गरमाती धरती, बेफिक्र सरकारें

27 Aug 2013
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climate change
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उत्तरी ध्रुव पर बर्फ का पिघलना जहां कंपनियों के लिए कारोबारी फायदा है तो रूस के लिए संसाधनों के दोहन का मौका

पिछले ही हफ्ते आर्थिक सहयोग व विकास संगठन और विश्व बैंक ने समुद्र सतह के ऊंचा उठने से आने वाली बाढ़ों से नुकसान की चेतावनी दी है। इसके मुताबिक ग्वांगझो को सबसे ज्यादा खतरा है। वहां बाढ़ से 10 खरब डॉलर के नुकसान की आशंका है। इसके बाद मियामी, न्यूयॉर्क, नेवार्क और न्यू ऑर्लियन्स आते हैं। मुंबई पांचवें स्थान पर हैं। अब सवाल सिर्फ समुद्र सतह के ऊंचा उठने के खतरे का नहीं है बल्कि उसके खिलाफ सुरक्षा में खर्च होने वाले धन का भी है। निराशावादी वैज्ञानिक आईपीसीसी पर उत्तरी ध्रुव पर पिघलती बर्फ की अनदेखी करने का आरोप लगाते हैं। इस माह उत्तरी ध्रुव के सुदूरवर्ती स्वालबार्ड में ध्रुवीय भालू का शव पाया गया। यह एक चेतावनी है कि धरती पर जीवन ताक़तवर राजनेताओं और व्यावसायिक हित साधने वालों के लालच की बलि चढ़ रहा है। ध्रुवीय भालुओं के अग्रणी शोधकर्ता और पोलर बीयर इंटरनेशनल से जुड़े डॉ. इयान स्टर्लिंग के मुताबिक भालू की मौत भूख के कारण हुई। वह ध्रुवों पर बर्फ पिघलने का शिकार हुआ है। सील मछली का शिकार करने के लिए समुद्र पर बर्फ होनी चाहिए। ऐसी बर्फ थी नहीं और बेचारे भालू को भोजन की तलाश में दूर तक घूमना पड़ा। पर वह भी काम नहीं आया। उत्तरी ध्रुव पर बर्फ इतनी तेजी से पिघल रही है कि कुछ वैज्ञानिक चेतावनी देते हैं कि 2015 तक गर्मी के मौसम में ध्रुवों पर बर्फ ही नहीं होगी। इसके जो भयावह नतीजे होंगे उनमें तापमान में अनियंत्रित वृद्धि, फसलों के चक्र में गड़बड़ी और समुद्र सतह में वृद्धि जिससे ग्वांगझो, लंदन, मुंबई, न्यूयॉर्क, ओसाका, शंघाई और सिडनी जैसे दुनियाभर के शहरों को खतरा पैदा हो जाएगा। फिर समुद्र सतह से अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर स्थित प्रशांत महासागरीय द्वीपों और बांग्लादेश की तो बात ही क्या।

धरती को पहुंचने वाली क्षति का मूल्यांकन करने का प्रयास करने वाली एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक रिपोर्ट अगले माह आ रही है। यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र की नोबेल पुरस्कार से सम्मानित 'जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी समिति' (आईपीसीसी) ने तैयार की है। राजेंद्र पचौरी आईपीसीसी के चेयरमैन हैं। इस अधूरे काम की जो जानकारी लीक हुई है उसके मुताबिक समिति यही कहने वाली है कि कम से कम 95 फीसदी संभावना तो यही है कि मानव गतिविधियां खासतौर पर जीवाश्म ईंधन जलाना ही ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण है। 2007 की पिछली रिपोर्ट में 90 फीसदी निश्चितता के साथ यही बात कही गई थी तो 2001 में 66 फीसदी और 1995 में समिति को 50 फीसदी यकीन था कि धरती का तापमान बढ़ने की वजह हम हैं। लेकिन किया क्या जा रहा है?

ज्यूरिख में स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के प्रोफेसर रेतो केन्यूटी को रायटर ने यह कहते बताया, 'अब हमें पहले से ज्यादा यकीन है कि जलवायु परिवर्तन मानव निर्मित है। पर हमें यकीन नहीं है कि लोग इसके स्थानीय प्रभावों के बारे में चिंतित होंगे।' उन्होंने फसलों व मछलियों की उपलब्धता पर पडऩे वाले असर व अन्य व्यावहारिक परिणामों से जुड़े सवाल भी टाल दिए। जाहिर है तापमान बढ़ने के खिलाफ व्यावहारिक कार्रवाई करने में विफलता ही हाथ लगी है।दुनिया की 200 सरकारों का लक्ष्य था कि वैश्विक तापमान को औद्योगिकीकरण के पहले के तापमान से 2 डिग्री सेल्सियस नीचे तक सीमित रखना। पर अब यह उम्मीद भी छोड़नी होगी। तापमान 0.8 डिग्री बढ़ चुका है और अनुमान यही है कि तापमान वृद्धि 2.7 डिग्री सेल्सियस होगी, लेकिन यह 5 डिग्री तक भी हो सकती है। जहां तक समुद्र के जलस्तर में वृद्धि की बात है 21वीं सदी के उत्तरार्ध तक यह 29 से 82 सेंटीमीटर के बीच हो सकती है। यह इससे पहले की रिपोर्ट में जताए अनुमान से ज्यादा है। लेकिन यदि कार्बन डाइआक्साइड का वातावरण में छोड़ा जाना इसी तरह बढ़ता रहा तो समुद्र सतह में वृद्धि लगभग एक मीटर तक पहुंच जाएगी। यह मुंबई, कोलकाता और चेन्नई सहित दुनिया के कई महत्वपूर्ण शहरों के लिए बुरी खबर होगी।

पिछले ही हफ्ते आर्थिक सहयोग व विकास संगठन और विश्व बैंक ने समुद्र सतह के ऊंचा उठने से आने वाली बाढ़ों से नुकसान की चेतावनी दी है। इसके मुताबिक ग्वांगझो को सबसे ज्यादा खतरा है। वहां बाढ़ से 10 खरब डॉलर के नुकसान की आशंका है। इसके बाद मियामी, न्यूयॉर्क, नेवार्क और न्यू ऑर्लियन्स आते हैं। मुंबई पांचवें स्थान पर हैं। अब सवाल सिर्फ समुद्र सतह के ऊंचा उठने के खतरे का नहीं है बल्कि उसके खिलाफ सुरक्षा में खर्च होने वाले धन का भी है। निराशावादी वैज्ञानिक आईपीसीसी पर उत्तरी ध्रुव पर पिघलती बर्फ की अनदेखी करने का आरोप लगाते हैं। ‘आर्कटिक मीथेन इमरजेंसी वर्किग ग्रुप’ के डॉ. जॉन निसेन कहते हैं, ‘वे इसका महत्व समझ नहीं नहीं पा रहे हैं।’ ग्रुप ने चेतावनी दी है कि ध्रुवीय बर्फ पिघलने का वास्तविक खतरा तो बड़े पैमाने पर मीथेन गैस के वातावरण में मुक्त होने का है। वे चेतावनी देते हैं, ‘ध्रुवों पर मौजूद जमी हुई मीथेन गैस जलवायु परिवर्तन का टाइम बम है जिसकी बत्ती ने जलना शुरू भी कर दिया है।’ उनके मुताबिक कार्बन डाइआक्साइड की तुलना में मीथेन गैस का निकलना 20 गुना अधिक खतरनाक है।

निसेन अकेले नहीं हैं। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में ओशन फिजिक्स के प्रो. पीटर वैडहैम्स, ऐरेस्मस यूनिवर्सिटी में सस्टेनेबिलिटी के प्रो. गैल व्हाइटमैन और कैम्ब्रिज जज बिजनेस स्कूल के पीटर होप ने हाल ही में चेतावनी दी थी कि उनके आर्थिक मॉडल बताते हैं कि उत्तरी ध्रुव के सिर्फ एक हिस्से की बर्फ पिघलने से जो मीथेन निकलेगी उससे हमें वैश्विक स्तर पर 600 खरब डॉलर का नुकसान होगा। पिछले साल दुनिया की अर्थव्यवस्था का आकार यही था। इन विशेषज्ञों का कहना है कि वे अपने ये मॉडल 10 हजार बार चलाकर नतीजे की पुष्टि कर चुके हैं। इनकी चारों तरफ से आलोचना हो रही है कि वे नुकसान का आंकड़ा दिखाकर बेवजह का खौफ पैदा कर रहे हैं। वैडहैम्स अपने दावे पर टिके हुए हैं कि 2040 तक वैश्विक तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा।

चिंता की बात तो यह होनी चाहिए कि जहां वैज्ञानिक सबूत इकट्ठे होते जा रहे है लेकिन इसके बावजूद राजनेता कार्बन डाइआक्साइड या मीथेन गैस के उत्सर्जन को रोकने के लिए व्यावहारिक कदम उठाने की दिशा में चींटी की रफ्तार से काम कर रहे हैं। दुनिया की बर्बादी में व्यावसायिक हित देखने वाले घटनाक्रम को उत्सुकता से देख रहे हैं। ‘बिग ऑइल’ को उत्तरी ध्रुव के नीचे मौजूद तेल व गैस भंडार का दोहन करने की बेसब्री है। जहाज़ कंपनियां कह रही हैं कि पनामा व स्वेज नहर का इस्तेमाल की जाने वाली यात्राओं का समय उत्तर ध्रुव के रास्ते से 40 फीसदी कम हो जाएगा। और महाठग रूस तो खासतौर से उत्तरी ध्रुव में संसाधनों के भंडार खोजने की संभावना पर किसी जादू-टोने वाले तांत्रिक की तरह ठठाकर हंस रहा है- दुनिया को इसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी?

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