ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य और पोषणः एक समग्र दृष्टिकोण

24 Jan 2020
0 mins read

भारत में जहाँ अल्प-पोषण दशकों से एक बड़ी समस्या तथा चुनौती बना रहा है, वहीं अति-पोषण, विशेषतः मोटापा, अब एक नई समस्या के रूप में उभर रहा है। इस पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि देश में ‘कुपोषण (अल्प और अति-पोषण) की दोहरी चुनौती’ एक नई वास्तविकता है। वक्त आ गया है कि भारत में कुपोषण से निपटने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाया जाए और इस ‘दोहरी चुनौती’ से निपटने के लिए समेकित और उपयुक्त रणनीति लागू की जाए।

स्वास्थ्य और पोषण के बीच अंतर-सम्बन्ध को सदियों पहले ही समझा-जाना जा चुका है। किसी व्यक्ति के पोषण का अच्छा स्तर यह सुनिश्चित करता है कि उसमें बीमारियां फैलाने वाले कारकों से लड़ने की अच्छी क्षमता है, वह स्वस्थ बना रह सकता है तथा समाज के लिए उत्पादक बन समग्र विकास में योगदान कर सकता है। बच्चों में अल्प-पोषण, खासतौर पर गर्भावस्था के दौरान भ्रूण की स्थिति से लेकर शिशु के दो साल का होने तक पोषण में कमी होने से बच्चे की बुद्धिलब्धि (आईक्यू) में 15 अंकों की कमी आ सकती है।

 विश्व बैंक के अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि भारत में कुपोषण से होने वाले नुकसान की लागत कम से कम 10 अरब अमरिकी डॉलर बैठती है जिसका परिणाम उत्पादकता में कमी, बीमारी और अकाल मृत्यु होता है। साथ ही, बीमारियों की वजह से किसी सामान्य वजन वाले व्यक्ति में भी अल्प-पोषण की समस्या उत्पन्न हो सकती है जो आगे बढ़कर एक कुचक्र का रूप ले सकती है। जाहिर है कि पोषण की चुनौती कई स्तर वाला मुद्दा है। यह सिर्फ अल्प-पोषण तक सीमित नहीं है, बल्कि अति-पोषण (मोटापा), ‘प्रोटीन हंगर’ और ‘हिडन हंगर’ (या सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी) इसके अन्य आयाम हैं जो ‘सामान्य वजन’ वाले व्यक्ति में भी हो सकते हैं।

कुपोषण की शब्दावली का उपयोग आमतौर पर अल्प-पोषण और अतिपोषण तथा इनसे सम्बन्धित चुनौतियों को बताने के लिए किया जाता है। अधिकतर स्थितियों में किसी एक तरह के कुपोषण की अधिकता पाई जाती है। अब यह महसूस किया जा रहा है कि कई देशों में अल्प और अति-पोषण दोनों का प्रकोप नई चुनौती के रूप में उभर कर सामने आ रहा है जिसे ‘कुपोषण की दोहरी चुनौती’बताया जा रहा है। यह दोहरा संकट स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रयासों के परिणामों और जनता की उत्तरजीविता पर असर डालता है। भारत में अल्प-पोषण जहाँ प्रमुख और जबर्दस्त चुनौती बना हुआ है, वहीं अतिपोषण का मसला भी एक वास्तविकता है। इसलिए अब वक्त आ गया है जब भारत को कुपोषण से निबटने के लिए समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है ताकि ‘कुपोषण की दोहरी चुनौती’ पर ध्यान केन्द्रित किया जा सके और इससे निपटने के लिए उपयुक्त रणनीति अपनाई जा सके।

अल्पपोषण की चुनौती

1947 में देश की आजादी के समय भारत में स्वास्थ्य और पोषण के संकेतक बहुत खराब स्थिति में थे। वर्ष 1950 के दशक में भारत में औसत अनुमानित आयु 32 साल थी (जो 2017 में बढ़कर 63 साल हो गई) और शिशु मृत्युदर (आईएमआर) प्रति हजार जीवित जन्म पर करीब 200 और मातृ मृत्युदर (एमएमआर) 1,00,000 जीवित जन्म लेने वालों पर करीब 2,000 थी। वर्ष 2014-16 के दौरान मातृ मृत्युदर 130/1,00,000 जीवित जन्म थी वहीं 2017 में शिशु मृत्युदर 33/1,000 जीवित जन्म आ गई थी। इन वर्षों के दौरान लक्ष्य निर्धारित कर उठाए गए कदमों से जहाँ गरीबी-रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों की जनसंख्या में कमी आई, वहीं खाद्य उत्पादन और इसकी उपलब्धता में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन जनता के कुपोषण के स्तर में उसी अनुपात में गिरावट नहीं देखी गई। भारत में अल्प-पोषित जनसंख्या का प्रतिशत काफी ज्यादा रहा है और पिछले 25 वर्षों में स्थिति में मामूली सुधार लाया है। देश में अंडरवेट (यानी न्यून भार), स्टंटेड (वृद्धिरोध) और वेस्टेड (भार क्षय) की समस्या ग्रामीण आबादी में शहरी आबादी से अधिक है। पोषण-स्तर के मापने के अन्य मापदंडों जैसे जनसंख्या समूहों में एनीमिया के स्तर और नवजात शिशुओं के वजन के आधार पर भी प्रगति के स्तर और नवजात शिशुओं के वजन के आधार पर भी प्रगति धीमी रही है। इसी चुनौती को ध्यान में रखते हुए भारत में आजादी के बाद कई पहल की गई हैं और कार्यक्रम चलाए गए हैं जिनमें पोषण का स्तर सुधारने पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।  

बॉक्स 1 पोषण की चुनौती से निपटने के लिए सरकार की महत्त्वपूर्ण पहल,क नीतियां और कार्यक्रम

1951

भारत की पंचवर्षीय योजनाएं देश में स्वास्थ्य और पोषण में सुधार का प्रमुख माध्यम रही हैं। पहली योजना 1951 में शुरू हुई और तब से भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना तक (2012-17) अल्प पोषण की समस्या से निपटने के लिए पंचवर्षीय योजनाएं महत्त्वपूर्ण नीतिगत औजार रहीं।

1952

सामुदायिक विकास कार्यक्रम (सीडीपी) में स्थानीय स्वशासन के सहयोग से ब्लॉक-स्तर पर जनता के पोषण में सुधार का एक महत्त्वपूर्ण घटक भी शामिल रहा।

1974

न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम (एमएनपी) की शुरुआत पांचवी पंचवर्षीय योजना (1974-78) में की गई। इसका उद्देश्य लोगों की कुछ न्यूनतम बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करना और उनके जीवन के स्तर में सुधार के साथ-साथ स्वास्थ्य और पोषण सेवाएं प्रदान करना था।

1975

समन्वित बाल विकास सेवा की शुरुआत 2 अक्टूबर, 1975 को भारत में महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण के स्तर में सुधार के लिए की गई।

1986

भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अन्तर्गत अलग से महिला और बाल विकास विभाग का गठन। इस विभाग को गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिए समन्वित बाल विकास सेवा और अन्य पोषण सेवाओं की जिम्मेदारी सौंपी गई।

1993

राष्ट्रीय पोषण नीति जारी

1995

15 अगस्त, 1995 को भारत सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को पोषण सहयोग (एनपी-एनएस) के राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की। ये कार्यक्रम मिड डे मील योजना के नाम से जाना जाता है।

2001

मिड-डे मील कार्यक्रम पका हुआ भोजन मिड-डे मील योजना में परिवर्तित हो गया जिसके तहत प्रत्येक सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में साल में कम-से-कम 200 दिन 300 कैलोरी ऊर्जा और 8-12 ग्राम प्रोटीन वाला भोजन दिया जाता है।

2006

‘महिला और बाल विकास’ नाम से एक पूर्ण मंत्रालय की स्थापना

2017

प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (जिसकी घोषणा 31 दिसम्बर, 2016 में की गई) का सरकारी तौर पर अमल

2017

नीति आयोग, भारत सरकार द्वारा जारी ‘राष्ट्रीय पोषण रणनीति’

2018

 8 मार्च, 2018 को पोषण अभियान तथा राष्ट्रीय पोषण मिशन शुरू किया गया।

 

