गोकर्ण की यात्रा

1 Mar 2011
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लंकापति रावण हिमालय में जाकर तपश्चर्या करने बैठा। उसकी माँ ने उसे भेजा था। शिवपूजक महान सम्राट् रावण की माता क्या मामूली पत्थर के लिंग की पूजा करे? उसने लड़के से कहा, “जाओ बेटा, कैलाश जाकर शिवजी से उन्हीं का आत्मलिंग ले आओ। तभी मेरे यहां पूजा हो सकती है।” मातृभक्त रावण चल पड़ा। मानसरोवर से हर रोज एक सहस्त्र कमल तोड़कर वह कैलाशनाथ की पूजा करने लगा। यह तपश्चर्या एक हजार वर्ष तक चली।

एक दिन न जाने कैसे, नौ कमल कम आये। पूजा करते-करते बीच में उठा नहीं जा सकता था और सहस्त्र की संख्या में एक भी कमल कम रहे तो काम नहीं चल सकता था। अब क्या किया जाय? आशुतोष महादेव जी शीघ्रकोपी भी है। सेवा में जरा भी न्यूनता रही कि सर्वनाश ही समझ लीजिये। रावण की बुद्धि या हिम्मत कच्ची तो थी ही नहीं। उसने अपना एक-एक शिर-कमल उतारकर चढ़ाना शुरू कर दिया। ऐसी भक्ति से क्या प्राप्त नहीं होता? भोलानाथ प्रसन्न हुए। कहने लगेः ‘वर मांग, वर मांग। जितना मांगे उतना कम है।’ रावण ने कहा, ‘मां पूजा में बैठी है। आपका आत्मलिंग चाहिए।’ शब्द निकलने की ही देर थी। शंभु ने हृदय चीरकर आत्मलिंग निकाला और रावण को दे दिया।

त्रिभुवन में हाहाकार मच गया। देवाधिदेव महादेव जी आत्मलिंग दे बैठे। और वह भी किसको? सुरासुरों के काल रावण को! अब तीनों लोकों का क्या होगा? ब्रह्मा दौड़े विष्णु के पास। लक्ष्मी सरस्वती से पूछने गई। इन्द्र मूर्छित हुआ आखिर विघ्ननाशक गणपति की सबने आराधना की और उनसे कहा, ‘चाहे सो कीजिये। किन्तु यह लिंग लंका में न पहुंचने पाये ऐसा कुछ किजिये।’

महादेव जी ने रावण से कहा था, ‘लो यह लिंग। जहां जमीन पर रखोगे वहीं यह स्थिर हो जायेगा।’ महादेव जी का लिंग पारे से भी भारी था। रावण उसे लेकर पश्चिम समुद्र के किनारे चला जा रहा था। शाम होने आयी थी। रावण को लघुशंका की हाजत हुई। शिवलिंग को हाथ में लेकर बैठा नहीं जा सकता था; जमीन पर तो रखा ही कैसे जाता? रावण के मन में यह उधेड़बुन चल ही रही थी कि इतने में देवताओं के संकेत के अनुसार गणेश जी चरवाहे के लड़के का रूप लेकर गौएं चराते हुए प्रकट हुए। रावण ने कहा, ए लड़के, यह लिंग जरा संभाल तो। जमीन पर मत रखना।’

गणेश ने कहा, ‘यह तो भारी है। थक जाऊंगा तो तीन बार आवाज दूंगा। उतनी देर में तुम आये तो ठीक, वरना तुम्हारी बात तुम जानो।’

हाजत तो लघुशंका की ही थी। उसमें भला कितनी देर लगती? रावण बैठा। बैठा तो सही किन्तु न मालूम कैसे आज उसे के पेट में सात समुद्र भर गये थे। जनेऊ कान पर चढ़ाने पर तो बोला भी नहीं जा सकता था। सिद्धि-विनायक ने इकरार के अनुसार तीन बार रावण के नाम से आवाज दी। और अर्-र्-र्-र् की चीख मारकर लिंग जमीन पर रख दिया, मानों वजन असह्य मालूम हुआ हो! जमीन पर रखते ही लिंग पाताल तक पहुंच गया। रावण क्रोध के मारे लाल-लाल होकर आया और गणपति की खोपड़ी पर उसने कसकर एक घूंसा मारा। गजानन का सिर खून से लथपथ हो गया।

बाद में रावण दौड़ा लिंग उखाड़ने। किन्तु अब तो यह बात असंभव थी। पाताल तक पहुंचा हुआ लिंग कैसे उखाड़ा जा सकता था? सारी पृथ्वी कांपने लगी, किन्तु लिंग बाहर नहीं आया। आखिर रावण ने लिंग को पकड़कर मरोड़ डाला। इससे उसके चार टूकड़े हाथ में आये। निराशा के आवेश में उसने चारो दिशाओं में एक-एक टुकड़ा फेंक दिया और बेचारा खाली हाथ लंका को वापस लौटा। मरोड़े हुए लिंग का मुख्य भाग जहां रहा, वहीं है गोकर्ण महाबलेश्वर। सारी पृथ्वी पर इससे अधिक पवित्र तीर्थ-स्थान नहीं है।

गोकर्ण-महाबलेश्वर कारवार और अंकोला बंदरगाहों के बीच स्थित तदड़ी बंदरगाह से करीब छः मील उत्तर की ओर ठीक समुद्र के किनारे पर है। दक्षिण में इसका माहात्म्य काशी से भी अधिक माना जाता है। लिंग अधिकतर जमीन के अंदर ही है। उसकी जलाधारा के बीचों-बीच एक बड़ा सुराख है। उसमें अंदर अंगूठा डालने पर भीतर के लिंग का स्पर्श होता है। दर्शन का तो प्रश्न ही नहीं। वहां के पुजारी कहते हैं कि लिंग की शिला अत्यंत मुलायम है। भक्तों के स्पर्श से वह घिस जाती है, इसलिए प्राचीन लोगों ने यह प्रबंध किया है। बहुत बरसों के बाद शुभ शकुन होने पर जलाधारी निकाली जाती है और आसपास की चुनाई को हटाकर मूल लिंग को दो-तीन हाथों की गहराई तक खोल दिया जाता है। कुछ महीनों तक खुला रखने के बाद मोतियों को पीसकर बनाये हुए चूने से आसपास की चुनाई फिर से कर दी जाती है। यदि मैं भूलता नहीं हूं, तो इस क्रिया को ‘अष्टबंध’ या ऐसा ही कुछ नाम दिया जाता है।

हम कारवार में थे तब एक बार कपिलाषष्ठी जैसा दुर्लभ अष्टबंध का योग आया। पिताश्री, आई (मां) और मैं-हम तीनों इस यात्रा में गये। तदड़ी बंदरगाह पर मुझे उठा लेने के लिए ‘कुली’ किया गया। उसके कंधे पर बैठकर मैं गोकर्ण गया। कोटितीर्थ में स्नान किया। गोकर्ण-महाबलेश्वर के दर्शन किए। श्मशान भूमि और उसकी रखवाली करने वाले हरिश्चंद्र का दर्शन किया। जिसमें हड्डियां डालने पर वे गल जाती हैं ऐसे पानी का एक तीर्थ देखा। अहल्याबाई के अन्नसत्र में उस साध्वी की मूर्ति देखी। सिर में चोट के निशान वाले और दो हाथोंवाले चरवाहे गजानन के दर्शन किए। ब्रह्मा की एक मूर्ति देखी। और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि रावण की उस मशहूर लघुशंका का कुंड भी देखा। आज भी वह भरा हुआ है और उससे बदबू आती है। और भी बहुत कुछ देखा होगा, किन्तु वह आज याद नहीं है।

हां, इस प्रदेश की एक खासियत बताना तो मैं भूल ही गया। घर चाहे गरीब का हो या अमीर का, फर्श तो गारे की ही होगी; किन्तु वह काले संगमरमर के पत्थर के समान सख्त और चमकने वाली होती है। सचमुच उसमें मुंह दिखाई देता है। गरमी के दिनों में दोपहर के समय आदमी बगैर कुछ बिछाये गारे के उस पलस्तर पर आराम से सो सकता है। समय-समय पर यह जमीन गोबर और काजल मिलाकर उससे लीपी जाती है। किन्तु हाथ से नहीं लीपा जाता। सुपारी के पेड़ पर एक तरह की छाल तैयार होती है। उससे फर्श को घिस-घिसकर चमकिला बनाया जाता है। इस छाल को वहां की भाषा में ‘पोवली’ कहते हैं।

गोकर्ण से वापस लौटते समय तदड़ी तक समुद्री रास्ते से वाफर यानी स्टीम लांच में जाने का विचार था। मौसमी तूफान शुरू होने को बहुत ही थोड़े दिन बाकी थे। आठ दिन के बाद आघबोंटे भी बंद होने वाली थीं। इसलिए वापस लौटने वाले यात्रियों की भीड़ का पार नहीं था। तदड़ी बंदर से चढ़ने वाले यात्रियों को स्टीमर में जगह मिलेगी या नहीं, इस बात का संदेह था। इसीलिए हमने स्टीमलांच में बैठकर स्टीमर तक जल्दी पहुंचना पसंद किया था।

गोकर्ण का बंदर बंधा हुआ नहीं था। किनारे से मेरी छाती बराबर पानी तक तो चलकर जाना पड़ता था। वहां से नाव में बैठकर स्टीमलांच तक जाना पड़ता था। नौजवान लोग नाव तक चलकर जाते; किन्तु औरतें तथा बच्चे तो कुलियों के कंधे पर चढ़कर या दो कुलियों के हाथों की पालकी में बैठकर जाते।

शुरू में ही एक अपशकुन हुआ। एक गरीब बुढ़िया शरीर से कुछ स्थूल थी। किन्तु किराये पर दो कुली करने जितने पैसे उसके पास न थे। उसने एक लोभी कुली को कुछ अधिक मजदूरी देने का लालच देकर अपने को कन्धे पर उठा ले जाने के लिए राजी किया। वह था दुबला-पतला। वह किनारे पर बैठ गया। विधवा बुढ़िया उसके कन्धे पर सवार हुई। किन्तु ज्यों ही कुली उठने लगा, त्यों ही दोनों धम्म से गिर पड़े। इतने में एक नटखट लहर ने दौड़ते आकर दोनों को कृतार्थ कर दिया।

यह बोट लगभग आखिरी होने से गोकर्ण से भी चढ़ने वाले यात्री बहुत थे। वे सबके सब स्टीमलांच में कैसे समाते? इसलिए सौ आदमी बैठ सकें इतना बड़ा एक पड़ाव (यानी नाव) स्टीमलांच के पीछे बांध दिया गया। और उसके पीछे कस्टम विभाग के एक अफसर की सफेंद नाव बांध दी गयी। मैंने देखा कि खानगी नावों की पतवारें कड़छी या पंखे जैसी गोल होती है, जबकि कस्टमवालों की पतवारें क्रिकेट बैट की तरह लंबी-लंबी और चपटी होती हैं।

हमारा काफिला ठीक समय पर निकला। एक दो मील गये होंगे कि इतने में आसमान बादलों से घिर गया। हवा जोर से बहने लगी। लहरें जोर-जोर से उछलने लगी, मानों बड़ी दावत मिल रही हो। नावें डोलने लगीं। और स्टीमलांच पर का खिंचाव भी बढ़ने लगा। अरे! यहा क्या? बारिश के छींटे! बड़े-बड़े बेरों के जैसे छींटे! अब क्या होगा? लहरें जोर-जोर से उछलने लगीं। स्टीमलांच बेकाबू घोड़े की तरह ऊपर-नीचे कूदने लगी। पीछे की नाव की रस्सियां कर्-र्-र् कर्-र्-र् आवाज करने लगीं। इतने में स्टीमलांच और नाव के बीच एक लहर इतनी बड़ी आई की नाव दिखाई ही न दी।

मैं स्टिमलांच में बॉयलर के पास लकड़ी के तख्तों के चबूतरे पर बैठा था। हमारे कप्तान को जल्दी से जल्दी स्टीमर तक पहुंचना था। उसने स्टीमलांच पागल की तरह पूरी रफ्तार में छोड़ दी। चबूतरा गरम हुआ। मैं जलने लगा। समझ में न आया कि क्या करूं? जरा इधर-उधर हटता तो ‘समुद्रास्तृप्यन्तु’ होने का डर था! और बैठना बिलकुल नामुमकिन हो गया। इस उलझन में मुझे बड़े भयानक ढंग से छुटकारा मिला। समुद्र की एक प्रचंड लहर चढ़ आयी। और उसने मुझे नखशिखान्त नहला दिया। अब चबूतरा गरम रहत ही कैसे? पिता श्री परेशान हुए। आयी (मां) को तो कुलदेव का स्मरण हो आयाः ‘मंगेशा! महारुद्रा! मायबापा तूंच आतां आम्हांला तार!’ मूसलाधार वर्षा होने लगी। हम स्टीमलांच वाले तो कुछ सुरक्षित थे। किन्तु पीछे के उन नाववालों का क्या? शुरू-शुरू में स्टीमलांच को पानी काटना था, इसलिए उसमें पानी आसानी से आ जाता था। किन्तु नाव को तो हर हिलोर पर सवार ही होना था, इसलिए चाहे जितना डोलने पर भी उसके अंदर पानी नहीं आ पाता था। किन्तु जब हवा और बारिश के बीच होड़ लगी और दोनों का अट्टहास बढ़ने लगा, तब एक ही लहर में आधी के करीब नाव भर जाने लगी। लहरें सामने से आती, तब तक तो ठीक था। नाव उन पर सवार होकर उस पार निकल जाती थी। कभी लहरों के शिखर पर तो कभी दो लहरों के बीच की घाटी में कभी-कभी तो नाव एक हिलोर पर से उतरती कि नीचे से नई लहर उठकर उसे अधर में ही उठा लेती थी। ऐसी अनसोची हलचल होने पर अंदर जो लोग खड़े थे वे धड़ा-धड़ाधड़ एक दुसरे पर गिर पड़ते थे।

लेकिन अब लहरें बाजुओं के टकराने लगीं। नाव के अंदर बैठी हुई औरतों और बच्चों को तो सिर्फ फूट-फूटकर रोने का ही इलाज मालूम था। जितने जवांमर्द थे वे सब बाल्टी, गागर या डिब्बा, जो भी हाथ में आता उसी में पानी भर-भरकर बाहर फेंकने लगे। फायर इंजिन के बंबे भी इससे ज्यादा तेजी से क्या काम कर पाते? नाव खाली होती न होती इतने में एकाध क्रूर लहर विकट हास्य के साथ ‘ध...ड़’ से नाव से टकराती और अंदर चढ़ बैठती। उस समय स्त्री-बच्चों की चीखें और दहाड़ें कानों को फाड़े डालती थीं। दिल चीर डालती थीं। कुछ यात्री अवधूत दत्तात्रेय को सहायता के लिए पुकारने लगे, कुछ पंढरपुर के विठोबा को पुकारने लगे। कोई अंबा भवानी की मन्नत मनाने लगे, तो कोई विघ्नहर्ता गणेश को बुलाने लगे। शुरू-शुरू में स्टीमलांच के कप्तान और खलासी हम सबको धीरज देते और कहतेः ‘अजी आप डरते क्यों हैं? जिम्मेदारी तो हमारी है। हमने ऐसे कई तूफान देखे हैं।’ किन्तु देखते-ही-देखते मामला इतना बढ़ गया की कप्तान का मुंह उतर गया। वह कहने लगाः भाइयों, रोने से क्या फायदा? इन्सान को एक बार मरना तो है ही। फिर वह मौत बिस्तर में आये या घोड़े पर, शिकार में आये या समुद्र में। आप देख ही रहे हैं कि हम सब तरह की कोशिश कर रहे हैं। किन्तु इन्सान के हाथ में क्या है? मालिक जो चाहे वही होता है।’ मैं उसके मुंह की ओर टकटकी लगाकर देख रहा था। यात्रा के प्रारंभ जो आदमी गाजर की तरह लाल-लाल था, वहीं अब अरवी के पत्तों की तरह हरा-हरा हो गया था।

मैं उस समय बिलकुल बालक था। किन्तु गंभीर अवसर पर बालक भी सच्ची स्थिति को समझ लेता है। पल-पल पर मैं स्थानभ्रस्ट हो रहा था। अपने दोनों हाथों से पकड़कर मैं बड़ी मुश्किल से अपने स्थान को संभाले हुए था। हमारा सारा सामान एक ओर पड़ा था। किन्तु उसकी ओर देखता ही कौन? लेकिन पूजा की देव-मूर्तियां और नारियल बेंत की जिस ‘सांबळी’ में रखे थे, उसे मैं अपनी गोद में लेकर बैठना नहीं भूला था।

मेरे मन में उस समय कैसे-कैसे विचार आ रहे थे। वह काल था मेरी मुग्ध भक्ति का। रोज सुबह दो-दो घंटे तो मेरा भजन चलता था। मेरा जनऊ नहीं हुआ था इसलिए संध्या-पूजा तो कैसे की जाती? फिर भी पिताश्री जब पूजा में बैठते, तब पास बैठकर उनकी मदद करने में मुझे खूब आनंद आता। मन में आया, आज यदि डूबना ही भाग्य में बदा हो, तो देवताओं की यह ‘सांबळी’ छाती से चिपटाकर ही डूबूंगा। दूसरे ही क्षण मन में विचार आया, मां के देखते ही लांच में से पानी में लुढ़क जाऊंगा तो मां की क्या दशा होगी? यह विचार ही इतना असह्य मालूम हुआ की मेरी सांस रुंध गयी। सीने में इस तरह दर्द होने लगा, मानो पत्थर की चोट लगी हो। मैंने ईश्वर से प्रार्थना की कि ‘हे भगवान, यदि डुबाना ही हो तो इतना करो कि ‘आयी’ (मां) और मैं एक दूसरे को भुजाओं में लेकर डूबें।’

हरेक बालक की दृष्टि में उसके पिता तो मानो धैर्य के मेरु होते हैं। बालक का विश्वास होता है कि आकाश भले टूटे, किन्तु पिता का धैर्य नहीं टूट सकता। इसलिए जब ऐसे अवसर पर बालक अपने पिता को भी दिङमूढ़ बना हुआ, घबड़ाया हुआ देखता है, तब वह व्याकुल हो उठता है। मैं तूफान से इतना नहीं डरा था, बरसात से भी इतना नहीं डरा था, ‘आदम की बू आ रही है, मैं उसे खाऊंगी’ ऐसा कहते हुए मुंह फाड़कर आनेवाली लहरों से भी इतना नहीं डरा था, जितना पिता जी का परेशान चेहरा देखकर तथा उनकी रुंधी हुई आवाज सुनकर डर गया।

हरेक आदमी कप्तान से पूछता, ‘हम कितनी दूर आ गये हैं? अभी कितना फासला बाकी है?’ चारों ओर जहां भी नजर डालते वहां बारिश, आंधी और तंरगों का तांडव ही नजर आता। इतना पानी गिरा, किन्तु आकाश जरा भी नहीं खुला। मैंने कप्तान से गिड़गिड़ाकर कहा, ‘लांच को कुछ किनारे तक तैरकर जा सकेंगे।’ वह उत्साह-हीन हास्य के साथ बोला, ‘कैसा बेवकूफ है यह लड़का! किनारे से जितने दूर है, उतने ही सुरक्षित हैं। जरा भी पास गये तो शिलाओं से टकराकर चकनाचूर हो जायेंगे। आज तो जानबूझ कर हम किनारे से दूर रह रहे हैं। स्टीमर तक पहुंच गये की गंगा नहाये समझो। आज दूसरा इलाज ही नहीं।’

मैंने इससे पहले कभी बड़ी उम्र के लोगों को एक-दूसरे से गले लगकर रोते नहीं देखा था। वह दृश्य आज उस नाव में देखा। उसमें स्त्री-पुरुष एक दूसरे को भुजाओं-में लेकर फूट-फूटकर रो रहे थे। दो-तीन बच्चों वाली एक मां अपने सब बच्चों को एक ही साथ गोद में लेने की कोशिश कर रही थी। केवल पांच-पचीस जवां मर्द जीतोड़ मेहनत करके समुद्र के साथ अ-समान युद्ध कर रहे थे। तूफान इतना बढ़ गया और स्टीमलाँच तथा नाव इतनी डोलने लगी कि लोग डर के मारे रोना तक भूल गये। मृत्यु की एक काली छाया सर्वत्र फैल गया। होश में थे सिर्फ नाव के बहादुर नौजवान और काली-काली वर्दी पहने हुए स्टीमलाँच के खलासी। हमारा कप्तान हुक्म छोड़ते-छोड़ते कभी परेशान हो उठता; किन्तु खलासी बराबर एकाग्र मन से बिना परेशान हुए, अचूक ढंग से अपना-अपना काम कर रहे थे। कर्मयोग क्या इससे भिन्न होगा?

आखिरकार तदड़ी बंदर आया। हम स्टीम को देखते उससे पहले ही स्टीमर ने हमारी लाँच को देख लिया। स्टीमर ने अपना भोंपू बजायाः ‘भों..!’ मानो सबकी करुण वाणी सुनकर ईश्वर ने ही ‘मा भैः’ की आकाशवाणी की हो। हमारी स्टीमलाँच ने अपनी तीक्ष्ण आवाज में जबाव दिया। सबके दिल में आशा के अंकुर फूटे। चारों ओर जय-जयकार हुआ।

इतने, में मानों अपना अंतिम प्रयत्न कर देखने की दृष्टि से और हम सबके भाग्य के सामने हारने से पहले आखिरी लड़ाई लेने के लिए एक बड़ी लहर हमारी लाँच पर टूट पड़ी। और पिताजी जहां बैठे थे वहीं पर पीछे की ओर गिर पड़े। मैंने कातर होकर चीख मारी। अब तक मैं रोया नहीं था। मानों उसका पूरा बदला मुझे एक ही चीख में ले लेना था। दूसरे ही क्षण पिताजी उठ बैठे और मुझे छाती से लगाकर कहने लगे, ‘दत्तू, डरो मत। मुझे कुछ भी नहीं हुआ है।’

हम स्टीमर के पास पहुंच गये। किन्तु बिलकुल पास जाने की हिम्मत कौन करे? कस्टम वाली नाव को तो उन लोगों ने कभी का अलग कर दिया था, क्योंकि लाँच तथा बड़ी नाव के झोंके वह सह नहीं सकती थी। उसकी सुरक्षितता अलग होने में ही थी। स्टीमलाँच ने दूर से स्टीमर की प्रदक्षिणा कर ली। मगर किसी भी तरह पास जाने का मौका नहीं मिला। तरंगों के धक्के से लाँच यदि स्टीमर के साथ टकरा जाती, तो बिलकुल आखिरी क्षण में हम सब चकनाचूर हो जाते। आखिर ऊपर से रस्सा फेंका गया और हमारे खलासी लाँच की छत पर खड़े होकर लम्बे-लम्बे बांसों से स्टीमर की दीवालों से होने वाली लाँच की टक्कर को रोकने लगे। तरंगें उसे स्टीमर की ओर फेंकने की कोशिश करती, तो खलासी अपने लम्बे-लम्बे बांसों की नोकों की ढाल बनाकर सारी मार अपने हाथों और पैरों पर झेल लेते। तिस पर भी अंत में स्टीमर की सीढ़ी से स्टीमलाँच की छत टकरा ही गयी, और कड़ड़ड़ आवाज करता हुआ एक लम्बा तख्त टूटकर समुद्र में जा गिरा।

मैं पास ही था, इसलिए स्टिमर में चढ़ने की पहली बारी मेरी ही आई। चढ़ने की काहे की? गेंद की तरह फेंके जाने की! खुद कप्तान और दूसरा एक खलासी लाँच के किनारे खड़े रहकर एक-एक आदमी को पकड़कर स्टीमर की सीढ़ी के सबसे नीचे की सौपान पर खड़े खलासियों के हाथ में फेंक देते थे। इसमें खास सावधानी तो यह रखी जाती कि जब लाँच हिलोरों के गड्ढे में उतर जाती तब वे लोग राह देखते और दूसरी ही क्षण जब वह तरंगों के शिखर पर चढ़ जाती और सीढ़ी बिलकुल पास आ जाती, तब झट यात्री को सौंप देते! दोनों ओर के खलासी यदि आदमी के हाथ पकड़ रखें तो दूसरे ही क्षण जब लाँच तरंगों के गड्ढें में उतरे तब उसकी धज्जियां उड़ जायं! मैं ऊपर सीढ़ी पर चढ़ा और मुड़कर देखने लगा कि मां आती है या नहीं। जब एक बिलकुल अजनबी मुसलमान को मां की बाहें पकड़ते देखा तो मेरा मन बेचैन हो उठा। किन्तु वह समय था जान बचाने का। वहां कोमल भावनाएं किस काम की? थोड़ी ही देर में पिताजी भी आ पहुंचे। देवताओं की ‘सांबली’ तो मैंने कंधे पर ही रखी थी। ऊपर अच्छी जगह देखकर पिताजी ने हमें बिठा दिया और वे सामान लाने गये। मैं श्रद्धालु लड़का अवश्य था; पर उस समय मुझे पिताजी पर सचमुच गुस्सा आया। भाड़ में जाय सारा सामान! जान खतरे में डालने के लिए दुबारा क्यों जाते होंगे? किन्तु वे तो तीन बार हो आये। आखिरी बार आकर कहने लगे, ‘गोकर्ण-महाबलेश्वर के प्रसाद का नारियल पानी में गिर गया।’ एक ही क्षण में आई और मैं दोनों बोल उठे; आई ने कहा, ‘अरे-अरे!’ और में कहा, ‘बस इतना ही न?’

लाँच वाले सब यात्रियों के चढ़ने के बाद नाव वालों की बारी आयी। वे सब चढ़े। उसके बाद लाँच और नाव निशाचर भूतों की तरह चीखें मारती हुई तदड़ी के किनारे की ओर गई और किनारे पर तपश्चर्या करते बैठे हुए यात्रियों को थोड़े-थोड़े करके लाने लगी। तूफान अब कुछ ठंडा पड़ा था। मगर अंधेरी रात और उछलती हुई तरंगों के बीच उन लोगों का जो हाल हुआ होगा, उसका वर्णन कौन कर सकता है?

स्टीमर यात्रियों से ठसाठस भर गई। जो भी बोलता, समुद्र में डूबे हुए अपने सामान की बातें ही सुनाता। आखिर सब यात्री आ गये। मेहर मालिक की कि किसी की जान नहीं गयी।

स्टीमर आखिर छूटी और लोग अपनी-अपनी पुरानी यात्राओं के ऐसे ही खतरनाक संस्मरण एक-दूसरे को सुनाकर आज का दुःख हलका करने लगे। बड़ी देर तक किसी को नींद नहीं आई। मैं कब सोया, कारवार का बंदरगाह सुबह कब आया, और हम घर पर कब पहुंचे, आज कुछ भी याद नहीं है। किन्तु उस दिन का तूफान का वह प्रसंग स्मृतिपट पर इतना ताजा है, मानों कल ही हुआ हो। सचमुचः

दुःखं सत्यं, सुखं मिथ्या; दुःखं जन्तोः परं धनम्।

अक्टूबर, 1925

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