इटावा जनपद का भौतिक वातावरण (Physical environment of Etawah district)
अवस्थिति एवं सीमा :
भूगर्भिक संरचना :
“Geological setting plays a very decisive role in the ground water possibilities in the terrain”
अर्थात किसी प्रदेश में भौम जल संसाधनों की गुत्थी खोलने में उसकी भू-वैज्ञानिक संरचना बहुत ही निर्णायक भूमिका निर्वाह करती है। भौम जल की प्राप्ति और वितरण भू-वैज्ञानिक संरचना पर निर्भर है, जैसे - सी. दक्षिणामूर्ति का कथन है-
“The occurance and distribution of ground water depend upon characterstics of the under ground water formation”
.इस प्रकार भौमजल का विस्तृत एवं गहन अध्ययन किसी भी क्षेत्र की भू-वैज्ञानिक संरचना पर पूर्णरूपेण निर्भर करता है।
“The study of ground water depend upon the detailed three dimensional knowledge of the zoological distribution system plus the knowledge of how it react to these zoological Materials both physical and chemically.”
अत: इटावा जनपद में भौम जल की प्राप्ति, वितरण और उसकी मात्रा का अनुमान लगाने एवं भौम जल कटिबंध निर्धारण की दृष्टि से यहाँ की भू-वैज्ञानिक संरचना का अध्ययन बड़े पैमाने पर भूमिगत जल की संभावनाओं की खोज के लिये आवश्यक है, जिससे इसका प्रयोग न केवल सिंचाई के लिये वरन घरेलू जलापूर्ति में भी किया जा सके। अध्ययन क्षेत्र जलोढ़ मृदा द्वारा निर्मित गंगा-यमुना दोआब में स्थित है, इसकी भौमकीय संरचना नूतन कल्प की सरिताकृत प्रक्रिया की देन है। क्षैतिज स्तरीय जलोढ़ की भूगर्भिक संरचना जो कि इस क्षेत्र की समतलीय धरातल के साथ समानुकूलित एवं सरल है। अवसादी जमाव की प्रक्रिया अनवरत चल रही है। जलोढ़ की मोटाई के नीचे का चट्टानी तल लगभग 1600 मीटर है।
आश्मिकी के आधार पर इस जनपद में धरातल से नीचे स्थित अवसादों में बालू जलधाराओं द्वारा संचारित रेत एवं चिकनी मिट्टी और कुछ स्थानों पर चिकने कंकड़ मिलते हैं। अध्ययन क्षेत्र में कंकड़ अहनैया नदी के समीप, धरातल के नीचे, 2 मीटर की गहराई पर ग्रंथिकी एवं खंड रूपों में पाये जाते हैं, वहीं भूर क्षेत्र में बिछुआ कंकड़ कहलाते हैं, जो बड़े ग्रंथिकी आकार के होते हैं। कंकड़ खड्ड क्षेत्र में स्थित है, उनको ‘‘बीहड़’’ एवं ‘‘झरना’’ नाम से जाना जाता है।
जनपद के जलोढ़ निक्षेप को 2 भागों में बांट सकते हैं- पुरातन जलोढ़ एवं नवीन जलोढ़। पुरातन जलोढ़ को ‘‘बांगर’’ कहते हैं जो मध्य प्लीस्टोसीन युग के समतुल्य है। जनपद का उत्तरी भाग भी नवीन जलोढ़ से निर्मित है।
सामान्यत: नवीन जलोढ़ का निर्माण नदियों द्वारा पुरातन जलोढ़ को अपरदित करके हुआ है। प्रतिवर्ष सूक्ष्म कणों से युक्त पदार्थों, सरिताओं एवं बहते हुये जल द्वारा निक्षेपित किया जाता है।
किसी भी क्षेत्र में वहाँ की भूगर्भिक संरचना, आश्मिकी एवं ढाल के अनुसार धरातल का स्वरूप निर्धारित होता है। धरातलीय बनावट के अनुसार इटावा जनपद का लगभग संपूर्ण क्षेत्र यद्यपि मैदानी भाग है फिर भी नियतवाही चंबल एवं यमुना नदियों ने अपने जलीय कार्यों से कुछ क्षेत्रीय विभिन्नतायें उत्पन्न कर दी हैं। इसके किनारों पर बाढ़ के मैदान, प्राकृतिक तटबंध, कटे-फटे कगार, बीहड़ भूमि आदि निर्मित हुई है। बांगर क्षेत्र वे ऊँचे भाग हैं, जहाँ वर्तमान समय में नदियों द्वारा नवीन कांप मिट्टी का निक्षेपण नहीं हो पाता जबकि खादर मिट्टी