हम जन्म लेते हैं, नर्सरी स्कूल जाने के लिए

हम खेतों में काम कर रहे थे।

एक युवक अपने कंधे पर झोला लटकाए बड़े इत्मीनान से वहां चला आया।
‘तुम कहां से आए हो?’
‘वहां उधर से।’
‘यहां तक पहुंचे कैसे?’
‘चल कर आया हूं।’
‘यहां किसके लिए आए हो?’
‘मैं नहीं जानता।’


मैं सोच रहा था कि जब वसंत में चावल बोया जाता है तो बीज जिंदा कोंपले बाहर-निकालता है, और अब फसल काटते हुए ऐसा लगता है कि, वह मर रहा है। यही अनुष्ठान साल-दर-साल दुहराया जाता है। इस तथ्य का मतलब यही है कि इस खेत में जीवन-चक्र सतत चलता है और हर साल होने वाली मौत ही हर वर्ष होने वाला जन्म भी है। आप कह सकते हैं कि जो धान हम काट रहे हैं, वह सतत जीवित रहता है।

यहां जो लोग आते हैं, जिनमें से अधिकांश को अपना नाम वगैरह बतलाने या अपने अतीत की कहानी सुनाने की कोई जल्दी नहीं होती। वे अपने आने के उद्देश्य भी साफ-साफ नहीं बतलाते। चूंकि उनमें से अधिकांश नहीं जानते कि वे क्यों आए हैं, उनके लिए यह सोचना स्वाभाविक ही है। शुरू से ही इंसान को पता नहीं कि, वह कहां से आया है कि उसे कहां जाना है। यह कहना कि आप अपनी मां के गर्भ से जन्में हैं और एक दिन आपको मिट्टी में मिल जाना है, मात्र एक जीव-वैज्ञानिक व्याख्या है, लेकिन किसी को भी वास्तव में पता नहीं है कि, जन्म के पहले वह क्या था और मृत्यु के बाद उसे किस दुनिया में जाना है। मानव, वाकई एक दयनीय प्राणी है - न तो उसे अपने पैदा होने के कारण पता है न आंखें मिचने पर किस अनंत की ओर उसे चल पड़ना है, इसका उसे कोई अता-पता है। अभी उसे रोज मुझे नरकट (घास) की एक टोपी मिल गई, जो शिकोकू के मंदिरों में दर्शनार्थ आए तीर्थ-यात्री वहां छोड़ गए थे। उस टोपी पर लिखा थाः ‘मूलतः न कोई पूरब, न कोई पश्चिम। दस अनंत दिशाएं।’ उसी टोपी को हाथ में थामे मैंने उस युवक से फिर पूछा कि वह कहां से आया है, तब उसने बतलाया कि वह कानाजावा के मंदिर के पुजारी का बेटा है और चूंकि उसे दिन भर मृतकों के लिए धर्मग्रंथों का पाठ करते रहना मूर्खतापूर्ण लगा, वह अब किसान बनना चाहता है।

न तो पूरब है न पश्चिम। सूरज पूरब में उगता और पश्चिम में अस्त होता है। यह मात्र एक खगोलशास्त्रीय अवलोकन है। यह जान लेना कि - ‘आप न पूरब को समझते हैं न पश्चिम’ को ही, अपने आप में सत्य के नजदीक पहुंचना है। सच्चाई तो यह है कि कोई नहीं जानता कि सूरज आता कहां से है। हमारे जो हजारों धर्मग्रंथ हैं, उनमें से हमें जिसके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए वह है हृदयसूत्र, जिसमें सारी महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं। इस सूत्र के अनुसार, भगवान बुद्ध ने कहाः ‘आकार रिक्तता ही आकार है। पदार्थ और आत्मा एक ही हैं लेकिन सब कुछ रिक्त है। मानव जिंदा नहीं है, वह मृत भी नहीं, वह न जन्मा है न उसे मरना है, व न बूढ़ा होता है, न बीमार, न व बढ़ता है न घटता है।’ उस रोज मैंने चावल की फसल काटने के बाद पुआल के बड़े से ढेर से टिककर सुस्ताते युवकों से कहा, ‘मैं सोच रहा था कि जब वसंत में चावल बोया जाता है तो बीज जिंदा कोंपले बाहर-निकालता है, और अब फसल काटते हुए ऐसा लगता है कि, वह मर रहा है। यही अनुष्ठान साल-दर-साल दुहराया जाता है। इस तथ्य का मतलब यही है कि इस खेत में जीवन-चक्र सतत चलता है और हर साल होने वाली मौत ही हर वर्ष होने वाला जन्म भी है। आप कह सकते हैं कि जो धान हम काट रहे हैं, वह सतत जीवित रहता है।’

इंसान, जिंदगी और मौत को जरा सीमित परिपेक्ष्य में देखता है। इस घास के लिए शरद ऋतु की मृत्यु तथा वसंत के जन्म का क्या अर्थ? लोग सोचते हैं कि जीवन आनंद है तथा मृत्यु दुख, लेकिन चावल का वह बीज जो धरती की गर्भ में छुप कर, वसंत ऋतु में जिस पौधे की कोंपलें बाहर आती हैं, वही पतझड़ में मुरझा जाता है। वह अपने नन्हें केंद्र में अब भी पूर्ण आनंद संजोए हुए है। मृत्यु के साथ जीवन का आनंद भी विदा नहीं होता है। मृत्यु एक क्षणिक संक्रांति (पैसिज) से ज्यादा कुछ भी नहीं है। क्या आप यह नहीं मानेंगे कि यह चावल, जिसमें जीवन का संपूर्ण आनंद निहित है, मृत्यु के दुख से अपरिचित है। चावल और जौ के साथ जो घटता है, वही लगातार मानव के शरीर में भी होता रहता है। बाल और नाखून रोज बढ़ते हैं, हजारों कोशिकाएं मरती हैं और उतनी ही फिर से पैदा हो जाती हैं। एक माह पहले जो रक्त धमनियों में दौड़ रहा था, आज दौड़ रहा खून वो नहीं है। जब आप सोचते हैं कि आपके गुण आपके पोतों और परपोतों के शरीरों में विद्यमान रहते हुए आगे जारी रहते जाएंगे, तो आप भी कह सकते हैं कि, आप हर रोज जन्मते और मरते रहने के बावजूद, कई पीढ़ियों तक जिंदा रहेंगे।

यदि इस जीवन-चक्र में भागीदारी होने का आनंद आप रोज अनुभव कर पाते हैं तो इसके बाद आपके लिए कुछ भी जरूरी नहीं रह जाता है। मगर अधिकांश लोग हर रोज बदलती और बीतती जिंदगी का आनंद नहीं उठा पाते। वे उसी जिंदगी से चिपटकर रह जाते हैं, जिसका वे अनुभव कर चुके हैं और इस आदतन लगाव से ही मौत का डर पैदा होता है। केवल उस अतीत, जो बीत गया है तथा उस भविष्य की तरफ जो अभी आया ही नहीं है, ध्यान देते हुए हम यह भूल जाते हैं कि, वे इस धरती पर अभी इस वक्त भी जिंदा है। इस भ्रम और उलझन से संघर्ष करते वे अपने जीवन को यों गुजरते देखते हैं, जैसे कोई सपना देख रहा हो। ‘यदि जीवन और मृत्यु वास्तविकताएं हैं, तो मानव की तकलीफों से कभी बचा भी जा सकता है?’

‘जीवन और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं होती।’
‘आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?’


