इंसानी गतिविधियों से बढ़ता जलवायु परिवर्तन का खतरा

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दुख इस बात का है कि दुनिया का कोई भी देश इस संकट की भयावहता को समझ नहीं रहा है। जहाँ तक विकसित देशों का सवाल है, वह इस मुद्दे पर स्वार्थवश मौन हैं। वे अपने यहाँ कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने को तैयार नहीं हैं। न ही वे विकासशील देशों को मदद देने को आगे आ रहे हैं।आज जीवनदायिनी प्रकृति और उसके द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख-संसाधनों की चाहत की अंधी दौड़ के चलते न केवल प्रदूषण बढ़ा है बल्कि अंधाधुंध प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है मानवीय स्वार्थ जो प्रदूषण का जनक है जिसने खुद मानव को भयंकर विपत्तियों के जाल में उलझाकर रख दिया है। उससे बाहर निकल पाना मानव के बूते के बाहर की बात है। अब यह साबित भी हो गया है कि जलवायु परिवर्तन और धरती के बढ़ते तापमान के लिए कोई और प्राकृतिक कारण नहीं बल्कि मानवीय गतिविधियाँ ही जिम्मेवार हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इसका खुलासा करते हुए कहा है कि अब खतरा बहुत बढ़ चुका है फिर भी स्थिति अभी नियन्त्रण से बाहर नहीं हुई है।

इस खतरे को कम करने के लिए ठोस कदम उठाये जाने की बेहद जरूरत है। उसके अनुसार सदी के अंत तक धरती के तापमान में 0.3 डिग्री से 4.8 डिग्री तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। इसकी अधिकतम सीमा उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा है। यही नहीं समुद्र का जल स्तर 10 से 32 इंच तक बढ़ सकता है। दुनिया में सूखे और बाढ़ की घटनाओं की पुनरावृत्ति तेज होगी। ग्लेशियरों से बर्फ के पिघलने की रफ्तार में बढ़ोत्तरी हुई है। नतीजतन 21वीं सदी में ग्लेशियरों का आकार और छोटा होता जायेगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि अब हालात पहले से और बदतर होते जा रहे हैं। साल 1951 से 2010 के बीच यानी पिछले 60 सालों के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण तापमान में 0.5 से 1.3 डिग्री की बढ़ोत्तरी हुई है। इस दौरान तीन दशक सबसे ज्यादा गर्म रहे और पिछले 1400 साल में उत्तरी गोलार्द्ध सबसे ज्यादा गर्म रहा है। दो दशकों के दौरान अंटार्कटिक और उत्तरी गोलार्द्ध के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है।

समुद्र के जलस्तर में 0.19 मीटर की औसत बढ़ोत्तरी हो रही है जो अब तक की सबसे अधिक बढ़ोत्तरी है। 08 लाख साल में हवा में कार्बन डाईऑक्साइड और नाइट्रोजन डाईआॅक्साइड की मात्रा में भी सर्वाधिक बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है जिसकी अहम वजह खनिज तेल का इस्तेमाल और जमीन का दूसरे कामों में इस्तेमाल होना है। कैलीफोर्निया, ब्रिस्टल और यूट्रेक्ट यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपनी शोध रिपोर्ट में इस बात को साबित किया है कि अंटार्कटिका में हिमखण्ड का वो हिस्सा तेजी से पिघल रहा है जो पानी के अंदर है। कुछ इलाकों में तो 90 फीसदी तक जलमग्न बर्फ पिघल रही है। अपने अध्ययन में उपग्रह और जलवायु माॅडलों के आँकड़ों के जरिये शोधकर्ताओं ने यह साबित किया है कि पूरे अंटार्कटिक और खासकर इसके कुछ हिस्सों पर हिमखण्डों के पिघलने का बर्फ के बनने जितना ही प्रभाव पड़ रहा है। हिमशैलों के बनने और पिघलने से हर साल 2.800 घनकिलोमीटर बर्फ अंटार्कटिक की बर्फीली चादर से दूर जा रही है। इसमें से ज्यादातर हिमपात के कारण प्रतिस्थापित हो रही हैं। इससे इसकी प्रबल सम्भावना है कि किसी भी तरह के असन्तुलन से वैश्विक स्तर पर समुद्री सतह पर बदलाव ज़रुर होगा।

