एस.आर.आई तकनीक ने बढ़ाया चावल का उत्पादन

paddy crop
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भारत की मुख्य खाद्य फसल चावल है जिसका कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण स्थान है। राष्ट्रीय स्तर पर धान की खेती करीब 4.5 करोड़ हेक्टेयर में की जाती है। देश में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पंजाब, आदि प्रमुख राज्य है जो चावल उत्पादन में प्रमुख हैं। इन राज्यों में कृषकों द्वारा कृषि वैज्ञानकों और सरकार के सहयोग से चावल उत्पादन में वृद्धि के लिए नई-नई विधियों का प्रयोग किया जा रहा है।

बुवाई क्षेत्र में वृद्धि के चलते फसल वर्ष 2011-12 (जुलाई-जून) में देश में चावल का उत्पादन (रबी व खरीफ दोनों के उत्पादन को शामिल करते हुए) कृषि मंत्रालय के अनुसार 102 मिलियन टन रिकार्ड स्तर पर पहुंचने का पूर्वानुमान है। वर्ष 2010-11 में चावल का उत्पादन 95.3 मिलियन टन था। चावल के रिकार्ड उत्पादन की प्रत्याशा में कृषि मंत्रालय ने 2011-12 (अक्टूबर-सितम्बर) में चावल की सरकारी खरीद का लक्ष्य 35.3 एस.आर.आई तकनीक ने बढ़ाया चावल का उत्पादन डॉ. गजेन्द्र कुमार रावत एवं तुलसीराम दहायत भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां कृषि ही आर्थिक विकास का मुख्य आधार है। प्राचीन समय से ही कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए विशेष प्रयास किए गए और कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए नए-नए तरीकों को अपनाया गया फलस्वरूप कृषि उत्पादन भी बढ़ा है। वर्तमान में कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए ऐसे तरीके अपनाए जा रहे हैं जिसमें कम लागत में अच्छी किस्म की गुणवत्ता वाली फसल का उत्पादन हो सके।

इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों ने अनेक अनुसंधान किए हैं जिनका कृषि उत्पादन में प्रयोग भी हो रहा है और उसके उचित परिणाम भी सामने आए हैं। मिलियन टन निर्धारित किया था। इसके पूर्व सितम्बर 2011 के दौरान 33 मिलियन टन चावल की खरीद सरकारी एजेंसी (एफसी. आई.) ने की थी। इसके पूर्व वर्ष 2007-08 में चावल का अधिकतम उत्पादन 9.5 करोड़ टन हुआ था और चावल की उत्पादकता 21 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी। अतः यही वजह थी कि कृषि वैज्ञानिकों ने चावल उत्पादन को बढ़ाने के लिए चावल गहनीकरण पद्धति यानी सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसीफिकेशन (एस.आर.आई.) तकनीक अपनाई जिसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। इस तकनीक के माध्यम से कृषकों में कृषि उत्पादन के प्रति उत्साह भी जागृत हुआ है साथ ही उत्पादन भी बढ़ा है।

प्रत्येक व्यक्ति यह मानता है कि चावल एक जलीय फसल है तथा स्थिर जल में अधिक वृद्धि करता है। जबकि सच्चाई यह है कि धान जल में जीवित अवश्य रहता है पर यह जलीय फसल नहीं है और न ही ऑक्सीजन के अभाव में उगता है। धान का पौधा पानी के अंदर अपनी जड़ों में वायु कोष विकसित करने में काफी ऊर्जा व्यय करता है इसलिए एस.आर.एस. पद्धति सफल सिद्ध हो रही है। विभिन्न प्रयोगों में यह साबित हुआ है कि श्री खेती के अंतर्गत धान जलमग्न नहीं होता है लेकिन वानस्पतिक अवस्था के दौरान मिट्टी को आर्द्र बनाए रखता है, बाद में सिर्फ एक इंच जल गहनता पर्याप्त होती है जबकि एसआरआई तकनीक में सामान्य की तुलना में सिर्फ आधे जल की आवश्यकता होती है।

श्री खेती की उपयोगिता को देखते हुए वर्तमान में विश्व भर में लगभग एक लाख किसान इस कृषि पद्धति से लाभ उठा रहे हैं। एसआरआई में धान की खेती के लिए बहुत कम पानी तथा कम खर्च की आवश्यकता होती है और उपज भी अच्छी होती है। छोटे और सीमांत किसानों के लिए ये अधिक लाभकारी है।

