दो नदियों की प्रेमगाथा

14 Apr 2013
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हिमाचल के लाहौल स्पीति जिले में बहती चंद्रभागा नदी का सौंदर्य और बहाव अनोखा है। किवदंतियों और पौराणिक कथाओं से जुड़ी यह नदी तीर्थयात्रियों के साथ ही दूसरे पर्यटकों को भी आकर्षित करती है। इसके धार्मिक महत्व और सुंदरता के बारे में बता रहे हैं अश्वनी वर्मा।

चंद्र और भागा नदी का मिलन स्थलचंद्र और भागा नदी का मिलन स्थलहिमाचल के लाहौल स्पीति जिले में अथाह सौंदर्य है। हिमालय की गोद में बसे इस जिले में चंद्रभागा नदी में अनोखा प्रवाह है। चंद्र नदी चंद्रमा की पुत्री और भागा सूर्य का पुत्र माना जाता है। किसी कारणवश इनकी शादी में अड़चने आईं लेकिन इन्होंने अपना मिलन नदी के रूप में एक होकर किया। इन्होंने जल तत्व के रूप में अपना ठिकाना यहां बनाया। एक तरफ से चंद्र आती है तो दूसरी तरफ से भागा। तांदी नामक स्थल पर ये दोनों एकरूप हो जाती हैं। यहां पर ये बड़ी नदी का रूप ले लेती हैं। कहते हैं कि बाद में यह चंबा जिले में पहुँचकर चिनाब का नाम ले लेती है। तांदी में इनके मिलन को चंद्रभागा के रूप में देखा जाता है। चंद्रभागा को गंगा-सा पवित्र माना जाता है। लोग अभी भी नदी की पवित्रता के कारण यहां अस्थियां बहाते हैं। जहां से चंद्र नदी बहती है, उसे रंगोली घाटी के नाम से जाना जाता है। जबकि भागा नदी के बहाव के स्थान को पत्तन घाटी के रूप से जाना जाता है। मिलने से पहले चंद्र और भाग के बीच के स्थान में एक बड़ी त्रिभुज की आकृति बनती है। इन नदियों के अलावा जंस्कर नदी, स्पीति नदी और पिन नदी भी लाहौल स्पीति से गुजरती है। यह लाहौल घाटी के उत्तर में बहती है। इसे भागा की ही सहायक नदी माना जाता है।

स्पीति नदी स्पीति में है जो किन्नौर जिले के खाब स्थान पर सतलज में मिल जाती है। पिन नदी स्पीति की सहायक नदी है। यहां घाटियों में चंद्रा घाटी, तीनन घाटी, पट्टन घाटी, मयाड़ घाटी, गोर घाटी, तोद घाटी और स्पीति घाटी मशहूर है। तीनन घाटी के लोगों को तिनबबा कहते हैं। यहां राजा घेपन का मंदिर है। घेपन का अध्यात्म की दृष्टि में ऊंचा स्थान है। लाहौल में प्रवेश करते ही सबसे पहले मनमोहक चंद्र घाटी के दर्शन होते हैं। यहां पर बौद्ध धर्म से जुड़े अधिक लोग हैं। पट्टन घाटी में बौद्ध धर्म का काफी प्रसार हुआ माना जाता है लेकिन यहां पर अधिकतर हिंदू लोग ही रहते हैं। त्रिलोकीनाथ मंदिर और मृकुला देवी मंदिर इसी घाटी में पड़ते हैं। मयाड़ नाले के निकट मयाड़ा घाटी बसी है। गार घाटी जिला मुख्यालय केलंग का ही हिस्सा है। लद्दाख की तरफ तोद घाटी है। बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले अधिकतर लोग स्पीति घाटी में रहते हैं। यहां के मठों की चित्रकला प्रसिद्ध है।

उदयपुर एक गांव है जो चंद्रभागा के बाईं ओर है। जहां चंद्र और भागा का मिलन होता है, वहां से करीब सैंतीस किलोमीटर की दूरी पर त्रिलोकनाथ गांव है। हिंदुओं के लिए यह भक्ति केंद्र रहा है। जिसे शैव पीठ भी कहा जाता है। यहां मंदिर शिखर शैली का है, जहां पत्थर का ही प्रयोग हुआ है। साथ ही सीढ़ियां उतरकर बौद्ध मंदिर है। इसमें एक बड़ा धर्म चक्कर है। दूसरे गेट पर मुख्य मंदिर है। यहां छह भुजाओं वाली भगवान त्रिलोकी नाथ का मंदिर है। सिर पर बौद्ध की आकृति है। बौद्ध त्रिलोकीनाथ की प्रतिमा को अवलोकितेश्वर के रूप में तो हिंदू शिव के रूप में पूजते हैं। यानी हिंदुओं और बौद्धों के लिए यह स्थान साझा आध्यात्मिक स्थल है। मंदिर से जुड़ी अपनी गाथा है। भगवान शिव यहां तपस्या में मग्न रहे। मान्यता है कि वे यहां अज्ञात रूप से रहते हैं। पार्वती शिव से मिलने के लिए बेचैन थीं तो नारद और पार्वती ने उन्हें ढूंढा। लोककथा है कि शिव ने पार्वती को यहां अपने तीन विराट रूप दिखाए थे। तभी स्थान की मान्यता त्रिलोकीनाथ के तौर पर है। गांव त्रिलोकपुर के नाम से जाना जाता है।

और भी किवदंतियां इस मंदिर के बारे में प्रचलित है। एक गड़रिए और त्रिलोकनाथ के पत्थर होने की कहानी भी इस स्थान से जुड़ी है। पहले इस गांव का नाम तुंदा बताया जाता है। इस गांव की कुछ दूरी पर हिन्सा गांव था। जहां टिंडणू गड़रिया रहता था। जो गांव वालों की भेड़-बकरियां चराता था। पर इन बकरियों का दूध कोई दुह लेता था। इसका न तो गांव वालों को और न ही गड़रिए को पता चलता था। गांव वालों ने मिथ्या आरोप टिंडणू पर जड़ दिए कि वह उनकी बकरियों का दूध चुरा लेता है। इस आरोप से टिंडणू तिलमिला गया।

चंद्र नदी चंद्रमा की पुत्री और भागा सूर्य का पुत्र माना जाता है। किसी कारणवश इनकी शादी में अड़चने आईं लेकिन इन्होंने अपना मिलन नदी के रूप में एक होकर किया। इन्होंने जल तत्व के रूप में अपना ठिकाना यहां बनाया। एक तरफ से चंद्र आती है तो दूसरी तरफ से भागा। तांदी नामक स्थल पर ये दोनों एकरूप हो जाती हैं। यहां पर ये बड़ी नदी का रूप ले लेती हैं।

अपमान के घूंट पीकर रह गया था वह। पर उसने इस आरोप को झूठा साबित करने और चोर को ढूंढ निकालने का संकल्प लिया। उसने एक स्थान पर देखा कि एक पानी के स्रोत से सात मानव आकृतियां निकलीं और उन्होंने बकरियों को दुहना शुरू कर दिया। इन्हें पकड़ने की टिंडणू ने कोशिश की लेकिन सफेद कपड़ों में एक व्यक्ति को ही पकड़ पाया। इस व्यक्ति ने टिंडणू से उसे छोड़ने का आग्रह किया। पर टिंडणू पर तो चोर को पकड़ने से अधिक वह अपने मिथ्या आरोप को झुठलाना चाहता था। पर वह उसे गांव हिन्सा तक ले आया। वहां गांव वालों को उसने इस चोर के बारे में बताया। पर ग्रामीणों को लगा कि यह व्यक्ति मानव नहीं है। उन्हें लगा कि यह कोई देवता है। जिस कारण वहां के लोगों ने घी और दूध से उस व्यक्ति की पूजा की।

उसने बताया कि वह त्रिलोकनाथ है और यहीं कहीं वह रहना चाहेंगे। उन्हें तुंदा गांव बहुत पसंद आया। बाद में उन्होंने टिंडणू को कहा कि वह उस जगह पर भी पूजा करके आएं जहां से वह उन्हें लेकर आया है। पर पीछे मुड़कर न देखने की त्रिलोकनाथ ने उसे सलाह दी। पूजा करने गए टिंडणू को वहां सात झरने दिखाई दिए। जिन्हें अब सप्तधारा के नाम से जाना जाता है। पर टिंडणू ने मुड़कर अपने गांव हिन्सा पहुंचने पर ही देखा। ऐसा करने से त्रिलोकनाथ और स्वयं टिंडणू भी पत्थर हो गए। जिस कारण तुंदा गांव का नाम त्रिलोकीनाथ पड़ा। यहां पर मंदिर बना। कहते हैं कि पांडव बनवास के समय यहां आए थे। उन्होंने इस मंदिर को फिर से बनाना शुरू किया था। लेकिन, गुप्तचरों ने कौरवों को यहां होने की खबर दे दी, जिसे पांडवों ने जान लिया और पांडव यहां से निकल गए।

इस कारण मंदिर का काम यहां अधूरा रह गया था। बाद में भी मंदिर के जीर्णोद्धार होता रहा। यहां पर फागली और कुह मेले का आयोजन होता है। लोहिड़ी और फागली के मेले भी होते हैं। हर तीसरे साल त्रिलोकीनाथ की जुलाई में शोभायात्रा निकाली जाती है। यह यात्रा सप्तधारा तक जाती है। कहा जाता है कि त्रिलोकीनाथ सप्तधारा में अपने साथियों से मिलने जाते हैं। अगस्त में यहां पोरी मेला होता है। मनाली-केलांग-उदयपुर सड़क बन जाने के कारण यहां पर अब मेलों के अवसर पर बहुत भीड़ होती है।

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