यह ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है कि आर्कटिक सागर बढ़ रहा है। यही नहीं तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। नतीजन पिछले सालों में यूरोप, भारत व चीन सहित एशिया में रिकार्ड से ज्यादा सर्दी पड़ी और बर्फबारी हुई है। साथ ही उत्तरी ध्रुव से चलने वाली ठंडी हवाओं की तीव्रता भी काफी बढ़ी है। दरअसल आर्कटिक सागर के उपर गर्म हवाओं की वजह से वाष्पीकरण तेज हो गया है और वायुमंडल में नमी बढ़ गई है। इसका प्रभाव धरती के अलग-अलग हिस्सों में तेज बारिश और चक्रवाती तूफान के रूप में देखने को मिल रहा है। इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। फिलीपींस में आए हेयान जैसे महातूफान इसी का नतीजा है। यूनीवर्सिटी आॅफ मेलबर्न में अर्थसाइंस के प्रोफेसर केविन वाॅल्श की मानें तो तापमान में बदलाव का ही नतीजा है कि दुनिया में चक्रवाती तूफानों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। तापमान बढ़ने से समुद्र के तापमान में भी इजाफा हुआ है।

यही नहीं समुद्र की सतह भी बढ़ रही है। इससे खासतौर से लम्बी समुद्री तट-रेखा वाले देशों की मुश्किलें बढ़ी हैं। यूनीवर्सिटी कालेज आॅफ लंदन और ब्रिटिश ओशनग्राफी सेन्टर के वैज्ञानिकों ने कहा है कि उत्तरी ध्रुव यानी आर्कटिक पर ताजे पानी की एक झील बन गई है। यह समुद्र से उठने वाली धाराओं को प्रभावित कर रही है। 1995 से 2010 तक की सेटेलाइट तस्वीरों के अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि पश्चिमी आर्कटिक समुद्र की सतह 2002 के बाद 15 सेंटीमीटर यानी करीब 8000 क्यूबिक मिलीमीटर बढ़ी है। यही नहीं आर्कटिक क्षेत्र में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण वहाँ की वनस्पति में भी जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। वहाँ पर हमेशा से पनपने वाली छोटी झाड़ियों का कद पिछले कुछ दशकों से पेड़ के आकार का हो गया है। टुंड्रा के फिनलैंड और पश्चिमी साइबेरिया के बीच करीब दस से पन्द्रह फीसदी भूमि पर 6.6 फीट से भी ऊँची पेड़ के आकार की नई झाड़ियाँ उग आई हैं। टुंड्रा के इस इलाके में तापमान बदलाव की यह तो बानगी भर है। बाकी इलाकों का क्या हाल है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।

ग्लोबल वार्मिंग प्रकृति को तो नुकसान पहुँचा ही रही है, वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से मानव का कद भी छोटा हो सकता है। फ्लोरिडा और नेब्रास्का यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने नए शोध के आधार पर इसको साबित किया है। उत्तर भारत में गेहूॅं उपजाने वाले प्रमुख इलाकों में किए गए स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड बी लोबेल और एडम सिब्ली व अन्र्तराष्ट्रीय मक्का व गेहूँ उन्नयन केन्द्र के जे. इवान ओर्टिज मोनेस्टेरियो के मुताबिक तापमान में एक डिग्री की बढ़ोत्तरी गेहूॅं की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। तात्पर्य यह कि बढ़ता तापमान आपकी रोटी भी निगल सकता है। तापमान में बढ़ोत्तरी का दुष्परिणाम समुद्री पानी के लगातार तेजाबी होते जाने के रूप में सामने आया है।

.विश्व में समुद्रों के भविष्य को लेकर वैज्ञानिक चिंतित हैं। नए शोध के मुताबिक अगर समुद्रों का पानी लगातार एसिडिक या अम्लीय होता रहा तो पानी में रहने वाली तकरीबन 30 फीसदी प्रजातियाँ सदी के अंत तक लुप्त हो सकती हैं। दरअसल ईंधन के जलने से वातावरण में जितनी भी कार्बन डाईआॅक्साइड उत्सर्जित होती है, उसका ज्यादातर हिस्सा समुद्र सोख लेते हैं। यही वजह है कि समुद्र का पानी एसिडिक होता जा रहा है। नतीजन काॅरल या मूँगा की परतें इससे छिलती जा रही हैं और अन्य प्रजातियों को भी नुकसान हो रहा है। यदि वातावरण में ऐसे ही कार्बन डाईआॅक्साइड का उत्सर्जन होता रहा तो हालात और बिगड़ जायेंगे, उन हालात में समुद्रों का क्या हाल होगा, इस ओर कोई नहीं सोच रहा। वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि समुद्री पानी में जिस तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं, वह इतिहास में अप्रत्याशित है। उन्होंने चेतावनी दी है कि इस नुकसान की भरपायी में हजारों-लाखों साल लग जायेंगे। दरअसल जलवायु परिवर्तन कहें या तापमान में बदलाव एक बहुत बड़े खतरे का संकेत है।

दुख इस बात का है कि दुनिया का कोई भी देश इस संकट की भयावहता को समझ नहीं रहा है। जहाँ तक विकसित देशों का सवाल है, वह इस मुद्दे पर स्वार्थवश मौन हैं। वे अपने यहाँ कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने को तैयार नहीं हैं। न ही वे विकासशील देशों को मदद देने को आगे आ रहे हैं। वे 2020 तक के अपने लक्ष्य को भी घोषित नहीं करना चाहते लेकिन वे यह चाहते हैं कि विकासशील देश यह बतायें कि 2020 के बाद उत्सर्जन में कमी लाने के उनके लक्ष्य क्या हैं। उनका एकमात्र मकसद विकासशील देशों पर उत्सर्जन में कमी लाने का दबाव बनाना है कि येन-केन प्रकारेण विकासशील देश इस पर सहमत हो जायें।

वारसा बैठक में भी उनका इस मुद्दे पर अड़ियल रुख इस बात का सबूत है कि अब वे दोहा बैठक में तय हरसाल ग्रीन क्लाईमेट फंड हेतु सौ अरब डालर की राशि देने का वायदा करने के बावजूद उस पर अमल के इच्छुक नहीं हैं। गौरतलब है कि इस बैठक में विकसित देशों को साल 2020 तक सौ अरब डालर की राशि हर साल देनी तय हुई थी जिससे अब वे पीछे हट रहे हैं। इस राशि का इस्तेमाल गरीब एवं विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ने की योजनाएँ बनाने और तकनीक को विकसित करने के लिए किया जाना था। लेकिन वारसा वार्ता में इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सका।

यह भी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ने की योजनाओं के क्रियान्वयन में देरी का एक अहम कारण है। इसके अलावा वारसा बैठक में 2015 के जलवायु परिवर्तन समझौते को लेकर एक समय सीमा के निर्धारण पर सहमति बनाने और दोहा जलवायु वार्ता में बनी सहमति के अनुसार नुकसान और क्षति के लिए एक तंत्र को संस्थागत रूप देना भी अहम मुद्दा था। वह भी अनसुलझा ही रहा। असलियत यह है कि इस मुद्दे पर विकसित देशों की नीयत ही साफ नहीं है। इसी वजह से वह ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने की बाध्यता के सवाल को टाल जाते हैं। इसमें कितना समय लगेगा, यह भविष्य के गर्भ में है। ऐसे हालात में जलवायु परिवर्तन के खतरों से लड़ने की आशा ही व्यर्थ है।

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