क्या है एसआरआई तकनीक


.एसआरआई तकनीक (श्री) के इतिहास पर गौर करें तो वर्ष 1983 में मेडागास्कर में पहली बार इस तकनीक को विकसित किया गया। इसकी क्षमता का परीक्षण चीन, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, थाइलैंड, बांग्लादेश, श्रीलंका एवं भारत में किया गया। आंध्र प्रदेश में वर्ष 2003 में एसआरआई की खरीफ फसल के दौरान राज्य के 22 जिलों में परीक्षण किया गया। इस पद्धति से धान की खेती को लेकर औपचारिक प्रयोग वर्ष 2002-03 में प्रारंभ हुआ। इस पद्धति को आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ एवं गुजरात में प्रारंभ किया गया है।

इस विधि की खासियत यह है कि इसमें मात्र दो किलोग्राम धान बीज एक एकड़ खेत के लिए पर्याप्त होता है। इतना ही नहीं इसकी रोपाई के लिए नर्सरी की उम्र सिर्फ 8 से 10 दिन रखी जाती है। इससे बीज की मात्रा कम लगती है तो दूसरी तरफ नर्सरी तैयार होने में लगने वाला समय बचता है। आमतौर पर परंपरागत तकनीक से होने वाली धान की खेती की अपेक्षा इस तकनीक में पैदावार भी अधिक होती है।

एस.आर.आई. तकनीक का प्रयोग


धान की खेती में सिस्टम ऑफ इंटेंसीफिकेशन (एस.आरआई.) तकनीक को अपनाने से प्रति इकाई क्षेत्र से अधिक उत्पादन के साथ मिट्टी, श्रम, समय और अन्य साधनों का अधिक दक्षतापूर्ण उपयोग होना पाया गया है। इस विधि में पौधों की रोपाई के बाद मिट्टी को केवल नम रखा जाता है। खेत में पानी खड़ा हुआ नहीं रखते हैं। जल निकास की उचित व्यवस्था की जाती है जिससे पौधों की वृद्धि और विकास के समय मिट्टी में नमी बनी रहे। इस प्रकार धान के खेतों में मिट्टी वायुवीय दशाओं में रहती है और मिट्टी में डिनाइट्रीफिकेशन की क्रिया द्वारा दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का कम से कम ह्रास होता है।

साथ ही धान के खेतों से नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन भी नगण्य होता है। एस.आर.आई. विधि से धान की खेती करने पर लगभग 30-50 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत भी होती है। इस विधि का महत्वपूर्ण पहलू पर्यावरण सुधार है। प्राकृतिक साधनों का बेहतर प्रयोग और अन्य आदानों जैसे उर्वरक व कीटनाशकों का कम प्रयोग होने से यह विधि पर्यावरण हितैषी भी है क्योंकि इस विधि में खेतों में पानी खड़ा नहीं होता है जिससे मीथेन व नाइट्स ऑक्साइड गैसों का निर्माण नहीं होता तथा भूमि में जैव-विविधता भी बढ़ती है। साथ ही दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का लीचिंग द्वारा नाइट्रेट के रूप में कम से कम ह्रास होता है। अतः इस विधि को किसानों में लोकप्रिय बनाने के लिए अत्यधिक प्रचार-प्रसार की जरूरत है।

बीज की आवश्यकता


एसआरआई तकनीक से धान की खेती में 2 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से बीज की और प्रति यूनिट 25-25 सेंटीमीटर क्षेत्रफल की दर से कुछ पौधों की आवश्यकता होती है। जबकि धान की पारंपरिक सघन कृषि में प्रति एकड़ 20 किलो की दर से बीज की आवश्यकता होती है। एसआरआई तकनीक में कम मात्रा में उर्वरक और पौधा सुरक्षा रसायन की जरूरत होती है। एसआरआई तकनीक में धान का पौधा प्राकृतिक स्थिति में अच्छे ढंग से वृद्धि करता है और इसकी जड़ भी बड़े पैमाने पर बढ़ती है। यह अपने लिए पोषक तत्व मिट्टी की गहरी परतों से प्राप्त करता है। यह प्रणाली कृषि कीटों के विरुद्ध प्रतिरक्षण क्षमता रखती है क्योंकि यह धान की फसल को प्राकृतिक रूप से मिट्टी से पोषक तत्वों को लेने में मदद करती है।

पौधों में बढ़ोत्तरी


पुष्पण के प्रारंभ के साथ ही अधिक संख्या में पौधे का विकास होता है। प्रति पुष्प अधिक भरे दाने निकलते है। सामान्य प्रणाली में प्रति पौधे से 30 से अधिक कोंपल प्राप्त होती हैं, जबकि श्री पद्धति से धान की रोपाई से सभी पौधों में 100 से अधिक कोंपल उत्पन्न हो सकती हैं। जल्दी रोपाई से फसल को कोई हानि नहीं होती और जड़ें भी नहीं सूखती हैं।

एसआरआई विधि का फायदा


एसआरआई तकनीक में 10 से 12 दिन का बिचड़ा 25 गुना 25 सेंटीमीटर की दूरी का एक बिचड़ा प्रति हिल में मिट्टी सहित रोपाई करते हैं। कदवा किए गए खेत में 250 वर्गमीटर में 5 किलो अंकुरित बीज समान रूप से बिखेर देते हैं। रोपाई वाले खेत में हर 2 मीटर की दूरी पर एक जल निकास नाली बनाते है तथा कोनों या रोटरी वीडर का प्रयोग 5 बार रोपाई के 10 दिन बाद तथा प्रत्येक 10 दिन के अन्तराल पर करते हैं। इससे जड़ों का विकास ज्यादा होता है और ज्यादा कल्ले निकलते हैं। वीडर के प्रयोग के समय खेत में कम पानी रखना चाहिए। इससे उपज में 10 से 15 प्रतिशत सामान्य विधि से ज्यादा वृद्धि होती है। संकर धान या सामान्य धान की किस्मों की भी श्री विधि से खेती कर सकते है।

अनुशंसित किस्म


क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुसार संकर या हाइब्रिड धान की किस्मों का चयन आवश्यक है। बोवाई हेतु प्रति वर्ष संकर धान का नया बीज विश्वसनीय एवं अधिकृत बीज वितरक से प्राप्त करना चाहिए। झारखंड राज्य के लिए संकर धान की बिरसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा प्रो एग्रो 6444 किस्म का अनुमोदन किया गया है।

पौधशाला की तैयारी


.मई-जून में प्रथम वर्षा के बाद, पौधशाला के लिए चुने हुए खेत में पाटा चलाकर जमीन को समतल बनाएं। पौधशाला सूखे या कदवा किए गए खेत में तैयार की जाती हैं। कदवा वाले खेत में बढ़वार अच्छी होती है। पौधशाला ऊंची, समतल तथा एक मीटर चौड़ाई की होनी चाहिए। पानी की निकासी के लिए 30 सेंटीमीटर चौड़ाई की नाली बना दें। खेत की अंतिम तैयारी से पूर्व 100 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद तथा नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश 500-500 ग्राम प्रति 100 वर्ग मीटर की दर से डाले। प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में रोपाई हेतु 750 वर्ग मीटर पौधशाला की आवश्यकता पड़ती है तथा प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 20 ग्राम बीज डालना चाहिए। श्री विधि में 250 वर्गमीटर में 5 किलो बीज नर्सरी में डालते है।

बीजोपचार


बीज को 12 घंटे तक पानी में भिगोए तथा पौधशाला में बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम फफूंदनाशी की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज में उपचारित कर बोएं। पौधशाला अगर कदवा किए गए खेत में तैयार करनी है तब उपचारित बीज को समतल कठोर सतह पर छाया में फैला दें तथा भीगे जूट की बोरियों से ढक दें। बोरियों के ऊपर दिन में 2-3 बार पानी का छिड़काव करें। बीज 24 घंटे बाद अंकुरित हो जाएगा। फिर अंकुरित बीज को कदवा वाले खेत में बिखेर दें।

बुवाई का समय


खरीफ मौसम की फसल के लिए जून माह के प्रथम सप्ताह से अंतिम सप्ताह तक बीज की बुवाई करें। गरम मौसम में मध्य जनवरी से मध्य फरवरी तक बुवाई करें।

पौधशाला की देखरेख


अंकुरित बीज की बुवाई के 2-3 दिनों बाद पौधशाला में सिंचाई करें। इसके पश्चात आवश्यकतानुसार हल्की सिंचाई करें। पौधशाला को खरपतवारों से मुक्त रखें। बिचड़ों की लगभग 12-15 दिनों की बढ़वार के बाद पौधशाला में दानेदार कीटनाशी कार्बोफुरॉन 3 जी, 250 ग्राम प्रति 100 वर्गमीटर की दर से डाले।

खेत की तैयारी


.संकर धान की खेती सिंचित व असिंचित दोनों जमीन में की जा सकती है। पहली वर्षा के बाद मई में जुताई के समय तथा खेत में रोपाई के एक माह पूर्व गोबर की सड़ी खाद अथवा कम्पोस्ट 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। श्री विधि में 10 टन तक जैविक खाद का प्रयोग करते है। नीम या करंज की खली 5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से रोपाई के तीन सप्ताह पूर्व जुताई के समय खेत में बिखेर दें। रोपाई के 15 दिनों पूर्व खेत की सिंचाई एवं कदवा करें ताकि खरपतार सड़कर मिट्टी में मिल जाएं। रोपाई के एक दिन पूर्व दोबारा कदवा करें तथा खेत को समतल कर रोपाई करें।

