दिशा बोध का उदाहरण है नालन्दा का सूरजकुण्ड तालाब 

प्रतीकात्मक फोटो।
प्रतीकात्मक फोटो।

पिछले दिनों बिहार राज्य के नालन्दा के खंड़हरों से लगभग डेढ़ किलोमीटर आगे सूर्य मन्दिर के निकट स्थित सूरजकुण्ड तालाब को देखने का हम तीन साथियों (ज्ञानेन्द्र रावत, अरुण तिवारी और लेखक) को अवसर मिला। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार यह तालाब कृष्ण कालीन है और रुकमणी जी का स्थान है। इस तालाब के पास दो गांव - सूरजपुर और बडगांव स्थित हैं। सूरजपुर लगभग 2500 घरों का बडा गांव है। यहां सूर्य मन्दिर बहुत प्राचीन मन्दिर है। हर साल चैत्र माह में लगभग एक लाख लोग सूर्य को अध्र्य चढ़ाने आते हैं। इस तालाब का आकार चकोर है। तालाब के अन्दर, चारों कोनों पर कुए तथा बीच में बावडी है। कुओं तथा बावडी की मौजूदगी की जानकारी छोटन पान्डे जो स्थानीय मन्दिर में पुजारी हैं, ने दी। तालाब से अतिरिक्त पानी की निकासी के लिए वेस्टवियर है। वह वेस्टवियर तालाब के नीचे स्थित खेतों को पानी प्रदान करता है। अन्त में उसका पानी पईन को मिल जाता है। 

प्रतीकात्मक फोटो।प्रतीकात्मक फोटो।इस क्षेत्र में बरसात में मुख्यतः धान और बरसात के बाद गेहूँ और चना लिया जाता है। इस इलाके में आहर ही पानी का भरोसेमन्द स्रोत रहा है। छोटन पान्डे बताते हैं कि बहुत साल पहले पड़े भीषण अकाल में स्थानीय मुगल नवाब ने आहर के पानी को पईन के माध्यम से सूरजकुण्ड तालाब तक पानी प्रदान किया था। तालाब की एक भुजा जो पईन को लगभग नब्बे डिग्री पर मिलती है, पर अब पक्की सडक बन गई है। कुछ साल पहले तक सूरजकुण्ड तालाब को पईन से पानी मिलता था। अब वह व्यवस्था, सूरजपुर और बडगांव से आनेवाले मल-मूत्र के पईन में सीधे-सीधे मिलने के कारण बन्द कर दी गई है। इस कारण सूरजकुण्ड तालाब में पानी की आवक का पुराना परम्परागत रास्ता बन्द हो गया है। 

राज्य सरकार ने तालाब में पानी की उपलब्धता की समस्या को हल करने के लिए उसकी सीमा पर, सड़क के निकट एक नलकूप बनवा दिया है। नलकूप का पानी ही, अब तालाब में पानी की कमी को पूरा करता है। कुछ साल पहले सूरजकुण्ड तालाब की गाद निकाली गई थी। चूँकि गाद को तालाब के ऊपरी क्षेत्र में आसपास ही डाल दिया था इस कारण वह, बरसात में, पानी के साथ बहकर, वापिस फिर तालाब में जमा हो गई। यह प्राचीन तालाब आज भी अच्छी हालत में है। मौजूदा समय में पानी की कमी के बढ़ने के कारण जल स्रोतों की विश्वसनीयता पर संकट बढ़ रहा है। इसके बावजूद, समाज के मन में आज भी परम्परागत स्रोतों के प्रति अनुराग है। यह अनुराग उनकी लम्बी आयु, स्वच्छ जल और बारहमासी गुणों के कारण है। उनकी सेवा के कारण है।

देश के अन्य राज्यों की ही तरह बिहार में भी पानी का संकट बढ़ रहा है। आवश्यक है कि जल संकट निदान के अन्य विकल्पों के साथ-साथ आहर-पईन के विकल्प को भी आजमाया जाए। उल्लेखनीय है कि इस विकल्प ने बिहार के बहुत सारे मुश्किल इलाकों में खेती को निरापद बनाया था। उनकी निर्माण तकनीक देशज और बेहद सहज है। स्थानीय समाज उसे समझता है। उस पर विश्वास करता है। यह कहना काफी हद तक सही है कि बिहार के बहुत सारे प्रतिकूल इलाकों में आहर-पईन का विकल्प समय की कसौटी पर खरा उतरना विकल्प है। यह एक परस्पर निर्भर अन्तरंग जल संचय तथा जल वितरण प्रणाली है। उस अन्तरंग प्रणाली के मुख्य अंग हैं, कैचमेंट, आहर, पईन, वेस्टवियर और सूरजकुण्ड तालाब जैसी संरचनाऐं जो पानी से जुड़ी अनेक सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करती हैं। यह तालाब सुचारु संचालन का संकेतक भी हैं। इस अन्तरंग प्रणाली को समग्रता में समझने के लिए आवश्यक है कि हम आहर-पईन के विभिन्न घटकों के योगदान और उस योगदान को हानि पहुँचाने या कम करने वाले घटकों को अच्छी तरह समझ लें। क्रियान्वयन की उपयुक्त रणनीति का रोडमेप बना लें। समाज से जुड़कर रोडमेप पर अमल करें। आहर-पईन की पुरानी विश्वसनीय सेवा लौट आएगी। 

इस क्रम में सूरजकुण्ड की परस्पर निर्भर अन्तरंग प्रणाली को समग्रता में समझने की आवश्यकता है। सूरजकुण्ड की परस्पर निर्भर प्रणाली का पहला अन्तरंग हिस्सा है - पईन जो उसे पानी उपलब्ध कराती है। उसी क्रम में आगे हैं खेतों से होने वाला सतत रिसाव और कुओं तथा बावडी के माध्यम से तालाब को होने वाला भूजल का योगदान। उसी क्रम में आगे हैं आहर का योगदान जो कैचमेंट की ईल्ड पर निर्भर है। कैचमेंट ईल्ड निर्भर है बरसात तथा उसके साल-दर-साल बदलने वाले व्यवहार तथा उसको प्रतिकूल तरीके से प्रभावित करने वाले घटकों पर। यह टाॅप-डाउन व्यवस्था है। इन घटकों में प्रमुख है जल संचय, पानी का सीधा उठाव और भूजल दोहन। 

अब बात आहर-पईन के घटकों के जीर्णोद्धार की। सबसे पहले बात बरसात की।  बरसात के अनुकूल या प्रतिकूल व्यवहार अर्थात जलवायु बदलाव पर हमारा नियंत्रण नहीं है। उसके अनुकूल व्यवहार का अर्थ है जल प्रदाय व्यवस्था को और अधिक उपयोगी बनाना। प्रतिकूल व्यवहार ही असली समस्या है। उसे समझना आवश्यक है। उसे समझ कर कुदरती और कृत्रिम घटकों को समझ सकते हैं। किसी हद तक कृत्रिम घटकों को अनुकूल बनाया जा सकता है। आहर तक पहुँचने वाले पानी की मात्रा को इश्टतम बनाया जा सकता है। यह काम आहर-पईन के जीर्णोद्धार की योजना का अनिवार्य अंग है। उसे पानी के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग की मदद से किसी हद तक हासिल किया जा सकता है। दूसरा काम है, बिना आहर के मूल चरित्र को नुकसान पहुँचाए, गाद की सुरक्षित निकासी। यह काम आहर की जल संचय क्षमता को बढ़ाएगा। यह काम तभी उपयुक्त तथा सफल होगा जब कैचमेंट ईल्ड अनुकूल बन चुकी होगी। तीसरा काम है पईन की मरम्मत। बिना व्यवधान पानी का परिवहन। यह व्यवस्था नहरों की तर्ज पर है पर यदि उसके मार्ग में कहीं सीवर का पानी उसे प्रदूषित कर रहा है तो उसकी रोकथाम आवश्यक होगी। यह काम भी आहर-पईन के जीर्णोद्धार की योजना का एक अंग है जो उसकी अस्मिता को लौटाता है। चतुर्थ काम है वह जिसका उदाहरण सूरजकुण्ड तालाब में देखने को मिलता है। वह है तालाब में पानी के आने के दो स्रोत विकसित करना। उसके लिए माकूल व्यवस्था कायम करना। यह काम पूरी व्यवस्था को समग्रता में समझ कर क्रियान्वित करने का परिणाम है। इसे हमारे पूर्वजों ने कर दिखाया था। खेती और जल संकट को दूर करने के लिए आज इसी प्रकार की दुहरी व्यवस्था की आवश्यकता है। उम्मीद है, बिहार सरकार का आहर-पईन जीर्णोद्धार प्रोग्राम उसी समन्वित सोच को जमीन पर उतारने का उदाहरण बनेगा तथा धान के इलाकों के लिए मिसाल बनेगा। 
 

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