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गाँव की जीवन-रेखा

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थोड़ा आसमान की ओर टकटकी लगाइये ना!

आपको बादल दिख रहे हैं?

क्या बरसात होने लगी है!

तो भी देखिये!

ये नन्हीं-नन्हीं बूँदें इठलाती, गाती, झूमती, मुस्कुराती, मस्ती के साथ चली आ रही हैं!

इनकी ‘जिन्दगी का सफर’ क्या है?

गाँव क्षेत्र में ये बूँदें खेतों में अलग-अलग गिरती हैं।

हमारे किसान भाई छोटी-छोटी नालियाँ निकालकर रखते हैं। इन नालियों में ये चल पड़ती हैं। आस-पास देखती और दुनिया को निहारतीं…! ये नालियाँ मिलकर छापरे का रूप धारण कर लेती हैं। छापरा यानी खेतों के पानी के निकलने का रास्ता। यहाँ अलग-अलग बूँदें अब ‘बूँद समाज’ में तब्दील होती जाती हैं। ये छापरे आगे जाकर नालों में मिलते जाते हैं। नालों में बूँद समाज की नई मुलाकातें होती हैं और यह वृहद समुदाय में बदलने लगता है। एकता की वजह से इनकी ताकत भी बढ़ने लगती है। ये नाले, नदियों से जुड़ते हैं और नदियाँ समुद्र में समर्पित हो जाती हैं। यहाँ से ये बूँदें वाष्पित होकर पुनः आसमान में बादलों के रूप में जमा होने लगती हैं।

बूँदों की जिन्दगी के इस सफरनामे में समाज भी तो भागीदार रहता है। कभी समुद्र के किनारे, कभी नदियों नालों के किनारे तो कभी डबरियों-तालाबों की पाल पर, तो कभी कुएँ, बावड़ियों की पनघट पर - हम इनके साथ हैं।

आज हम आपकी ऐसे ही सफरनामों से मुलाकात कराएँगे। उज्जैन जिले की तराना तहसील के छापरी गाँव में। इसे ‘नालों का गाँव’ भी कहा जाता है और इसके आस-पास के फानिया और दिलोद्री गाँव से भी आप मुखातिब होंगे।

तराना के पास बसे गाँव का नाम छापरी इसीलिये पड़ गया कि यहाँ बड़े-छोटे कुल 7 नाले बहते हैं। कल्पना कीजिए जिस गाँव में इतने नाले हों और जंगल भी अच्छा हो - वहाँ के हालात कितने सुकून भरे हो सकते हैं। बुजुर्ग तो यहाँ तक बताते हैं कि गर्मी के दिनों में भी ये नाले जिन्दा रहते थे, लेकिन बाद में वही हुआ जो कहानी गाँव-गाँव की है। जंगल कटते गये। नाले सूखते गये। बरसात के दिनों में पानी इन नालों से बहकर गाँव को मुँह चिढ़ाता चला जाता। गाँव की हालत गिरती गई। सूखा पड़ने के बाद तो स्थिति और खराब रहने लगी।

गाँव में पानी के लिये जन-जागरण की बात चली तो समाज उठ खड़ा हुआ। नालों के इस गाँव में नारा गूँजने लगा कि कोई गाँव सुखी कैसे रह सकता है? जनता की ओर से यही जवाब आता- अच्छी मिट्टी भरपूर पानी …!

इस गाँव के समाज ने एक महत्त्वपूर्ण फैसला लिया … नालों की मनुहार!

...इस समय हम इसी निवेदन के परिणाम के सामने खड़े हैं। गाँव के एक नाले को रोककर तालाब बनाया गया है। राष्ट्रीय मानव बसाहट केन्द्र के मुकेश बड़गईया, पानी समिति अध्यक्ष छगनलाल और स्थानीय समाज इसकी पाल पर खड़े होकर हमें तालाब की कहानी सुना रहे थे। ...पहले तो दीपावली के पूर्व गाँव में पानी समाप्त हो जाया करता था, लेकिन तालाब बनने के बाद गाँव के कुओं और ट्यूबवेलों में पानी दिखने लगा है। इस बार दो माह ज्यादा पानी चला।

...इस तालाब की एक और रोचक कहानी है। जब तालाब के लिये स्थल चयन हुआ तो गाँव के चौकीदार नानूराम ने अपनी पट्टे की 8 बीघा जमीन इस तालाब के लिये छोड़ने का फैसला लिया। पूरे समाज ने नानूराम के इस फैसले को प्रेरणास्पद माना। छगनलाल और पानी समिति के सचिव राजेन्द्र प्रसाद कहने लगे-

“पहले रबी के मौसम में ही पानी के दर्शन दुर्लभ हो जाया करते थे। अब भीषण सूखे के बावजूद रबी की फसल ली जा रही है। सामने कन्हैयालालजी का कुआँ अब 6-6 घंटे तक पानी देने की स्थिति में आ गया है।”

एक नाले को गेबियन बनाकर रोका गया है। पहले इस स्थान को आर.एम.एस. के लिये चुना गया था, लेकिन जमीन कटने के कारण यहाँ गेबियन तैयार किया गया। 500 मीटर तक नाले में पानी भरा रहता है। इससे जल संवर्धन में काफी मदद मिली। कैलाश महेश के कुएँ में पहले पानी कम रहता था, अब पानी अच्छा आ गया है। ये इस पानी की वजह से लहसन व प्याज की फसल भी लेने लग गये हैं।

महेश बड़गईया व गाँव समाज कहने लगा-

“नालों को जगह-जगह रोका गया है। मेड़ पर पौधरोपण के साथ-साथ सोक पिट्स, भूमिगत जल बंधान, लूज बोल्डर बाँध, चार आर.एम.एस. और एक बड़ा तालाब बनाया गया है।”

गाँव के सरपंच रामचन्द्र सोलंकी, उनकी टीम और यहाँ के प्रगतिशील किसान माखनलाल, बद्रीलाल, लक्ष्मीचंद, नारायणसिंह आदि ने भी पानी आन्दोलन और जल संरचनाएँ तैयार करने में भरपूर सहयोग दिया। यह सहयोग उन अनेक लोगों की ओर से भी आया है, जिन्होंने स्वयं श्रम करके पानी रोकने वाली संरचनाएँ तैयार की हैं। मोटे तौर पर गाँव में 30 बीघा में लहसन व 40 बीघा में प्याज लिया जाता है। प्रमुख लहसन उत्पादक किसान छगनलाल ने डेढ़ बीघे में अलग से लहसन बो रखी है। उनके भाई मदनलाल कहने लगे-

“पहले गेहूँ व चने की फसल ले पाते थे। अब पानी उपलब्ध रहने से किसान लहसन की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। इससे लाभ अधिक है।”

ये हैं नगजीरामजी! अपनी डबरी दिखाते हुए कहने लगे-

“पहले जमीन बंजर पड़ी थी। डबरी बनाने के बाद इसी जमीन पर अब रबी की फसल ले रहा हूँ। जलस्तर बढ़ा है और इस पानी से 4 बीघा में सिंचाई कर रहा हूँ।”

...और ये जो सामने रातड़िया की पहाड़ी दिख रही है ना! यहाँ पर भी संतोष माखनसिंह, इकबाल देवीसिंह ने डबरियाँ बनाकर पानी रोका है। यहाँ रबी में उन्होंने 10 बीघा क्षेत्र में चने की फसल ली है। गाँव में आपको सत्तर साल पुरानी एक बावड़ी भी मिलेगी। इसे ठेल वाली बावड़ी कहते हैं। इसके ऊपर ही मवेशियों को पानी पिलाने की ठेल बनाई हुई है।

नालों के गाँव छापरी में नालों की मनुहार से प्रति हेक्टेयर आय में 11500 रुपये से 26 हजार की वृद्धि तो आंकी गई और जलस्तर भी अब 60 से 150 फीट के बीच में आ गया है।

एक कुआँ बने न्यारा…!

छापरी के पास ही बसा है ग्राम फनिया। पानी समिति के अध्यक्ष घासीराम पटेल के खेत का कुआँ बरबस ही आपका ध्यान खींच लेगा। यह दो-मंजिला है। किसी रियासत के राजा साहब की गढ़ी जैसा लगता है। सुन्दर ईंटों से बना है यह। झाँककर नीचे देखो तो इन ईंटों से बूँद-बूँद आती दिखती हैं। इस गाँव की और भी पहचान हैं। पूरा गाँव एक परिवार के रूप में रहता है। गाँव के प्रायः सभी लोग व्यसन से दूर हैं। थाने में गाँव के प्रकरण नहीं के समान ही दर्ज होते हैं। ऐसे में पानी आन्दोलन की राह और भी आसान हो जाती है।

गाँव के नाले में रपट कम स्टॉपडैम बनाया गया है। यह रचना पानी आन्दोलन में समाज जागृति की एक मिसाल है। यदि सरकारी अमले इसे किसी जनसहयोग में बनाते तो इसकी लागत लगभग दस लाख रुपये आती। मुकेश बड़गईया कहते हैं-

“लेकिन, समाज के सहयोग ने यहाँ कमाल कर दिखाया। गाँव के लगभग हर परिवार की यहाँ किसी-न-किसी रूप में भागीदारी है। यह मात्र 1 लाख 98 हजार में बनकर तैयार हो गई। इससे जलसंचय में तो मदद मिली ही है। साथ ही, आवागमन में भी सुविधा हो गई है। गाँव अब सीधे मुम्बई-आगरा राजमार्ग से जुड़ गया है। इस नाले को कनासिया से रोकते हुए ला रहे हैं।”

गाँव के सचिव मुकेश पटेल हैं। इन्हें लोग ‘नीम के दीवाने’ के नाम से पुकारते हैं। उज्जैन जिले में नीम अभियान के तहत आपने समाज को साथ लेकर अनेक पौधे निंबोली डालकर लगाये हैं। गाँव में पानी की टंकी भी बनाई गई है, जिससे पीने के पानी की व्यवस्था अब सुलभ हो गई है। इसमें जनसहयोग सराहनीय भूमिका में रहा है। स्टॉपडैम में जल भराव से डेढ़ किलोमीटर लम्बाई एवं 200 फीट चौड़ाई में पानी रोका जा रहा है। 40 हेक्टेयर अतिरिक्त फसल क्षेत्र को सिंचित किया जा रहा है। प्रति हेक्टेयर किसान की आमदनी पानी आन्दोलन के पहले दो हजार रुपये थी। अब यह बढ़कर चार हजार पाँच सौ रुपये हो गई है। गाँव में पौधे लगाने का एक जुनून सवार है। खुद पानी समिति के अध्यक्ष घासीराम पटेल ने अपने खेत के आस-पास 50 पौधे पालने का संकल्प लिया और निजी व्यय से ट्री-गार्ड की व्यवस्था भी की है। वे 15 बीघा क्षेत्रफल में रबी की फसल भी ले रहे हैं। गाँव में लूज बोल्डर संरचना और डबरियाँ बनाकर भी पानी रोका गया है।

और ये है दिलोद्री गाँव…!

पानी के मामले में यह गाँव भी सूखे की गिरफ्त में रहने लगा था। गाँव समाज ने यहाँ भी पानी की नई तस्वीर रखी है। गाँव में पुराने जमाने की एक तलाई का गहरीकरण किया। पानी रिचार्ज हुआ और कुओं के माध्यम से यहाँ सिंचाई की जाने लगी। गाँव के नाले में पानी रोकने की आर.एम.एस. संरचना बनाई। इससे भी कुएँ जिन्दा रहने लगे और 25 हेक्टेयर में सिंचाई हो रही है। पानी रोकने से गाँव के कमलसिंह, विक्रमसिंह, अकील खान, शरीफ खान, आजाद खान सहित अनेक लोगों को लाभ हुआ है। दिलोद्री के एक नाले में भी स्टॉपडैम कम रपट तैयार किया गया है। मुकेश बड़गईया कहते हैं-

“पहले यहाँ पैदल निकलना भी मुश्किल था। अब बरसात के दिनों भी दिन में तीन बार बसें निकलती हैं। इसमें गाँव-समाज ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।”

इस छोटे से गाँव में 183 डबरियाँ भी बनाई गई हैं।

...इन गाँवों की यात्रा से पानी की नई शिक्षा मिल सकती है।

हम नदियों को प्रदेश या क्षेत्र विशेष की जीवन-रेखा कहते हैं। गाँव की जीवन-रेखा क्या हो सकती है?

...नाले!

इन्हें यूँ ही मत समझिये!

कृपया, इनकी भी मनुहार कीजिये!

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