रोपाई


पौधशाला से बिचड़ों को उखाड़ने के बाद जड़ों को धोकर रोपाई से पूर्व बिचड़ों की जड़ों को क्लोरपायरीफॉस कीटनाशी के घोल को एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में पूरी रात (12 घंटे) डूबो कर उपचारित करें। रोपाई के लिए 15-20 दिनों की उम्र के बिचड़ों का प्रयोग करें। रोपाई पाटा लगाने के पश्चात समतल की गई खेत की मिट्टी में 2 से 3 सेंटीमीटर छिछली गहराई में करें। यदि खेत में जलजमाव हो तो रोपाई से पूर्व पानी को निकाल दें। रोपाई से पूर्व रासायनिक खाद का प्रयोग करें। कतारों एवं पौधों के बीच की दूरी क्रमशः 20 सेंटीमीटरव 15 सेंटीमीटर रखते हुए एक स्थान पर केवल एक या दो बिचड़े की रोपाई करें। कतारों को उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर रखें।

रासायनिक उर्वरकों का उपयोग


संकर धान में नाइट्रोजन 150 किलो, फास्फोरस 75 किलो व पोटाश 90 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से डाले। खेत में नाइट्रोजन व पोटाश की एक चौथाई मात्रा और पूरा फास्फोरस खेत से पानी निकालने के बाद डाले। नाइट्रोजन की तीन चौथाई मात्रा को तीन भाग में बांट लें। पहला भाग रोपाई के 3 व 6 सप्ताह बाद एवं शेष बालियां निकालते समय डाले। पोटाश की बची हुई एक चौथाई मात्रा भी बालियां निकलते समय खड़ी फसल में टॉपड्रेसिंग करें। इसके अलावा खेत कीतैयारी के समय ही डीएपी 25 किलो प्रति हेक्टेयर सल्फर का प्रयोग करें।

खरपतवार प्रबंधन


स्थिर जल की अनुपस्थिति में श्री पौधे में अधिक घास उत्पन्न होता है। दो पौधों के बीच वीडर चलाकर घास हटा देनी चाहिए। पौधे के निकट की घास को हाथ से उखाड़ना चाहिए। सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई बिचड़ों की रोपाई के 5 दिनों बाद खेत की हल्की सिंचाई करें। इसके बाद खेत में 5 सेंटीमीटर की ऊंचाई तक पानी दानों में दूध भरने के समय तक बनाए रखें। खाली स्थानों पर एवं मृत बिचड़ों की जगह पर रोपाई के 5 से 7 दिनों के अंदर पुनरू बिचड़ों की रोपाई करें। खरपतवारों की निराई-गुड़ाई रोपाई के तीन सप्ताह बाद, तथा दूसरी 6 सप्ताह बाद करें। लाइन में रोपी गई फसल में खाद डालने के बाद रोटरी या कोनों वीडर का प्रयोग करें। यूरिया की टॉपड्रेसिंग करने से पहले निराई-गुड़ाई अवश्य करें। इस पद्धति में खेत में पानी केवल मिट्टी को गीला करने एवं आर्द्रता बनाए रखने के लिए रखा जाता है। बाद की सिंचाई तभी की जाए जब खेत में दरारें आ जाएं। खेत को क्रमिक रूप से सूखने देने और फिर पानी देने से मिट्टी में माइक्रोबियल क्रियाकलाप में वृद्धि होती है और पौधे को आसानी से पौषक तत्व मिल जाते हैं।

कीट प्रबंधन


खेत में दानेदार कीटनाशी 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बिचड़ों की रोपाई के 3 सप्ताह बाद डालें। इसके पश्चात मोनोक्रोटोफास 36 ईसी 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर या क्लोरपायरीफॉस 20 ईसी 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का 15 दिनों के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें ताकि फसल कीटों के आक्रमण से मुक्त रहे। एक हेक्टेयर में छिड़काव के लिए 500 लीटर जल की आवश्यकता पड़ती है। गंधी कीट के नियंत्रण के लिए इंडोसल्फान 4 प्रतिशत धूल या क्लीनालफास 1.5 प्रतिशत धूल की 25 किलोग्राम मात्रा का बुरकाव प्रति हेक्टेयर की दर से या मोनोक्रोटोफास 36 ईसी 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें। उपरोक्त वर्णित दानेदार एवं तरल कीटनाशी के उपयोग से तनाछेदक कीटों की भी रोकथाम होगी।

रोग प्रबंधन


.कवकजनित झोंका तथा भूरी चित्ती रोगों की रोकथाम के लिए या काब्रेन्डाजिम वैविस्टीन 50 का 0.5 प्रतिशत या ट्राइसायक्लाजोल 0.06 प्रतिशत का छिड़काव करें। फॉल्स स्मट रोग की रोकथाम के लिए बालियां निकलने से पूर्व प्रोपीकोनाजोल 0.1 प्रतिशत या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50 का 0.3 प्रतिशत का दो बार 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें। जीवाणुजनित रोगों के लिए खेत के पानी की निकासी करें। खेत में पोटाश की अतिरिक्त मात्रा 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से टॅापड्रेसिंग द्वारा डालें। नाइट्रोजन की बची किश्तों को विलंब से डालें। सीथ ब्लाइट की रोकथाम के लिए हेक्साकोनाजोल 0.2 प्रतिशत या विलीडामाइसिन का 0.25 प्रतिशत का छिड़काव करें।

फसल की कटाई


बालियों के 80 प्रतिशत दाने जब पक जाएं तब फसल की कटाई करें। कटाई के बाद झड़ाई कर एवं दानों को अच्छी तरह सुखाकर भंडारण करें।

एसआरआई तकनीक की विधि


धान की पौध में 8 से 12 दिन बाद जब दो छोटी पत्तियां दिखने लगे तभी रोपाई कर देनी चाहिए। रोपाई में अभिघात को कम करें। धान के छोटे पौधे को नर्सरी के बीज, मिट्टी और जड़सहित सावधानीपूर्वक उखाड़ कर कम गहराई पर उसकी रोपाई करें। धान का पौधा समूह के बजाय अकेले में अधिक बढ़ता है। इसलिए इसे वर्गाकार रूप में 25 गुना 25 सेंमी की दूरी पर रोपा जाना चाहिए। इससे अधिक जड़ वृद्धि की संभावना होती है। निराई और हवा की व्यवस्था का ध्यान रखें। धान की फसल के लिए निराई और हवा अत्यंत आवश्यक होती है। धान के फूटने या पुष्पित होने तक कम से कम दो निराई अवश्यक कराएं, लेकिन 4 बार की निराई को उत्तम माना जाता है।

पहली निराई रोपाई के 10 दिन बाद होनी चाहिए। घास की सफाई से धान के पौधों की जड़ों का अधिक विकास होता है और पौधे को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन एवं नाइट्रोजन भी प्राप्त हो पाती है। दो निराई के बाद प्रत्येक अतिरिक्त निराई से 2 टन प्रति हेक्टेयर की दर से उत्पादन में वृद्धि संभव है। मिट्टी को आर्द्र बनाए रखने के लिए नियमित जल प्रयोग आवश्यक है लेकिन कभी-कभी पानी को सूखने भी दिया जाना चाहिए ताकि पौधों की जड़ में आसानी से हवा की आवाजाही हो सके। खेत में रासायनिक खाद के स्थान पर या उसके अलावा खाद का उपयोग 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से किया जाना चाहिए। बेहतर उर्वराशक्ति एवं संतुलित पोषक तत्व से अधिक उपज संभव है।

एसआरआई तकनीक से लाभ


1. अनाज व चारा दोनों की अधिक उपज दर प्राप्त होगी।
2. अधिक पोषक और स्वादिष्ट चावल की पैदावार।
3. तैयार होने की अवधि में कमी, कम से कम 10 दिनों काफायदा।
4. कम रासायनिक खाद का उपयोग।
5. कम पानी की आवश्यकता।
6. कम भूसी अनाज की प्रतिशतता।
7. अनाज के आकार में बदलाव हुए बिना अनाज के वजन मेंवृद्धि।
8. उच्चतर स्तर के चावल की प्राप्ति (धान से चावल बनाने कीप्रक्रिया के दौरान)।
9.चक्रवाती तूफान में भी पौधा खड़ा रहता है।
10. ठंड सहने में सक्षम।
11. जैविक क्रियाकलाप द्वारा मिट्टी को उपजाऊ बनाता है।

हानियां


1. प्रारंभिक वर्षों में उच्च मजदूरी लागत से कृषकों में रोष।
2. आवश्यक कौशल हासिल करने में कठिनाई।
3. सिंचाई स्रोत उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में अनुकूलनहीं।

(लेखक शास. कमला नेहरू महाविद्यालय जिला दमोह, मध्य प्रदेश के अर्थशास्त्र विभाग में कार्यरत हैं।)
ई-मेलः dr.gajendrarawat@gmail.com

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