गाँवों को शहर बनाने के विरुद्ध

शहरी हो अथवा ग्रामीण, दोनों ही जीवनों को जी रहे व्यक्तियों को ध्यान में रखना होगा कि ये वे दो भिन्न धाराएं हैं जिनमें चिर-स्थायी संतुलित सामंजस्य तो बनाये रखा जा सकता है, किंतु इन्हें एक दूसरे में समाहित नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, दोहरी भूमिका और दोहरे चरित्र के बीच के ज़मीन-आसमान अंतर को समझना होगा। गाँव का निवासी जब शहर की ओर पलायन करता है तब अपने साथ केवल श्रम और निजी कुशलता की सौगात ले जाता है। उसका गांव उसके पीछे ही छूट जाता है, लेकिन जब शहरी व्यक्ति गांव की और कदम बढ़ाता है तब वह अपनी सहायता के लिए शहर को भी साथ लेता आता है। आर्थिक विकास के भूत ने आज इतनी गहराई से अपनी पैठ बना ली है कि पूरा देश ढेरों धुरियों में बंट गया है। सक्षम व्यक्ति नित नये ऐसे उत्पाद और उनके खपत क्षेत्र ढूँढता मिल रहा है जिनसे वह मन चाही कमाई कर सके। स्वयं को अर्थशास्त्री स्थापित करने में जुटा लगभग प्रत्येक व्यक्ति केवल भौतिकवादी दुनिया में खपाये जा सकने वाले उत्पादों की वकालत करता मिलता है। इसका सीधा नुकसान यह हुआ कि कृषि जैसा सामाजिक दायित्व भी अब स्वयं को उद्योग कहलाने के अधिकार की लड़ाई में जुट गया है। दायित्व का निर्वाह करते हुए उद्योग में विकसित होना कोई दोष नहीं है। ऐसा करते हुए खेतिहर पर्यावरण मूलतः अपरिवर्तित ही रहता है। लेकिन कृषि भूमि को उद्योग स्थली बना देने की होड़ इतनी निर्दोष नहीं है क्योंकि तब खेतिहर पर्यावरण से हर संभव समझौता कर लिया जायेगा। दुर्भाग्य से, आज शहर गाँवों में सेंध लगा रहे हैं। ज़मीनी सच्चाई तो यह है कि वे तेजी से गाँवों को खा रहे हैं। कृषक समाज को समझना ही होगा कि एकमुश्त त्वरित लाभ बटोर लेने की स्वाभाविक दोषी प्रवृत्ति उसे देर सबेर, चारित्रिक क्षुद्रता की ओर ही धकेलेगी।

शहरी हो अथवा ग्रामीण, दोनों ही जीवनों को जी रहे व्यक्तियों को ध्यान में रखना होगा कि ये वे दो भिन्न धाराएं हैं जिनमें चिर-स्थायी संतुलित सामंजस्य तो बनाये रखा जा सकता है, किंतु इन्हें एक दूसरे में समाहित नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, दोहरी भूमिका और दोहरे चरित्र के बीच के ज़मीन-आसमान अंतर को समझना होगा। गाँव का निवासी जब शहर की ओर पलायन करता है तब अपने साथ केवल श्रम और निजी कुशलता की सौगात ले जाता है। उसका गांव उसके पीछे ही छूट जाता है, लेकिन जब शहरी व्यक्ति गांव की और कदम बढ़ाता है तब वह अपनी सहायता के लिए शहर को भी साथ लेता आता है। और फिर धीरे-धीरे यही शहर गाँवों पर अपना अधिपत्य जमा लेता है। निकट अतीत तक भारतीय कृषि खेतिहर उत्पाद की रूखी प्रक्रिया मात्र नहीं थी। वह तो कृषक जगत के वृहद् दर्शन का अंग रही है। कृषक जगत वाले भारतीय ढांचे में केवल कृषि भूमि ही इकलौता घटक नहीं हुआ करती थी। अपितु कृषि-कर्म के छोटे-बड़े पहलू से जुड़ा प्रत्येक घटक भी उसका भुलाया नहीं जाने वाला अंग हुआ करता था। तब क्षेत्रीय आत्मनिर्भरता प्राथमिक होती थी। प्रकारान्तर से, कृषि भूमि के स्वामी के नफे-नुकसान में ऐसे प्रत्येक घटक की प्रत्यक्ष परोक्ष भागीदारी हुआ करती थी। तब उस वैयक्तिक संकीर्णता के उदाहरण बहुत कम देखने में आते थे जो आज देशज सामाजिक स्वीकार्यता की सारी सीमाएं लाँघ चुके हैं।

गैर-कृषक क्षेत्र को केन्द्र में रख कर विकसित हो रहे समाज के हितों को प्रमुखता देते उद्योग आधारित आयातित आर्थिक दर्शन ने समग्र समाज के भारतीय सोच को तार तार कर दिया है। प्रतिद्वंद्विता सुनने में एक बहुत अच्छे शब्द का आभास देता है, लेकिन इसके पीछे जब बुरी नीयत से भरा पूरा प्रचार तंत्र एकजुट होकर चलता है, तब एक सुखी और सम्पन्न आत्मनिर्भर समाज की गति वही हो जाती है जो आज भारतीय समाज की हो गई है। क्योंकि प्रतिद्वंद्विता में एक दूसरे को पछाड़ देने की हुलस जागती है। किसानों के बीच निरंतर बढ़ती जा रही आत्महत्या की प्रवृत्ति इसी का परिणाम है।

प्रश्न उठता है कि क्या इसका तात्पर्य यह है कि कृषक जगत या कहें कि समूचा ग्रामीण जगत पिछड़ेपन को ही भोगने को अभिशप्त रहे? कदापि नहीं। शहर और गांव केवल दो प्रवृत्तियां भर नहीं हैं। इस बात पर दो मत नहीं होने चाहिए कि रहन-सहन की शहरी सुविधाएँ सभ्य समाज की ऐसी आधारभूत मानवीय आवश्यकताएं भी हैं जिन पर किसी व्यक्ति विशेष अथवा गुट विशेष का एकाधिकार स्वीकार्य नहीं है। वहीं यह सावधानी भी रखी ही जानी चाहिए कि दैनिक गतिविधियों और क्रिया कलापों में इन दोनों के बीच ज़मीन आसमान का अंतर है। अपनी-अपनी भागीदारियों की भिन्नता के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी है। लेकिन इसको आधार बताकर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के निवासियों को मिल पाने वाली सुविधाओं के बीच प्राथमिकता का कोई खड़ा विभाजन कर देना प्रत्येक दृष्टि से अनुचित होगा। यहाँ यह समझा जा सकता है कि अधोसंरचना के विकास में अतीत में हुए खोट के कारण गांव के स्तर पर वे सारी सुविधाएँ प्रत्येक निवासी की देहरी तक तत्काल नहीं पहुँचाई जा सकती हैं, जो शहरों की विशेषता बन चुकी हैं। लेकिन इसकी आड़ में ग्रामीण हालातों को सदा के लिए यों ही उपेक्षित छोड़ दिया जाए यह भी स्वीकार्य नहीं है। वहीं सुधार या कि विकास के नाम पर गाँवों को पहले से विकसित हो चुके शहरों के उपभोग का माध्यम भर न बना दिया जाए।

तमाम विकास में गांव और ग्राम समूह की स्वयं अपनी ही आत्म निर्भरता इसका एकमात्र उपाय है। योजनाबद्ध रूप से और अपनी-अपनी स्थानीय प्राथमिकता के आधार पर भी, यह सुनिश्चित करना होगा कि ऊर्जा की आवश्यकता पूर्ति से लगाकर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तक और यहां से लेकर खेती, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा तक की हर छोटी-बड़ी बात के लिए गांव को शहर का मुंह नहीं ताकना पड़े। यह शहरों से विद्रोह नहीं है, लेकिन शहरी बाजार से प्रतिस्पर्धा अवश्य है, वह भी अपने गांव में रहते हुए। शासन से न्यूनतम क्रय मूल्य की भीख मांगने के स्थान पर अपने प्रत्येक उत्पाद की बिक्री और उसके स्वीकार्य विक्रय मूल्य की नीति स्वयं ग्रामीण उत्पादक ही निर्धारित करे। कृषि उत्पाद के बाजार पर शहरी बिचौलिए का नहीं बल्कि स्वयं उत्पादक का ही सीधा नियंत्रण हो। और इस प्रतिस्पर्धा में लेश-मात्र भी दोष नहीं है। ऐसा तत्काल हो पाना संभव नहीं होगा। लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि यह कतई असंभव लक्ष्य है। वहीं इस प्रयोग की निश्चित सफलता के लिए यह सावधानी रखना प्राथमिक शर्त होगी कि इस सारी अधोसंरचना का विकास स्वयं कृषक बिरादरी किसी विशाल एकीकृत व्यवस्था के रूप में नहीं, बल्कि ग्राम अथवा छोटे-छोटे ग्राम समूहों के स्तर पर ही, विकेन्द्रीकृत और पूरी तरह से आत्मनिर्भर रूप में करें।

इसमें दो राय नहीं कि समग्र ग्रामीण संरचना उन अनेक तंतुओं से बनती है जो शहरी संरचना से अनेक स्तर पर बिल्कुल भिन्न होते हैं। गांव के ऐसे प्रत्येक तंतु का संरक्षण और समुचित विकास भी करना होगा। कृषक बिरादरी में बहस इसी पर छेड़ी जानी चाहिए कि स्थानीय परिस्थितियों के अंतर से यह कैसे संभव होगा? हर संभव विकल्प का मूल्यांकन करना होगा जो कृषक समाज को चारित्रिक रूप तो कृषक ही बनाये रखे और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति में खड़ा ह¨कर भी वह अपनी पुश्तैनी जड़ों को किसी भी स्थिति में न छोड़ने पर अडिग रहे।

डॉ. ज्योति प्रकाश पेशे से चिकित्सक हैं, लेकिन किसान मुद्दों एवं सूचना का अधिकार जैसे विषयों पर सक्रिय रहते हैं।

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