इंडोसल्फान नहीं, खेती को उद्योग बनने से बचाया जाए

भूजल का बेतरबीत तरीके से दोहन करके, अत्यधिक रासायनिक उवर्रक और रासायनिक कीटनाशकों को इस्तेमाल में लाकर किया जा रहा है। क्योंकि रसायनों के बढ़ते चलन से कंपनियों के व्यापार में बढ़ोतरी होती है। उनका बैलेंस शीट सुधरता है। नेट प्रॉफिट बढ़ता है। बाजार में उनकी हिस्सेदारी बढ़ती है। लेकिन सरकार को किसान के हितों की अनदेखी करके कॉरपोरेट कंपनियों की पूंजी बढ़ाने में साझेदारी निभाने से बचना चाहिए। क्योंकि सरकार की अंतिम जवाबदेही आम जनता के प्रति बनती है न कि कॉरपोरेट कंपनियों के प्रति।

भारत सहित पूरी दुनिया में इंडोसल्फान कीटनाशी पर प्रतिबंध लगाए जाने को लेकर बवाल उठ खड़ा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय एक खंडपीठ ने 13 मई 2011 को जानलेवा कीटनाशी इंडोसल्फान के उत्पादन, बिक्री, इस्तेमाल और निर्यात पर पूरे देश में पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। मुख्य न्यायाधीश एस.एच कपाड़िया, न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार और न्यायाधीश के.एस.पी. राधाकृष्णन ने सुनवाई के दौरान कहा कि मनुष्य का स्वास्थ्य और पर्यावरण दुनिया में किसी भी अन्य बातों से सर्वोपरि है, इसलिए इंडोसल्फान के खतरे को देखते हुए इस पर आगामी आठ हफ्तों यानि मध्य जुलाई तक के लिए प्रतिबंध लगाया जाता है।

दरअसल, डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया (डीवाईएफआई-केरल विंग) द्वारा दायर की गई याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट का यह अहम फैसला सामने आया है। खंडपीठ का निर्देश है कि अगले आदेश तक इस विवादास्पद कीटनाशी के उत्पादकों को आवंटित किए गए लाइसेंस भी जब्त कर लिए जाएं। खंडपीठ ने अगले दो हफ्तों के दौरान दो समिति को इस कीटनाशी के मनुष्य जीवन और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर के अध्ययन की जिम्मेदारी सौंपी है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के महानिदेशक और कृषि आयुक्त इन समितियों के प्रमुख होंगे। खंडपीठ ने विशेषज्ञ समिति से अपनी अंतरिम रिपोर्ट में इंडोसल्फान के प्रतिकूल प्रभावों और उसके विकल्पों पर चर्चा करने का निर्देश दिया है।

विशेष समिति मुख्यतः इन तीनों बिंदुओं पर इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने, इसके मौजूदा स्टॉक को कई चरणों में समाप्त करने या इसके विकल्प क्या हो सकते हैं, पर चर्चा करेगी। समिति को अपनी रिपोर्ट इन्हीं आठ हफ्तों यानि मध्य जुलाई तक सौंपनी है। यहां कुछ सवालों पर गौर करना जरूरी होगा। इंडोसल्फान पर प्रतिबंध क्यों लगाया जाना चाहिए? इसका मानव जीवन और पर्यावरण पर क्या प्रतिकूल असर पड़ रहा है? क्या दूसरे कीटनाशी मानव जीवन और पर्यावरण के लिहाज से ठीक हैं? क्या इंडोसल्फान के विकल्प सुरक्षित हैं? इंडोसल्फान की भारतीय बाजार में कितनी हिस्सेदारी है? क्या उस हिस्सेदारी पर कब्जा करने की साजिश के तौर पर तो इस पर प्रतिबंध की बात नहीं की जा रही है?

ऐसे प्रतिबंधों का कोई मतलब नहीं?


सुप्रीम कोर्ट ने इस कीटनाशी पर आठ हफ्तों के लिए प्रतिबंध लगा दिया है। इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन सच यह है कि इस समय किसानों को कीटनाशी की जरूरत ही नहीं पड़ती है क्योंकि खरीफ सीजन की फसलों में कीड़ा लगना मध्य जुलाई के बाद ही शुरू होता है। अभी खरीफ सीजन शुरू ही नहीं हुआ है। सामान्यतः खरीफ सीजन के लिए बुवाई जून के पहले, दूसरे और कुछ राज्यों में अंतिम हफ्तें में शुरू हो पाती है।

ऐसे में जब फसल ही नहीं होगी तो कीड़ा कहां लगेगा? और जब कीड़ा ही नहीं होगा तो इंडोसल्फान की जरूरत कहां होगी? हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह प्रतिबंध मानव जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव को देखते हुए फौरी तौर पर लगाया है और दो समिति को इंडोसल्फान के प्रतिकूल असर के बारे विस्तार से रिपोर्ट आठ हफ्तों के भीतर देने को कहा है। संभव है कि रिपोर्ट के नतीजों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह प्रतिबंध लगा दे। लेकिन क्या इसके विकल्प के तौर पर जो कीटनाशी इस्तेमाल में लाए जाएंगे, वह मानव जीवन और पर्यावरण के लिए नुकसानदेह नहीं होंगे?

इंडोसल्फान का विकल्प बहुत महंगा है


भारत में इंडोसल्फान के निर्माण में लगी कंपनियां इस कीटनाशी को 200-250 रुपए प्रति लीटर उपलब्ध करा रही हैं। लेकिन इसके विकल्प के तौर पर जिन कीटनाशकों की पैरवी की जा रही है, उसकी कीमत 3200 रुपए प्रति लीटर है। क्या भारत सहित उन गरीब मुल्कों के किसान जहां इंडोसल्फान को उपयोग में लाया जा रहा है, इन महंगे विकल्पों की कीमत चुका पाएंगे? मेरा मानना है कि मानव जीवन और पर्यावरण के लिए नुकसानदेह किसी भी कीटनाशी पर प्रतिबंध जरूर लगाया जाना चाहिए। लेकिन साथ उसके विकल्प सस्ते और मानकों पर सही उतरने वाले होने चाहिए। अन्यथा, ऐसे प्रतिबंधों के पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की षडयंत्रों की संभावना नजर आने लगती है।

जल और जलचरों पर इसका दुष्प्रभाव


इंडोसल्फान के जोखिमों को देखते हुए कुल 87 देशों में प्रतिबंध लगाया जा चुका है। अमेरिका और यूरोपीय संघ में इस रसायन पर ही पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया है। कुछ देशों में धान की खेती में इसके इस्तेमाल पर रोक लगाया गया है तो कुछ देशों में दूसरे फसलों की खेती में। एक अनुमान के अनुसार, भारत में इसका कुल कारोबार 500 करोड़ रुपए से ज्यादा का है।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल हेल्थ (एनआईओएच) ने केरल के कासरगॉड जिले में आयोजित किए गए एक अध्ययन के आधार पर रिपोर्ट तैयार करके केंद्र सरकार को सौंपी थी। एनआईओएच की रिपोर्ट के अनुसार, कासरगॉड जिले में इंडोसल्फान के इस्तेमाल से बच्चों में मंदता, बौद्धिक पिछड़ापन, सुनने की दिक्कतें आदि की समस्याएं पैदा होने लगीं हैं। इसके अलावा कई अन्य अध्ययनों में यह पाया गया कि यह मानव जीवन और जलीय जीवन (खासकर मछलियों) पर नकारात्मक असर डालती है।

केरल में इस कीटनाशी की वजह से अब तक 400 से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं। मनुष्य और पशुओं में जन्म के समय विकलांगता या अन्य किस्म की दिक्कतें शुरू हो जाती है। इसका जहर कैंसर जैसे जानलेवा रोग को जन्म दे रहा है। पंजाब के भटिंडा, मानसा और फरीदकोट जिले में कैंसर के व्यापक प्रसार की वजहों में से रासायनिक कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल लाया जाना है। भटिंडा के पुहली गांव के किसान और पंजाबी के कथाकार बंत सिंह चट्टा का कहना है, ‘‘राजस्थान में बीकानेर के पास अबोहर में कैंसर अस्पताल के लिए एक स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही है, जिसे कैंसर ट्रेन के नाम से ही इस इलाके में पुकारा जाता है। पंजाब के खेतों में रासायनिक उर्वरक और रासायनिक कीटनाशी का प्रयोग बहुत ज्यादा चलन में है। यही वजह है कि यहां के खेत-खलिहान के साथ मनुष्य और पशुओं को बड़ी-बड़ी बीमारियां लग रही हैं। कैंसर, नंपुसकता जैसी बीमारियां यहां के लोगों को अपने गिरफ्त में ले रही हैं। इंडोसल्फान ही नहीं बल्कि सभी रासायनिक कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और जैविक खाद और जैविक कीटनाशी के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।’’

ऐसे प्रतिबंधों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बिजनेस बढ़ता है


दरअसल, इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने और उसकी जगह दूसरे रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग की बात जेनेवा सम्मेलन (25 अप्रैल 2011) में किए जाने के पीछे के उद्देश्यों को समझने की कोशिश होनी चाहिए। जैविक खाद और जैविक कीटनाशी के चलन को खत्म करके उसकी जगह रासायनिक खाद व उर्वरकों के उपयोग के जरिए सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियां खेती को उद्योग में तब्दील करना चाहती है।

खेती के जरिए जीवन जीने के लिए जरूरी फसलों को उगाने की बजाए बहुराष्ट्रीय कंपनियां नकदी फसलों के उत्पादन, उसमें सस्ते और आसानी से उपलब्ध खाद और कीड़ों को मारने के उपायों की जगह त्वरित असर के नाम पर रसायनों को बढ़ावा दे रही है। सरकार और कॉरपोरेट कंपनियां खेती को उद्योग में तब्दील कर देना चाहती है। यही वजह है कि भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में छोटे-छोटे जोतों को बड़े-बड़े फार्म में तब्दील करके नकदी फसल उगाने पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है।

दीगर बात यह है कि इस अंधाधुंध खेती से पूंजी कूटने के बढ़ रहे लालच से हमारे खेत कुछ सालों में बांझ या बंजर भूमि में बदल जा रहे हैं। हमारी पारंपरिक खेती में किसान और खेत के बीच में एक संवेदनशील रिश्ते होते थे लेकिन इस नई व्यवस्था से इन रिश्तों की चिंदी-चिंदी उड़ रही है। यही वजह है कि खेत से उसकी भौगोलिक परिस्थिति को आधार बनाकर फसल हासिल करने की जगह अब उससे ज्यादा-से-ज्यादा पूंजी दोहन करने की बात चल रही है। यही वजह है कि कम पानी वाले इलाके राजस्थान, पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में अधिक पानी वाली फसल चावल और गेहूं उपजाई जा रही है।

यह सब भूमि जल का बेतरबीत तरीके से दोहन करके, अत्यधिक रासायनिक उवर्रक और रासायनिक कीटनाशकों को इस्तेमाल में लाकर किया जा रहा है। क्योंकि रसायनों के बढ़ते चलन से कंपनियों के व्यापार में बढ़ोतरी होती है। उनका बैलेंस शीट सुधरता है। नेट प्रॉफिट बढ़ता है। बाजार में उनकी हिस्सेदारी बढ़ती है। लेकिन सरकार को किसान के हितों की अनदेखी करके कॉरपोरेट कंपनियों की पूंजी बढ़ाने में साझेदारी निभाने से बचना चाहिए। क्योंकि सरकार की अंतिम जवाबदेही आम जनता के प्रति बनती है न कि कॉरपोरेट कंपनियों के प्रति।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading