआ। उष्ण कटिबन्धीय देशों के कोई ढाई अरब लोगों पर इसकी चपेट में आने का खतरा मँडराता है। अखिल विश्व में 39 करोड़ लोग डेंगू से प्रतिवर्ष ग्रस्त होते हैं।

‘इंफेक्शन, जेनेटिक्स एंड इवॉल्यूशन’ नामक पत्रिका के एक खोजपूर्ण लेख में आनुवंशिक अध्ययन के आधार पर ऐसा खुलासा हुआ कि भारत और श्रीलंका में डेंगू के घातक विषाणु नम्बर-तीन और चार यहीं फले-फूले और फैले। इन विषाणुओं के आनुवंशिक बदलाव के कारण डेंगू गम्भीर बीमारी बन गई हालांकि दक्षिण पूर्वी एशिया के दूसरे देशों की तुलना में भारत में इन विषाणुओं की उतनी विपत्तिजनक स्थिति नहीं है पर कभी-कभार भारत के कई हिस्सों में महामारी का रूप अख्तियार करने से नहीं चूकती।

डेंगू बुखार मादा एडीज इजिप्टी मच्छर के काटने से होता है। इन मच्छरों के शरीर पर चीते जैसी धारियाँ होती हैं। नर मच्छर नहीं काटते क्योंकि वे अंडों का निषेचन नहीं करते, इसीलिये उनसे संक्रमण की सम्भावना बिल्कुल नहीं रहती। वे शाकाहारी होते हैं। वे पेड़ की प्रशाखा-पत्तियों, फूलों के रस को सोखते हैं और बचे रहते हैं। मादा को अंडों के निषेचन के लिये खून की जरूरत पड़ती है, अतएव किसी को काटकर खून चूसने के सिवाय दूसरा कोई और चारा नहीं।

खून चूसने के दौरान जमने से रोकने के लिये वे लार का स्राव करते हैं। इसी कारण एलर्जिक प्रतिक्रिया होती है और काटे हुए स्थान पर खुजली होती है। ये दो सौ मीटर वाले मकान तक उड़ सकते हैं। अपने दो सप्ताह से महीने भर के जीवनकाल में दस से पन्द्रह बार तक खून चूसने की जरूरत पड़ती है और इसके लिये पाँच सौ मीटर तक की दूरी तय कर सकते हैं। आखिर ये मच्छर मनुष्यों को कैसे खोज निकालते हैं? मच्छरों में ऐसे अभिग्राहक (रिसेप्टर) होते हैं, जो मानव देह से उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड से आकृष्ट होते हैं। वे पसीने के रसायनों को अपने ताप अभिग्राहक से सूँघने की भी क्षमता-सम्पन्न होते हैं।

पूरे विश्व में मच्छरों की कोई तीन हजार प्रजातियाँ हैं। मच्छरों का अस्तित्व चालीस करोड़ साल से है। इनकी सौ से ज्यादा प्रजातियाँ कार्बन डाइऑक्साइड सौ फीट दूर से भी महसूस कर सकती हैं। मच्छरों की विभिन्न प्रजातियाँ एक-दूसरे से नहीं मिलती, उनमें विभिन्नता होती है। मसलन, जो मच्छर शहरी होते हैं, गाँव-देहात का माहौल उनके मन-मुताबिक नहीं रहता। कुछ मच्छरों का पसन्दीदा परिवेश ही होता है। जिन मच्छरों को हमारा माहौल उचित लगता है, उनसे ही संक्रमण की सम्भावना होती है।

डेंगू-कारक मच्छर चम्मच भर/पानी में ही अंडे दे देते हैं। इल्ली (एग) से डिम्बक (लार्वा) बनने में दो से सात दिन, डिम्बक से प्यूपा बनने में चार दिन और मच्छर बनने में महज दो दिन लगते हैं। ऐसा अचरज भरा है कि सूखा पड़ने पर जहाँ कहीं भी थोड़ा बहुत गन्दा पानी इकट्ठा रहता है, वहाँ संक्रामक मच्छर इकट्ठा हो जाते हैं और उनसे कई गुना अधिक संक्रमण के आसार बन जाते हैं। मच्छरों से जुड़े कई मिथक हैं जैसे वे मीठे खून वाले यानी मधुमेही मनुष्यों के प्रति अधिक आकर्षित होते हैं।

