दिल्ली की यमुना में भूजल को बचाने की एक योजना

बाढ़जनित जलभरण क्षेत्रों द्वारा प्राकृतिक भूजल को बड़े पैमाने पर संरक्षित करने की एक योजना


धरती का तेजी से घटता वन क्षेत्र, नदियों में गाद जमा होते जाने और हिमालय सहित अन्य ग्लेशियरों के पिघलकर पीछे खिसकते जाने की वजह से मैदानों और बाढ़जनित जलभरण क्षेत्रों द्वारा भूजल का भण्डारण और संरक्षण तेजी से कम होता जा रहा है। अक्सर पर्यावरण असन्तुलन पर होने वाली बहस और सेमिनारों में जलवायु परिवर्तन पर बात होती है, जबकि प्राकृतिक संसाधनों का खत्म होना भी एक अपरिवर्तनीय प्रक्रिया है।

मुख्य बात यह है कि 1947 से अब तक भारत की जनसंख्या तीन गुना बढ़ चुकी है, और प्रति व्यक्ति जल उपभोग 3000 घन मीटर से घटते-घटते अब 800 घन मीटर प्रति व्यक्ति तक पहुँच चुका है, जो कि सामान्य मानक (500 घन मीटर प्रति व्यक्ति) के बेहद करीब पहुँच चुका है। भारत का विकास तेजी से हो रहा है और हम अमेरिका के पास पहुँचने को बेताब हो रहे हैं, जबकि अमेरिका द्वारा की जाने वाली ऊर्जा खपत भारत के मुकाबले 20 गुना अधिक है। लेकिन हम एक बात भूल जाते हैं कि अमेरिका का क्षेत्रफ़ल भारत से तीन गुना अधिक है तथा उसकी जनसंख्या भारत के मुकाबले चौथाई कम है। इसका अर्थ यह है कि एक अमेरिकी व्यक्ति को किसी भारतीय के मुकाबले 12 गुना अधिक प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं। इसलिये विकास का अमेरिकी मॉडल, भारत की परिस्थितियों से कभी मेल नहीं खायेगा।

विकासशील देशों में अनियन्त्रित गति से शहरीकरण बढ़ रहा है, जो कि उन शहरों की विकासात्मक क्षमता से कहीं अधिक है। दिल्ली की जनसंख्या और विकास की क्षमता को लेकर किये गये एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली की जनसंख्या यहाँ उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की तुलना में पहले से ही दोगुनी हो चुकी है। विकासशील देशों में पनपने वाले इस प्रकार के महानगरों के लिये सबसे ज़रूरी बात अर्थात पानी का परिवहन और उपलब्धता ही सबसे बड़ा प्रश्न है, और पानी ही नहीं है। न्यूयॉर्क शहर के लिये पानी की व्यवस्था 150 किमी दूर कैट्स्किल्स के जंगलों द्वारा की जाती है, दिल्ली के लिये ऐसा कोई विकल्प मौजूद नहीं है। दिल्ली की जल आवश्यकता का आसानी से हिसाब लगाया जा सकता है। यदि प्रति व्यक्ति सामान्यतः 250 लीटर पानी प्रतिदिन का मोटा हिसाब भी लगायें तो दिल्ली की वर्तमान जनसंख्या अर्थात 18 मिलियन (1 करोड़ 80 लाख) लोगों के लिये प्रतिदिन 1650 मिलियन क्यूबिक मीटर (MCM) पानी प्रतिवर्ष चाहिये। लगभग 300 MCM पानी यमुना से मिलता है, जबकि 500 MCM पानी अन्य नदियों, झीलों और भूजल से मिलता है (अर्थात सिर्फ़ 800 MCM यानी कि कुल मांग का आधा)। अब दिल्ली के समक्ष अन्य व्यवहारिक विकल्प क्या हैं? अन्य जलस्रोतों जैसे सतलज, व्यास, और गंगा नदी से पानी का परिवहन करके दिल्ली लाया जाये। लेकिन चूंकि यह जलक्षेत्र पहले से ही कम वर्षा की कमी से जूझ रहे हैं, गन्ने, गेहूं और चावल की उपज वाले इन इलाकों में वार्षिक औसत 30 से 60 सेमी बारिश की आवश्यकता है, जो कि अनिश्चित है। इसलिये इन क्षेत्रों में भी भूजल की कमी होती जा रही है और ये इलाके भी पानी की कमी से त्रस्त हैं, ऐसे में यहाँ से पानी दिल्ली ले जाना, एक जनसंघर्ष और गहन विवाद की शुरुआत करने जैसा होगा। एक और विकल्प है भूजल, लेकिन पिछले 20 वर्षों में दिल्ली में भूजल का दोहन इतना अधिक हो चुका है कि यदि तीन साल तक लगातार बेहतरीन मानसून भी आ जाये तब भी ज़मीन का यह घाटा पूरा होने वाला नहीं है, और इस अंधाधुंध पानी निकालने की वजह से गम्भीर पारिस्थितिकीय संकट खड़ा हो चुका है। एक और उपाय है उपयोग किये गये पानी के पुनर्चक्रीकरण (Recycling) करके पुनः उपयोग लायक बनाने का, लेकिन वह अव्यावहारिक और अवास्तविक है, क्योंकि उसकी कीमत प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष लगभग 9000 रुपये आती है, और देश की कुल आय का एक तिहाई हिस्सा इसी में चला जायेगा। रेनवाटर हार्वेस्टिंग (वर्षाजल संरक्षण) भी एक अच्छा उपाय है, लेकिन यह दिल्ली की जल मांग का सिर्फ़ 5 प्रतिशत ही पूरा कर सकता है (वह भी तभी जब अच्छी वर्षा हो)।

