धरती की किस्मत का फैसला

15 Mar 2010
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क्योतो के धरती सम्मेलन में प्रस्ताव हुआ था कि चालीस सबसे बड़े औद्योगिक देश सन् 2008-2012 के दौरान अपना कॉर्बन छोड़ना सीमित करते जाएंगे ताकि धरती सांस तो ले सके। प्रस्ताव हो गया, लेकिन अमेरिका ने कभी उसे सूंघा भी नहीं। जिसे अमेरिका स्वीकार न करे, उसे अमेरिका बनने की मरीचिका के पीछे भागते देश कितनी गंभीरता से लेंगे? 
कोपेनहेगन में धरती के भविष्य की चिंता में दुबले हुए जा रहे 115 देशों के बड़े नेताओं और कुल 193 देशों के उपस्थित लोगों ने हमें क्या दिया?

चीन और भारत ने इस सम्मेलन में एक तरह का साझा रवैया अपनाया और बड़े राष्ट्रों की बड़ी बातें सुनने की जगह, अपनी बातें कहने की कोशिश की। यह कुछ इस तरह हुआ कि राष्ट्रपति ओबामा को इसमें किसी षड्यंत्र की बू आई और वे अनामंत्रित ही, उस कमरे में जा धमके, जिसमें भारत-चीन अपने जैसे देशों के साथ चर्चा में लगे थे। इस बिनबुलाए मेहमान ने कमरे में घुस कर सीधा ही कहा कि आप लोग छिप कर कोई समझौता तैयार करें, यह मुझे मंजूर नहीं है। और फिर पैंतालीस मिनट तक वे वह रास्ता बनाने में लगे रहे, जिससे दुनिया से कह सकें कि कोपेनहेगन सम्मेलन विफल नहीं हुआ है और राष्ट्रपति ओबामा ने ही उसे बचा लिया है।

सच्चाई यह है कि कोपेनहेगन में दुनिया भर के नामीगिरामी लोग जमा हुए और बहुत सारा प्रदूषण फैला कर, धरती की सूरत थोड़ी और बिगाड़ कर विदा हो गए। ब्रितानी प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने इंग्लैंड पहुंचते ही तीखी टिप्पणी की: कुछ देशों ने सारे सम्मेलन को ही बंधक बना कर रखा था। वे चीन-भारत की तरफ इशारा कर रहे थे। भारतीय मंत्री जयराम रमेश ‘वहां सब अच्छा ही हुआ’ से ज्यादा कुछ कह नहीं सके।

ऐसा क्यों हुआ? ऐसा क्यों होता है कि हम चिंता तो बहुत जताते हैं, लेकिन कुछ करने के वक्त बहुत कमजोर साबित होते हैं? कोपेनहेगन में इसे समझना आसान हुआ।

धरती की सूरत बिगड़ी है, इस पर सभी एक राय हैं: और भविष्य संकटों से घिरता जा रहा है, इस बारे में भी कोई विवाद नहीं है। लेकिन धरती की सूरत कौन संवारे और कैसे संवारे, इस बारे में न कोई राय बनती है और न कोई खुली बातचीत होती है।

ऐसा इसलिए है कि सारी दुनिया यह माने बैठी है कि विकास की दिशा एक ही है। दुनिया के हर मुल्क को यूरोप-अमेरिका बनना है और उसके लिए हर उस रास्ते का इस्तेमाल करना है, जिनका इस्तेमाल इन मुल्कों ने किया था, कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। इसका सीधा मतलब यह है कि हम सभी मानते हैं कि विकास कोई ऐसा फल है जिसे पाने के लिए पूर्ण विवेकहीनता जरूरी है।

यूरोप-अमेरिका और ऐसे मॉडल पर काम करने वाले सभी देशों ने ऐसा ही किया है, ऐसा ही कर रहे हैं। दूसरी स्थिति यह है कि यूरोप-अमेरिका नहीं चाहते हैं कि दुनिया के दूसरे देश आगे बढ़ें और किसी भी स्तर पर उनकी बराबरी में आएं। इसलिए वे इस बात से सावधान हैं कि दुनिया में कहीं कभी, कोई ऐसी बात न चल पड़े जिससे उन्हें अपनी राजनीतिक सामाजिक स्थिति में और जीवन-शैली में परिवर्तन करना पड़े या उसे स्वीकार करने पर लाचार होना पड़े। कई साल पहले हुए रिओ के धरती सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति कार्टर ने कहा था कि अमेरिकी जीवन-शैली से कोई भी समझौता करने की बात उन्हें स्वीकार नहीं है।

