घरेलू दूषित पानी से अब निकलेगी समृद्धि की धार


पंत विवि के वैज्ञानिकों ने तैयार की गंदे पानी से सिंचाई की तकनीक, बढ़ेगा पौधों का बायोमास, 50 फीसदी तक कम होगा पानी में प्रदूषण

मॉडल विवि परिसर में स्थापित किया गया है। इस पर अभी और अधिक अध्ययन की जरूरत है। इस तरह की परियोजनाओं से भारत ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकता है। ऐसी पहल प्राकृतिक रूप से गंदे पानी के शोधन में भी मददगार होगी। बढ़ती आबादी व शहरीकरण की वजह से घरों से निकले गंदे पानी का निपटारा, जैव ईंधन के लिये वनों की कटाई और सिंचाई के पानी की कमी जैसी समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं। लंबे समय से शोध के बाद भी इसका तोड़ नहीं निकल पा रहा, लेकिन अब पंत विवि के शोधकर्ताओं ने इन तीनों समस्याओं से निपटने का तरीका खोज निकाला है। इससे न केवल घरेलू गंदे पानी का निस्तारण हो सकेगा बल्कि यह पानी कम अवधि में तैयार होने वाले पौधों के लिये फायदेमंद होगा। यही नहीं सिंचाई के बाद इस पानी में प्रदूषण की मात्रा भी 50 फीसद तक कम हो जाएगी।

गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान के पीएचडी स्कालर्स के शोध अध्ययन में यह बात सामने आई है कि सिंचाई के लिये घरेलू दूषित जल का उपयोग कम अवधि में तैयार होने वाली प्रजातियों की पौधों की सिंचाई में किया जा सकता है। इससे एक साथ तीन फायदे होंगे। लोगों को गंदे पानी से निस्तारण में मदद मिलेगी वहीं कृषि वानिकी में सिंचाई के पानी व जैव ईंधन की कमी को भी दूर किया जा सकेगा। पर्यावरण विज्ञान के प्राध्यापक डॉ. राजीव श्रीवास्तव के अनुसार अपशिष्ट जल की अपेक्षा घरेलू दूषित जल में रोगजनक कम होते हैं और इस जल को उपचारित करना ज्यादा आसान होता है।

यही नहीं घरेलू गंदे पानी के उपयोग से जैव ईंधन के उत्पादन का यह मॉडल आर्थिक व पर्यावरण के लिहाज से काफी उपयोगी साबित हो सकता है। क्योंकि इस पानी से सिंचाई करने पर पेड़ों की न केवल बायोमास (तने की मोटाई व मजबूती) बढ़ेगी बल्कि सिंचाई करने के बाद इसी पानी में लगभग 50 फीसद तक प्रदूषण कम हो जाएगा। इसकी वजह से पेड़ों का पानी में मौजूद प्रदूषकों को अवशोषित कर लेना है, जबकि इतने ही स्तर तक यांत्रिक विधि से गंदे पानी के शोधन के लिये 80 लाख रुपये के संयंत्र की जरूरत होगी। वहीं यदि इस तकनीक का प्रयोग किया जाए तो प्राकृतिक रूप से ही गंदे पानी का शोधन किया जा सकता है जो यांत्रिक संयत्र की लागत से बहुत कम खर्चीला है। यदि इस तकनीक का उपयोग किया जाता है तो एक साथ तीन फायदे होेंगे। इसलिए यह तकनीक ज्यादा कारगर रहने की बात कही जा रही है। हालाँकि इस पर अभी और काम होना है।

कम समय में विकसित पौधों में बढ़ी नाइट्रोजन


पंतनगर: शोध में यूकिल्प्टिस, पॉपलर, नम्रा व बाइकन के पौधों को एक एकड़ क्षेत्रफल में नियंत्रित रूप से लगाया गया। इनकी सिंचाई के लिये घरेलू दूषित जल दो फीट चौड़ी नाली से पूरे क्षेत्रफल में इस प्रकार पहुँचाया गया कि उसका एक छोर से दूसरे छोर तक क्रम न टूटे। दो वर्ष बाद इन पौधों की तुलना सामान्य रूप से विकसित हुए पौधों से करने पर घरेलू दूषित जल से सिंचित क्षेत्रफल में लगाए गए पौधों का बायोमास और उसकी आर्थिक उपयोगिता सामान्य से कहीं अधिक थी। इसके अलावा ये वृक्ष तेजी से बढ़ते व कम समय में ही विकसित हो जाते हैं। इनका उपयोग कागज व लकड़ी प्राप्त करने के लिये होता है, इस लिहाज से इन वृक्षों का आर्थिक महत्त्व काफी अधिक है। शोधकर्ताओं के अनुसार इन वृक्षों में नाइट्रोजन का स्तर अधिक होने सहित ऊष्मीय मान भी अधिक पाया गया। यह सुखद संकेत है।

भारत में हो सकता है बहुत अधिक फायदा


विश्व की 70 फीसद सतह पानी से भरी है। इसमें से 67.5 प्रतिशत पानी बर्फ व ग्लेशियर के रूप में जबकि मात्र 2.5 फीसद पानी ही मानव जीवन के उपयोग के लिये उपलब्ध है। इसमें भी मात्र एक फीसद पानी ही पेयजल के रूप में प्रयोग किया जाता है। वर्तमान में 30 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष दैनिक प्रयोग में आने वाले पानी पर खर्च किया जा रहा है, जबकि आवश्यकता की पूर्ति के लिये अतिरिक्त 14-30 डॉलर प्रतिवर्ष धनराशि की जरूरत है। भारत में 2119 कस्बे हैं। यहाँ से निकलने वाले दूषित जल को शोधन करने के 209 घरेलू/म्यूनिसिपल व मात्र 8 फुल ट्रीटमेंट प्लांट की सुविधाएँ हैं। इसे देखते हुए यदि विभाग व शासन इस तकनीक को अमल में लाते हैं तो निश्चित रूप से फायदा होगा। इससे न केवल पानी की शुद्धिकरण में मदद मिलेगी बल्कि ट्रीटमेंट प्लांट जैसे महंगे खर्च से भी निजात मिलेगी।

कमाई में भी होगी बढ़ोत्तरी तो खर्च में आएगी कमी


अध्ययन के लिये साइट तैयार करने, पौधों की रोपाई व रख-रखाव में पाँच साल में लगभग नौ लाख रुपये खर्च हुए। ताजे पानी से सींचे गए क्षेत्रफल की फसल से 44 लाख रुपये, जबकि गंदे पानी से सींचे गए क्षेत्रफल की फसल से 68 लाख मिलने का अनुमान है।

- ये शुरुआती नतीजे हैं। मॉडल विवि परिसर में स्थापित किया गया है। इस पर अभी और अधिक अध्ययन की जरूरत है। इस तरह की परियोजनाओं से भारत ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकता है। ऐसी पहल प्राकृतिक रूप से गंदे पानी के शोधन में भी मददगार होगी।

प्रो. राजीव श्रीवास्तव, पर्यावरण वैज्ञानिक, जीबी पंत विवि

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