अनुसन्धानकर्ताओं के मुताबिक मच्छरों को कार्बन डाइऑक्साइड, लैक्टिक एसिड और कई किस्म के कीटाणु वाले लोग ही अधिकतर भाते हैं। जिन्हें जरूरत से ज्यादा पसीना आता है या जो लोग ज्यादा कसरत करने वाले होते हैं, उनके पसीने में कार्बन डाइऑक्साइड और लैक्टिक एसिड के यौगिकों का आधिक्य होता है उन्हें मच्छरों के दंश का ज्यादा अन्देशा बना रहता है। इसमें पसीने की महक की भी खास भूमिका रहती है। ऐसी धारणा भी बेबुनियाद है कि ‘ओ’ ब्लड ग्रुप वालों के करीब मच्छर ज्यादा भनकते हैं।

दरअसल, प्रजनन के लिये मच्छर को मिठास नहीं, प्रोटीन की आवश्यकता पड़ती है। मनुष्य की त्वचा के कुछ कीटाणु भी मच्छरों के मनपसन्द होते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें गोरा रंग ज्यादा भाता है बल्कि मच्छरों का किसी भी रंग पर एक-सा आकर्षण होता है। कुछ वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि मच्छरों की गहरे रंग के प्रति अधिक आसक्ति होती है। वे ताप से खिंचे चले आते हैं और गहरा रंग ताप अधिक ग्रहण करता है, इसलिये मच्छरों को रास आता है।

शाम को बाहर न रहने से मच्छरों से थोड़ी बहुत राहत जरूर मिलती है लेकिन डेंगू फैलाने वाले एडीज एजिप्टी मच्छर घर के कोनों में और बाग-बगीचों में रहना बेहतर समझते हैं। ये मच्छर मनुष्यों के इर्द-गिर्द रहना इसलिये पसन्द करते हैं क्योंकि उन्हें खून की खुराक जुटाने में सहूलियत होती है और उन्हें घर में कहीं-न-कहीं अंडे देने के लिये थोड़ा पानी नसीब हो ही जाता है। ऐसा कदापि नहीं है कि मच्छरों के दाँत होते हैं, उनकी सुई की तरह नलिका होती है, जिससे वे आसानी से त्वचा में छेद करते हैं और चुपके-से खून चूसते हैं। यह हमारी प्रतिरक्षा-प्रणाली पर निर्भर करता है कि उनके लार के प्रति कैसी प्रतिक्रिया होती है। मच्छर के काटने पर त्वचा की पट्टी का आकार मच्छर के खून-चूसने की मात्रा से मुक्त रहता है।

डेंगू के प्रमुखतः चार प्रकार के विषाणु होते हैं- डेंगू-एक, डेंगू-दो, डेंगू-तीन और डेंगू चार। अब डेंगू-एक के नए एशियाई रिश्तेदार भी मैदान में आ गए हैं। डेंगू-एक-में बुखार तीन से सात दिन तक रहता है, कमजोरी बहुत ज्यादा होती है। प्लेटलेट्स लगातार गिरते रहते हैं, शरीर पर रैशेज कम होते हैं और आँखों पर कम असर पड़ता है। कमर की मांसपेशियों में तेज दर्द होता है और कन्धे-घुटने में भी दर्द बना रहता है, चेहरे व त्वचा पर रैशेज होते हैं, शौच काला होता है। खून की उल्टी होती है। डेंगू-दो में रक्तस्रावी (हिमरैजिक) बुखार और शॉक लग सकता है। डेंगू-तीन में शॉक बगैर बुखार और डेंगू-चार में शॉक और बगैर शॉक का बुखार।

हर साल डेंगू के वंशीय समूह (जिनोटाइप) कुछ-न-कुछ आनुवंशिक बदलाव करते हैं, उनमें एकरूपता नहीं रहती, दरअसल वे बहुरूपी होते हैं परन्तु 2017 के संक्रमण-काल में मौसम के आखिरी पायदान पर उनका बदलाव पहचान में आया। वंशीय समूह (जिनोटाइप) का आकलन सीरम प्रजाति की पहचान किये बिना सम्भव नहीं। हालांकि अभी तक यह अधर में लटका है, इसीलिये वर्तमान विषाणु अज्ञात आतंकी बना हुआ है। विषाणु-विशेषज्ञ इरफान अख्तर की यही राय है।

इस अनजान विषाणु के कारण हृदय की धड़कन की गति अनियमित होने की शिकायत मिल रही है, जिसे ‘मायो कार्डिटिस’ कहा जाता है, इतना ही नहीं रक्त-वाहिनियाँ तक सुरक्षित नहीं रह पातीं, संक्रमित हो जाती हैं और विभिन्न अंग-प्रत्यंग विकल हो जाते हैं, कार्य नहीं कर पाते। खून के किसी भी अवयव के अभाव में विषाक्तता (सेप्सिस) का खतरा खड़ा हो जाता है और प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावित हुए बिना नहीं रहती।

अब केवल प्लेटलेट्स ही नहीं, लाल रक्त कणिकाएँ (Red Blood Cells - RBC), श्वेत रक्त कणिकाएँ (White Blood Cells - WBC) या हीमोग्लोबिन (Hemoglobin) में कमी हो सकती है, विशेषकर बच्चों में ऐसी प्रबल सम्भावना रहती है। बच्चे डेंगू इंसेफेलाइटिस- Encephalitis (दिमागी बुखार) से भी नहीं बचते। निर्जलीकरण (Dehydration) और होमोकंसंट्रेशन (Hemoconcentration) भी हो जाता है। प्लाज्मा की तुलना में लाल रक्त कणिकाओं में बढ़ोत्तरी को ही होमोकंसंट्रेशन कहते हैं।

इस साल डेंगू-दो और डेंगू-चार के सर्वाधिक सक्रिय होने का सन्देह है क्योंकि इलाज के दौरान सीरोटाइप की पहचान का कोई जरिया नहीं रह जाता। इसीलिये यह चिकित्सकों के लिये सिरदर्द साबित हो रहा है। बिना डेंगू के किसी लक्षण के मरीज की हालत संगीन होती जा रही है। साथ ही बच्चों और बूढ़ों में डेंगू के साथ कीटाणु (बैक्टीरिया) भी दबोचने से पीछे नहीं हट रहे। कीटाणुओं की जकड़ की जानकारी न होने के कारण भी डेंगू के मरीजों को दम तोड़ना पड़ा है। डेंगू के शिकार मरीजों की रोग से लड़ने की ताकत घट जाती है, जिस कारण दूसरे संक्रमणों की सम्भावना बढ़ते देर नहीं लगती। ऐसी स्थिति में ‘एंटीबायोटिक्स’ का प्रयोग आवश्यक हो जाता है।

एक आँकड़े के अनुसार डेंगू और बैक्टीरिया जनित मरीजों की राज्यवार संख्या में - गुजरात में 434, राजस्थान में 230, उत्तर प्रदेश में 165 और महाराष्ट्र में 685 है और इस साल 23 अक्टूबर तक 18,278 मरीज हुए और अभी तक आधिकारिक तौर पर 54 मौतें दर्ज की गई हैं हालांकि कई जानकारों का मानना है कि इन सरकारी आँकड़ों से सही तस्वीर पेश नहीं होती। अभी तक माना जाता रहा है कि डेंगू की चपेट में आने वाले शहरी क्षेत्र ही प्रमुख हैं लेकिन इस साल पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र भी सुरक्षित नहीं रहे।

बरसाती नहीं, बारहमासी

पहले डेंगू बरसाती था, अब बारहमासी हो गया है। इसके विषाणु बचाव के लिये बारम्बार बदलाव करते रहते हैं। उनमें आनुवंशिक-विवर्तन आम होता है। डेंगू के विषाणु भी अपवाद नहीं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वाइरोलॉजी (National Institute of Virology), पुणे के वैज्ञानिकों की खोज है कि नए एशियाई विषाणुओं के संस्करण (Genotype), जिनकी वजह से वर्ष 2005 और 2009 में श्रीलंका में डेंगू ने महामारी का कहर बरपाया था, इन्हीं कारण वर्ष 2013 में तमिलनाडु और केरल फिर 2015 में वेल्लोर के नमूनों में मिले।

फिलहाल, महाराष्ट्र, दिल्ली और दूसरे राज्यों के नमूनों की बाकायदा जाँच जारी है कि कहीं एशियाई संस्करण वाले विषाणु ही तो अति सक्रिय नहीं लेकिन दक्षिण भारत के डेंगू ग्रस्त मरीजों के खून से प्राप्त नमूनों से निश्चित निष्कर्ष नहीं निकालने चाहिए कि इसे नए एशियाई विषाणुओं ने पुराने अमेरिकी-अफ्रीकी संस्करण वाले विषाणुओं को बेदखल कर अपना राजस्व कायम कर लिया है।

वैज्ञानिकों की आम धारणा है कि दोनों प्रकार के विषाणु विशेषतया तमिलनाडु और केरल में सक्रिय हैं। यह जानकारी वायरोलॉजी (virology journal) नामक पत्रिका के अक्टूबर अंक में प्रकाशित है। वर्ष 2012 में महाराष्ट्र और दिल्ली में विषाणुओं के आनुवंशिकी के अध्ययन से ऐसा भी खुलासा हुआ है कि जीनगत बदलाव नहीं हुए। वैज्ञानिक के. अलगरूस का ऐसा अभिमत है कि विषाणुओं की जीन-संरचना की निरन्तर निगरानी से महामारी की अग्रिम चेतावनी मुमकिन है।

गर्भावस्था में डेंगू की शिकार महिलाओं पर ज्यादा संकट के बादल मँडरा सकते हैं। डेंगू वहनकारी मच्छर इनकी ओर इसलिये अत्यधिक आकर्षित होते हैं क्योंकि इनके शरीर का तापमान स्वाभाविक से अधिक होता है और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा भी बढ़ जाती है। गर्भधारण के दौरान रोगों से लड़ने की शक्ति कमजोर होती ही है, लगे हाथों प्रतिपिंडों (एंटीबॉडी) में बढ़ोत्तरी भी हो जाती है और डेंगू के आम लक्षण मसलन बुखार और सिरदर्द गर्भावस्था के अन्य लक्षणों से मिलते-जुलते हैं, जो भ्रामक साबित होते हैं, जिससे डेंगू की पकड़ में अक्सर अनावश्यक देर हो जाती है और हालत गम्भीर हो जाती है।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming) और जलवायु परिवर्तन के कारण डेंगू के संवाहक मच्छरों का कहर क्रमशः गहरा सकता है। विश्व-स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक पिछली शताब्दी में शून्य दशमलव पचहत्तर डिग्री सेल्सियस विश्व का तापमान बढ़ा है लेकिन पिछले पच्चीस सालों के विश्व भर में सालाना सेहत के मामले में शून्य दशमलव अठारह सेल्सियस की दर से बढ़ोत्तरी हुई है।

जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व भर में सालाना सेहत के मद में छप्पन खरब और भारत में एक सौ दस करोड़ का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। डेंगू मच्छरों से दुनिया भर में ताबड़तोड़ संक्रमण फैल रहा है। ऐसा अनुमान है कि पाँच करोड़ से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आ सकते हैं। डेंगू के विषाणु प्रतिकूल परिस्थितियों के अनुसार ढल जाते हैं। निःसन्देह डेंगू के विषाणुओं में आनुवंशिक बदलाव हुए हैं।