पोषण और स्वास्थ्य का अंतर-सम्बन्ध

किसी व्यक्ति के पोषण के स्तर से उसके स्वास्थ्य के स्तर और परिणामों पर असर पड़ता है। अपर्याप्त पोषण वाले व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता और प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर पड़ जाती है। सूक्ष्म पोषण तत्वों की न्यूनता समेत अल्पपोषण की समस्या से ग्रस्त लोगों को संक्रामक रोगों, जैसे क्षयरोग, वायरस-जन्य रोगों और सभी अन्य संक्रमणों का खतरा अधिक होता है। अल्पपोषित और न्यून भार की समस्या से ग्रस्त बच्चे को पेचिश (डायरिया) और निमोनिया का खतरा अधिक होता है। ऐसे बच्चों के स्वस्थ होने की रफ्तार धीमी होती है। इस तरह की बीमारियों के प्रकोप के बाद उनके फिर से अल्पपोषण का शिकार होने की आशंका बनी रहती है। हालांकि उचित पोषण के अभाव में जनसंख्या के सभी उप-समूहों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है लेकिन प्रजनन की उम्र वाली महिलाओं और नवजात शिशुओं तथा बच्चों पर आमतौर पर इस तरह का असर ज्यादा देखा गया है। लोक स्वास्थ्य विज्ञान ने इस बात के प्रमाण जुटाए हैं कि गर्भावस्था (मां के पेट में) के दौरान शुरू हुआ अल्पपोषण का कुचक्र शिशु के पैदा होने के बाद जीवन भर असर डालता रहता है। जाहिर है कि अल्प पोषण से निपटने की पहल प्रजनन सक्षम आयु वर्ग की सभी महिलाओं, किशोरियों और बच्चों को लक्षित/केन्द्रित और प्राथमिकता प्रदान करते हुए की जानी चाहिए। इस बात के प्रमाण उभर कर सामने आ रहे हैं कि अल्प-पोषित और कम वजन वाले बच्चों को बड़ा होने पर गैर-संचारी बीमारियों जैसे हृदय रक्त वाहिकाओं से सम्बन्धित बीमारियों का खतरा ज्यादा होता है।

सही पोषण बेहतर स्वास्थ्य का आवश्यक हिस्सा है और हमारी प्राचीन चिकित्सा पद्धतियां इस सिद्धान्त का पालन करती हैं। स्वास्थ्य, पोषण और स्वच्छता को करीब पांच दशक पहले आपस में सम्बन्धित माना जाने लगा था, लेकिन आज भी इन पर अक्सर अलग-अलग विचार किया जाता है। यह भी सही है कि भारत में बीते वर्षों में अपर्याप्त पोषण या अल्प-पोषण की वजह से बीमारी के प्रकोप और मौत का खतरा कम हुआ है। लेकिन अध्ययनों से पता चला है कि अल्प-पोषण भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत की आशंका उत्पन्न करने वाला और सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए स्वास्थ्य खराब होने का सबसे बड़ा कारण है। भारत में बीमारियों के प्रकोप का आकलन करने के लिए की गई राज्य-स्तरीय पहल के निष्कर्षों के अनुसार अल्प या न्यून पोषण भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की कुल मौत में से दो तिहाई से अधिक की मृत्यु का कारण है। ये तथ्य विचलित कर देने वाले हैं क्योंकि भारत में पांच साल से कम उम्र के हर दस बच्चों में से चार अपनी पूर्ण क्षमता इसीलिए हासिल नहीं कर पाते क्योंकि वे अल्पपोषण या वृद्धिरोध से ग्रस्त हैं।

तालिका 1 पिछले तीन दशकों में भारत में वृद्धि रोध, भार क्षय और न्यूनभार (प्रतिशत में)

एनएफएचएस-1 (1992-93)

एनएफएचएस-2 (1998-99)

एनएफएचएस-3 (2005-06)

एनएफएचएस- 4 (2015-16)

न्यूनभार

ग्रामीण

55.9

49.6

46

38.3

शहरी

45.2

38.4

33

29.1

कुल

53.4

47

42.5

35.8

वृद्धि रोध

ग्रामीण

54.1

48.5

51

41.2

शहरी

44.8

35.6

40

31

कुल

52

45.5

48

38.4

भार क्षय

ग्रामीण

18

16.2

21

21.5

शहरी

15.8

16.2

17

20

कुल

17.5

15.5

19.8

21

फुटनोट

- एनएफएचएस राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण

- एनएफएचएस का पांचवा दौर 2018-19 में पूरा हुआ और इसके आंकड़ों की प्रतीक्षा की जा रही है।

- समग्र राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (सीएनएनएस) 2016-18 में हुआ और भारत की जनता के पोषण स्तर के बारे में आंकड़ों का एक अन्य स्रोत है।

- अल्प या न्यूनभार (अंडरवेट) सामान्य या वांछित वजन से कम - वृद्धिरोध (स्टंटिंग) सामान्य या वांछित कद से कम

- भार क्षय (वेस्टिंग) बच्चे के दुबला होने पर अपने कद के लिहाज से कम वजन लेकिन कद छोटा होना