 

इस विकराल समस्या का एक स्थानीय हल -


दिल्ली की सीमा और आसपास सिर्फ़ एक ही जलस्रोत है जिससे पानी की समस्या का हल हो सकता है और वह है यमुना नदी, जिसमें मानसूनी महीनों में बहने वाले पानी के बहाव और उसे बचाना ही एकमात्र रास्ता है। दिल्ली के सिंचाई विभाग द्वारा यमुना में बाढ़ और पानी की उपलब्धता सम्बन्धी 2003 में जारी किये गये आँकड़ों के मुताबिक मानसून के दौरान वज़ीराबाद बैराज से लगभग 4000 MCM से अधिक पानी बेकार चला जाता है। यह पानी दिल्ली जल बोर्ड द्वारा समूची दिल्ली को सप्लाई किये जाने वाले पानी (लगभग 1100 MCM) का चार गुना है। प्रत्येक नदी के 'फ़्लडप्लेन' (खाली जलभरण क्षेत्र) प्राकृतिक रूप से पानी के विशाल भण्डार होते हैं। लाखों वर्षों से नदियाँ पहाड़ों के ज़रिये साथ में रेत बहाकर लाती हैं और अपने किनारों पर जमा करती जाती हैं, जो कि फ़्लडप्लेन का रूप ले लेते हैं। यह एकत्रित हो चुकी रेतीली परतें लगभग 40 मीटर मोटाई तक की हो सकती हैं। रेत एक छिद्रयुक्त और पारगम्य 'एक्विफ़र' मिट्टी होती है। एक बेहद आसान सा प्रयोग, गिलास में रेत भरकर पानी डालने पर भले ही ऊपरी परत सूखी हो, लेकिन फ़िर भी 50% पानी रेत सोखकर अपने में समा ले ती है, यह दर्शाता है कि नदियों के रेतीले किनारे जल-पुनर्भरण के लिये एक सूखे जलाशय का काम करते हैं, जबकि झीलों या तालाबों में सतह जल का धूप के कारण वाष्पीकरण हो जाता है।

 

दिल्ली में यमुना नदी के बाढ़जनित जलभरण क्षेत्रों की 'हाइड्रोलॉजिकल' रूपरेखा


यमुना नदी दिल्ली में पल्ला नामक स्थान से प्रवेश करती है और 25 किमी दूरी तय करके वज़ीराबाद बैराज पहुँचती है तथा लगभग इतनी ही दूरी तय करके दिल्ली के आखिरी छोर ओखला बैराज पर अपनी दिल्ली यात्रा समाप्त करती है, और हरियाणा में प्रवेश करती है। 'फ़्लडप्लेन' अर्थात बाढ़जनित जलभरण क्षेत्र नदी के दोनों तरफ़ का 2 किमी का हिस्सा कहलाता है। एक साधारण सी गणना से पता लगता है कि इन फ़्लडप्लेन में पानी का भण्डारण करने की कितनी बड़ी क्षमता है (देखें टेबल क्रमांक 1 अटैचमेंट में )

जल बोर्ड द्वारा दिये गये आँकड़ों के मुताबिक दिल्ली की जल की वार्षिक खपत लगभग 1100 MCM है। ऊपर दी गई गणना के लिहाज से यमुना नदी के फ़्लडप्लेन समूची दिल्ली की मांग का दो-तिहाई से भी अधिक पूरा करने में सक्षम हैं। केन्द्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) के अनुसार यमुना नदी द्वारा अधिकतम 20% पानी भूजल में संरक्षित किया जा सकता है, अर्थात यमुना नदी के बाढ़जनित क्षेत्रों में 680 MCM वार्षिक जल प्राप्त किया जा सकता है।
 

प्रस्तावित योजना


गत कुछ वर्षों के दौरान नदी के पानी को सिंचाई के लिये विभिन्न छोटी-छोटी नहरों द्वारा काट लिया गया है, इसलिये नदी में पानी के बहाव में भारी कमी आई है। इसलिये अब नदियों में वार्षिक बाढ़ की बजाय मानसूनी बाढ़ ही आती है, तथा जल का तेज बहाव भी वर्ष में सिर्फ़ 3 महीने ही होता है। हाल के वर्षों में यमुना नदी के समूचे जलभरण क्षेत्र में सिर्फ़ 1978, 1988 तथा 1995 में ही बाढ़ देखी गई। यमुना नदी के किनारों पर स्थित जलभरण क्षेत्रों पर इसका बेहद खराब असर पड़ा और ज़मीन में पानी का पुनर्भरण ठीक से नहीं हो पाया।

विस्तारपूर्ण योजना यह है कि हमें यमुना नदी पर दिल्ली में प्रवेश (वज़ीराबाद) से लेकर निकासी (ओखला) तक छोटे-छोटे कई बैराज बनाने होंगे। ओखला बैराज से पहले यमुना नदी के जलस्तर से 30 से 40 मीटर गहरा एक बाँध बनाना होगा, इस प्रकार का एक प्राकृतिक बाँध वज़ीराबाद में पहले से ही मौजूद है, जहाँ चट्टानों से निर्मित एक प्राकृतिक बाँध है। इस प्रकार की गहरी मेढ़ भूमिगत पानी का भण्डारण तो करती ही है, साथ ही भूमिगत प्रवाह को नीचे की ओर जाने से रोकने में भी मदद करती है। इसी प्रकार फ़्लडप्लेन के इस इलाके में सही जगह पर तटबन्धों का निर्माण भी आवश्यक है।