धरती संकट में है, ऐसी बात करने वाले धरती की फिक्र सबसे कम करते हैं, क्योंकि धरती की फिक्र भी आप करें और विकास का यह मॉडल भी चलाएं, यह साथ-साथ संभव नहीं है। धरती की फिक्र अगर आप करते हैं तो आपको विकास का अपना मॉडल बनाना होगा और दूसरे मॉडल की तरफ देखकर ललचाना छोड़ना होगा।
आज के राष्ट्रपति ओबामा भी कई अवसरों पर इसी तरह की चेतावनी दे चुके हैं। धरती पर आज सबसे बड़ी समस्या का नाम है मनुष्य! उसकी भूख अजगरी है। वह ऐसी अतृप्त आकांक्षा वाला प्राणी बन गया है (नहीं, सच तो यह है कि बाजारों-सरकारों ने उसे ऐसा ही बनाया है!) कि जो अपना खून पीकर भी चेत नहीं रहा है। यहां हर किसी को द्रौपदी का बटुआ चाहिए और वह भी केवल अपने लिए चाहिए। महाभारत की कथा कहती है कि द्रौपदी का बटुआ (अक्षय पात्रा) ऐसा था कि जो कभी खाली नहीं होता था। जब भी कोई भूखा, जरूरतमंद आ पहुंचे, उस बटुए में से उसकी भूख धरती संकट में है, ऐसी बात करने वाले धरती की फिक्र सबसे कम करते हैं, क्योंकि धरती की फिक्र भी आप करें और विकास का यह मॉडल भी चलाएं, यह साथ-साथ संभव नहीं है। धरती की फिक्र अगर आप करते हैं तो आपको विकास का अपना मॉडल बनाना होगा और दूसरे मॉडल की तरफ देखकर ललचाना छोड़ना होगा।

शांत करने लायक कुछ-न कुछ मिल ही जाता था। आज वह बटुआ हर किसी को चाहिए- बगैर यह सोचे कि वह बटुआ भी अगर द्रौपदी केवल अपने लिए रख लेती तो उसका चमत्कार बना रहता या नहीं। वह बटुआ किसी भूखे, जरूरतमंद के लिए ही अक्षय बन जाता था। महाराज युधिष्ठर के किसी जलसे में द्रौपदी के बटुए से पकवान परोसे गए हों, ऐसी कथा नहीं पढ़ी है हमने।

धरती के सारे संसाधन सीमित हैं और पता नहीं कितने-कितने हजार-लाख वर्षों की रहस्यमयी तकनीक से प्रकृति ने उन्हें बनाया है। हमें वह सब बना-बनाया मिला है तो हम उसका मनमाना इस्तेमाल करने में पागलों की तरह जुटे हैं। मनमानेपन का चरित्र ही यह है कि जिस हाथ में जितना बल, उसकी उतनी अधिक मनमानी। इसलिए क्योतो का प्रस्ताव अर्थहीन साबित हुआ।

विकास का हमारा सारा राजमहल कॉर्बन के जहरीले बादलों में घिरता जा रहा है। इसलिए इतना शोर उठाया जा रहा है। और विचित्रा बात यह है कि इसमें सभी शामिल हैं। अपने होने से दुनिया को दहलाती महाशक्तियां भी और अस्तित्व के बोझ से कांपते हाशिए के देश भी। लेकिन चक्कर यह है कि आप इन जहरीले बादलों को साफ नहीं कर सकते! ये साफ तभी होंगे जब आप अपना राजमहल भी साफ करने को तैयार होंगे। यहां सफाई का मतलब झाडू बुहारना नहीं, जोर से झाडू मारना है। आप यह करना चाहेंगे तो आपका राजमहल भी प्रभावित होगा, उसमें भी बदलाव करना होगा।

बस, यहीं आकर सारी बात ठिठक जाती है। वे अपना राजमहल बदलना नहीं चाहते हैं, हम अपना वैसा ही राजमहल बनाना रोकना नहीं चाहते हैं।

विकासशील देश कहते हैं: तुमने सारी मलाई खा ली, अब हमें रोकना चाहते हो? विकसित देश कहते हैं: हम मलाई खाना छोड़ नहीं सकते हैं, क्योंकि वह हमारे क्योतो के धरती सम्मेलन में प्रस्ताव हुआ था कि चालीस सबसे बड़े औद्योगिक देश 2008-2012 के दौरान अपना कॉर्बन छोड़ना सीमित करते जाएंगे ताकि धरती सांस तो ले सके। प्रस्ताव हो गया, लेकिन अमेरिका ने कभी उसे सूंघा भी नहीं। जिसे अमेरिका स्वीकार न करे, उसे अमेरिका बनने की मरीचिका के पीछे भागते देश कितनी गंभीरता से लेंगे?

जीवन का हिस्सा बन चुका है। लेकिन आप सभी मलाई खाना सीमित करें, इसमें हम आपकी सहायता भी करना चाहते हैं और आपकी पहरेदारी भी।

धरती के सारे संसाधन सीमित हैं और पता नहीं कितने-कितने हजार-लाख वर्षों की रहस्यमयी तकनीक से प्रकृति ने उन्हें बनाया है। हमें वह सब बना-बनाया मिला है तो हम उसका मनमाना इस्तेमाल करने में पागलों की तरह जुटे हैं।
चीन, भारत जैसे देश जो दोनों के बीच की किसी काल्पनिक संधि रेखा पर खड़े हैं, पूछते हैं: हम अगर कॉर्बन के अपने जहरीले काले बादलों को काटें तो आप हमें क्या देंगे? इसकी तकनीक हमें दें और उसका खर्चा भी दें। मानो धरती को बचाने की सारी जिम्मेवारी विकसित देशों की ही है। लोग तर्क करते हैं:

सबसे ज्यादा बिगाड़ा है उन्होंने तो सबसे ज्यादा भरपाई भी उन्हें ही करनी चाहिए। यह कमजोर मुल्कों की सौदागिरी है जिसका दूसरा मतलब होता है- हम सब अपनी-अपनी तरह से ही चलेंगे! और इस तरह ये तीनों एक भयावह भविष्य के सामने खड़े हैं। धरती के पास देने लायक बहुत कुछ बचा ही नहीं है। पहाड़ों के पास जंगल और जंगलों के पास नदियां बची नहीं हैं। नदियों के पास पानी और पानी के पास शुद्धता बची नहीं है। प्राणियों के पास हवा और हवा के पास ताजगी बची नहीं है। खेतों में उर्वरा बची नहीं है। पहाड़ों पर बर्फ बची नहीं है। धरती पर जंगल और जंगलों में प्राणी बचे नहीं हैं।

और जो कुछ बचा है उसकी सचाई यह है कि हम बंदरबांट करके भी बहुत दिनों तक इसे चला नहीं सकते हैं, क्योंकि यह सारा संतुलित ढांचा ही तेजी से खत्म होता जा रहा है। प्रकृति की कारीगरी उतनी तेज नहीं है जितनी तेज हमारी भूख है। एक फिसलती हुई ढलान पर हम तेजी से नीचे की तरफ दौड़ रहे हैं।

इसलिए सम्मेलन आयोजित करने में या दूसरों को उपदेश-आदेश देने या उनसे कर्ज-सहायता आदि मांगने से कोई रास्ता खुलता नहीं है। जिस तरह ये सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं, उनमें हम जिस तरह इस धरती की और संसाधनों की बेदरकारी करते हैं, उससे हमारे बारे में लोगों का विश्वास खत्म होता जा रहा है।

फिर रास्ता क्या है? और सवाल ईमानदारी से पूछा गया है और उसमें धरती के दर्द का गहरा अहसास है तो जवाब एक ही है- अपने संसाधनों के भीतर जीने की संस्कृति अपनाएं हम। मानवीय या कहें सच्चे विकास की एक ही कसौटी है कि वह सबके लिए संभव हो। गांधी इतने विकास की, ऐसी संपन्नता की कल्पना करते हैं कि इसमें चाहे तो हर आदमी स्वर्ग जाने के लिए सोने की सीढ़ियां बना ले। लेकिन वे जोर देकर कहते हैं: हर आदमी। अगर सोने की सीढ़ी हर किसी के लिए संभव नहीं है तो हमें सोने की जिद छोड़ कर कुछ और सोचना होगा; और फिर किसी बिंदु पर पहुंच कर यह भी अहसास हो शायद कि स्वर्ग तक जाने वाली सीढ़ी बनाने का एक ही मतलब होता है कि सामने वाले के दिल तक पहुंचने वाली सीढ़ी बनाई जाए।

कल का संचित सारा कुछ आज ही उदरस्थ करने वाली जीवन-शैली अमानवीय और अपराधी है।

उसे छोड़ना ही होगा और जल्दी से जल्दी छोड़ना होगा। गांधी के शब्द पसंद हों तो उसे लें हम, कि अपनी लालच नहीं प्रकृति की मदद से हम अपनी जरूरतें पूरी करें; क्योंकि जरूरतें सदा सीमित, मानवोचित और दूसरों का खयाल करने वाली होती है, जबकि लालच वह अथाह सागर है, जिसकी थाह किसी को कभी लगी ही नहीं। अमेरिका अगर अपनी जीवन-शैली बदलने के बारे में सोचने को तैयार नहीं है तो इसका सीधा मतलब यह है कि दुनिया के विकास की जो अंधी दौड़ चल रही है, उसे रोकने और दिशा बदलने को कोई तैयार नहीं है। कठघरे में अमेरिका या यूरोप को हम बड़ी आसानी से खड़ा कर देतेे हैं, लेकिन हमारे मन में भी वही जीवन और वही शैली बसी हुई है।

कोपेनहेगन में नहीं, हमारी धरती की किस्मत का फैसला हमारे-आपके मनों में होने वाला है। मन में कुछ बदलेगा तो धरती भी बदलेगी; वहां कुछ नहीं बदलेगा तो बदलने के लिए कुछ बाकी ही नहीं रहेगा।

कोपेनहेगन में नहीं, हमारी धरती की किस्मत का फैसला हमारे-आपके मनों में होने वाला है। मन में कुछ बदलेगा तो धरती भी बदलेगी; वहां कुछ नहीं बदलेगा तो बदलने के लिए कुछ बाकी ही नहीं रहेगा।

विचारक कुमार प्रशांत नई पीढ़ी को नए संदर्भों में गांधी विचार की व्यापकता से परिचित कराने की विशिष्ट भूमिका निभा रहे हैं।

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