गंगा-यमुना के भाल पर जीवन का तिलक


‘गंगा’ और ‘यमुना’ को मानव के समान जीवंत इकाई घोषित कर दिया। उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के इस निर्णय के फलस्वरूप ये दोनों नदियाँ स्वतंत्र सम्प्रभु भारत के नागरिकों के समान सभी संवैधानिक अधिकारों से युक्त हो गई है। इन्हें प्रदूषित करना अथवा किसी भी प्रकार का नुकसान पहुँचाना उसी प्रकार का अपराध होगा, जैसा कि हाड़-मांस के जिंदा इंसान के जीवन को संकट में डालने पर बनता है।

भारत की संस्कृति और ज्ञान परम्परा में जल, वृक्ष और पर्वत का असाधारण महत्त्व है। हमारी ऋषि मनीषा ने मानव और प्रकृति के अन्योन्याश्रित सम्बन्धों को हजारों साल पहले पहचान लिया था। इसी कारण लोक मानस में उनकी दैवी मान्यता की प्रतिष्ठा की गई। अर्चना और वर्जना के संस्कार विकसित किए गए। यही भारतीय समाज में बरते जाने वाले लोक विज्ञान का शाश्वत स्वरूप है। अभाग्यवश समाज में आए लोभ-लालच के ज्वार, राजनीति और प्रशासन की साँठ-गाँठ से आर्थिक अपराधियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की निर्लज्ज लूट और विकास के विनाशकारी मॉडल ने जल-जंगल-पहाड़ की ऐसी दुर्दशा कर डाली है कि मनुष्य और प्रकृति के सम्मुख महाविनाश का संकट पैदा हो गया है।

उन्नीस सौ तीस के दशक में जब यह सवाल उठा कि नल-जल योजना और सीवेज को कहाँ बहाया जाए, तब विलायती ज्ञान-विज्ञान की पढ़ाई पढ़े अंग्रेज कमिश्नर हाकिंस ने हुक्म दिया- ‘गंगा में बहा दो।’ काले हिन्दुस्तानी अंग्रेज दैवी आज्ञा जैसी श्रद्धा से उपर्युक्त आदेश का पालन करते आ रहे हैं। हमारी नदियाँ शहरों-बस्तियों की मल-मूत्र-गंदगी और कल-कारखानों का जहरीला अवशिष्ट ढोने के लिये अभिशप्त हैं। धन-पशुओं की तिजोरियाँ भरने के लिये करोड़ों वृक्षों की न निर्मम बलि चढ़ाई जा चुकी है। गर्वोन्नत पहाड़ियों को धूल में मिलाया जा चुका है। जब अनदेखी और मनमानी का पानी सिर के ऊपर से गुजर गया, जिम्मेदार तंत्र और नियामकों की नींद से जागने की उम्मीदें समाप्त प्राय होने लगीं, तब हरिद्वार के नागरिक मोहम्मद सलीम ने सन 2014 में जनहित याचिका के माध्यम से उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया। इस बीच एक ऐतिहासिक घटना यह हुई कि 15 मार्च 2017 को न्यूजीलैंड की संसद ने कानून बना कर वांगानुई नदी को जीवित इकाई का दर्जा दे दिया।

इस कानून से वांगानुई नदी को सम्प्रभु राष्ट्र के नागरिक को प्राप्त समस्त संवैधानिक अधिकार मिल गए। न्यूजीलैंड का माओरी आदिवासी समुदाय वांगानुई नदी को अपना पुरखा मानता है। इसी आस्था को लेकर माओरी समुदाय कोई डेढ़ सदी से वांगानुई की विशेष मान्यता के लिये संघर्ष कर रहा था। आस्था सच्ची थी, इसीलिये फलीभूत हुई। अब यदि कोई वांगानुई नदी को प्रदूषित करेगा या क्षति पहुँचाने वाला कोई कृत्य करेगा या अपशब्द भी कहेगा, तो इसे माओरी समुदाय के विरुद्ध अपराध माना जाएगा और कानूनी कार्रवाई होगी। इतना ही नहीं, नदी के कानूनी अधिकारों को सुरक्षित रखने का दायित्व दो वकीलों को सौंपा गया है। वांगानुई का पर्यावरण स्वच्छ रखने के लिये तीन करोड़ डॉलर और कानूनी लड़ाई लड़ने के लिये 10 लाख डॉलर का कोष बनाया गया है।

इस अभिनव पहल की प्रेरक पृष्ठभूमि में उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने 20 मार्च, 2017 को असाधारण फैसला सुनाया है। भारत में नदियों की प्राण रक्षा की दिशा में आशा की यह नई किरण है। न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खंडपीठ ने ‘गंगा’ और ‘यमुना’ को मानव के समान जीवंत इकाई घोषित कर दिया। उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के इस निर्णय के फलस्वरूप ये दोनों नदियाँ स्वतंत्र सम्प्रभु भारत के नागरिकों के समान सभी संवैधानिक अधिकारों से युक्त हो गई हैं। इन्हें प्रदूषित करना अथवा किसी भी प्रकार का नुकसान पहुँचाना उसी प्रकार का अपराध होगा जैसा कि हाड़-मांस के जिंदा इंसान के जीवन को संकट में डालने पर बनता है। इसके लिये दोषी व्यक्ति को कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा। और सजा भुगतनी होगी।

गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने के लिये दायर ललित मिगलानी की याचिका पर उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय की उसी खंडपीठ ने गंगा नदी में गंदगी बहा रहे होटल, आश्रम, उद्योगों को सील करने तथा खुले में शौच करने वालों पर जुर्माना लगाने का आदेश दिया है।

उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना के अधिकारों की रक्षा और पैरोकारी के लिये नमामि गंगे अभियान के महानिदेशक, उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव और महाधिवक्ता के तीन सदस्यीय पैनल को अधिकृत किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह पैनल खोज खबर लेता रहेगा कि गंगा-यमुना को क्षति पहुँचाने वाला कोई कृत्य कहाँ हो रहा है? उस पर मुकदमा दर्ज कराएँगे और अदालत से सजा दिलवाने की जिम्मेदारी निभाएँगे। ‘सब चलता है’ वाला माहौल अब खत्म हो जाना चाहिए। तात्पर्य यह भी कि तीनों आला अफसरों के दायित्व-निर्वाह में कोताही हुई तो उन्हें भी कानून के कठघरे में खड़ा किया जा सकेगा।

वैसे तो भारत की लगभग सभी नदियाँ समाज और सरकार की अनदेखी की शिकार हैं। सभी मरणासन्न हैं। उनकी जिंदगी के लिये कठोर कदमों की दरकार है। तथापि, गंगा और यमुना का प्रसंग है तो पहले उनकी दशा का लेखा-जोखा कर लें।

गंगोत्री-उत्तराखण्ड से निकलकर 2525 किलोमीटर की यात्रा तय कर बंगाल की खाड़ी में मिलने वाली गंगा भारत की सबसे बड़ी नदी है। गंगा कछार का जलागम क्षेत्र 8,61,404 वर्ग किलोमीटर है। देश के 26.4 प्रतिशत भू-भाग में इसका फैलाव है। भारत की 43 फीसद आबादी आजीविका के लिये गंगा पर निर्भर है। यमुनोत्री-उत्तराखण्ड से निकलकर 1376 किलोमीटर की दूरी तय करने वाली यमुना तीर्थराज प्रयाग में गंगा से संगम करती है। गंगा-यमुना का दोआब भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण भू-भाग है। इतिहास, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, उद्यम की चैतन्य भूमि।

गंगा-यमुना भारत की पवित्र सप्त सरिताओं में प्रतिष्ठित हैं। देवी-माँ के रूप में इनकी लोक मान्यता है। पूजी जाती हैं ये नदियाँ इनके तटों पर तीर्थ स्थापित हैं। परन्तु बाजारू वृत्तियों के चलते इनके भक्त ही इनके विनाश का तांडव रच रहे हैं। इनके किनारों की बसावटें; कल-कारखाने, बेइंतहा जहरीला कचरा गंगा-यमुना में उड़ेल रहे हैं। जिस समाज को इनकी फिक्र करनी चाहिए, वह पाखंड तो करता है, परन्तु जिन्दा समाज की तरह बर्ताव नहीं करता। शासन-प्रशासन भी सचमुच फिक्रमन्द नहीं हैं। इसीलिये तीन दशक के कथित अभियानों के बाद भी गंगा-यमुना तिल-तिलकर मौत की ओर बढ़ रही हैं। नेता भाषणों के रसायन से नदियों का पुनरुद्धार करने की ठाने हुए हैं और भारतीय संस्कृति से अनजान अफसरशाही परियोजना-पर्यटन का आनंद उठा रही है। जनता के खजाने का अरबों रुपया बर्बाद हो चुका है और होता जा रहा है।

यह करुण-कथा, कलंक-प्रपंच, अकेले गंगा-यमुना की कहानी नहीं है। भारत की तमाम नदियाँ-सरोवर मौत के मुहाने पर हैं। इन्हें जानने-मानने-पूजने वाले समाज को जागना होगा इन्हें बचाने के लिये। जूझना होगा अपनी अकर्मण्यता, उदासीनता और पाखंडप्रियता से। उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने रास्ता खोल दिया है। यह सभी जलस्रोतों के लिये नजीर बन सकता है। समूचे देश से इस फैसले के स्वागत और समर्थन में आवाज बुलन्द हो। हर हाथ उठे और नदियों को बचाने के काम में जुट जाए। सरकारों को विवश कर दे सही कदम उठाने के लिये और धन-पशुओं को मजबूर कर दे विनाश के डेरे उठाने के लिये। याद रखिए, नदियाँ बचीं तभी जिंदगियाँ बचेंगी।

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