इन छोटे-छोटे बैराजों से यमुना नदी के पानी का नियन्त्रित बहाव करवाना होगा। मानसून के दौरान अपस्ट्रीम (ऊपरी) बैराज से अतिरिक्त पानी को अगले तटबन्ध तक इस प्रकार से छोड़ना होगा और इसका जलस्तर फ़्लडप्लेन के इलाके में कुछ दिनों के लिये कम 2 फ़ुट बना रहे, जो कि अगले बैराज के गेट बन्द करके किया जा सकता है। इन फ़्लडप्लेन के रेतीले इलाकों में रीचार्ज कुँए (पुनर्जलभरण कुंए) खुदवाने चाहिये। यह 'नियन्त्रित बाढ़' की प्रक्रिया कुछ दिनों में ही यमुना नदी के समूचे बाढ़जनित जलभरण इलाके में भूजल को लबालब कर देगी। यह पाया गया है कि कालिन्दी कुंज ओखला में सिर्फ़ आधे दिन के भीतर उथले कुंओं में 8 मीटर गहरे तक पानी समाया है। नदी के समूचे रेतीले फ़्लडप्लेन इलाके में यदि मानसूनी बारिश का सिर्फ़ एक चौथाई भी संग्रहीत कर लिया जाये तो यमुना नदी अपने-आप 'बहना' शुरु कर देगी, तथा मोटी रेतीली परतों द्वारा जो पानी एकत्रित किया जायेगा वह वर्ष भर काम भी आयेगा। ऐसा ही 'जलचक्र' लगातार 2-3 साल तक दोहराने पर भविष्य में भूजल की समस्या आने की सम्भावना ही नहीं रहेगी। अब जबकि दिनोंदिन प्रत्येक नदी का बहाव कम से कमतर होता जा रहा है, यह हमारी जिम्मेदारी है कि मानसूनी दिनों की बाढ़ के पानी का उपयोग करके इसे साल भर तक बचाया जाये और उपयोग किया जाये। इस योजना के द्वारा कम से कम 700 MCM तक पानी प्राप्त किया जा सकता है, जबकि दिल्ली की कुल खपत 1100 MCM पानी की ही है।

 

पूरक टिप्पणियाँ -


1) वर्तमान में यमुना नदी का हाइड्रोजियोलॉजिकल नक्शा अधूरा है, खासकर नदी की गहराई वाले और फ़्लडप्लेन वाले इलाकों का। इसलिये यह बेहद जरूरी है कि ट्यूब-वेल (नलकूप) की एक श्रृंखला तैयार करके नदी के रेतीले 'एक्विफ़र' का पता लगाया जाये, फ़िलहाल यह काम केन्द्रीय भूजल बोर्ड कर रहा है।

2) स्वच्छ जल ज़मीन से लगभग 30-40 मीटर नीचे तक मिल जाता है, जबकि उसके नीचे जाने पर खारा व क्षारयुक्त पानी मिलता है। जब ज़मीन से बड़ी मात्रा में शुद्ध जल निकाला जाता है तो उन नलकूपों के नीचे गहरे में (30-40 मीटर नीचे) एक कोन आकार (शंकु) का गढ्ढा बन जाता है। जब नलकूपों से खारा पानी आने लगे तब पानी का दोहन तुरन्त बन्द किया जाना चाहिये, और उस खाली क्षेत्र को भरने देने का इन्तज़ार करना चाहिये, लेकिन ऐसा होता नहीं है और नलकूप सदा के लिये सूख जाते हैं।

3) जब तक नदी में बाढ़ का अतिरिक्त पानी है, तब तक फ़्लडप्लेन का भूजल नदी के स्तर से नीचे ही रहेगा, लेकिन जब यमुना नदी पल्ला (समुद्र तल से 210 मीटर) पर दिल्ली में प्रवेश करती है तथा ओखला (समुद्र तल से 198 मी) से निकलती है तब फ़्लडप्लेन के रेतीले इलाकों में एकत्रित पानी का बहाव नीचे की ओर शुरु होगा।

4) ओखला स्थित बैराज से पहले एक बड़ा भूमिगत बाँध बनाना आवश्यक है ताकि भूजल को दिल्ली से बाहर जाने से रोका जा सके।