खुद यह दुनिया ही हमारे अनुभवों के प्रवाह में समस्त पदार्थों की एकात्मकता (यूनिटी) है लेकिन लोगों के दिमाग प्रकृतिक की घटनाओं को जीवन और मृत्यु यिन और यांग होने या न होने जैसे टुकड़ों में बांट देते हैं। हमारा दिमाग उन्हीं चीजों को संपूर्ण रूप से सच मानता है, जिन्हें हमारी ज्ञानेन्द्रियां अनुभव कर पाती हैं और ऐसा होने के बाद ही पदार्थ, उन वस्तुओं में बदल जाता है जिन्हें मानव आमतौर से भिन्न रूपों में देखता है। भौतिक संसार के रूप और जीवन-मृत्यु, स्वास्थ्य और बीमारी दुख और आनंद जैसी अवधारणाएं, सभी इंसानों के मन में उपजती हैं। उक्त सूत्र में जब बुद्ध ने कहा कि, सब कुछ रिक्त है तो वे न केवल मानव की बुद्धि द्वारा निर्मित, अंतर्निहित वास्तविकता को खारिज कर रहे थे, बल्कि वे यह भी घोषित कर रहे थे कि, सारी मानवीय भावनाएं भी भम्रजाल हैं।

‘आप का मतलब सभी कुछ भ्रम है - क्या बचता, कुछ भी नहीं।’
‘बचता कुछ भी नहीं? स्पष्ट ही रिक्तता की धारणा तो हमारे मन में बची रहती ही है।’ मैंने उस व्यक्ति से कहा, ‘यदि तुम नहीं जानते कि कहां से आए हो और कहां जा रहे हो, तो इस बारे में निश्चयपूर्वक कैसे कह सकते हो कि, इस वक्त तुम यहां मेरे सामने खड़े हो। या अस्तित्व अर्थहीन नहीं है?’

उस सुबह मैंने एक चार वर्ष की बालिका को अपनी मां से पूछते सुना, ‘मैं इस दुनिया में क्यों पैदा हुई? क्या नर्सरी स्कूल जाने के लिए?’

स्वाभाविक ही मां उसे ईमानदारी से यह नहीं कह पाईः ‘हां, इसीलिए, और अब जाओ यहां से।’ लेकिन आप कह सकते हैं कि, इन दिनों लोग, वाकई नर्सरी स्कूल (बालमंदिर) जाने के लिए ही पैदा होते हैं। कॉलेज तक बड़ी मेहनत से वे यही जानने के लिए पढ़ते रहते हैं कि, वे क्यों जन्म लेते हैं। दर्शनशास्त्री और विद्वान पंडित, इस कोशिश में भले ही अपनी जिंदगियां क्यों न बर्बाद कर चुके हों, यदि इस एक ही सवाल का जवाब पा ले, तो अपने आप से संतुष्ट हो जाएंगे। प्रारंभ में इंसान का कोई उद्देश्य नहीं होता था। अब वह अपने लिए कोई-न-कोई उद्देश्य खड़ा कर लेता है। या जीवन का अर्थ तलाश करने की कोशिश में कई तरह की कशमकशों से दो-चार होता रहता है। यह उस एकल कुश्ती जैसी चीज होती है, जिसमें आप अकेले लड़ते हैं। वास्तव में ऐसा कोई उद्देश्य है ही नहीं जिसके बारे में कोई कुछ सोचे या जिसकी तलाश में चल पड़े। आप बच्चों से पूछिए कि उद्देश्यहीन जीवन निरर्थक है या नहीं, शायद आपको सही जवाब मिल जाए। लोगों के कष्ट उसी समय से शुरू हो जाते हैं जब वे बालमंदिर जाने लगते हैं। मानव पहले बहुत दुखी प्राणी था, लेकिन उसने खुद पहले यह कठोर दुनिया रची और अब उसमें से बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहा है।

प्रकृति में जीवन है, मृत्यु भी है और फिर भी प्रकृति आनंद से भरी है।
मानव समाज में जीवन है, मृत्यु है और लोग दुखों के साथ जीते हैं।


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