वाला वह क्षेत्र है जहाँ 2-3 वर्षों में नदियाँ नवीन कांप मिट्टी का निक्षेपण करती रहती हैं, उन्हें ‘‘कछार’’ के नाम से संबोधित किया जाता है। जनपद का दक्षिणी भू-भाग जो यमुना पार क्षेत्र कहलाता है, समतल नहीं है, क्योंकि इस क्षेत्र में चंबल एवं यमुना नदियों के सहारे गहरे खड्डे एवं बीहड़ (मुख्य धारा से 4 से 6 किलोमीटर) क्षेत्र विकसित हो गया है। अध्ययन क्षेत्र का सामान्य ढाल उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पश्चिम की ओर है। उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र की समुद्री सतह की ऊँचाई 144 से 155 मीटर के मध्य है। जबकि मध्यवर्ती भू-भाग की ऊँचाई 138 से 144 मीटर के मध्य एवं दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र की ऊँचाई 132 से 138 मीटर के मध्य है।
भौतिक प्रदेश :
1. पचार :
जो सेंगर नदी के उत्तर, उत्तर-पूर्व में है।
2. घार :
सेंगर यमुना दोआब के मध्य का क्षेत्र है।
3. करका :
यमुना बीहड़ क्षेत्र है।
4. पार क्षेत्र :
1. पचार :
यह भौतिक भाग जनपद इटावा की प्रमुख नदी सेंगर के उत्तर एवं उत्तर-पूर्व में स्थित है। भरथना, ताखा विकासखंड एवं बसरेहर विकासखंड का उत्तरी भाग पचार क्षेत्र के अंतर्गत आता है। यह उपजाऊ समतल मैदान नदियों द्वारा लाई गयी जलोढ़ मिट्टी से बना है। इस क्षेत्र में सिंचाई सुविधाओं का काफी विकास हुआ है। चावल एवं गेहूँ इस क्षेत्र की प्रमुख फसलें हैं। गन्ना, मक्का, आलू एवं सब्जियों की कृषि भी अच्छे ढंग से की जाती है। पचार क्षेत्र में यातायात की सुविधाओं का अधिक विकास हुआ है। इसी क्षेत्र के मध्य भाग से बड़ी रेलवे लाइन गुजरती है। भरथना इस क्षेत्र की प्रमुख अनाज मंडी है। इस क्षेत्र की जनसंख्या सघन है, जिसका कारण सिंचाई का उत्तम विकास, यातायात के साधनों की सुलभता, क्षेत्रीय सुरक्षा आदि है।
यह दोआब (गंगा-यमुना) मूलत: बांगर (पुरातन जलोढ़) का एक अंग है। पुरहा नदी थोड़ा बहुत विसर्प बनाती है। मैदानी भाग मंद ढाल के कारण संपूर्ण क्षेत्र में टीले एवं बीहड़ का अभाव है। यह समतल भूमि कहीं-कहीं बालू के कंकड़ों की उपस्थिति में असमान हो गई है।
2. घार :
इस भाग के अंतर्गत सेंगर-यमुना नदियों के मध्य का क्षेत्र आता है। इस क्षेत्र को ‘‘घार’’ के नाम से जानते हैं। घार सबसे उपजाऊ क्षेत्र है। यह क्षेत्र लगभग मैदानी भाग है। कहीं-कहीं बीच-बीच में ऊसर भूमि भी विकसित हो गई है। महेवा विकासखंड में कहीं-कहीं पर ऊँची भूमि भी दिखाई देती है। ये बलुई मिट्टी के टीले हैं। जिसे ‘भुर’ भी कहते हैं। इस मैदान में सेंगर नदी विसर्पाकार बहती है। इस क्षेत्र में नहरों एवं नलकूपों का अधिक विकास हुआ है। उपजाऊ मिट्टी एवं सिंचाई सुविधाओं की उत्तम व्यवस्था के कारण कृषि के लिये महत्त्वपूर्ण है। घार क्षेत्र के दक्षिणी भाग से ‘भोगिनीपुर’ नहर शाखा निकलती है जो इटावा एवं लखना के मध्य से गुजरती हुई औरैया जनपद में चली जाती है। इस क्षेत्र में परिवहन के साधनों का अधिक विकास हुआ है। नेशनल हाइवे-2 इस मैदान के मध्य से गुजरता है। सिंचाई एवं परिवहन की अच्छी सुविधाओं के कारण सघन आबादी देखने को मिलती है।
3. करका :
घार क्षेत्र के दक्षिण में यमुना नदी के सहारे-सहारे उच्च भूमि बीहड़ का क्षेत्र है। यह तीसरा भौतिक भाग है जो ‘करका’ अथवा ‘बीहड़’ के नाम से जाना जाता है। यमुना नदी के कारण बीहड़ अधिकतर कटा-फटा (नालीदार) एवं अपरदित है तथा इन क्षेत्रों में 30 से 60 मीटर तक गहरे खड्डों का निर्माण हो चुका है। प्राचीन काल में यह क्षेत्र भी मैदानी भाग था, भू-कटाव के कारण सैकड़ों वर्षों की अपरदन क्रिया के फलस्वरूप आज यह क्षेत्र खड्डे भूमि के रूप में देखने को मिलता है। इस क्षेत्र में भूमि कटाव के कारण उर्वरा शक्ति कम होती जा रही है। खेत अतिप्रवाहित एवं असमतल वाले हैं, नालिकायें प्रतिवर्ष गहरी, चौड़ी और विस्तृत होती जा रही हैं। ऊँचे-नीचे धरातल में अति प्रवाह के कारण सर्वथा नमी की कमी महसूस की जाती है। जल तल की गहराई 30 मीटर से अधिक है। कुएँ कम एवं दूर-दूर हैं, जिन्हें आकस्मिक रूप से सिंचाई के लिये प्रयोग किया जाता है। जनपद के इसी क्षेत्र में प्राकृतिक वन फैले हुये हैं। इस क्षेत्र की मिट्टी भी घार से मिलती-जुलती है। यमुना के किनारे-किनारे बाढ़ क्षेत्र आता है जहाँ पर नवीन कांप मिट्टी का जमाव दृष्टिगोचर होता है जिसे ‘तीर’ शब्द से संबोधित करते हैं।
4. पार क्षेत्र :
यमुना पार क्षेत्र पहले ‘जनवृस्त’ क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। इस भाग के अंतर्गत यमुना एवं चंबल का मध्य भाग एवं पार का क्षेत्र सम्मिलित है। पार क्षेत्र में पूर्व की ओर जहाँ नदियों के बीच का भाग बहुत संकरा है, बीहड़ एक-दूसरे से मिल गया है और किसी प्रकार की भूमि समतल नहीं बची है। जबकि इस क्षेत्र के पश्चिम की ओर उपजाऊ दोमट मिट्टी से निर्मित एक उच्च भूमि चौड़ाई लगभग 5 से 6 किलो मीटर निर्मित हो गई है। नदियों की निम्न भूमि जिसे स्थानीय बोली में ‘कछार’ के नाम से जाना जाता है। वास्तव में यह जलधाराओं द्वारा निर्मित बाढ़ के मैदान हैं। यह उच्च भूमि खड्ड प्रदेश में नालिकाओं एवं गिरिकाओं द्वारा पृथक होते हैं। खेत प्रतिवर्ष वर्षा के दिनों में चंबल एवं क्वारी नदियों द्वारा आकस्मिक अप्लावित रहते हैं। कभी-कभी यह क्रिया भूमि के उपजाऊ टुकड़ों को नालिकाओं और कभी-कभी उपजाऊ जलोढ़ निक्षेप में बदल देती है। नमी की बहुलता, ऊँचा धरातल कछार की प्रमुख विशेषता है। इस क्षेत्र में 3 से 4 मीटर गहरे कुएँ खोदकर सुविधापूर्वक जल प्राप्त किया जा सकता है। यमुना नदी के कछार क्षेत्र में उत्स्रुत कूप मुख्य दृश्य हैं। पार क्षेत्र में ‘गौहानी’ के कछार में इस प्रकार के उत्स्रुत कूप मिलते हैं। इन कुओं को एक बार खोदने के बाद पानी नियमित रूप से बाहर निकलता रहता है। सर्वेक्षण के समय यह भी देखा गया कि कुएँ धरातल से 7 मीटर की ऊँचाई तक जल फेंकते हैं किंतु कृषि योग्य भूमि के अभाव में अथवा यमुना नदी के कटाव के कारण इनका निरंतर पूर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है।
खड्ड कटिबंध की कछार भूमि में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्नता मिलता है। चंबल नदी के कछार का महत्त्व क्वारी नदी के कछार से अधिक है। प्रथम में दूसरी की अपेक्षा तलछट जमाव का बाहुल्य रहता है। परिणामस्वरूप उत्पादन में भिन्नता मिलती हैं। उत्पादकता की दृष्टि से इसकी उचित देखभाल की व्यवस्था नहीं है। साधारणत: ये बस्तियों से दूर हैं। जहाँ विशेषकर वर्षा ऋतु में पहुँचना कठिन है। चंबल एवं यमुना के बीच में एक सकरी समतल पट्टी है जिसमें कृषि की जाती है।
अपवाह तंत्र :
मिट्टियाँ :
प्राकृतिक संसाधनों में मृदा भी मनुष्य के लिये बहुमूल्य संसाधन है, जिसमें वह सदियों से जीविका हेतु खेती करता आ रहा है लेकिन कृषि में जितना महत्त्व मृदा का है, उतना ही महत्त्व जल का है। वस्तुत: मृदा एवं जल में अटूट संबंध है। समस्त पौधों का जीवन मिट्टी द्वारा प्राप्त जल पर निर्भर है। मिट्टी का अध्ययन केवल कृषि के लिये ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, वरन भौमिक जल की दशा एवं रचना के अध्ययन में भी सहायक है। जैसा कि हम जानते हैं कि भौमिक जल के पुनर्भरण का जलस्रोत वर्षा है किंतु मिट्टी का आवरण यह निर्धारित करता है कि जितना जल रेचिक भौमिक जल भंडार के पुनर्भरण हेतु मिट्टी में प्रवेश करता है। उसकी स्यंदन क्षमता मिट्टी के गठन, मोटाई एवं सघनता की मात्रा पर निर्भर होती है। धरातलीय प्रवाह केवल उस समय होता है जब वर्षा की तीव्रता भूमि की अन्त:स्यंदन क्षमता से अधिक होती है। यथा- क्ले मिट्टी की संरचना अनेक सूक्ष्म कनों से होती है तथा अधिक अंतराली जल रखते हुये कम अन्त:स्यंदन क्षमता पाई जाती है। जबकि शुष्क बलुई मिट्टी अधिक मात्रा में जल को शोषित तथा पास करेगी।
वर्तमान अध्ययन में पेयजल आपूर्ति के संबंध में मिट्टी की विशेषताओं के महत्त्व का अध्ययन करना आवश्यक है। भौतिक गुण यथ- रचना, संरध्रता, पारगम्यता और विशिष्ट लब्धि जल की भूमिका एवं बहि:स्रावी निस्यंदन की प्रकृति निर्धारित करता है। मिट्टी के रासायनिक गुण, जल के गुणों को (विशेषतया पेयजल उद्देश्यों हेतु जल को) प्रभावित करते हैं।इस जनपद की मिट्टी का वैज्ञानिक अध्ययन कानपुर में स्थित
‘चन्द्रशेखर आजाद यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एण्ड टेक्नोलॉजी’
के मृदा सर्वेक्षण संगठन के द्वारा किया गया है। उसके द्वारा किये गये वर्गीकरण को ही यहाँ पर दर्शाया गया है।
नवीन कांप (टाइप-1) :
सेंगर फ्लैक्ट्स लवणीय :
सेंगर फ्लैट्स लवणीय (टाइप-2) :
यमुना उच्च भूमि बलुई (टाइप-3 ए) :
यमुना उच्च भूमि लोमी (टाइप-3 बी) :
यमुना निचली भूमि (टाइप-4) :
यमुना मिश्रित जलोढ़ भूमि :
वनस्पति :
“The pressure of dense regetative cover over a soil increases the infilteration capacity of the soil to a considerable extent”
. सघन वनस्पति का मिट्टी के ऊपर आवरण मिट्टी की अन्त:स्यंदन क्षमता को बढ़ा देता है, जिससे भौम जल भंडारों में वृद्धि होती है।
वनस्पति की वृद्धि के साथ जल संसाधनों की वृद्धि से वनस्पति की अभिवृद्धि होती है। वन, वर्षा प्रादेशिक जल निकास मृदा नमी पर प्रभाव डालते हैं। ये तापक्रम की कठोरता में कमी, वायुमंडलीय आर्द्रता में वृद्धि, जल तल को ऊँचा रखने में सहयोग तथा जल प्रवाह की मात्रा के निर्धारण में योग देते हैं। कृषि रहित क्षेत्रों में वर्षा जल एवं भौम जल का उपयोग प्राकृतिक वनस्पति करती है। जो मानव के लिये अनेक प्रकार से उपयोगी होकर अप्रत्यक्ष रूप से जल संसाधन के उपयोग का माध्यम है।
संसार में जल एवं जीव का घनिष्ट संबंध है। इस संदर्भ में निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं :
“Organic life very likely originated in water of prehistoric seas, many form of plants and animals have long migrated to the land, but their physiology is still inextricably connected with water. There are not exceptions and the water available for there growth determines in large measure, where tree can grow what kind can grow and how they can grow?”
उनके विकास के लिये जो जल प्राप्त है, वह उनकी सीमा निर्धारित करता है। अर्थात इससे ज्ञात होता है कि कहाँ पेड़-पौधे उगाये जा सकते हैं? किस प्रकार के उगाये जा सकते हैं और कितने बड़े उगाये जा सकते हैं? इस प्रकार जल और वनस्पति का एक दूसरे से घनिष्ट संबंध है। वनस्पति की प्रचुरता जल की प्रचुरता पर तथा वनस्पति की न्यूनता जल की न्यूनता पर निर्भर करती है। अत: किसी क्षेत्र में वनस्पति के अवलोकन मात्र से वहाँ के जल संसाधनों का आभास होने लगता है। भू-सतह पर वनों का वितरण जल प्राप्ति से निर्धारित किया जा सकता है।
“The distribution of vegetation over the surface of the earth in controlled more by the availability of water than any other single factors. Almost every plant process in affected directly or indirectly by the water’s supply.”
भारत में केवल 19.2 प्रतिशत क्षेत्र पर वन पाये जाते हैं। उत्तर प्रदेश में 7.15 प्रतिशत वन क्षेत्र की तुलना में जनपद इटावा में कुल क्षेत्रफल के 14.67 प्रतिशत क्षेत्र पर वन पाये जाते हैं। अध्ययन क्षेत्र में वनों का वितरण असमान है। चकरनगर विकासखंड में अधिकतम 32.04 प्रतिशत, भरथना विकासखंड में न्यूनतम 6.39 प्रतिशत भाग पर वन पाये जाते हैं। मानचित्र सं. 2.7 से स्पष्ट है कि वन प्राय: यमुना-चंबल नदियों के तटों के निकट बीहड़ में पाये जाते हैं। जनपद के उत्तरी एवं उत्तरी-पूर्वी भाग में कृषि योग्य भूमि का विकास होने से वन क्षेत्र कम है। बढ़पुरा विकासखंड में वन क्षेत्र 23.14 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर है। इन दोनों विकासखंडों का यदि योग कर दिया जाये तो लगभग 55 प्रतिशत से अधिक हो जाता है। अर्थात समस्त वन क्षेत्र के आधे से अधिक भाग इन दोनों विकासखंडों में केंद्रित है। इसका प्रमुख कारण इन विकासखंडों के मध्य यमुना एवं चंबल नदियों का गुजरना है। जनपद में 36054 हेक्टेयर भूमि वन क्षेत्र के अंतर्गत है।
यदि समग्र तालिका पर दृष्टिपात करें तो पाया जाता है कि अपने समस्त प्रतिवेदित क्षेत्र के 10 प्रतिशत अथवा उससे अधिक वन क्षेत्र वाले विकासखंड यमुना एवं चंबल नदियों के मध्य पड़ते हैं। उनकी भूमि ऊबड़-खाबड़ है जिसके कारण वहाँ अधिक वन क्षेत्र पाया जाना स्वाभाविक है। इन वन क्षेत्रों में वनोपज के रूप में बेर, बबूल, बांस, शीशम एवं बिलायती बबूल इत्यादि बहुतायत मात्रा में हैं। इसके अतिरिक्त महेवा एवं जसवंत नगर का कुछ भाग यमुना नदी के किनारे स्थित है। अत: इन विकासखंडों में भी वन क्षेत्र का प्रतिशत 10 प्रतिशत से अधिक है।
ये वन विभिन्न प्रकार की व्यापारिक लकड़ी, घास-फूस तथा अन्य कीमती उत्पादों को प्रदान करते हैं। इटावा वन विभाग के अनुसार जल स्तर उन स्थानों पर नीचा हो गया है जहाँ वन आवरण समाप्त कर दिये गये हैं और सूखा पड़ जाता है। विभिन्न प्रकार के वन, मिट्टी की नमी, जल रिसाव दर कायम रखते हैं और अंतत: जल भंडार को समृद्ध करते हैं।
जलवायु कारक :
तापमान :
वायुदाब, हवा, आर्द्रता :
वर्षण :
वर्षा का स्थानिक तथा कालिक वितरण :
वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन :
सांस्कृतिक वातावरण
जनसंख्या वृद्धि :
सृष्टि का आदि और अंत जल से होता है। प्रत्येक प्राणी के जीवित रहने के लिये प्राथमिक आवश्यकता जल की होती है। इसलिये जहाँ कहीं नाम मात्र को भी जल पाया जाता है या जल मिलने की संभावना मात्र है, मनुष्य उन्हीं स्थानों पर कुआँ खोदकर अथवा बांध बनाकर अपनी जल संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर लेता है। मानव इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव सभ्यता का विकास जल स्रोतों के निकट हुआ है जिन स्थानों में जल पर अधिक नियंत्रण किया जा सकता है, वहीं जनसंख्या केंद्रित हो जाती है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ जैसे-जैसे जनसंख्या में वृद्धि होती गई वैसे ही मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जल संसाधनों का भी विकास होता गया।
तालिका सं. 2.6 से स्पष्ट है कि जनपद में जनसंख्या वृद्धि की दो अवस्थायें पाई जाती हैं। प्रथम 1901 से लेकर 1921 की अवधि में जनसंख्या में निरंतर ह्रास हुआ है। इसके साथ ही जल संसाधन की प्रगति भी धीमी हुई है। जिसका स्पष्ट उदाहरण सिंचाई साधनों के प्रक्षेत्र का कम होना है। सन 1901 में जनपद की कुल जनसंख्या 806806 थी। सन 1921 में जनसंख्या घटकर 760128 हो गई। इस अवधि में जनसंख्या में ह्रास दो कारणों से हुआ। प्रथम प्राकृतिक और द्वितीय राजनैतिक। प्राकृतिक कारणों से यहाँ विभिन्न प्रकार की महामारियाँ जैसे- हैजा, मलेरिया, इन्फ्लूएन्जा आदि का प्रकोप रहा है। साथ ही जलाभाव के कारण यह क्षेत्र बहुत समय तक अकालग्रस्त भी रहा है। फलस्वरूप जन्म दर की तुलना में मृत्यु दर अधिक रही है। राजनैतिक कारणों में प्रमुख रूप से प्रथम विश्व युद्ध है।
नोट :
2001 की सूचनायें जनपद की 2005 की भौगोलिक सीमा पर आधारित हैं।
द्वितीय अवस्था जनपद में 1921 से लेकर 2001 तक पाई जाती है। यद्यपि 1901 की तुलना में 1921 में जनसंख्या घटी है। तथापि 1921 के बाद से द्वितीय अवस्था का प्रारंभ हुआ है। इस अवस्था में जनपद में उत्पादन वृद्धि, यातायात के साधनों का विकास एवं बीमारियों पर नियंत्रण की सुविधा प्राप्त हो जाने से जनसंख्या में तीव्रता के साथ नियमित वृद्धि हुई है। 1921 से 1931 एवं 1941 के मध्य जनसंख्या की वृद्धि तेजी से हुई है। 1941 से 1951 के मध्य जनसंख्या में वृद्धि की दर काफी मंद रही क्योंकि इस समय वर्ष 1950 में गर्मियों के महीनों में हैजा महामारी प्रकोप ने जनांककीय गति को अपनी पुरानी स्थिति में वापस ला दिया। वर्ष 1951 के पश्चात जनसंख्या में तेजी से वृद्धि दर क्रमश: 23.0, 20.0, 22.0 तथा 11.1 प्रतिशत थी। शोधार्थी ने 1991-2001 के दशक के विकासखंड वार जनसंख्या वृद्धि के आंकड़े अभिकलित किये हैं, जो निम्न तालिका में दर्शाये गये हैं।
तालिका क्र.सं. 2.7 दर्शाती है कि सबसे अधिक जनसंख्या वृद्धि दर विकासखंड बसरेहर में 31.7 प्रतिशत रही है। भर्थना एवं ताखा विकासखंडों में क्रमश: 23.32 एवं 22.39 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि दर रही है। निम्न जनसंख्या वृद्धि दर (20 प्रतिशत से कम) के अंतर्गत जसवंत नगर, बढ़पुरा, सैफई, चकरनगर एवं महेवा हैं, जिनकी वृद्धि दर क्रमश: 18.5, 14.8 एवं 9.1 प्रतिशत है।
जनसंख्या घनत्व :
जनपद में जनसंख्या के घनत्व का अध्ययन करते समय यह तथ्य सामने आता है कि जनपद के पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम भाग में (सैफई विकासखंड को छोड़कर) प्राकृतिक जल संसाधनों पर जनसंख्या का भार बहुत अधिक है। समतल मैदानी भाग एवं यातायात की उत्तम व्यवस्था, सिंचाई सुविधाओं का पूर्ण विकास होने से जनसंख्या घनत्व अधिक है। जबकि दक्षिण एवं दक्षिणी-पूर्वी भाग में जनसंख्या का घनत्व कम देखने को मिलता है।
जनपद में जनसंख्या का गणितीय घनत्व काफी कम है। जनसंख्या का वितरण पक्ष जनसंख्या के घनत्व से अपृथक है जो जनसंख्या संकेंद्रण की स्थिति के मूल्यांकन हेतु मात्रात्मक उपकरण के रूप में प्रयोग किया जाता है। 2001 में जनपद की जनसंख्या का घनत्व उत्तर प्रदेश में 690 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर तथा भारत में 324 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर की तुलना में 494.89 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हैं। जनसंख्या का वितरण पक्ष जनसंख्या के घनत्व से अपृथक है जो जनसंख्या संकेन्द्रण की स्थिति के मूल्यांकन हेतु मात्रात्मक उपकरण के रूप में प्रयोग किया जाता है। तालिका संख्या 2.8 में विकासखंड वार गणितीय जनसंख्या घनत्व प्रदर्शित किया गया है।
जनपद के ग्रामीण जनसंख्या का घनत्व 381.01 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। चकरनगर विकासखंड का जनसंख्या का घनत्व सबसे कम 143.48 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। जबकि इसकी तुलना में बसरेहर विकासखंड का जनसंख्या घनत्व सर्वाधिक 688.69 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। घनत्व प्रतिरूप में उच्च विभिन्नता, उच्चावच, मिट्टी की उर्वरता, कृषि भूमि का प्रतिशत, सिंचाई सुविधायें, परिवहन जाल तथा अधिवास विकास के प्रतिरूप की भिन्नता के कारण होता है। बसरेहर, महेवा, जसवंतनगर एवं भरथना में जनसंख्या घनत्व अधिक है। जिसके मुख्य कारण यहाँ की समतल भूमि, सिंचाई सुविधाओं का विकास, परिवहन की उत्तम व्यवस्था आदि हैं। सबसे कम जनसंख्या का घनत्व चकरनगर एवं सैफई विकासखंडों का क्रमश: 13.48 एवं 187.68 प्रति वर्ग किलोमीटर है। मध्यम जनसंख्या का घनत्व बढ़पुरा एवं ताखा विकासखंडों में क्रमश: 465.07 एवं 401.75 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर पाया जाता है।
जनसंख्या वितरण का प्रतिरूप :
जनसंख्या का स्थानिक वितरण भौतिक सीमाओं और मनुष्य की आवश्यकता पर निर्भर है। आर. डब्ल्यू. स्टील के अनुसार - धरातल पर जनसंख्या का वितरण क्षेत्र की सामान्य निवास्यता द्वारा नियंत्रित होता है। इस क्षेत्र में जनसंख्या वितरण प्रतिरूप, भू-आकृति, वर्षा की मात्रा, मिट्टी की दक्षता, कृषि योग्य भूमि का प्रतिशत, सिंचाई सुविधायें, फसलों के प्रकारों तथा संचार के साधनों से प्रभावित होता है। विकासखंडवार जनसंख्या का वितरण तालिका 2.9 से स्पष्ट है।
जनपद इटावा में कुल जनसंख्या 76.99 प्रतिशत ग्रामीण अंचलों में निवास करती है। जनसंख्या का मुख्य संकेंद्रण जनपद के उत्तरी-पूर्वी भाग एवं उत्तरी-पश्चिमी भाग में हुआ है। इसका मुख्य कारण उपजाऊ कृषि योग्य भूमि का अधिक प्रतिशत, सिंचाई सुविधाओं का विकास इत्यादि रहा है। सबसे कम जनसंख्या दक्षिण भाग (चकरनगर) में पाई जाती है। जिसका प्रमुख कारण बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार होने से वहाँ सिंचाई एवं परिवहन के साधनों का सीमित विकास होना है। फलत: जनसंख्या दबाव कम है। जनपद में सबसे अधिक जनसंख्या 190941 महेवा विकासखंड में है। तत्पश्चात भरथना, जसवंतनगर एवं बसरेहर विकासखंडों में क्रमश: 145180, 144280 तथा 141268 जनसंख्या है। सबसे कम जनसंख्या चकरनगर एवं सैफई विकासखंड में क्रमश: 72585 तथा 93709 अगणित की गई।
इटावा जनपद का सबसे बड़ा नगर है जो जनपद का मुख्यालाय है। यह उत्तरी रेलवे लाइन (मुगलसराय से दिल्ली) एवं राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-2 (एनएच-2) पर स्थित है। यहाँ दो-दो बहुसंकाय स्नातकोत्तर महाविद्यालय प्रथम कर्मक्षेत्र महाविद्यालय (पुरुष व महिला) तथा पंचायती राज महाविद्यालय के अतिरिक्त एक इंजीनियरिंग कॉलेज भी है। प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों में सुमेर शाह का किला, टिक्सी मंदिर, नीलकंड मंदिर एवं जामा मस्जिद आदि उल्लेखनीय हैं।
इसके मध्य में विक्टारियल मेमोरियल स्थित है जिसको देखने के लिये दूर-दूर से लोग आया करते हैं। यहाँ की जनसंख्या 210453 है। भरथना, भरथना तहसील का मुख्यालय है, जो टूंडला एवं कानपुर रेलवे लाइन पर पड़ता है। यह जनपद मुख्यालय से लगभग 21 किलोमीटर दूर है। इसकी जनसंख्या 38789 है। यह मुख्यत: अनाज मंडी के रूप में प्रसिद्ध है। जसवंत नगर जनपद मुख्यालय के उत्तरी-पश्चिमी भाग में स्थित है जो तहसील मुख्यालय भी है। इसकी जनसंख्या 25333 है। बकेवर, लखना एवं इकदिल नगर पालिकायें हैं। बकेवर और इकदिल दोनों ही राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-2 पर स्थित हैं। बकेवर में एक बहुसंकाय स्नातकोत्तर महाविद्यालय व ग्राम्य विकास प्रशिक्षण संस्थान है। इकदिल पशु बाजार के लिये प्रसिद्ध है जो सबसे बड़ा क्षेत्रीय बाजार है। लखना में प्राचीन काली माँ का मंदिर (कालिका मंदिर) बहुत प्रसिद्ध है। सप्ताह में प्रत्येक मंगलवार व शनिवार को यहाँ पर मेला लगता है। दूर-दूर से लोग बड़ी श्रद्धा के साथ काली मां मंदिर के दर्शन के लिये आते हैं। इसकी जनसंख्या 10470 है।
जनसंख्या संगठन :
किसी क्षेत्र की जनसंख्या में जनसंख्या संगठन के अंतर्गत मानव का पुरुष-स्त्री अनुपात, आर्थिक सुस्थिति, भाषा, धर्म जाति आदि के आधार पर इन सभी तथ्यों का अध्ययन किया जाता है। पेयजल की आपूर्ति एवं उपलब्धता जनसंख्या के लिंगानुपात, आर्थिक सुस्थिति एवं सामाजिक संरचना आदि को किस प्रकार प्रभावित करती है। अध्ययन क्षेत्र में इन तथ्यों का विश्लेषण निम्न प्रकार किया गया है।
लिंगानुपात :
किसी भी क्षेत्र के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक विकास में जनसंख्या का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है तथा कुल जनसंख्या में स्त्रियों एवं पुरुषों के अनुपात के आधार पर कृषि कार्यों एवं जल संसाधन हेतु श्रम की उपलब्धता का ज्ञान होता है। किसी भी कार्य में लगे श्रम को नकारा नहीं जा सकता। ‘‘अन्तरराष्ट्रीय पेयजल आपूर्ति एवं सफाई दशक’’ के अध्ययन और सर्वेक्षण में भी महिलाओं को ही जल की व्यवस्था का मुख्य कारक माना है। किंतु नीति निर्माण और कार्यक्रमों में अभी भी महिलाओं की प्राय: पूर्णत: उपेक्षा की जा रही है, जबकि महिलायें ही समाज का वह महत्त्वपूर्ण अवयव हैं जो यह निर्धारित करता है कि जल का कहाँ पर सही उपयोग हो सकता है। अध्ययन क्षेत्र में लिंग अनुपात को तालिका सं. 2.11 में दिखाया गया है –
उपरोक्त तालिका जनपद इटावा में 2001 का लिंगानुपात दर्शाती है। यहाँ 720749 पुरुषों के पीछे 618122 स्त्रियाँ हैं। इस प्रकार जनपद का लिंगानुपात 858 है, जबकि उत्तर प्रदेश का लिंगानुपात 898 तथा भारत का 933 है। निम्न लिंगानुपात का मुख्य कारण यह है कि यहाँ के लोग लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को अधिक प्राथमिकता देते हैं। इसके अतिरिक्त विवाहित स्त्रियों की मृत्युदर अधिक है। इसका मूल कारण बाल विवाह एवं प्रसूत चिकित्सा की अपर्याप्त सुविधा है।
यहाँ यह तथ्य भी प्रकाश में आता है कि जनपद की ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या में लिंगानुपात में पर्याप्त भिन्नता है।
इटावा जनपद में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोगिता एवं प्रबंधन, शोध-प्रबंध 2008-09 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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