डेंगू के विषाणु मस्तिष्क में स्थित बोन मैरो (Bone Marrow) को प्रभावित करते हैं, जिससे लाल और श्वेत रक्त कणिकाएँ कम हो जाती हैं और प्लेटलेट्स की संख्या में भी गिरावट होने लगती है। जीवाणु-विशेषज्ञों को विस्मय है कि डेंगू के लक्षणों में विभ्रमकारी बदलाव हो गए हैं। पहले केवल प्लेटलेट्स पर गौर करने से ही डेंगू के मरीज की हालत को समझा और सम्भाला जा सकता था। अब प्लेटलेट्स की पर्याप्त संख्या के बावजूद कुछ मरीज नहीं बचाए जा सके और कुछ मरीज अपर्याप्त संख्या के बावजूद बच गए।

जाहिर है कि अब विषाणुओं का प्लेटलेट्स की गुणवत्ता पर असर पड़ा है। अच्छी गुणवत्ता के अभाव में प्लेटलेट्स की परस्पर चिपकने की प्रवृत्ति प्रभावित हो जाती है और वे नाक, थूक, मूत्र या मल के जरिए शरीर से बाहर निकल जाते हैं और यह घातक सिद्ध होता है। आखिर क्यों पर्याप्त प्लेटलेट्स की संख्या बीस हजार या उससे अधिक रहने के बावजूद मरीज बच नहीं पाये। अतएव, ऐसे विरोधाभास को समझने के लिये अनुसन्धान आवश्यक है कि किस विषाणु की वजह से ऐसा हो रहा है।

विशेषज्ञों के मुताबिक डेंगू के विषाणुओं के विरुद्ध कई मोर्चों पर मोर्चाबन्दी की जानी चाहिए क्योंकि उपचार के लिये कोई प्रामाणिक औषधि उपलब्ध नहीं है केवल लक्षणों के आधार पर इलाज किया जाता है। मसलन, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2016 में श्रीलंका को मलेरिया-मुक्त देश करार दिया था लेकिन मौजूदा वर्ष में डेढ़ लाख लोग डेंगू से पीड़ित पाये गए। कोलकाता के अस्पतालों में मलेरिया के मुकाबले डेंगू के मरीज नौ गुना ज्यादा हो गए।

हल्की-फुल्की बारिश से भी डेंगू फैलाने वाले मच्छरों को पनपने के लिये पर्याप्त पनाह मिल जाती है। इनकी आदत दिन में ही अधिक काटने की होती है। लेकिन सावधानी बरतने पर इन्हें मनमुताबिक काटने का मौका नहीं मिलता और ये कई-कई लोगों को काटने से बाज नहीं आते और इस प्रकार संक्रमण के फैलाने में सुविधाजनक साबित होते हैं।

विशेषज्ञों ने भी मान लिया है कि डेंगू फैलाने वाले एडीज एजिप्टी मच्छरों ने जन्मस्थान बदल लिये हैं, इस तकनीक को ‘विवर्तन-कौशल’ कहा जाता है। वैज्ञानिक भी ऐसी जुगत में है कि डेंगू विषाणु को विषाक्त होने से किस तकनीक से बचाया जाये कि मारक ही रक्षक बन जाये और वह संक्रामक न रहे। प्रायोगिक तौर पर उनकी तकनीक कामयाबी के करीब है। मादा मच्छरों में ऐसे अनुकूल आनुवंशिक बदलाव किये जा रहे हैं, जिससे डेंगू के विषाणु पनपने में विफल रहते हैं।

दरअसल, ये मच्छर ही विषाणु रोधी बन जाते हैं, जब मच्छर किसी डेंगू ग्रस्त को काटते हैं तो उनके पेट में डेंगू के विषाणु को जीवनचक्र पूरा करने के लिये उसकी लार की ग्रंथियों को संक्रमित करना जरूरी होता है अन्यथा वह दूसरे स्वस्थ व्यक्ति को काटकर संक्रमित करने का क्रम जारी नहीं रख सकते। इस प्रक्रिया के तहत आत्मलीन जींस को बहुल ऊतकों में सक्रिय कर विषाणुओं के लिये बाधक बनाया जा सकता है। नतीजतन, मच्छर की लार-ग्रंथियों में विषाणु नगण्य हो जाते हैं और संक्रमण की सम्भावना न्यूनतम हो जाती है।

विषाणु से बचाव

वर्ष 2014 में हैदराबाद के अध्ययन के अनुसार उन्नीस से सत्तर वर्षीय लोग कम-से-कम एक बार डेंगू ग्रस्त हो चुके हैं यानी नब्बे फीसदी आबादी डेंगू भुगत चुकी है। मच्छरों के समूह नाश उपायों की उतनी उपयोगिता नहीं रही। डीजल उन्नीस और पाइरेथ्रम एक के अनुपात वाले मिश्रण का धुआँ, जिसे ‘फ्यूमिगेशन’ (Fumigation) कहते हैं, से लाभ की बजाय हानि हो रही है। इसके दुष्प्रभावों की वजह से कई देशों ने इसके प्रयोग को प्रतिबन्धित कर दिया है। जो डेंगू ग्रस्त क्षेत्र हैं, वहीं इसके सीमित उपयोग की कभी-कभार छूट दी जा सकती है। इसकी जगह लार्वानाशी (Larvacide) कारगर है। दस लीटर पानी में दो दशमलव पाँच के अनुपात में टेमीफॉस (Temephos) के मिश्रण का छिड़काव मच्छरों के समूह के सफाया करने में सफल साबित होता है। ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव तो बिल्कुल बेकार है क्योंकि उससे मच्छर के लार्वा नहीं मरते। यह आम लोगों को राहत पहुँचाने के नाम पर केवल दिखावा होता है।

1779 में ही इसका नामकरण-संस्कार हुआ और 1780 से ही डेंगू का विषाणु विश्वव्यापी हो गया। बीसवीं शताब्दी में ही मच्छरों से संक्रमण होने की जानकारी हुई। 2012 के ‘इण्डियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च’ (Indian journal of medical research) के लेख भारत में डेंगू (Dengue in India) में इस महामारी की पहचान 1780 में मद्रास में हुई और कोलकाता समेत पूर्वी क्षेत्र में पहले-पहल अधिकृत विषाणु-जनित डेंगू महामारी पर 1963-64 में मुहर लगी।

पिछले पचास सालों से डेंगू की चिकित्सा चालू है पर इसके बावजूद इस पर नकेल नहीं कसी जा सकी हालांकि इसके विषय में अहम जानकारियाँ जुटाई गई। पश्चिम बंगाल में डेंगू का प्रकोप 2005 से जारी है। इसके पनपने का मुख्य स्रोत पानी है और कोलकाता पर इंद्र भगवान की विशेष कृपा रहती है और यही कृपा कोप का कारण है।

पानी के समुचित-सुरक्षित उपयोग पर ही इसके नियंत्रण की चाबी है और मच्छर के जीवनचक्र का मूल मंत्र पानी की चंद बूँदें हैं। बंगाल के वर्ष 2005 की डेंगू महामारी के अध्ययन से यह तथ्य भली-भाँति उजागर हुआ था कि डेंगू के साठ प्रतिशत मरीज पुराने थे और सिर्फ अठारह फीसद नए। इसके नियंत्रण में पर्यावरण का पाठ परमावश्यक है।

लेखक परिचय
श्री संतन कुमार पांडेय
लेक उत्सव, पी-331 पर्णश्रीफल्ली फ्लैट 3ए, कोलकाता 700 060

 

 

 

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