दूसरी ओर, अति पोषण एक नया रुझान है जिसकी वजह से गैर-संचारी रोगों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। आहार सम्बन्धी बीमारियां जैसे मधुमेह, कैंसर, हृदय और रक्तवाहिकाओं के रोग और यकृत की बीमारियां बड़ी तेजी से फैलती जा रही हैं। इससे भारत की वयस्क आबादी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। ये गैर-संचारी बीमारियां जनसंख्या के सभी वर्गो-पुरुष और महिलाओं, ग्रामीण और शहरी तथा धनी और निर्धन, सब पर असर डाल रही है। लेकिन इसका सबसे बुरा असर गरीबों और ग्रामीण जनता पर पड़ता है। ये लोग अपनी खुराक में पौष्टिक आहार की पर्याप्त मात्रा नहीं ले पाते और स्वास्थ्य की देखभाल की सुविधाएं भी उनके लिए सीमित हैं।

पोषण के स्तर में सुधार के लिए हाल की पहल

भारत में अल्प या न्यून पोषण की समस्या से निबटने के प्रयास अब तक आंशिक रूप से ही सफल रहे हैं और इस क्षेत्र में प्रगति को तेज करने के लिए हाल में नए प्रयास किए गए हैं। भारत सरकार ने पहले अगस्त 2017 में राष्ट्रीय पोषण नीति जारी की और उसके बाद मार्च, 2018 में राष्ट्रीय पोषण मिशन शुरू किया गया। राष्ट्रीय पोषण मिशन का उद्देश्य जन्म के समय शिशु के कम भार का होने, स्टंटिंग, अल्प पोषण और महिलाओं में रक्ताल्पता (एनीमिया) की दर में 2-3 प्रतिशत की वार्षिक कमी करना है। राष्ट्रीय पोषण मिशन को अब पोषण अभियान के रूप में महिला और बाल विकास विभाग द्वारा संचालित किया जा रहा है। इसका उद्देश्य 2022 तक ‘कुपोषण-मुक्त भारत’ के लक्ष्य को प्राप्त करना है। इस कार्यक्रम के तहत जनता में अल्पभार, स्टंटेड, जन्म के समय कम वजन और एनीमिया के स्तर में कमी लाना है। पोषण अभियान के हिस्से के रूप में पोषण को ‘जन आंदोलन’ बनाने का प्रस्ताव है और इसके लिए सितम्बर के महीने को ‘पोषण माह’ के रूप में मनाया जाता है।

इसके अलावा, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (जिसे मातृत्व लाभ योजना भी कहा जाता है) की घोषणा 2016 के अंत में की गई और 2017 में इसको लागू किया गया। इसका उद्देश्य पहली बार गर्भवती हुई महिलाओं को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना और उनके लिए अच्छा पोषण-स्तर सुनिश्चित करना है। एनीमिया मुक्त भारत अभियान के जरिए देश में एनीमिया के प्रकोप को कम करने पर भी नए सिरे से ध्यान दिया जा रहा है। यही नहीं, विभिन्न मंत्रालय ‘ईंट राइट इंडिया’ (सही खाए भारत), जिसमें ‘स्वास्थ्यवर्धक खाना’ और ‘सुरक्षित खाना’ पर ध्यान दिया गया है और ‘फिट इंडिया’ पहल जैसी रणनीति अपनाकर पोषण के स्तर में सुधार करने के पूरक प्रयास भी कर रहे हैं। आकांक्षी जिला कार्यक्रम में भी पोषण के स्तर को कार्य निष्पादन का एक संकेतक बनाया गया है।

विमर्श

 स्वास्थ्य और पोषण (और शिक्षा) मानव पूंजी के निर्माण तथा राष्ट्र के विकास और  उन्नति में योगदान करते हैं। कुपोषण लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी विभिन्न प्रतिकूल नतीजों के प्रति संवेदनशील बना देता है, जैसा कि इस लेख में पहले बताया जा चुका है। खासतौर पर बच्चे के जीवन के पहले 1000 दिन (संक्षेप में गर्भावस्था के नौ महीनों के 270 दिन और बच्चे के जीवन के पहले दो साल यानी 730 दिन) पोषण सम्बन्धी परिणामों के लिहाज से बाकी जिंदगी के लिए बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। मनुष्य के मस्तिष्क का ज्यादातर विकास या तो गर्भावस्था के दौरान या शिशु के जन्म लेने के बाद के दो वर्षों में होता है। यह बात कम वजन और वृद्धिरोध से ग्रस्त बच्चों के सम्बन्ध में भी लागू होती है। इसलिए पोषण के सही नहीं होने से नवजात शिशु को इसका जीवनपर्यंत खामियाजा भुगतना पड़ता है। इससे उसका शारीरिक विकास ही अवरुद्ध नहीं होता, बल्कि उसके मस्तिष्क के विकास और अन्य विकास सम्बन्धित मानदंडों पर भी असर पड़ता है। इस बात को अधिकाधिक समझा और महसूस किया जाने लगा है जिससे इस सम्बन्ध में तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता/बाध्यता बढ़ गई है।

कुपोषण के पीढ़ी-दर-पीढ़ी असर विनाशकारी हो सकते हैं। इससे न सिर्फ पीड़ित परिवारों पर प्रभाव पड़ता है,बल्कि राष्ट्रीय उत्पादकता, विकास और प्रगति पर भी इसका असर देखा जा सकता है। गर्भावस्था में माताओं को पर्याप्त पोषण न मिलने से कम वजन वाला शिशु जन्म लेता है जिससे उसका विकास ठीक से न होने, संक्रमण और शैक्षिक परिणामों के कम रहने और विकास में कमी का खतरा उत्पन्न हो जाता है। ऐसे बच्चों को आगे चलकर हृदय और रक्तवाहिकाओं से सम्बन्धित बीमारियों और मधुमेह का खतरा बढ़ जाता है। माता के स्वास्थ्य में कमी का दुष्प्रभाव न सिर्फ बच्चे को जीवन भर झेलना पड़ता है बल्कि उसकी आने वाली पीढ़ी भी इसे भुगतती है। इस स्थिति को देखते हुए भारत में अल्प-पोषण की समस्या से निपटने के लिए आवश्यक कदम उठाना जरूरी हो गया है। इस तरह के कदम प्रजनन की उम्र की महिलाओं, गर्भवती महिलाओं, शिशुओं को स्तनपान कराने वाली माताओं, और पूरक आहार सहति समूचे जीवन चक्र को ध्यान में रखकर उठाए जाने चाहिए। स्कूल जाने वाले बच्चों और किशोरियों समेत जनसंख्या के कई अन्य तबकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में पोषण के सामाजिक आयामों, जैसे माताओं की शिक्षा, महिला सशक्तीकरण, बाल विवाह रोकथाम आदि पर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए और आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए।

बेहतर स्वास्थ्य और पोषण सम्बन्धी नतीजों के लिए विभिन्न क्षेत्रों के बीच टिकाऊ सम्पर्क कायम करने की आवश्यकता अब महसूस की जाने लगी है। पोषण का स्तर कम से कम तीन प्रमुख कारणों पर निर्भर हैःअच्छी खुराक (45-50 प्रतिशत), माताओं के कमजोर स्वास्थ्य की वजह से जन्म के समय शिशु का कम वजन (25 प्रतिशत) और बच्चों में डायरिया जैसी बीमारियों का प्रकोप (25-30 प्रतिशत)। साथ ही, कम वजन वाले शिशुओं की संख्या में कमी लाने के लिए लक्ष्य बनाकर कार्रवाई करने की आवश्यकता है (जिनकी संख्या भारत में नवजात शिशुओं की कुल संख्या के 30 प्रतिशत के बराबर है)।

अधिक वजन और मोटापा, कुपोषण का एक अन्य और लगातार बढ़ता हुआ आयाम है। पहले इनका प्रकोप खाते-पीते शहरी लोगों में ही दिखाई देता था मगर अब धीरे-धीरे गरीबों और ग्रामीण समाज में भी बढ़ता जा रहा है। अधिक वजन वाले लोगों में भी पोषण की कमी हो सकती है क्योंकि उनकी खुराक भले ही कैलोरी के लिहाज से अच्छी हो मगर उसमें खास सूक्ष्म पोषक तत्व की कमी हो सकती है। यहाँ तक कि सामान्य वजन वाले लोगों के शरीर में वसा की मात्रा बहुत अधिक और मांसपेशियों का द्रव्यमान कम हो सकता है जिससे पोषण सम्बन्धी असंतुलन का पता चलता है। ऐसे लोगों को मोटापे से सम्बन्धित बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि हमें अपनी जनसंख्या में कुपोषण के कई रूप दिखाई देते हैं।

अल्पपोषण सिर्फ एक कारण ही नहीं है बल्कि यह परिणाम भी है। आंतों सम्बन्धी संक्रमण जैसे डायरिया और टाइफाइड का प्रकोप आमतौर पर अल्पपोषित बच्चों पर अधिक देखा गया है। इतना ही नहीं, एक स्वस्थ बच्चा संक्रमण से ग्रस्त होने के बाद अल्प-पोषित हो सकता है। इसलिए अल्प-पोषण की समस्या से निपटने के लिए पानी और स्वच्छता में सुधार की आवश्यकता है। इसी तरह वृद्धिरोध (स्टंटिंग) की समस्या का समाधान केवल पौष्टिक भोजन की उपलब्धता बढ़ाकर नहीं किया जा सकता, इसके लिए बेहतर आवास और पानी व स्वच्छता के स्तर में सुधार होना भी जरूरी है। स्टंटिंग का असर आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है और शिशु की बढ़वार रुकने का सिलसिला तो मां की कोख से ही शुरू हो जाता है।

भारत दुनिया में धान और गेहूँ का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। यहाँ धान का 10 करोड़ टन और गेहूं का करीब 9 करोड़ टन वार्षिक उत्पादन होता है। फिर भी यहाँ बड़ी संख्या में अल्प-पोषित बच्चे और वयस्क पाए जाते हैं। हालांकि भारत में बड़े पैमाने पर दलहनों का भी उत्पादन होता है, लेकिन यहाँ प्रोटीन-अल्पता का स्तर भी काफी ऊंचा है। पिछले तीन दशकों में प्रति व्यक्ति प्रोटीन उपलब्धता में गिरावट आई है और 1985 में 65 ग्राम के स्तर से 2005 में 55 ग्राम और 2015 में 50 ग्राम रह गई है। स्पष्ट है कि अल्प-पोषण का समाधान केवल अनाज की उत्पादकता बढ़ाने और उपलब्धता से कहीं आगे है।

आगे की राह

भारत में लोगों के पोषण के स्तर में सुधार के क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई है। लेकिन 2020 के भारत को अब तक किए गए काम से कहीं अधिक करना बाकी है। कुछ सुझाव इस प्रकार हैं-

महिला और बाल विकास तथा शिक्षा विभागों के घनिष्ठ सहयोग से समन्वित स्वास्थ्य और पोषण पहल

 फिलहाल इस दिशा में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, मान्यता-प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा), आग्जीलरी नर्स मिडवाइफ (एएनएम) से शुरुआत हो चुकी है लेकिन इनके कार्यनिष्पादन में सुधार की आवश्यकता है। समन्वित बाल विकास सेवा और शिक्षा विभाग की मध्याह्न भोजन योजना तथा स्वास्थ्य विभाग की महिलाओं व बच्चों की देखभाल की योजनाओं को जोड़ना और इनके बीच बेहतर सहयोग तथा तालमेल की आवश्यकता है। आंकड़ों को साझा करना, संयुक्त रूप से विश्लेषण करना और कार्ययोजना बनाना भी काफी महत्त्वपूर्ण है।

सरकारी कार्यक्रमों के अन्तर्गत भोजन की आपूर्ति में विविधता लाना और अधिक पोषण वाले पदार्थों जैसे बाजरा, अंडे, दूध, सोयाबीन और पोषण की दृष्टि से समृद्ध ताजा भोज को इसमें शामिल करने की आवश्यकता है। चावल, गेहूँ, खाद्य तेल व नमक का बड़े पैमाने पर आवश्यक खनिजों और विटामिनों, जैसे आयोडीन, आयरन, जिंक और विटामिन ए व डी से समृद्ध करने के लिए फोर्टिफिकेशन का अनुकूलतम उपयोग किया जाना चाहिए। कुछ विशेषज्ञों ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली और प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम में दलहनों और खाद्य तेल को भी शामिल करने का सुझाव दिया है। इसी तरह, स्कूलों में दोपहर के भोजन और समन्वित बाल विकास सेवा के भोजन में प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों वाले पदार्थों की मात्रा बढ़ाना जरूरी है।

रियल टाइम आधार पर नियमित निगरानी

समग्र राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (सीएनएनएस 2016-18) भारत की जनसंख्या के पोषण के स्तर की स्थिति के आकलन के लिए किया गया ताजा सर्वेक्षण है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के आंकड़ों को एकत्र किया जा चुका है और बहुत जल्द उनके उपलब्ध हो जाने की सम्भावना है। विश्लेषित आंकड़े उपलब्ध कराना और सुचिंतित नीतिगत निर्णय करने में उनका उपयोग करना अत्यन्त आवश्यक है। विश्लेषित आंकड़े उपलब्ध कराने में विलम्ब से कार्यक्रमों में सुधार कराने में भी देरी होगी। रियल टाइम डाटा को दर्ज करने और सूचित करने की प्रणाली में सुधार की भी आवश्यकता महसूस की जा रही है। डाटा का दुतरफा प्रवाह कायम रखने की भी आवश्यकता है। डिजिटल टेक्नोलॉजी के उपयोग से ऐसा करना सम्भव है। 

‘न्यूट्रीशन गार्डन’ अवधारणा को बढ़ावा

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने विद्यार्थियों के इको क्लबों को स्थानीय भू-आकृति, मिट्टी और जलवायु के लिए सबसे उपयुक्त फलों और सब्जियों के बारे में जानकारी हासिल करने में विद्यार्थियों की मदद के लिए ‘स्कूल न्यूट्रिशनल गार्डन’ की अवधारणा रखी है। इनका उद्देश्य विद्यार्थियों को जीवन पर्यंत काम आने वाले सामाजिक, संख्यात्मक और कम्प्यूटर प्रेजेंटेशन कौशल प्रदान करना है। इससे जनसंख्या के पोषण में सुधार लाने में निश्चित रूप से मदद मिलेगी।

पोषण के स्तर में सुधार के लिए व्यवहार परिवर्तन पर जोर

व्यवहार में चिरस्थाई परिवर्तन लाने की बड़ी चुनौती का सम्बन्ध अंग्रेजी के चार 'ए' से है जौ अवेयरनेस (जानकारी), एसेसमेंट (आकलन), एनेलिसिस (विश्लेषण) और एक्शन (कार्रवाई) के सूचक हैं। जानकारी बढ़ाने का कार्य 'एएएएम' के माध्यम से किया जाता है जो आशा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, एएनएम और माताओं का सूचक है। हालांकि जागरूकता से भी आगे जाने तथा सूचनाओं के विश्लेषण तथा कार्रवाई पर ध्यान केन्द्रित करने पर आधारित तरीके को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।

आहा में विविधता लाने पर गौर और स्वस्थ खुराक पर जोर

आहार सम्बन्धी विविधता के साथ संतुलित पोषण शरीर के विकास और अच्छे स्वास्थ्य का आधार है। नकदी फसलों के उत्पादन, विपणन सम्बन्धी युक्तियों और खाद्य-प्रसंस्करण जैसे कारणों से कृषि की प्राथमिकताओं में बदलाव से बहुत से लोगों को पोषण से भरपूर संतुलित आहार से वंचित होना पड़ा है। आहार में विविधता पर ध्यान केन्द्रित होने से राष्ट्रीय पोषण संस्थान की पुस्तक ‘माइ प्लेट फॉर द डे’ में भारत ने इस बात को रेखांकित किया है कि हर व्यक्ति की खुराक में करीब 50 प्रतिशत हिस्सा फलों और सब्जियों का होना चाहिए। नई दिल्ली की भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद की विशेषज्ञ समिति ने सिफारिश की है कि हर वयस्क को रोजाना कम से कम 500 ग्राम सब्जियां खानी चाहिए जिसमें 100 ग्राम हरि पत्तेदार सब्जियां, 200 ग्राम अन्य सब्जियां और 200 ग्राम कंद-मूल होने चाहिए। इसके अलावा, 100 ग्राम ताजे फल भी रोजाना नियमित रूप से लेने चाहिए। इन दिशानिर्देशों का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।

देश भर में खाद्य पदार्थों के सुरक्षित भंडारण के लिए और अधिक शीतगृह श्रृंखला

 हालांकि भारत में कई तरह के ताजा उत्पादों का उत्पादन होता है लेकिन यह देखा गया है कि छंटाई/ ग्रेडिंग, परिवहन, गोदामों में भंडारण, प्रसंस्करण और थोक व खुदरा विक्रेताओं के स्तर पर इनकी काफी बड़ी मात्रा में बर्बादी भी होती है। इसलिए और अधिक संख्या में शीतगृह श्रृंखलाओं की स्थापना, खासतौर पर ग्रामीम क्षेत्रों में, बहुत जरूरी है क्योंकि इससे बर्बादी कम करने और उपलब्धता बढ़ाने में मदद मिलेगी जिससे भारत के लोगों के पोषण के स्तर में सुधार होगा।

ग्रामीण भारत में फल-सब्जियों के स्थानीय उत्पादन को बढ़ाव

 आम धारणा के विपरीत, ग्रामीण क्षेत्रों में फलों और सब्जियों की कीमतें शहरों के मुकाबले कहीं अधिक हैं क्योंकि इसमें परिवहन की लागत भी शामिल रहती है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में मौसमी फलों समेत स्थानीय रूप से उपलब्ध तमाम तरह के फलों और सब्जियों के उत्पादन को बढ़ाने की आवश्यकता है। भारत में ज्यादातर सरकारी संगठन जैसे आंगनवाड़ी केन्द्र, प्राथमिक और हाई स्कूल तथा पंचायत कार्यालयों की इमारत के इर्द-गिर्द काफी जगह होती है। इसका उपयोग स्थानीय रूप से खाई जाने वाली हरी पत्तेदार सब्जियों, कंद-मूल और स्थानीय फल तथा सब्जियां उगाने में किया जा सकता है।

