दोस्तों को हम दूर कर रहे हैं

8 Oct 2014
0 mins read
[object Object]
डॉल्फिन

विश्व वन्यजीव सप्ताह पर विशेष


विश्व वन्यजीव संगठन के ताजा आंकड़े कह रहे हैं कि हमने पिछले 40 सालों में प्रकृति के 52 फीसदी दोस्त खो दिए हैं। बीते सदी में बाघों की संख्या एक लाख से घट कर तीन हजार रह गई है। स्थल चरों की संख्या में 39 फीसदी और मीठे पानी पर रहने वाले पशु व पक्षी भी 76 फीसदी तक घटे हैं। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में कई प्रजातियों की संख्या 60 फीसदी तक घट गई है।

यह आंकड़ों की दुनिया है। हकीकत इससे भी ज्यादा बुरी हो सकती है। इंसान यह सोचकर बच नहीं सकता है कि वन्यजीव घट रहे हैं तो इससे उसकी तरक्की का कोई लेना-देना नहीं है। हकीकत यही है कि प्रकृति की कोई रचना निष्प्रयोजन नहीं है, अगर कोई चीज बिना प्रयोजन के होती है तो प्रकृति उसे समय के अंतराल के साथ खुद ही खत्म भी कर देती है।

आदमी की पूंछ का खत्म होना इसका बेहतरीन उदाहरण है। वैसे अगर मनुष्य या व्यवस्था के कृत्यों की वजह से कोई रचना नष्ट होती है तो इसका मतलब है कि कुदरत की गाड़ी से एक पेच या पार्ट हटा देना। वन्य जीवों से शुरू हुए संकट अब विस्तार पाकर पूरी जैवविविधता पर छा गए हैं।

जीवन की नर्सरी खतरे में


जैवविविधता के मामले में दुनिया की सबसे समृद्ध गंगा घाटी का हाल किसी से छिपा नहीं है। भागलपुर का गंगा क्षेत्र, डॉल्फिन रिजर्व एरिया के तौर पर दर्ज है; फिर भी डॉल्फिन के अस्तित्व पर खतरे की खबरें खूब हैं। समुद्री खारे पानी पर पलने वाली जैवविविधता में गिरावट लगातार जारी है। मूंगाभित्तियां पृथ्वी पर पर्यावरणीय संतुलन की सबसे प्राचीन कहे जाने वाली प्रणाली है।

मूंगाभित्तियां कार्बन अवशोषित करने का प्रकृति प्रदत अत्यंत कारगर माध्यम हैं। हमारी पृथ्वी पर जीवन का संचार सबसे पहले मूंगाभित्तियों में ही हुआ। इन्हें जीवन की नर्सरी कहा जाता है। खतरा अब, जीवन की इस नर्सरी पर भी है। हम मूंगाभित्तियों का कई लाख वर्ग हेक्टेयर क्षेत्र खो चुके हैं। दुनिया का सबसे बड़ा जीवंत ढांचा कहे जाने वाले ग्रेट बैरियर रीफ का अस्तित्व खतरे में है। जब जीवन की नर्सरी ही खतरे में हो, तो जीवन बचेगा.. यह गांरटी कर पाना मुश्किल है।


डॉल्फिनडॉल्फिन जैवविविधता पर बढ़ रहे खतरे के कारण हैं बढ़ता तापमान, बढ़ता पर्यावरणीय असंतुलन, बढ़ता कार्बन, कचरा, बढ़ता जहर और बढ़ता उपभोग। अध्ययन बताते हैं कि आज हमने वातावरण में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा इतनी बढ़ा ली है, जितनी कि पिछले 10 लाख सालों में कभी नहीं बढ़ी। हम इतना उपभोग करने लग गए हैं, जितना कि हमारे पूर्वजों ने कभी नहीं किया।

दुनिया यदि अमेरिकी लोगों जैसी जीवनशैली जीने लग जाए तो हमारा गुजारा होने वाला नहीं है। यह काल्पनिक बात नहीं है कि धरती, पानी, हवा, जंगल, बारिश, खनिज, मांस, मवेशी... कुदरत की सारी नियामतें अब इंसानों के लिए कम पड़ने लगी हैं। इंसानों ने भी तय कर लिया है कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ और सिर्फ इंसानों के लिए है।

सिमट रही है देहाती दुनिया


संकट असल में रिश्तों का ही है। औरों को क्या कहूं, पहले मैं दिल्ली के जिस मकान में रहता था, वह मकान छोटा था, लेकिन उसका दिल बहुत बड़ा था। क्योंकि वह मकान नहीं, घर था। उसमें चींटी, चिड़िया से लेकर सांप और केचुएं तक सभी के रहने की जगह थी। अब मकान थोड़ा बड़ा हो गया है। मंजिलें बढ़ी हैं; लेकिन साथ-साथ रोशनदानों पर बंदिशें भी। मेरी बेटी गौरया का घोसला देखने को तरस गई है।


बाघबाघकबूतर की बीट से नीचे वालों को भी घिन आने लगी है। चूहे, तिलचट्टे, मच्छर और दीमक जरूर कभी-कभी अनाधिकार घुस पैठ जाते हैं। उनका खात्मा करने का ‘हिट’ आइडिया जो हमारे हाथों में आ गया है। हमने ऐसे हालात पैदा करने शुरू कर दिए हैं कि यह दुनिया.. दुनिया के दोस्तों के लिए ही नो एंट्री जोन में तब्दील होने वाली है। ऐसे में जैवविविधता बचे, तो बचे कैसे?

यह तो दुनिया शहर की। देहात के दरवाजे इतने नहीं, पर कुछ संकीर्ण तो जरूर ही हुए हैं। शौच की ताजा सुविधा ने गांवों मे झाड़ व जंगलों में निपटने की रही-सही जरूरत को ही निपटाना शुरू कर दिया है। नतीजा यह है कि जंगल के घोषित सफाई कर्मचारी सियार अपनी ड्यूटी निपटाने की बजाय खुद ही निपट रहे हैं। भेड़-बकरियों के चारागाह हम चर गए हैं। नेवला, साही, गोहटा के झुरमुट झाड़ू लगाकर साफ कर दिए हैं। हंसों को हमने कौवा बना दिया है। नीलगायों के ठिकानों को ठिकाने लगा दिया है।


गिद्धगिद्धउधर बैसाख-जेठ में तालाबों के चटकते धब्बे और छोटी स्थानीय नदियों की सूखी लकीरें इन्हे डराने लगी हैं और उधर इंसान की हांक व खेतों में खड़े इंसानी पुतले। हमने ही उनसे उनके ठिकाने छीने। अब हम ही उन पर पत्थर फेंकते हैं, कहीं-कहीं तो गोलियां भी। वन्य जीव संरक्षण कानून आड़े न आए, तो हम उन्हें दिन-दहाड़े ही खा जाएं। बाघों का भोजन हम ही चबा जाएं। आखिर वे हमारे खेतों में न आएं, तो जाएं, तो जाएं कहां?

उपयोग का अनुशासन सीखें


हो सकता है कि जब कभी हम वन्य जीव सप्ताह के इस मौके पर हम सप्ताह-सप्ताह खेल रहे हों; जब हमारेे मीडिया दोस्त स्पेशल स्टोरी दिखा रहे हों..... मेरे गांव के सियार प्यास से बिलबिला रहे हों और पत्थर के निशाने पर आकर कोई बेबस नील गाय चोट से कराह रही हो। ..तो क्या बाघ, गिद्ध, घड़ियाल, डॉल्फिन आदि...आदि के बाद अब सियार, नीलगाय, गौरैया वगैरह के लिए भी कोई अभ्यारण्य या आरक्षित क्षेत्र बनाया जाए? हो सकता है कि कोई संस्था सुन ले और यदि मांग कर बैठे। लेकिन यह उपाय नहीं है। उपाय है, भोग की जगह, उपयोग का अनुशासन।

यही रफ्तार जारी रही, तो एक दिन यह पृथ्वी कम पड़ जाएगी, इंसानी लालच के लिए और आंसू कम पड़ जाएंगे अपनी गलतियों पर रोने के लिए। प्रकृति अपना संतुलन खुद करती ही है। एक दिन वह करेगी ही। यह तय है। अब तय तो सिर्फ हमें करना है कि सादगी को शान बनाएं, प्रकृति व उसकी दूसरी कृतियों को उनका हक लौटाएं।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading