हिमालय पर छाये संकट के बादल


हिमालय में त्वरित प्राकृतिक आपदाएं प्रायः साथ-साथ घटती हैं, जैसे-बादल फटना, हिम एवं मलबा अवधाव तथा भू एवं हिमस्खलन। ये सभी आपदाएं मिलकर त्वरित बाढ़ का कारण बनती हैं, जो घाटियों के जन-जीवन, वन, सम्पदा आदि पर विनाशकारी प्रभाव डालती हैं।

.हिमालय क्षेत्र में बादल फटने की घटनाएँ प्रायः होती रहती हैं, जिनके कारण भू-स्खलन एवं त्वरित बाढ़ की विनाशकारी घटनाएँ भी होती हैं। यह प्रायः वर्षा काल (मानसून) के प्रारम्भ अथवा अंत में होती हैं, परन्तु कभी-कभी बसंत के तुरंत बाद भी हो जाती हैं। इस प्रकार की घटनाएँ, हिमालय-घाटियों की ढलानों को प्रभावित करती हैं। जिनमें प्रायः वन, पवित्र स्थल एवं आबादी हैं, फलस्वरूप इनसे जन-जीवन भी प्रभावित होता है। यह प्रायः चीड़ वनों से आच्छादित क्षेत्रों में अधिक विनाशकारी होते हैं।

बादल फटने के कारण एक सीमित क्षेत्र में थोड़े समय के लिये अति-वृष्टि होती है, जिनसे विस्तृत क्षेत्रों में भू-स्खलन होता है। यह स्खलित शैल-मलबा घाटियों में जल मार्गों को अवरुद्ध कर देता है तथा नदी एक अस्थाई जलाशय बन जाती है। इस प्रकार बनी झीलें कुछ समय बाद स्वतः नष्ट हो जाती हैं, फलस्वरूप इन क्षेत्रों में त्वरित-बाढ़ (फ्लैश फ्लड) आ जाती है जिससे घाटियों में बसे कई गाँव, खेत, वन एवं सड़कें नष्ट हो जाती हैं, जो इस क्षेत्र के जन-जीवन को प्रभावित करती हैं।

वास्तव में हिमालय में वृष्टि स्थानीय बादलों के त्वरित संघनन के कारण होती है। हिमालय क्षेत्र में किये गए अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि बादल फटने की घटनाएं वास्तव में ऊपरी विक्षोभ मण्डल (ट्रोपोस्फीयर) में क्रियाशील जेट-धाराओं (तीव्र-वेगी हवाओं) के कारण होती हैं। विश्व व्यापी तापन के कारण जेट धाराओं की क्रियाशीलता बढ़ती जा रही है, फलस्वरूप बादल फटने की घटनाएँ भी अधिक विनाशकारी हो रही हैं।

वृष्टि की रोकथाम असम्भव है, इनके द्वारा केवल उत्पन्न भूस्खलनों एवं त्वरित-बाढ़ों को नियंत्रित किया जा सकता है।

 

हिमालय क्षेत्र में घटित कुछ प्रमुख घटनाएँ

लगभग तिथि

स्थान

प्रभाव

जुलाई, 1970

बिरही पाताल गंगा एवं ऋषि घाटियाँ (चमोत्री)

अति वृष्टि, मलबा अवधाव, भू-स्खलन, अलकनंदा घाटी में त्वरित बाढ़

जून, 1975

तीस्ता घाटी दार्जिलिंग (पं. बंगाल)

विस्तृत भू-स्खलन एवं त्वरित बाढ़

अगस्त, 1978

भागीरथी घाटी उत्तरकाशी

मलबा-अवधाव, भगीरथी एवं अन्य सहायक नदियों में त्वरित बाढ़

जुलाई, 1983

करमी नाला, अल्मोड़ा

मलबा-स्खलन एवं प्रवाह, त्वरित-बाढ़

अगस्त, 1997

सतलुज घाटी, किन्नोर (हिमालय)

हिम-मलबा अवधाव, त्वरित बाढ़

जून, 2013

मंदाकिनी घाटी, केदारनाथ

शैल मलबा एवं हिम-अवधाव, अतिवृष्टि, त्वरित बाढ़

उपरोक्त सभी आपदाएं, उच्च हिमालय के विभिन्न घाटी-क्षेत्रों में वर्षा काल के आरम्भ अथवा अंत में घटित हुई हैं। अतः इनका सम्बन्ध जलवायु की विषमताओं से है।