5) उत्तरप्रदेश के फ़्लडप्लेन इलाके में काफ़ी पानी मौजूद है खासकर पल्ला से वज़ीराबाद के पूर्वी क्षेत्र में और ओखला पक्षी विहार के पूर्वी इलाके में भी। खेती के लिये सिर्फ़ 2 मीटर गहरे भूजल की आवश्यकता होती है, यह पानी किसानों को दिया जा सकता है, जबकि बाकी का 20 से 25 मीटर गहरा पानी दिल्ली की आपूर्ति के लिये उपयोग किया जा सकता है। इसी प्रकार हिन्डौन नदी के बाढ़जनित जलभरण क्षेत्रों का भी उपयोग किया जा सकता है।

6) इस बात के पक्के प्रमाण हैं कि मानव की गतिविधियों के कारण ही भूजल के 'एक्विफ़र' प्रदूषित हो रहे हैं। सीवेज के ड्रेनज की वजह से सर्वाधिक भूजल प्रदूषण फ़ैल रहा है, जैसे कि नज़फ़गढ़ ड्रेनेज को उपचारित करने की सख्त आवश्यकता है।

7) हालांकि भारतीय संस्कृति के अनुसार 'जल' की कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती यह अनमोल है, लेकिन फ़िर भी यदि अर्थशास्त्रियों को सन्तुष्ट करना ही हो तो यह आँकड़े भी दिये जा सकते हैं, कि दिल्ली में पानी की सप्लाई करने वाले निजी टैंकर 10,000 लीटर के टैंकर हेतु 1000 रुपये ले रहे हैं, यदि हमारी योजना के अनुसार यमुना का जल बचाया जा सका, तो इसकी कीमत 6000 से 9000 करोड़ रुपये की होगी। यदि खराब पानी की रीसाइक्लिंग (पुनर्चक्रीकरण) भी किया जाये तो यह कीमत लगभग 100 रुपये प्रति किलोलीटर होती है। अर्थात दूसरे शब्दों में कहा जाये तो इस योजना से यमुना के फ़्लडप्लेन के भूजल में एकत्रित पानी द्वारा देश की वार्षिक बचत 6000 से 9000 करोड़ रुपये होगी। समस्या यह है कि जलजमाव क्षेत्रों की वास्तविक क्षमता के बारे में ज्ञान का अभाव है, और भ्रष्ट अधिकारी इस अमूल्य ज़मीन पर निर्माण की इजाजत दिये जा रहे हैं, जबकि यह ज़मीन मास्टरप्लान में भूजल प्राधिकरणों द्वारा संरक्षित की गई थी। यह सारी कार्रवाई NEERI और केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करके जारी है। हाल ही में दिल्ली मेट्रो ने 13 लाख टन का फ़्लाय-ऐश (राख) यमुना के इन फ़्लडप्लेन में फ़ेंक दिया है।

 

निष्कर्ष -


हमारा सुझाव है कि यमुना नदी के इन फ़्लडप्लेन की रक्षा की जाये और छोटे-छोटे बाँध बनाकर पानी का नियन्त्रित बहाव रखा जाये ताकि भूजल के स्तर में बढ़ोतरी हो सके। नदी के इस जलभरण क्षेत्र द्वारा सरकारों का पैसा तो बचेगा ही, साथ ही साथ पर्यावरण सुधार को भी मदद मिलेगी। इस प्रकार की नदियों के आसपास दिल्ली जैसे ही सैकड़ों शहर बसे हुए हैं, ऐसी ही योजना लागू करके जल संकट के इस दौर में भूजल का स्तर अच्छा खासा ऊपर उठाया जा सकता है।

तात्पर्य यह कि यमुना नदी के जलभरण क्षेत्रों की पानी स्टोर करने की क्षमता दिल्ली के सभी जलस्रोतों की कुल क्षमता से 160 गुना अधिक है, क्योंकि मानसूनी महीनों में यमुना से अत्यधिक पानी आगे बेकार चला जाता है और इस पानी से भूजल को रीचार्ज किया जा सकता है, क्योंकि यमुना के फ़्लडप्लेन रेतीले हैं। यमुना के पानी की एक-एक बूंद बचाना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है, और यह हमारी संस्कृति भी है।

 

 

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