देश में फैली दूषित हवा

19 Feb 2017
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Air pollution
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भारत में प्रदूषण नियंत्रण के अनेक कानून हैं, लेकिन उन पर अमल कागजी है। इसलिये इस जिम्मेवारी को न्यायपालिका ढो रही है। इस हेतु सर्वोच्च न्यायालय को राष्ट्रीय हरित अधिकरण का गठन करना पड़ा है। मगर कार्यपालिका उस पर भी ठीक से क्रियान्वयन नहीं कर पा रही है। इस नाकामी की प्रमुख वजह भ्रष्टाचार तथा लापरवाही है। नतीजतन न्यायिक आदेश और प्रदूषण नियंत्रण कानूनों का ठीक से पालन नहीं हो रहा है। उद्योग और पर्यटन स्थलों पर पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी नियमों का खुला उल्लंघन हो रहा है। भारत की आबो-हवा इस हद तक दूषित एवं जानलेवा हो गई है कि वायु प्रदूषण से दुनिया में मरने वाले लोगों में से एक चौथाई भारत के लोग मरते हैं। इस दुश्वारी पर हमारे विज्ञान, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण से जुड़े संस्थानों का ध्यान तो नहीं गया, लेकिन इस सच्चाई से हमें रूबरू अमेरिकी संस्था की एक ताजा अध्ययन रिपोर्ट ने कराया है। बावजूद यह स्थिति न तो पाँच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव में राजनैतिक दलों का चुनावी मुद्दा है और न ही इस मुद्दे को मीडिया बहुत ज्यादा महत्त्व दे रही है। इसलिये यह आशंका अपनी जगह वाजिब है कि भयावह होते वायु प्रदुषण से जुड़ी यह अहम जानकारी भी कुछ दिनों में आई-गई हो जाएगी।

अमेरिकी संस्था ‘हेल्थ इफेक्टस इंस्टीट्यूट‘ (एचईआई) के शोध के अनुसार दुनिया में वायु प्रदूषण के चलते 2015 में लगभग 42 लाख लोग अकाल मौत मरे हैं। इनमें से 11 लाख भारत के और इतने ही चीन के हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दुनिया की करीब 92 प्रतिशत आबादी प्रदूषित हवा में साँस ले रही है। नतीजतन वायु प्रदूषण दुनिया में पाँचवाँ मौत का सबसे बड़ा कारण बन गया है। चिकित्सा विशेषज्ञ भी मानते हैं कि वायु प्रदूषण से कैंसर, हृदय रोग, क्षय रोग और साँस सम्बन्धी बीमारियों का प्रमुख कारक है।

चीन ने इस समस्या से निपटने के लिये देशव्यापी उपाय शुरू कर दिये हैं, वही भारत का पूरा तंत्र केवल दिल्ली की हवा शुद्ध करने में लगा है। उसमें भी उसे सफलता नहीं मिल रही है। ऐसा इसलिये है, क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका लगभग यह मानकर चल रही है कि प्रदूषित हवा और मृत्युदर के बीच कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।

हालांकि भारत में प्रदूषण नियंत्रण के अनेक कानून हैं, लेकिन उन पर अमल कागजी है। इसलिये इस जिम्मेवारी को न्यायपालिका ढो रही है। इस हेतु सर्वोच्च न्यायालय को राष्ट्रीय हरित अधिकरण का गठन करना पड़ा है। मगर कार्यपालिका उस पर भी ठीक से क्रियान्वयन नहीं कर पा रही है। इस नाकामी की प्रमुख वजह भ्रष्टाचार तथा लापरवाही है। नतीजतन न्यायिक आदेश और प्रदूषण नियंत्रण कानूनों का ठीक से पालन नहीं हो रहा है। उद्योग और पर्यटन स्थलों पर पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी नियमों का खुला उल्लंघन हो रहा है। इस उल्लंघन का सबसे ज्यादा शिकार हमारी पवित्र नदियों और समुद्री तटों को झेलना पड़ रहा है।

औद्योगिक विकास, बढ़ता शहरीकरण और उपभोगक्तावादी संस्कृति आधुनिक विकास के ऐसे नमूने हैं, जो हवा, पानी और मिट्टी को एक साथ प्रदूषित करते हुए समूचे जीव-जगत को संकटग्रस्त बना रहे हैं। इससे भी दुखद व भयावह स्थिति यह है कि विश्व बैंक के आर्थिक सलाहकार विलियम समर्स का कहना है कि हमें विकासशील देशों का प्रदूषण; अपशिष्ट, कूड़ा-कचरा निर्यात करना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से एक तो विकसित देशों का पर्यावरण शुद्ध रहेगा, दूसरे, इससे वैश्विक स्तर पर प्रदूषण घातक स्तर के मानक को स्पर्श नहीं कर पाएगा, क्योंकि तीसरी दुनिया के इन गरीब देशों में मनुष्य की कीमत सस्ती है।

मसलन इस विषाक्त कचरे के सम्पर्क में आकर वे मरते भी हैं, तो उन्हें मरने दिया जाये। जब उनके जीवन का कोई मूल्य ही नहीं है तो भला मौत की क्या विशात! पूँजीवाद के भौतिक दर्शन का यह क्रूर नवीनतम संस्करण है, जिसके बवंडर ने पूरे देश को प्रदूषण की गिरफ्त में ले लिया है।

दिल्ली तो प्रदूषण की गिरफ्त में है ही, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात के लगभग सभी छोटे शहर प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। डीजल व घासलेट से चलने वाले वाहनों व सिंचाई पम्पों ने इस समस्या को और विकराल रूप दे दिया है। केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड देश के 121 शहरों में वायु प्रदूषण का आकलन करता है। इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरुपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में अवतरित हो रहा है।

इस प्रदूषण की मुख्य वजह तथाकथित वाहन क्रान्ति है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीजल और केरोसिन से पैदा होने वाले प्रदूषण से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्चे साँस की बीमारी की जकड़ में हैं। 20 फीसदी बच्चे मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारी की चपेट में हैं। इस खतरनाक हालात से रूबरू होने के बावजूद दिल्ली व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियाँ अपना रही हैं, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किये बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे। यही कारण है कि डीजल वाहनों का चलन लगातार बढ़ रहा है।

जिस गुजरात को हम आधुनिक विकास का मॉडल मानकर चल रहे हैं, वहाँ भी प्रदूषण के हालात भयावह हैं। कुछ समय पहले टाइम पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के चार प्रमुख प्रदूषित शहरों में गुजरात का वापी शहर शामिल है। इस नगर में 400 किलोमीटर लम्बी औद्योगिक पट्टी है। इन उद्योगों में कामगर और वापी के रहवासी कथित औद्योगिक विकास की बड़ी कीमत चुका रहे हैं। वापी के भूजल में पारे की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों से 96 प्रतिशत ज्यादा है।

यहाँ की वायु में धातुओं का संक्रमण जारी है, जो फसलों को नुकसान पहुँचा रहा है। कमोबेश ऐसे ही हालात अंकलेश्वर बन्दरगाह के हैं। यहाँ दुनिया के अनुपयोगी जहाजों को तोड़कर नष्ट किया जाता है। इन जहाजों में विषाक्त कचरा भी भरा होता हैं, जो मुफ्त में भारत को निर्यात किया जाता है। इनमें ज्यादातर सोडा की राख, एसिडयुक्त बैटरियाँ और तमाम किस्म के घातक रसायन होते हैं।

इन घातक तत्वों ने गुजरात के बन्दरगाहों को बाजार में तब्दील कर दिया है। लिहाजा प्रदूषित कारोबार पर शीर्ष न्यायालय के निर्देश भी अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में विश्व व्यापार संगठन के दबाव में प्रदूषित कचरा भी आयात हो रहा है। इसके लिये बाकायदा विश्व व्यापार संगठन के मंत्रियों की बैठक में भारत पर दबाव बनाने के लिये एक परिपत्र जारी किया है कि भारत विकसित देशों द्वारा पुनर्निर्मित वस्तुओं और उनके अपशिष्टों के निर्यात की कानूनी सुविधा दे। पूँजीवादी अवधारणा का जहरीले कचरे को भारत में प्रवेश की छूट देने का यह कौन-सा मानवतावादी तर्क है? अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी इस प्रदूषण को निर्यात करते रहने का बेजा दबाव बनाए हुए हैं।

यह विचित्र विडम्बना है कि जो देश भोपाल में हुई यूनियन कार्बाइड दुर्घटना के औद्योगिक कचरे को 30 साल बाद भी ठिकाने नहीं लगा पाया वह दुनिया के औद्योगिक कचरे को आयात करने की छूट दे रहा है। यूनियन कार्बाइड परिसर में आज भी 346 टन कचरा पड़ा है, जो हवा में जहर घोलने का काम कर रहा है। इस कचरे को नष्ट करने का ठिकाना मध्य प्रदेश सरकार को नहीं मिल रहा है। दुनिया की यह सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी थी।

इस हादसे में 5295 लोगों की मौतें हुईं थीं और 5902 लोग स्थायी रूप से लाइलाज बीमारियों के शिकार हो गए थे, जो आज भी इस त्रासदी का दंश झेल रहे हैं। भोपाल में ही स्थित भानपुर खंती है, जिसे यूनियन कार्बाइड के कचरे को नष्ट करने के लिये 1970 में वजूद में लाया गया था। अब पूरे भोपाल के औद्योगिक व इलेक्ट्रॉनिक कचरे को इसी खंती में डाल दिया जाता है। फिलहाल इसमें एक लाख 50 हजार घनमीटर अनुपयोगी कचरा पड़ा हुआ है।

कचरे की 15 मीटर ऊँची परत ऊठी है, जो रासायनिक प्रदूषण का कारक बन रही है। जिससे हवा और भूजल एक साथ दूषित हो रहे हैं। कचरे को नष्ट करने के लिये खंती में आग भी लगाई जाती है। यह आग जो जहरीला धुआँ उगल रही है, उससे दो लाख लोग प्रभावित हैं। उच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश के बावजूद प्रशासन इस खंती को प्रदूषण मुक्त करने के कोई कारगर उपाय नहीं कर पाया है। इन चंद उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि हमें अपनी ही आबादी के प्राणों का कोई मोल नहीं है। यदि होता तो सरकार और समाज इस प्रदूषण के प्रति चिन्तित दिखाई देता। इस रिपोर्ट के बाद भी उसकी नींद टूटेगी यह गारंटी से कहना मुश्किल ही है।

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