हजारों वर्ष पहले की जलवायु का हाल बताने वाले वैज्ञानिक

प्रो. रंगास्वामी रमेश
प्रो. रंगास्वामी रमेश


भारतीय पुरा-जलवायु वैज्ञानिक प्रोफेसर रंगास्वामी रमेश की स्मृति में विशेष फीचर


प्रो. रंगास्वामी रमेशप्रो. रंगास्वामी रमेशहजारों वर्ष पूर्व महासागरों में किस तरह की हलचलें होती थी, वायुमण्डल कैसा था और जलवायु दशाएँ कैसी रही होंगी! इन सवालों के जवाब खोजने के लिये पुरा-जलवायु वैज्ञानिक दिन रात जुटे रहते हैं। ऐसे ही एक भारतीय पुरा-जलवायु वैज्ञानिक प्रोफेसर रंगास्वामी रमेश का 2 अप्रैल, 2018 को निधन हो गया। उनके निधन से देश ने विलक्षण प्रतिभा के धनी एक वैज्ञानिक को खो दिया है और भारत के वैज्ञानिक समुदाय में शोक की लहर दौड़ गई है।

प्रोफेसर रमेश विज्ञान की अद्यतन जानकारियों से तो हमेशा जुड़े रहते थे, पर अपने पेट के कैंसर की जानकारी उन्हें बहुत देर से मिली। मृत्यु से पूर्व चार महीनों तक मुम्बई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में 61 वर्षीय प्रोफेसर रमेश का उपचार चला, पर वह मृत्यु को मात नहीं दे सके और अस्पताल में ही उन्होंने अन्तिम साँस ली।

प्रोफेसर रमेश एक मूर्धन्य वैज्ञानिक, बेहद चहेते प्रोफेसर, कर्मठ कार्यकर्ता और कुशल प्रशासक थे। उनका अधिकांश जीवन अहमदाबाद स्थित भौतिक अनुसन्धान प्रयोगशाला में बीता और वहाँ से सेवानिवृत्त होने के बाद 15 जनवरी, 2017 से वह भुवनेश्वर स्थित राष्ट्रीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसन्धान संस्थान (नाईजर) में वरिष्ठ प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थे। दोनों ही संस्थानों में प्रोफेसर के रूप में उनकी सेवाएँ सदैव याद की जाती रहेंगी।

पुरा-जलवायु और पुरा-महासागर विज्ञान के क्षेत्र में उनके शोधों ने भारतीय विज्ञान को विशेष रूप से एक नई दिशा दी है। एस.के. भट्टाचार्य और कुंचिथापडम गोपालन के साथ मिलकर किये गये उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप देश में पहली स्थायी सम-स्थानिक प्रयोगशाला स्थापित की गई थी। इस प्रयोगशाला के माध्यम से प्रोफेसर रमेश और उनके सहयोगी अनुसन्धानकर्ताओं ने हजारों वर्ष पहले की मानसून परिस्थितियों का अद्वितीय अध्ययन किया।

इस अध्ययन के लिये उन्होंने स्थायी सम-स्थानिकों, जैसे- कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और सल्फर के अनुपातों का उपयोग करते हुए पुरा-तापमानों और पुरा-वर्षा की गणना के लिये सूत्र विकसित किये। उन्होंने अभिनव युग के दौरान हुए मानसून परिवर्तनों के उच्च विभेदी अभिलेख भी तैयार किये। हिन्द महासागर की पुरा-जलवायु विषयक और पुरा-महासागरीय परिस्थितियों के पुनर्संरचनात्मक अध्ययनों में प्रोफेसर रमेश का उल्लेखनीय योगदान रहा है। वह वर्ष 2006 में दक्षिणी महासागर और अंटार्कटिका के लिये भेजे गये विशेष अभियान में भी शामिल थे।

प्रोफेसर रमेश ने तीनों प्रमुख भारतीय विज्ञान अकादमियों भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (इनसा), भारतीय विज्ञान अकादमी (आईएएस) और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (एनएएस) के साथ-साथ वर्ल्ड एकेडमी ऑफ साइंसेज के निर्वाचित अध्येता के रूप में अपनी सक्रिय भागीदारी दर्ज कराई है।

वर्ष 1998 में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसन्धान परिषद (सीएसआईआर) ने उन्हें विज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिये दिये जाने वाले शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया। उन्हें यह पुरस्कार पृथ्वी-विज्ञान, वायुमण्डल विज्ञान, महासागर विज्ञान और ग्रह-विज्ञान में अति विशिष्ट योगदान के लिये प्रदान किया गया। उन्हें वर्ल्ड एकेडमी ऑफ साइंसेज (टीडब्ल्यूएएस) पुरस्कार और भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) द्वारा प्रदत्त लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

प्रोफेसर रमेश की मेधा का परिचय सबसे पहले वर्ष 1972 में शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय द्वारा मिले राष्ट्रीय योग्यता प्रमाण पत्र के रूप में सामने आया। उसके बाद वह लगातार सफलताओं की सीढ़ियाँ चढ़ते गये और कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अखिल भारतीय बंगाली साहित्यिक सम्मेलन पदक, सर सी.वी. रमन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोध करने के लिये जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड फेलोशिप हेतु चयन, प्रोफेसर पी.ई. सुब्रमण्यम अय्यर गोल्ड मेडल और इनसा युवा वैज्ञानिक मेडल उनकी प्रतिभा की कहानी स्वयं बयाँ करते हैं।

सरल, सहज और मिलनसार स्वभाव के कारण अपने मित्रों और विद्यार्थियों के पसन्दीदा प्रोफेसर रमेश एक जिन्दादिल इन्सान थे। आधिकारिक दस्तावेज उनका जन्म 2 जून, 1956 दर्शाते हैं, परन्तु वास्तव में उनका जन्म 27 मार्च, 1956 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली के एक गाँव में हुआ था।

परिवार में आठ भाई-बहनों में सबसे बड़े प्रोफेसर रमेश ने अविवाहित रहकर अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरी निष्ठा के साथ निभाया। मद्रास विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातक एवं स्नातकोत्तर करने के बाद उन्होंने गुजरात विश्वविद्यालय से पीएचडी और पोस्ट डॉक्टोरल किया। इसके बाद वर्ष 1987 में उन्होंने पीआरएल में अनुसन्धान अध्येता के रूप में अपनी सेवाएँ दीं। वहाँ रहकर उन्होंने वैज्ञानिक-डी, रीडर, एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर और वरिष्ठ प्रोफेसर पदों पर कार्य किया। इस बीच 1992-93 के दौरान उनको अमेरीका के स्क्रिप्प्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशनोग्राफी में अनुसन्धान करने का गौरव भी मिला।

अध्ययन और अध्यापन उनको अधिक पसन्द था। कठिन-से-कठिन वैज्ञानिक संकल्पनाओं और सिद्धान्तों को वह बेहद सहज रूप में अपने विद्यार्थियों को समझा दिया करते थे। अध्यापन के साथ-साथ सीएसआईआर परीक्षा समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने प्रश्न-पत्रों के निर्माण में अपनी कुशल प्रशासनिक क्षमता का भी परिचय दिया। देश के विभिन्न संस्थानों, विशेष रूप से पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के विविध संस्थानों की अनुसन्धान परामर्श समितियों के सदस्य के रूप में शोध को बढ़ावा देने में उनका सक्रिय योगदान रहा है। वह समय के बहुत पाबन्द थे और देश में होने वाले सभी प्रमुख वैज्ञानिक सम्मेलनों और संगोष्ठियों में शामिल होना भी उनका एक शौक था।

उनके लगभग 500 वैज्ञानिक शोधपत्र विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। इण्टरगवर्नमेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्टों के भी वे प्रमुख लेखकों में से एक थे। इनमें से 2007 की नोबेल शान्ति पुरस्कार प्राप्त आईपीसीसी रिपोर्ट और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से 2014 में प्रकाशित लगभग 1552 पृष्ठों वाली क्लाइमेट चेंज 2013 : दि फिजिकल साइंस बेसिस नामक संकलित रिपोर्ट में उनका योगदान अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी सदैव याद किया जाता रहेगा।

ऐसे मनीषी वैज्ञानिक का यूँ कैंसर से जूझते हुए ब्रह्मलीन होना देश ही नहीं समस्त विश्व वैज्ञानिक परिवार के लिये अपूरणीय क्षति है।
 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading