हरित परिवहन के साथ भविष्य की यात्रा

13 Nov 2015
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परिवहन वैश्विक जलवायु परिवर्तन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण कारक है। यह जीवाश्म ईंधन के दहन से विश्व भर में होने वाले कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग 23 प्रतिशत है। इस कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में से सड़क परिवहन 75 प्रतिशत है और यह दिनों दिन बढ़ ही रहा है। कुल 95 प्रतिशत सड़क परिवहन तेल पर निर्भर है। यह विश्व की कुल तेल खपत का 60 प्रतिशत है। ये सभी कारक सरकारों पर ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन और तेल की माँग कम करने के लिये नीतियाँ बनाने का दबाव डालते हैं। परिवहन का प्रभाव आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक आयामों पर है। आर्थिक कुशलता को अक्सर उपयोगकर्ता की यात्रा के कम समय के रूप में मापा जाता है और वह ही बेहतर परिवहन का मुख्य उद्देश्य है।

हालांकि परिवहन ऊर्जा के प्रयोग, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन और वायु प्रदूषण के आधार पर ही पर्यावरण को प्रभावित करता है। परिवहन सामाजिक समेकन को प्रोत्साहित कर (कम कर) और सुरक्षा जैसे अन्य सम्बन्धित लाभों को उत्पन्न कर सामाजिक आयामों को प्रभावित कर सकता है। परिवहन के तीन आयामों के प्रभावों को तालिका 1 में दिया गया है।

तालिका 1 : तीन आयामों में परिवहन का प्रभाव


आयाम

परिप्रेक्ष्य

आर्थिक कुशलता

परिवहन उपयोगकर्ताओं के लिये लाभ गतिशीलता, नौकरी और सेवाओं तक पहुँच और आर्थिक प्रगति को सहायता देने में परिवहन सुधार के मुख्य उद्देश्यों के रूप में।

पर्यावरणीय स्थिरता

1. ऊर्जा सघनता को कम करना

2. प्रति इकाई ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करना (कार्बन डाइऑक्साइड के प्रतिनिधि के रूप में जीएसएस या CO2 समकक्ष उत्सर्जन) जो जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करती है।

3. टेल पाइप उत्सर्जन को कम करना जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। (जैसे पीएम की पार्टिकुलेट धातु)

सामाजिक स्थायित्व

1. मूल सेवाओं तक पहुँच : परिवहन सेवाओं को सुगम बनाना, सेवा संवहनीयता और वाहनों व अन्य सुविधाओं, स्थानों तक भौतिक पहुँच।

2. किसी भी नुकसान से रक्षा जैसे सुरक्षा जोखिम, परिवहन दुर्घटनाएँ और खराब गुणवत्ता वाली वायु।

 

पर्यावरणीय स्थिरता के लिये बढ़ती चिन्ता स्थायी परिवहन और हरित परिवहन के प्रति अधिक ध्यान आकर्षित करती है। सरल शब्दों में पैदल चलने और अन्य बेमोटर माध्यमों के अतिरिक्त अधिकतर परिवहन माध्यम हरित या संवहनीय नहीं है।

अधिकतर परिवहन किसी-न-किसी प्रकार के जीवाश्म का प्रयोग करते हैं और वे इसे आने वाले समय में करते रहेंगे। आधुनिक शहरी रेल प्रणाली विद्युत का प्रयोग करती है जो कि पूरी तरह से जीवाश्म ईंधन से बनी होती है।

आमतौर पर हर प्रकार की मोटरीकृत परिवहन प्रणाली जीवाश्म आधारित प्रणालियाँ हैं और वह दूसरों की तुलना में अधिक हरित है।

अवधारणात्मक रूप से किसी भी परिवहन प्रणाली का हरित तत्व तीन तरीकों से मापा जा सकता है। जैसेः 1. ऊर्जा कुशलता, 2. कार्बन सघनता और 3. वह सीमा जहाँ तक वह स्थानीय प्रदूषक उत्पन्न करता है जो मानव स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। रेल और बस तथा परिवहन कार चालकों को अपनी ओर आकर्षित करने के द्वारा कई हरित प्रत्यायक हासिल कर सकता है।

वैकल्पिक रूप से हरित प्रभाव माध्यम की प्रेरक ऊर्जा के प्रत्यक्ष व अन्तर्निहित कुशलता से भी उत्पन्न हो सकता है जैसे एक परम्परागत गैसोलिन इंजन की तुलना में एक हाईब्रिड (गैसोलिन/ इलेक्ट्रिक) इंजन। प्रभावी रूप से प्रयोग किये जाने पर और हाई लोड कारकों के संग कुशलतापूर्वक कार्य करने से परिवहन काफी आर्थिक लाभ हासिल कर सकता है, ऊर्जा खपत और उत्सर्जन को कम कर सकता है।

हरित परिवहन क्या है?


ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में मुख्य सहयोगी होने के नाते परिवहन ही वायु प्रदूषण को कम करने के लिये और स्थायी पर्यावरण को हासिल करने के लिये मुख्य लक्ष्य है। इससे हरित परिवहन होगा जिसका अर्थ है किसी भी प्रकार की परिवहन प्रक्रिया ऐसे जो जैव अनुकूल है और जिसका कोई भी नकारात्मक प्रभाव पर्यावरण पर नहीं होता है।

हरित परिवहन में प्रभावी और कुशल संसाधन प्रयोग, परिवहन संरचना में परिवर्तन और स्वस्थ विकल्पों को प्रदान करना होता है। इसके लिये जनता के जागरूक होने, प्रतिभागिता करने, निजी वाहनों को नियंत्रित करने और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों जैसे सौर, पवन, विद्युत, जैव ईंधन आदि द्वारा संचालित वाहनों के विकास की जरूरत होगी।

हालांकि हर व्यक्ति के लिये अपने ही वाहन से ऑफिस और बाजार जाना बहुत ही आसान होता है, पर एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें हरित परिवहन माध्यम को चुनना चाहिए क्योंकि वह आसानी से सबके लिये सुलभ होते हैं। यह हरित परिवहन वर्गीकरण चित्र 1 में बताया गया है।

हरित परिवहन वर्गीकरण में हरित परिवहन के कई माध्यम सम्मिलित होते हैं। यह फूड पिरामिड पर आधारित होते हैं और एक अपसाइड-डाउन दृष्टिकोण को बताती है जिसमें सबसे ज्यादा पैदल चलने वाले लोग सबसे हरित उच्च प्राथमिकता पर और अपना वाहन प्रयोग करने वाले लोग सबसे कम हरित और सबसे कम प्राथमिकता प्रदान करने वाले होते हैं। यथासम्भव एकल वाहनों के प्रयोग से बचना चाहिए।

हरित परिवहनः भारत की आवश्यकता


भारतीय सन्दर्भ में पिछले दो दशकों में खासतौर पर महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन हो रहे हैं और जिसमें अर्थव्यवस्था कृषि से हटकर सेवाओं की तरफ जा रही है और इसी बीच भारत के शहरों का भी विस्तार हो रहा है और उनके भविष्य में भी तेजी से बढ़ने के मौके हैं।

इस प्रगति के परिणामस्वरूप वाहनों के स्वामित्व में भी पिछले दो दशकों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। सड़क व राजमार्ग मंत्रालय के अनुसार, 1991 में देश में पंजीकृत वाहनों की संख्या केवल दो करोड़ 10 लाख थी जो 2012 में बढ़कर 15 करोड़ 90 लाख हो गई। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-08 से 2011-12) के दौरान यह गगनचुम्बी ऊँचाईयों तक बढ़ी है।

उच्च प्रगति दर के परिणामस्वरूप, नए वाहन पंजीकरण में वृद्धि होने की उम्मीद है, कम-से-कम सदी के अन्त तक। भारत ने दो दशकों में वाहन उत्सर्जन को कम करने में बहुत ही लम्बा सफर तय किया है। फिर भी इसके संग जुड़ी वायु की खराब गुणवत्ता और सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिये अभियान और उत्सर्जन नियंत्रण के लिये आवश्यक है।

हरित वाहन वर्गीकरण कई भारतीय शहरों को दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषित क्षेत्रों में सम्मिलित किया है। अधिकतर वाहन नाइट्रोजन के अर्बनोक्साइड उत्सर्जन (NOx) के लिये जिम्मेदार है और पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) उत्सर्जन के संग ही महत्त्वपूर्ण हाइड्रोकार्बन और कार्बन मोनोक्साइड (सीओ) के उत्सर्जन के लिये भी जिम्मेदार है। वर्तमान में नई डीजल कारों को गैसोलिन कार की तुलना में ज्यादा NOx और पार्टिकुलेट मैटर 30-50 से अधिक उत्सर्जन करने की अनुमति दी है।

परिवहन क्षेत्र की निरन्तर प्रगति आने वाले आर्थिक विकास के लिये महत्त्वपूर्ण हो सकती है पर इसने भारत की वायु प्रदूषण की समस्या में और वाहन उत्सर्जन में वृद्धि की है। हाइड्रोकार्बन, कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन अर्बनोक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड महत्त्वपूर्ण समस्याएँ हैं जिन्हें युद्धस्तर पर हल किये जाने की आवश्यकता है।

2008 में, केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने लगभग 70 शहरों की पहचान की थी, जो कि कुल शहरों का 80 प्रतिशत है और जिनकी निगरानी की गई थी, वे NOx और पीएम मानकों के अनुसार नहीं थे। यह तब की बात है जब 2009 में वायु प्रदूषण के और कड़े मानक प्रभाव में नहीं लाये गए थे।

क्लीन एअर इनिशिएटिव (सीएआई) एशिया ऑफ पीएम ने भारत में 130 शहरों पर ध्यान दिया और उन्होंने भी पहचाना कि अधिकतर शहर राष्ट्रीय मानकों से अधिक प्रदूषित हैं। अधिकतर शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर अधिकतम कानूनी सीमा से अधिक हैं और वे कई वर्षों से अनुपालन नहीं कर रहे हैं और निकट भविष्य में वायु की गुणवत्ता में सुधार करने के लिये कोई प्रभावी योजना नहीं है।

वाहनों के बढ़ते उत्सर्जन से वायु की गुणवत्ता में कमी आई है। यातायात से सम्बन्धी वायु प्रदूषण खासतौर पर पीएम और NOx, के कारण लोगों में असमय बीमारी और मृत्युदर में बढ़ोत्तरी हुई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन समर्थित अध्ययन का अनुमान है कि भारत में 2005 में लगभग 1,54,000 लोगों की असमय मृत्यु का कारण पर्यावरण में बहुत ही फाइन पार्टिकुलेट धातु 2.5 थी और इस संख्या के निकट भविष्य में बढ़ने की उम्मीद है।

भारत में परिवहन क्षेत्र कुल 18 प्रतिशत ऊर्जा की खपत करता है (औद्योगिक क्षेत्र के बाद दूसरा)। परिवहन क्षेत्र की कुल ऊर्जा आवश्यकताओं के 98 प्रतिशत हिस्से की पूर्ति पेट्रोल पम्प उत्पादों से होती है और भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की आधी खपत केवल परिवहन गतिविधियों के कारण ही होती है। अगर कोई कदम जल्द ही नहीं उठाया गया तो ऊर्जा की माँग के बढ़ने की अपेक्षा है।

परिवहन क्षेत्र के द्वारा 2007 में जारी कुल 142 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 87 प्रतिशत सड़क आधारित गतिविधियों से सम्बन्धित था। अगर कोई कदम जल्द ही नहीं उठाया जाता है तो कुल परिवहन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 2030 तक 1000 मी. टन तक हो जाएगा, मतलब 2010 के 250 मी. टन से चार गुना।

भारत ईंधन की गुणवत्ता और वाहन उत्सर्जन मानकों में सर्वश्रेष्ठ अन्तरराष्ट्रीय प्रक्रियाओं में बहुत ही पीछे है। सल्फर का स्तर ईंधन में बहुत ही अधिक है जो वाहन की तकनीक के अनुसार सर्वश्रेष्ठ तरीके से वाहन को साफ करने के कार्य के लिये आवश्यक अधिकतम 10 पीपीएम से अधिक है। न ही भारतीयों के पास ऐसी कोई योजना है कि वे पूरे भारत में 10 पीपीएम सल्फर को लागू करवा सकें। परिणामस्वरूप वाहन उत्सर्जन मानक वहाँ नहीं हैं जहाँ हो सकते हैं। अधिकतर शहर भारत- III में जबकि कुछ शहर आगे भारत- IV में है।

इसके विपरीत अमेरिका, यूरोप, दक्षिण कोरिया और जापान में कई वर्षों से 10 पीपीएम सल्फर ईंधन का प्रयोग हो रहा है। यूरोप तो यूरो 6 की ओर जाने की प्रक्रिया में है। एक ही प्रकार की आर्थिक स्थिति वाले देश जैसे चीन, मेक्सिको और ब्राजील भी ईंधन की गुणवत्ता को सुधारने और वाहन उत्सर्जन मानकों के प्रति आगे बढ़ने के बारे में योजना बना रहे हैं।

भावी तस्वीर


भारत में अनुपालन और प्रवर्तन के मामलों में बहुत ही सुधार किया जाना है। मानक तभी सार्थक हैं जब उनका अनुपालन अनिवार्य हो। अमेरिका में खासतौर पर लगभग 40 वर्षों से अनुपालन के प्रयास किये जा रहे हैं।

समय के संग वाहन उत्सर्जन अनुपालन से वाहनों के प्रयोग और निर्माण के समय जाँच पर ध्यान दिये जाने के कारण वाहन निर्माताओं के लिये अपने उत्पादों को उनके डिज़ाइन के अनुसार उपयोगी जीवन को सुनिश्चित करना सरल हो गया है।

वितरण प्रणाली के संग विविध बिन्दुओं पर ईंधन की गुणवत्ता ने तेल कम्पनियों और ईंधन का प्रबन्धन करने वालों को हर समय ही ईंधन की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिये विवश कर दिया है। स्पष्ट, कड़ी रिकॉल नीतियों और अनुपालन न करने वाले वाहनों व ईंधन के लिये दण्डात्मक कदमों ने उद्योग को अपने उत्पादों का परीक्षण करने के लिये विवश कर दिया है।

भारत को अमेरिका व अन्य देशों से अपने नियामक कार्यक्रमों को बेहतर करने के लिये सीखना चाहिए। वाहन उत्सर्जन जाँच केवल अभी नए ही वाहनों तक सीमित है मतलब उसके पूरे जीवन में उत्सर्जन नियंत्रण तकनीकों की प्रभावोत्पादकता की जाँच करने के लिये किसी भी प्रकार का विश्लेषण करने के लिये डेटा उपलब्ध नहीं है।

कमजोर जाँच चक्र का अर्थ है जब वे आरम्भिक उत्सर्जन जाँच से खरे उतर लेंगे जो वे वास्तविक जगत में जाकर बहुत ही अधिक उत्सर्जन करेंगे जबकि कानून के अनुसार ईंधन की सरकारी जाँच का प्रावधान है, फिर भी इस बात के बहुत ही कम प्रमाण है कि यह वाकई में ही किया गया है।

परिवहन क्षेत्र के द्वारा प्रयुक्त ऊर्जा बहुत ही तेजी से बढ़ रही है जिसने प्राथमिक रूप से निजी वाहनों के प्रयोग को बढ़ावा दिया है। अध्ययनों ने अनुमान लगाया है कि परिवहन क्षेत्रों के द्वारा प्रयुक्त ऊर्जा में आने वाले 20 वर्षों में दो से चार गुणा वृद्धि होगी। जब तक कड़े कदम नहीं उठाए जाएँगे तब तक परिणाम भारत के ऊर्जा क्षेत्र, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, वायु की गुणवत्ता और वैश्विक तापन की दृष्टि से बहुत नुकसानदायक होंगे।

दीर्घकालिक नीति


कई उच्च स्तरीय व विशेषज्ञ समितियों का गठन समय-समय पर इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सुझाव देने के लिये किया जा रहा है।

2003 में, माश्लेकर वाहन ईंधन समिति ने वाहन ईंधन नीति की हर पाँच वर्षों में समीक्षा करने का निर्णय लिया है। फिर भी एक नई वाहन ईंधन नीति का गठन 2013 तक नहीं किया गया। हकीक़त यह है कि माश्लेकर समिति ने इसे वर्ष 2010 तक पूरा करने का आदेश दिया था। यह सबके लिये आवश्यक किया जाये एक नई वाहन ईंधन समिति का गठन वर्तमान समिति के कार्य पूरा करने के पाँच वर्ष बाद किया जाये।

जनवरी 2013 में वाहन ईंधन नीति समिति के गठन के संग ही भारत में भी उपरोक्त वर्णित सभी मुद्दों के लिये एक आशा की किरण जागी। समिति ने कई दीर्घ अवधि की नीतियाँ दो, तीन व चार पहिया वाहनों के लिये बनाई और वर्ष 2025 के लिये सुधारों की अनुशंसा की। ये अनुशंसाएँ भारत में ईंधन की खपत और दीर्घ अवधि ईंधन उत्सर्जन को कम करने के लिये उस समिति के लिये एक आरम्भिक बिन्दु हैं:-

1. 50 पीपीएम सल्फर ईंधन इस दशक के मध्य तक आवश्यक बनाया जाये और 10 पीपीएम सल्फर पूरे देश में 2020 तक अनिवार्य किया जाये।
2. भारत IV ईंधन गुणवत्ता मानक पूरे देश में इस दशक के मध्य तक लागू हो और लक्ष्य हो 2020 तक भारत- VI तक पहुँचना।
3. मध्य दशक तक भारत को प्रथम चरण नियंत्रण हासिल करना चाहिए जब रिटेल आउटलेट में ईंधन आपूर्ति हो और चरण 2 वाहन में दोबारा ईंधन भरने के लिये।
4. हर वाहन में ऑन बोर्डिंग रिफ्युलिंग वेपर रिकवरी प्रणालियाँ (ORVR) हो।

भारत में वाहनों का स्वामित्वअप्रैल 2014 में, कीर्ति पारिख की अध्यक्षता में समेकित विकास हेतु न्यून-कार्बन रणनीति पर विशेषज्ञ समूह ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि शहरी केन्द्र को किसी भी शहरी परिवहन योजनाओं के एक एकीकृत हिस्से के रूप में गैर मोटरीकृत परिवहन को प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिए।

यह बताया जाता है कि कार्बन के कम होने के न केवल देश में पर्यावरण को बेहतर करेंगे बल्कि इसके वृहद सामाजिक लाभ होंगे। एक बार जब गैर मोटरीकृत परिवहन को सुगम कर लिया जाएगा और सार्वजनिक परिवहन को प्रदान किया जाएगा तो पार्किंग फीस को संकुलन की कुल सामाजिक लागत को प्रदर्शित करने के लिये लिया जाएगा।

इसके साथ ही पैदल यात्रियों को मोटरीकृत वाहन चालकों के जैसे ही उसी सड़क पर चलने का अधिकार मिलना चाहिए। पैदलपथ और साइकिल के लिये पर्याप्त चौड़ाई के साथ स्थान प्रदान किया जाना चाहिए फिर चाहे मोटरीकृत वाहनों के लिये जगह ही क्यों न कम हो जाये।

यह सार्वजनिक और गैर मोटरीकृत परिवहन के प्रयोग को प्रोत्साहित करेगा। ऐसी नीतियों को मिलाकर करेगा। ऐसी नीतियों को मिलाकर एक ऐसे भविष्य का निर्माण किया जा सकता है जो न केवल समेकित होगा बल्कि देश के लिये एक कम कार्बन परिदृश्य उभर कर आएगा।

जनवरी 2014 में राकेश मोहन की अध्यक्षता द्वारा राष्ट्रीय परिवहन विकास नीति पर उच्च समिति ने अपनी रिपोर्ट जमा की, जिनमें ऊर्जा और पर्यावरण मुद्दों पर निम्न की अनुशंसा कीः

1. भारत IV के समय एक विश्व स्तरीय जाँच चक्र को वैकल्पिक बनाना चाहिए और जब भारत के नियामक पूरे देश में लागू हों और जब भारत V नियम प्रभाव में आएँ तो अनिवार्य कर देना चाहिए।
2. एक नई वाहन ईंधन नीति समिति पाँच वर्ष बाद बनानी चाहिए, जब उससे पहले एक समिति अपना कार्य समाप्त कर लें।
3. वाहन उत्सर्जन और ईंधन गुणवत्ता मानकों को स्थापित करने के लिये उत्तरदायी एक राष्ट्रीय वाहन प्रदूषण और ईंधन प्राधिकरण की स्थापना करनी चाहिए।
4. भारत को प्रयोग में वाहनों के उत्सर्जन प्रदर्शन, सुरक्षा, सड़कों की महत्ता को सुनिश्चित करने के लिये एक सुदृढ़ निरीक्षण और प्रमाणपत्र को स्थापित करने की आवश्यकता है।

वैश्विक उदाहरणों से सीखकर समर्पित, व्यगत न होने वाले (नॉन लैप्सेबल) और नॉन फंगिबल शहरी परिवहन फंड का गठन देश, राज्य और शहरों के स्तर पर करना चाहिए। यूटीएफ को पूँजीगत आवश्यकताओं की जरूरत की पूर्ति करने के स्थान पर, परिचालनात्मक चरण के दौरान कुछ प्रणालियों का भी समर्थन करने के लिये प्रयोग किया जा सकता है। इन फंड को नीचे दिये गए सुझावों के अनुसार प्रयोग किया जा सकता हैः

1. पूरे देश में पेट्रोल पर 2 रुपए का हरित प्रभार लगाया जाये। इसके पीछे तर्क यह है कि पेट्रोल का प्रयोग केवल निजी वाहनों के लिये होता है।
2. एक हरित कर भी वर्तमान वैयक्तिक वाहनों पर सालाना बीमित वाहनों के 4 प्रतिशत के रूप में कार और दो पहिया वाहनों के लिये लिया जा सकता है।
3. नई कार और दो पहिया वाहनों की खरीद पर शहरी परिवहन कर को पेट्रोल वाहनों के लिये कुल लागत पर 7.5 प्रतिशत का और वैयक्तिक डीजल कारों के मामले में 20 प्रतिशत लगाया जा सकता है।
4. वाहनों की ऊर्जा कुशलता को यात्रा की गई दूरी के प्रभावों को कम करने के लिये और ग्रीनहाउस गैस फुटप्रिंट को कम करने के लिये बेहतर करना चाहिए।
5. मोटर वाहन अधिनियम के अन्तर्गत उत्सर्जन और सुरक्षा मानकों को स्थापित करना चाहिए।

हरित राजमार्ग नीति


52 लाख किमी के सड़क नेटवर्क के भारतीय सड़क नेटवर्क पूरे विश्व में दूसरे पायदान पर है और यह लगभग 79,000 किमी राजमार्गों से मिलकर बना है (देखें तालिका 2), जो हालांकि पूरे सड़क नेटवर्क का केवल 1.5 प्रतिशत है पर वह पूरे सड़क यातायात का 40 प्रतिशत है।

तालिका 2: भारत का सड़क नेटवर्क 1951 से अब तक


सड़क श्रेणी

1950-51

1960-61

1970-71

1980-81

1990-91

2000-01

2011-12

2012-13

राष्ट्रीय राजमार्ग

19811

23798

23838

31671

33650

57737

70934

79116

राज्य मार्ग

0

0

56765

94359

127311

132100

163898

169227

अन्य पीडब्ल्यू सड़कें

173723

257125

276833

421895

509435

736001

998895

1066747

ग्रामीण सड़कें

206408

197194

354530

628865

1260430

1972016

2749804

3159639

शहरी सड़कें

0

46361

72120

123120

186799

252001

411679

446238

परियोजना सड़कें

0

0

130893

185511

209737

223665

281628

310955

कुल

399942

524478

914979

1485421

2327362

3373520

4676838

5231922

 

स्रोत : भारतीय आधार मूल सड़क सांख्यिकी 2012-13 सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय

हरित राजमार्ग एक नई अवधारणा है जिसमें परिवहन और जैव अनुकूल स्थिरता के कार्यों को एकीकृत करने के लिये सड़क की संकल्पना सम्मिलित है। सड़कों का नियोजन, संकल्पना और निर्माण एक पर्यावरणात्मक दृष्टिकोण के संग आती है। इस अवधारणा के लिये लक्ष्य है प्रगति और विकास को जैव प्रणाली और सार्वजनिक स्वास्थ्य के स्थायित्व के संग चलना चाहिए।

सड़क, परिवहन और राजमार्ग व जहाजरानी मंत्री ने हरित राजमार्ग नीति 2015 की शुरुआत की है (पौधारोपण, प्रत्यारोपण, सौन्दर्यीकरण और रख-रखाव)। इस नीति का उद्देश्य है राजमार्ग के गलियारों को समुदायों, किसानों, निजी क्षेत्रों, गैर सरकारी संगठनों और सरकारी संस्थानों की प्रतिभागिता के माध्यम से हरियाली को प्रोत्साहित करना। इस नीति की मुख्य विशेषताएँ हैं:

1. कुल परियोजना का 1 प्रतिशत राजमार्ग के वृक्षारोपण और इसके रख-रखाव के लिये रखा जाएगा।
2. वृक्षारोपण के लिये लगभग 1000 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष उपलब्ध कराए जाएँगे।
3. भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण एक हरित कोष को बनाए रखने के लिये और सम्बन्धित अधिकारियों व एजेंसियों की अनुशंसाओं के आधार पर निधि प्रबन्धक के रूप में कार्य करेगा।
4. इस नीति से ग्रामीण क्षेत्रों में पाँच लाख लोगों को रोज़गार मिलने की उम्मीदें हैं।
5. इसरो के भुवन और गगन उपग्रह प्रणालियों के माध्यम से कड़ी निगरानी।
6. जो भी पौधा लगाया जाएगा उसे गिना जाएगा और लेखा-परीक्षा की जाएगी।
7. अच्छा कार्य करने वाली संस्थाओं को सम्मानित किया जाएगा।
8. इस नीति के सुगम संचालन के लिये लोगों से विचार आमंत्रित किये जाएँगे।
9. सड़क के किनारे 1200 सुविधाओं को भी स्थापित किया जाएगा।

हरित राजमार्ग नीति भारत को प्रदूषण मुक्त बनाने में सहायता करेगी। यह भारत में कई दुर्घटनाओं को रोकने में भी मदद करेगी। नीति का उद्देश्य है स्थानीय लोगों और समुदायों को रोजगार प्रदान करना।

नई हरित क्रान्ति से वनों के अन्तर को भरने में भी मदद मिल सकती है। राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार कुल भौगोलिक क्षेत्र का 33 प्रतिशत वन क्षेेत्र के अन्तर्गत होना चाहिए या हरित पट्टी होनी चाहिए पर अधिसूचित क्षेत्रों में यह अनुपात केवल 22 प्रतिशत ही है। जोर इस बात पर नहीं होगा कि कितने वृक्ष लगाए गए बल्कि इस पर होगा कि कैसे वे बने रहें और कैसे वे स्थानीय लोगों के लिये उपयोगी हैं।

हर प्रकार की नई परियोजनाओं के लिये जो भूमि वृक्षारोपण के लिये चाहिए होंगी वह विस्तृत परियोजना का ही एक हिस्सा होगी और इस प्रकार बाद में होने वाले भूमि अधिग्रहण की परेशानियों से बचा जा सकता है। जैसा नीति में कहा गया है कि इसका लक्ष्य स्थानीय समुदायों, गैर सरकारी संगठनों और वन विभाग सहित सरकारी संस्थाओं के सहयोग से जैव अनुकूल राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण करना है। यह उन प्रजातियों के लिये भी वैज्ञानिक सहयोग माँगती है जिन्हें सड़क के किनारे उगाया जा सकता है।

यह नीति इस प्रकार, वानिकी में रूचि रखने वालों के लिये अवसरों के द्वार खोलती है। इसमें हर वर्ष सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वालों को पुरस्कार प्रदान किये जाएँगे। हरित पट्टी भविष्य में सभी राष्ट्रीय और राज्य के राजमार्गों का आकलन करने के लिये मानकों में से एक हो जाएगा। वृक्षारोपण के लिये 12,000 हेक्टेयर भूमि की पहचान कर ली गई है और सरकार की योजना प्रथम वर्ष में इस नीति के अन्तर्गत 6000 किमी सड़क को हरा करने की है।

कुल मिलाकर देश हरित भारत अभियान के अनुकूल है और एक स्थायी तरीके में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में सक्षम है। इसमें कोई भी शक नहीं कि यह परियोजना हालांकि बहुत ही महत्त्वाकांक्षी है पर सरकार की सबसे सकारात्मक योजनाओं में से एक है जिसका लक्ष्य है राजमार्ग विकास और पर्यावरण सुरक्षा के बीच में एक सन्तुलन बनाना। इस परियोजना के सफलतापूर्वक पूर्ण करने पर भारत में कार्बन उत्सर्जन में काफी कमी आएगी।

सन्दर्भ


1. इण्डिया ट्रांसपोर्ट रिपोर्ट: मूविंग इण्डिया टू 2032, नेशनल ट्रांसपोर्ट डेवलपमेंट पॉलिसी कमिटी, योजना आयोग, भारत सरकार राउटे 2014
2. द फाइनल रिपोर्ट ऑफ द एक्सपर्ट ग्रुप ऑन लो कार्बन स्ट्रेटजी फॉर इंक्लुसिव ग्रोथ, योजना आयोग, भारत सरकार 2014
3. रोड ट्रांसपोर्ट इयर बुक (2011-12) ट्रांसपोर्ट रिसर्च विंग, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय, भारत सरकार 2013
4. बेसिक रोड स्टैटिस्टिक्स ऑफ इण्डिया (2012-13), ट्रांसपोर्ट रिसर्च विंग, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय, भारत सरकार 2015
5. थाईलैंड: ग्रीन ट्रांसपोर्ट पॉलिसी डायरेक्टशन फॉर इंप्रेव्ड फ्रेट एंड पैसेंजर ट्रैवल आउटकम्स विद लोकल एनर्जी यूज एंड एमिशन, द वर्ल्ड बैंक एंड नेशनल एकॉनोमिक एंड सोशल डेवलेपमेंट बोर्ड बैंकॉक, 2013
6. रिपोर्ट ऑफ द एक्सपर्ट कमिटी ऑन ऑटो फ्युल विजन एंड पॉलिसी 2025, भारत सरकार 2014
7. पत्र सूचना कार्यालय, भारत सरकार
8. http://www.conserve-energy-future.com/modes-and-benefits-of-green-transportation.php
9. www.economictimes.com
10. www.thehindubusinessline.com
11. www.businesstoday.com
लेखक परिवहन क्षेत्र के स्वतंत्र सलाहकार और विशेषज्ञ हैं। उनके पास परिवहन क्षेत्र का विशाल अनुभव है। उन्होंने पूर्व में विश्व बैंक, राष्ट्रीय परिवहन विकास नीति, योजना आयोग और राइट्स लिमिटेड आदि संस्थानों में कार्य किया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के निर्माण में उनकी अहम भूमिका थी।

ईमेल : kd.krishnadev@gmail.com

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