 

हिमालय में त्वरित प्राकृतिक आपदाएं प्रायः साथ-साथ घटती हैं, जैसे-बादल फटना, हिम एवं मलबा अवधाव तथा भू एवं हिमस्खलन। ये सभी आपदाएं मिलकर त्वरित बाढ़ का कारण बनती हैं, जो घाटियों के जन-जीवन, वन, सम्पदा आदि पर विनाशकारी प्रभाव डालती हैं।

बादल फटने की घटनाएँ बिजली कड़कने के साथ तीव्रता से घटित होती हैं एवं थोड़े समय में ही अपरिमित विनाश का कारण बनती हैं। एक अध्ययन के अनुसार, उत्तराखण्ड हिमालय में औसतन 4-5 ग्रामीण क्षेत्र प्रत्येक वर्ष प्रभावित होते हैं। वृष्टि-प्रस्फोट के कारण घाटी के ढलानों पर गहरे गर्त बन जाते हैं, इस प्रकार स्खलित शैल या मलबा नदियों के जलमार्गों को अवरुद्ध कर देता है। एवं त्वरित-बाढ़ आ जाती है।

विक्षोभ-मण्डल पारिस्थितिकी


विक्षोभ-मण्डल (ट्रोपोस्फीयर) पृथ्वी के वायुमण्डल का सबसे निचला क्षेत्र है, जो निरंतर भूतल समुद्र, पर्वतों, पठारों आदि के सम्पर्क में रहता है। यह क्षेत्र सिन्धु तल से लगभग 10-15 किमी. तक विस्तृत है एवं पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करता है।

.विक्षोभ-मण्डल का ऊपरी क्षेत्र, जो उच्च-पर्वतों से भी अधिक ऊँचा है, में तीव्र वेगी वायु (जेट धाराएं) प्रवाहित होती हैं, जिनका वेग लगभग 200 किमी. प्रति घंटा होता है। इस प्रकार की वायु-धाराएं कुछ सीमित क्षेत्रों में ही प्रवाहित होती हैं एवं इनके मार्ग का पता लगाना कठिन है। ये धाराएं किसी भी दिशा में मुड़ जाती हैं तथा वायुयानों के मार्गों को भी प्रभावित कर देती हैं (इनको एयर पॉकेट भी कहा जाता है)। ये धाराएं भूतल की जलवायु को प्रभावित करती हैं। इस ऊपरी क्षेत्र में आर्द्रता प्रायः कम होती है (केवल सिरस बादल ही होते हैं)।

विक्षोभ-मण्डल के मध्य भाग के ऊपरी क्षेत्र में भी तीव्र हवाएं (वेग 100 किमी./प्रति घंटा) बहती हैं, जो जेट धाराएं नहीं कहलाती। यह वायु-प्रवाह जेट धाराओं को अधिक प्रभावी बनाता है। इस मध्य भाग में एल्टस व एल्टो-स्ट्रेटस बादल पाये जाते हैं, जो न्यून आर्द्रता वाले होते हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ आर्द्रता पूर्ण निम्बस बादल होते हैं जो गतिमान होते हैं तथा एक देशांश से दूसरे देशांश की ओर जाते रहते हैं (प्रायः भूमध्य रेखा के उत्तर व दक्षिण की ओर)। मध्य क्षेत्र में कभी-कभी कुमुलो-निम्बस बादल भी पाए जाते हैं, जो प्रायः हिमपात (ओला वृष्टि) का कारण भी होते हैं। हिम प्रायः पर्तों (लेक), बूँदों (ड्रॉप एवं होअर) के रूप में होते हैं।

विक्षोभ-मण्डल के निचले क्षेत्र में आर्द्रता अधिकतम होती है। हवाओं का वेग लगभग 20-50 किमी./घंटा होता है। यहाँ कुमुलस एवं स्ट्रेटस बादल पाये जाते हैं, जो प्रायः स्थानीय जलाशयों के वाष्पीकरण से उत्पन्न होते हैं। कुमुलस बादल गतिमान होते हैं तथा ऊपर उठकर कुमुलो-निम्बस बादल बनाते हैं, जो अंततः वृष्टि-प्रस्फोट का कारण बनते हैं। स्ट्रेटस बादल केवल जलाशयों के समीप ही पाये जाते हैं।

भूतल क्षेत्र में भरपूर वनस्पति एवं आबादी भी होती है। यहाँ केवल स्ट्रेटस बादल ही पाये जाते हैं, जो प्रायः कोहरा (फॉग) एवं कुहासा (मिस्ट) के रूप में होते हैं। कुहासा प्रायः अधिक ऊँचाई वाले शीतल क्षेत्रों में पाया जाता है, इसके अतिरिक्त वायु-प्रदूषण के फलस्वरूप कालिमा (स्मॉग) भी पाया जाता है।

वृष्टि प्रस्फोट की प्रक्रिया


विक्षोभ-मण्डल के निचले भाग में भू-तल स्तर पर स्थित जलाशयों (सरोवर, नदी इत्यादि) के वाष्पीकरण तथा वनस्पतियों के उत्स्वेदन पर आर्द्रता पूर्ण वायु ऊपर उठती है एवं कुमुलस बादलों का रूप धारण कर लेती है, जो निरंतर आकार में बढ़ते हुए विक्षोभ मण्डल के मध्य क्षेत्र में अवस्थित निम्बस बादलों से मिलकर कुमुलो-निम्बस बादल बना लेते हैं।

कुमुलो-निम्बस बादल ऊपर उठते हुए फैल जाते हैं। इन बादलों का ऊपरी भाग हिमाच्छादित शिखरों (ऊँचाई लगभग 7000 मीटर) के संसर्ग में आकर त्वरित संघनित हो जाता है। इस ऊपरी भाग में हिमकण बन जाते हैं एवं मध्य भाग में संघनन पर जलबूँदें बनती हैं। इस प्रकार भारी होकर बादल क्षोभ-मण्डल के निचले भाग की ओर जाने लगते हैं (डाउन ड्रॉट)। त्वरित संघनन के कारण अतिवृष्टि अथवा बादल फटने की घटना होती है। चूँकि इन बादलों का आकार सीमित रहता है, अतः वृष्टि केवल सीमित क्षेत्र में, विशेषतः पर्वतीय घाटियों की ढलानों पर होती है। वृष्टि के साथ बिजली कड़कती है एवं ओला-पात भी होता है। बादल फटने का प्रभाव घाटियों में लगभग 1500 से 2500 मीटर तक ही होता है।

बादल फटने के कारण


जलवायु सम्बन्धी आँकड़ों के अध्ययन से निम्न तथ्य परिलक्षित होते हैंः

- ग्रीष्म काल में जेट धाराएं हिमालय के दक्षिण (पठारी क्षेत्र) में प्रवाहित होती है। जहाँ प्रति-चक्रवात की स्थिति बनती है, एवं अधिकांश उत्तर भारत में अनावृष्टि की स्थिति रहती है।

 

विक्षोभ-मण्डल की पारिस्थितिकी

ऊँचाई

क्षेत्र

पारिस्थितिकी (पर्यावरण)

13,000-9,000 मी.

ऊपरी क्षेत्र

तीव्र- वेगी धाराएं, सिरस बादल

9,000-3000 मी.

मध्य क्षेत्र

तीव्र- हवाएँ, एल्टो, एल्टो-स्ट्रेटस निम्बस एवं कुमुलो निम्बस बादल

3,000-500 मी.

निम्न क्षेत्र

कुमुलो निम्बस तथा कुमुलस बादल, मध्य हवाएँ

500 मी. से नीचे

भू-तल क्षेत्र

स्ट्रेटस बादल (कोहरा एवं कुहासा), वृष्टि व जल प्रवाह धीमी हवाएँ

 

 

बादल फटने के कारण

अवस्था

ऊँचाई (मीटर)

प्रक्रियाएं

कुमुलस (ऊपरी गामी)

6000-7000 मीटर तक

हल्की वृष्टि लगभग 10-15 मिनट तक, ओला पात एवं कभी-कभी बिजली भी कड़क सकती है।

कुमुलो निम्बस (निम्न गामी)

3000-6000 मीटर

अति वृष्टि 15-30 मिनट तक बिजली भी कड़क सकती है।

अंतिम

2,500-1500 मीटर

बादलों के शेष भाग के संघनन पर हल्की वृष्टि (10-15 मिनट)

 

- जून-जुलाई में सहसा जेट धाराएं, उत्तर (हिमालय की ओर मुड़ जाती हैं तथा तिब्बत क्षेत्र में प्रति चक्रवात बन जाता है। फलस्वरूप हिन्द-महासागर की मानसूनी तरंगे हिमालय की ओर आकर्षित हो जाती हैं। इस प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षा-काल का आगमन होता है। इसी समय हिमालय क्षेत्र में बादल फटने की घटनाएँ भी होती हैं।

- वर्षा काल के अन्त में (सितम्बर-अक्टूबर) में जेट-धाराएं पुनः मार्ग बदलती हैं एवं भारत के पूर्वी-भाग (बंगाल-मेघालय) में निम्न दाब (चक्रवात) क्षेत्र बनता है तथा आर्द्र हवाएँ उत्तर-पश्चिम (अफगानिस्तान-ईरान) से आती हैं एवं पश्चिम हिमालय में हिमपात एवं वर्षापात का कारण बनती हैं तथा वृष्टि-प्रस्फोट भी होते हैं।

- शरद-काल के बाद बसंत में जेट धाराएँ पुनः मार्ग बदलती हैं तथा कभी-कभी वृष्टि-प्रस्फोट भी हो जाते हैं।

- जेट धाराओं के विस्तृत अध्ययन से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि पूर्वी-प्रशांत महासागर का ‘एल-नीनो’ प्रभाव सम्भवतः इन धाराओं का मार्ग नियंत्रित करता है। जब एल-नीनो प्रशांत-महासागर में सक्रिय होता है, तब यह हिन्द-महासागर में प्रभावी नहीं होता। इस स्थिति में मानसून तरंगे भारतीय उपमहाद्वीप की ओर नहीं आती हैं तब यहाँ अनावृष्टि (सूखा) की स्थिति बन जाती है एवं बादल फटने की घटना भी नहीं होती।

- उत्तराखण्ड के किये गये अध्ययन से यह पता चलता है कि प्रायः वृष्टि-प्रस्फोट के साथ बिजली भी चमकती है। बिजली की चमक (स्पार्क) दो प्रकार की होती है दो बादलों के मध्य एवं बादल तथा भूमि के मध्य द्वि-ध्रुव बनता है। इनमें बादल तथा भूमि का द्वि-ध्रुव अधिक प्रभावी होता है, विशेषतः जहाँ भूमि वनस्पति विहीन अथवा विरल हो। प्रायः चीड़ के वनों में भूमि-घास विहीन होती है अतः ऐसे स्थानों पर बादल फटने की घटना अधिक प्रभावी होती है।

- प्रायः यह देखा गया है कि उत्तराखण्ड में शिखरों एवं घाटियों में चीड़ के वन फैलते जा रहे हैं, साथ ही बादल फटने की घटना की घटनाएँ भी बढ़ती जा रही हैं।

रोकथाम के उपाय


बादल फटना एक वायुमण्डलीय घटना है जो विश्वव्यापी-तापन से सम्बन्धित है, अतः इसे पूर्ण रूप से रोकना सम्भव नहीं है। केवल इनसे विनाशकारी प्रभाव को कम किया जा सकता है। इसके लिये निम्न उपाय किये जा सकते हैंः

- पर्वतीय घाटियों के वनीकरण में चीड़ वनों के स्थान पर मिश्रित वनों की प्राथमिकता दी जाए, विशेषतः भूमि पर घास एवं शाक का होना आवश्यक है। इन क्षेत्रों को पशुओं का चारागाह बनने से रोकना अनिवार्य है।

- पर्वतीय घाटियों में आबादी बढ़ती जा रही है, यहाँ धार्मिक स्थल भी हैं। यहाँ नदियों के खादर (फ्लड-प्लेन) में भवन एवं अन्य सम्बन्धित निर्माण कार्य तेजी से बढ़ते जा रहे हैं, जिनकी रोकथाम आवश्यक है। खादर क्षेत्रों में मिश्रित वनीकरण त्वरित बाढ़ के प्रभाव को कम कर सकता है।

- भू-स्खलन एवं मलबा अवधाव को रोकने की अनेक जैव अभियांत्रिक विधियाँ हैं, जिनका उपयोग प्रभावी रूप से किया जा सकता है।

सम्पर्क


डॉ. चित्तरंजन प्रसाद
489, उपहार उद्यान-I एल्डिको, जेल रोड, लखनऊ (उ.प्र.), [ई-मेल : drchittaranjanprasad@gmail.com एवं nupoor.prasad@gmail.com]


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