लोगों को फल-सब्जियों के सेवन के स्वास्थ्य सम्बन्धी फायदों के बारे में शिक्षित किया जाए

 इसके अलावा, उन्हें सामुदायिक बागवानी, किचन गार्डनिंग और छत या बालकनी में साग-सब्जियां उगाने के बारे में भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में स्कूल और कॉलेज के अध्यापकों और विद्यार्थियों दोनों ही को स्वस्थ आहार के बारे में प्रशिक्षण देना और उनकी क्षमता बढ़ाना भी जरूरी है। युवा पीढ़ी को स्वस्थ आहार के बारे में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। स्कूली बच्चों में जंक फूड को ‘जंक’ करने के अभियान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और स्कूल-कॉलेजों की कैंटीनों को जंक आहार पर प्रतिबंध लगाने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

समग्र पोषण और अधिक स्वस्थ जीवनशैली

 बच्चों के माता-पिता से सम्पर्क स्थापित करने और उन्हें स्वस्थ पोषण तथा जीवनशैली के बारे में शिक्षित करने के लिए स्कूल उपयुक्त मंच सिद्ध हो सकते हैं पोषण के बारे में जानकारी को स्वस्थ जीवनशैली से जोड़ा जाना चाहिए। इससे गैर-संचारी रोगों की रोकथाम में मदद मिलेगी। इसके अलावा, धूम्रपान न करने और शराब का सेवन बड़े ही संयम से करने या बिल्कुल न करने को भी प्रेरित किया जाना चाहिए। स्कूलों-कॉलेजों को नियमित रूप से पोषण और स्वास्थ्य विशेषज्ञों को आमंत्रित करना चाहिए ताकि वे विद्यार्थियों के माता-पिता और पारिवारिक सदस्यों को इस बारे में जानकारी दे सकें।

स्वस्थ भारत के निर्माण के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों और सिविल सोसाइटी के सदस्यों की भागीदारी

 समाज के पोषण सम्बन्धी प्रयासों के नतीजे इस बात पर निर्भर होंगे कि हमारे राजनीतिक नेता और निर्वाचित प्रतिनिधि पोषण को ‘जनांदोलन’ बनाने और भारत में पोषण सम्बन्धी नतीजों को स्थाई रूप से बेहतर बनाए रखने में किस तरह का योगदान करते हैं।

निष्कर्ष

 कुपोषण की दोहरी चुनौती भारत समेत दुनिया के कई देशों के लिए एक ‘नई पोषण सम्बन्धी वास्तविकता’ है। वर्ष 2016-25 ‘संयुक्त राष्ट्र’ पोषण दशक के रूप में मनाया जा रहा है और इसके केवल छह साल बचे हैं। ‘सतत विकास लक्ष्यों’ को प्राप्त करने का लक्ष्य 2030 तक का है। अब तक सारी पहल और प्रयास अल्प-पोषण की चुनौती पर केन्द्रित रहे हैं। ऐसे में भारत में केन्द्र और राज्यों के स्तर पर नीति निर्माताओं और कार्यक्रम प्रबंधकों को पोषण सम्बन्धी नई वास्तविकताओं का ध्यान रखना आवश्यक है।

समय आ गया है जब अल्प-पोषण के साथ ही मोटापे की समस्या को कम करने के लिए नए तौर-तरीकों पर बिचार किया जाए। प्रजनन की उम्र वाली महिलाओं, बच्चों और सभी ग्रामीण लोगों जैसे खासतौर पर कुपोषित से अधिक प्रभावित होने वाले जनसंख्या समूहों पर ध्यान केन्द्रित करने और उनके लिए विशेष रूप से रणनीति तैयार करने की बड़ी आवश्यकता है। भारत में पोषण सम्बन्धी चुनौतियों निपटने के लिए विभिन्न विभागों के बीच अधिक मजबूत सहयोग और समन्वय के साथ-साथ बेहतर डाटा संग्रह व विश्लेषण की आवश्यकता है। इस चुनौती से निपटने के लिए कार्रवाई करने तथा इस कार्य के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता कायम रखी जाने की जरूरत है।

(लेखक विश्व स्वास्थ्य संगठन में वरिष्ठ सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और नेशनल प्रोफेशनल अधिकारी हैं)

ई-मेलः lahariyac@who.int

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading