जैव-प्रौद्योगिकी : खतरे की आहट भी


वैश्विक स्तर पर जैव-प्रौद्योगिकी की वर्तमान प्रगति को देखते हुए तो ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान सहस्त्राब्दी ‘बायोटेक मिलेनियम’ होगी, क्योंकि असंख्य एवं अपार मनु-पुत्रों की क्षुधा शांति, स्वास्थ्य एवं जीवन रक्षा में निश्चय ही जैव-प्रौद्योगिकी की निर्णायक भूमिका रहेगी। परंतु, जैव-प्रौद्योगिकी के कई विवादित पहलू भी बन गए हैं।

जैव-प्रौद्योगिकी : खतरे की आहट भी

टर्मिनेटर प्रौद्योगिकी : खतरे की घंटी


हम सभी जानते हैं कि किसी बीज को अनुकूल उपजाऊ भूमि में बोने से पौधा अंकुरित होता है। यह पौधा अपनी प्रजाति के पौधों का विस्तार करने में सक्षम बीजों का उत्पादन करता है। वस्तुत:, बीज से पौधा और पौधे से पुन: बीज प्राप्त करने का यह चक्र सदियों से यों ही चलता आया है, परंतु 3 मार्च, 1998 को अमेरिका में पंजीकृत कराए गए एक पेटेंट में प्रकृति के इस चक्र को रोकने का प्रावधान है। ‘डेल्टा एंड पाइनलैंड’ कंपनी तथा अमेरिकी कृषि विभाग द्वारा कराए गए पेटेंट में पौधों में जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने का तरीका पंजीकृत कराया गया है। इस तकनीक के अनुसार, किसी भी पौधे में कुछ इस प्रकार के जीन डाले जा सकते हैं जिससे उस पौधे की अच्छी फसल तो प्राप्त की जा सकेगी, परंतु इसके बीज नई पौधे देने में अक्षम होंगे, अर्थात इन पौधों के डीएनए अपने ही अंकुर का वध करेंगे।

जैव-प्रौद्योगिकी : खतरे की आहट भीपौधों को वंध्यता प्रदान करने वाली यह तकनीक जैव-प्रौद्योगिकी की ही देन है। जैव-प्रौद्योगिकी द्वारा किसी जीन की क्रिया को रोकना या चलाना एक ऐसी विशेषता है, जो वस्तुत: जनसाधारण के लाभ का कारण बनती है, परंतु इस तकनीक में विपरीत स्थिति है, जो विवादित बन चुकी है। इस कारण व्यंग्यस्वरूप इसे ‘टर्मिनेटर’ यानी ‘समापन तकनीक’ की संज्ञा दी गई है। इस समापन तकनीक में डीएनए की तीन विशेष रचनाएँ इस प्रकार किसी पौधे में समाहित की जाती हैं कि पौधे के बीज में अपने अंकुर को नष्ट करने के गुण आ जाते हैं। इन बीजों को बेचने से पहले इन्हें टेट्रासाइक्लीन के संपर्क में लाया जाता है, जिससे इनमें वंध्यता की प्रक्रिया आरंभ होने लगती है।

आज विश्व में टर्मिनेटर तकनीक को लेकर बहुत गहमागहमी का वातावरण है। विश्व के सभी वैज्ञानिकों का इस बारे में एक मत है कि यह तकनीकी प्रकृति के साथ खिलवाड़ है जो भविष्य में बहुत महँगी साबित होगी। यह किसानों के लिये भी हितकारी नहीं है, विशेषत: विकासशील देशों के किसानों के लिये तो यह बिल्कुल ही अनुकूल नहीं है। इस प्रणाली से एक समस्या यह भी हो सकती है कि यदि पूरे विश्व में समान जीव वाली फसलें उगने लगेंगी तो विविधता समाप्त हो जाएगी और फसलों के लुप्त होने का खतरा बढ़ जाएगा, क्योंकि समांग फसलें महामारियों के प्रति अधिक संवेदनशील होंगी। पर्यावरणविदों के अनुसार, टेट्रा-साइक्लीनयुक्त बीज जब बार-बार बोए जाएँगे तो वे मिट्टी में उपस्थित लाभदायक सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर मृदा की उर्वरा शक्ति को घटाएँगे।

हमारे देश के अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन ने इस तकनीक को अनैतिक करार देते हुए यह आशंका व्यक्त की है कि इस तकनीक को अपनाने से देश की खाद्य व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो जाएगा।

जैव-प्रौद्योगिकी : खतरे की आहट भी

अमर जीवाणु


जैव-प्रौद्योगिकी द्वारा ऐसे जीवाणु बनाए जा सकते हैं, जिन पर दवाओं या एंटीबायोटिकों का कोई प्रभाव न हो। यदि ऐसे जीवाणु सृजित कर लिये गए और किसी प्रकार वे परखनली तथा प्रयोगशाला से बाहर आ गए तो इस पृथ्वी पर जीवन खतरे में पड़ सकता है। इसी तरह विषाक्त पदार्थ उत्पन्न करने वाले ऐसे जीवाणु खुले छोड़ देने पर पर्यावरण में विष घोल सकते हैं। इसी प्रकार विभिन्न रोगों के जीवाणु संवर्धित होकर यदि किसी प्रकार बाहर निकल भागे तो फिर हम लोग कहाँ भागकर जाएँगे? आज जैव-तकनीक द्वारा कैंसर कोशिका और जीवाणु या विषाणु कोशिका को क्लोनित कर जीवाणु मनुष्यों में पहुंच जाएँ तो इनसे मनुष्य में कैंसर उत्पन्न हो जाएगा।

जैविक युद्ध एवं जैविक


आयुधमानव सदैव युद्ध की आशंकाओं से घिरा रहा है। आज विश्व के सभी बड़े राष्ट्रों के पास विभिन्न क्षमता वाले आयुध हैं। प्राचीन काल के बेडौल शिला प्रक्षेपकों तथा तीर-तलवारों का स्थान आज नाभिकीयबमों और मिसाइलों ने ले लिया है। वर्तमान में अनेक देशों के शस्त्रागारों का सबसे आधुनिक हथियार है ‘जैविक हथियार’, जो बहुत छोटे से समय में एक बड़ी जनसंख्या को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

सामान्यत: एक आम आदमी की दृष्टि में जीवाणु, विषाणु या कवक प्राकृतिक रूप में मिलने वाले सूक्ष्म जीव हैं। जीवाणुओं के विषय में प्राय: यह समझा जाता है कि ये किसी बड़ी विपत्ति के सृजन में सक्षम नहीं हैं, परंतु इतिहास साक्षी है कि जीवाणुओं द्वारा संक्रमण बहुत विनाशकारी हुआ है। जैविक युद्ध का अर्थ है दुश्मन की सेना, आबादी, खाद्य स्रोत तथा पशुधन को हानि पहुँचाने या नष्ट कर देने के लिये रोगोत्पादक कारकों का प्रयोग। पहले जैव हथियार रोमवासियों द्वारा प्रयुक्त किया गया था। प्राचीन रोमन लोग अपने शत्रुओं के कुँओं में जहर डाल देते थे। 606 ई. पूर्व असीरियनों ने अपने पतन से पूर्व फफूंदग्रस्त राई का प्रयोग कर शत्रुओं को शिथिल करने का प्रयास किया था। ऐसे खाद्य पदार्थ का सेवन करने से गैंग्रीन, गर्भपात, मानसिक विभ्रमता आदि रोग हो जाते हैं। विष-बाण का प्रयोग तो हमारे पुराणों में भी उल्लेखित हैं। सन 1347 में टारटर लोग प्लेगग्रस्त मृतकों को कफ्फा शहर की दीवारों के पार फेंक देते थे। सन 1941-42 में संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, रूस एवं चीन में भी प्लेग, एंथ्रेक्स, कॉलेरा आदि घातक जीवाणुओं का प्रयोग युद्ध में किया गया। जैविक हथियारों की दौड़ के चलते जापान ने भी अनेक जीव तथा वनस्पतिनाशक हथियार बनाए, जिससे अमेरिका एवं सोवियत संघ की प्रमुख फसलें नष्ट हो सकें।

जैव हथियार दो प्रकार के हो सकते हैं - जीवित और अजीवित। इनमें से कुछ आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं और भीषण त्राहि मचा सकते हैं, जबकि कुछ सीमित रूप से प्रभावित करते हैं, अर्थात कुछ समय के लिये व्यक्ति को अपंग या असहाय बना सकते हैं। जीवित वर्ग में एंथ्रेक्स, चेचक, प्लेग आदि के जीवाणु या स्पोर तथा अजीवित पदार्थों में बॉटुलिन, एंटरोक्सिन इत्यादि हैं।

वस्तुत: जैव हथियार का प्रभाव कई बातों पर निर्भर करता है- जैसे वायु का रूख या दिशा, मौसम, तापमान, आर्द्रता आदि। जीवाणुओं का एक हथियार मध्यम हवा के चलते लगभग 1 लाख लोगों को प्रभावित कर सकता है। इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत या आनुवंशिक, जैसे- शरीर की प्रतिरोधक क्षमता पर भी इनका प्रभाव निर्भर करता है। कुछ प्रतिवेदनों के अनुसार, पचास से अधिक आयु वाले लोगों की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। अत: जीवाणु की कम सांद्रता में भी उक्त आयु वर्ग के लोग जल्दी प्रभावित हो जाते हैं।

जैविक हथियारों के गुण एवं दोष


जैविक अस्त्रों की उच्च एवं विलक्षण मारक क्षमता के बारे में प्रिटोरिया (दक्षिण अफ्रीका) स्थित ‘पादप संरक्षण संस्थान’ के पादप रोग विशेषज्ञ डॉ. जेई वान, डैर प्लांक का कहना है कि विश्व की किसी भी सेना के पास शायद ही कोई ऐसा विस्फोटक हो जो इन जीवाणुओं से शक्तिशाली हो। अनुमान है कि एक ग्राम टॉक्सिन से 1 करोड़ लोग मारे जा सकते हैं। बोटुलिन नामक टॉक्सिन रासायनिक नर्व गैस सैरिन की तुलना में 30 लाख गुना शक्तिशाली है। यदि इस टॉक्सिन को स्कड मिसाइल में भरकर युद्ध क्षेत्र में डाल दिया जाए तो 37000 किमी2 क्षेत्रफल को प्रभावित कर सकता है, जो सैरिन की तुलना में सोलह गुना अधिक क्षेत्रफल होगा।

जैव-प्रौद्योगिकी : खतरे की आहट भीजैविक आयुधों का एक गुण यह भी है कि जीवाणु, कवक या विषाणु को हथियार के रूप में प्रयोग करने के लिये किसी विशेष तकनीकी की आवश्यकता भी नहीं है। कुछ दशक पूर्व अमेरिकी मूल के लोगों को चेचक से प्रभावित करने के लिये ब्रिटेन ने चेचक के विषाणुयुक्त कंबलों का प्रयोग किया था जिससे काफी बड़ी जनसंख्या प्रभावित हुई थी, क्योंकि उन्हें चेचक के रक्षात्मक टीके नहीं लगे थे। वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि जिन देशों के पास नाभिकीय अस्त्र नहीं हैं वे भी बहुत कम खर्च में इस प्रकार के विनाशकारी हथियार बिना किसी कठिनाई के बना सकते हैं और संवाहक के रूप में वायु का उपयोग करके मनुष्य को हानि पहुँचाने वाले इस प्रकार के सूक्ष्म जीवों द्वारा थोड़े समय में ही विशाल मानव जीवन को क्षति पहुँचा सकते हैं।

जैविक अस्त्रों के संदर्भ में एक भयभीत करने वाला तथ्य यह भी है कि ये ऐसे हथियार हैं जिनके प्रयोग में न तो गोलियाँ चलेगी, न ही धमाके होंगे, न ही रेडियो धर्मिता फैलेगी, न ही बारूदी सुरंगों के फटने से अंग विच्छेदन होगा - बस, गुप्त रूप से लोगों की मृत्यु होती रहेगी। इनके प्रयोग से एक समस्या यह भी होगी कि समय रहते इनसे बचाव करना भी लगभग असंभव है, क्योंकि इनके स्रोत का पता लगाना भी संभव नहीं है। यदि जैविक अस्त्रों द्वारा रोगों के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से मानव जीवन को क्षति न भी हो तो भी अपर्याप्त पोषण के कारण पूरे देश की जनता को अशक्त बनाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त आंतकवादी संगठन भी इन अस्त्रों का उपयोग कर जनहानि कर सकते हैं।

‘एन्थ्रेक्स’ एक ऐसा रोग है, जो एक जीवाणु ब्रसिलस एंथ्रेसिस के वायु में उड़ने से उत्पन्न होता है। इन जीवाणुओं को प्रयोगशाला में बहुत आसानी से विकसित किया जा सकता है तथा शुष्कावस्था के कणों के रूप में रखा जा सकता है। एन्थ्रेक्स तीन प्रकार से संक्रमण फैलाता है - श्वसन की शुष्क कणिकाओं द्वारा, शरीर के विभिन्न भागों की त्वचा पर पड़ी खरोचों के संपर्क द्वारा तथा संक्रमित पशुओं का अधपका मांस खाने से आंतों द्वारा। आंतों की भारी सूजन, जी मिचलाना, भूख का मर जाना, तेज बुखार, आंतों के एंथ्रेक्स की प्रांभिक लक्षण हैं। सिप्रोफ्लोक्सेसिन एवं डोक्सीसाईक्लीन एंथ्रेक्स की रामबाण औषधियाँ हैं।

आंतकवादियों द्वारा जैविक हथियारों में एंथ्रेक्स का चुनाव इसलिये किया गया, क्योंकि इसके जीवाणु कड़ी धूप, कीटनाशक दवाओं तथा तेज गर्मी को भी सरलता से वहन कर लेते हैं। आंतकवादियों का लक्ष्य होता है कम से कम प्रयास में अधिकाधिक लोगों को नुकसान पहुँचाना, इसीलिये एंथ्रेक्स को चुनकर आतंकवादी इस बीमारी के विषाणु पाउडर की तरह किसी पत्र पर चिपका कर भेजते हैं। जैविक आतंकवादी शस्त्र रूपी रोगाणु प्रयोगशला में बड़े पैमाने पर विकसित एवं उत्पादित किये जा सकते हैं। एबोला विषाणु को भी एयरोसॉल के रूप में आयुधीकृत किया गया है। इससे रोगी को अत्यधिक उच्च ताप, विभिन्न अंगों से रक्तस्राव तथा निम्न रक्तचाप आदि कष्ट प्राप्त होते हैं। इसकी मृत्यु दर 65 से 80 प्रतिशत होती है।

इसी प्रकार मायकोटॉक्सिन टी-2 भी एक घातक विष है। यह जल अथवा खाद्य पदार्थों में मिलकर कहर ढा सकता है। सैक्सीटॉक्सिन तो और भी घातक है। यह वायु माध्यम से कार्य करता है और चौबीस घंटे के अंदर शिकार को पक्षाघात से अशक्त कर मौत के मुँह में धकेल देता है। एक बैक्टीरिया द्वारा स्रावित प्रोटीन विशेष रूप से तैयार किया गया बोट्यूलिनम भी कम नहीं है। चौबीस से छत्तीस घंटों की अवधि में यह मनुष्य को पूरी तरह पक्षाघात से आक्रांत कर देता है तथा श्वसन में असमर्थता होने के कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है।

यदि रणक्षेत्र में क्लॉस्ट्रीडियम परफिंजेन बैक्टीरिया की बरसात दुश्मन की टुकड़ियों पर कर दी जाए तो सैनिकों के घावों में आठ से बारह घंटों में गैस गैंग्रीन उत्पन्न हो जाते हैं। यदि भोजन या जल के माध्यम से इसे शरीर के अंदर पहुँचाया जाए तो यह भोजन विषाक्तता भी उत्पन्न कर सकता है। बैसीलस बुर्खोलडेरिया द्वारा उत्पन्न ग्लैंडर्स रोग भी वायु के माध्यम से आक्रमण के लिये उपयुक्त है। यह नाक की श्लेष्मा झिल्लियों में इतना विकार उत्पन्न कर सकता है कि कुछ दिनों में ही मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।

जैव हथियारों का दोष यह है कि इनके प्रभाव के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। मौसम का इन पर भारी प्रभाव पड़ता है। यदि प्रतिकूल हवा बहे तो ये शत्रु क्या, मित्र राष्ट्र को भी चपेट में ले सकते हैं। इसके अतिरिक्त इनकी आयु के बारे में भी कुछ नहीं कहा जा सकता है। ये स्थल विशेष के सूक्ष्म जीवों में घुल-मिलकर शत्रु का विनाश करने के बाद भी बने रह सकते हैं।

वर्तमान में जब तक जैविक एवं रासायनिक हथियार हैं तब तक इनका खतरा सदैव मंडराता रहेगा। अत: आज के दौर में जैव आतंकवाद एक यथार्थ है, जिससे बचने के उपाय, नीतियों का गठन और संस्थाओं को तैयार रखने की आवश्यकता है। आज आवश्यकता ऐसी प्रयोगशालाओं की है, जहाँ जैव हथियारों की पहचान एवं नियंत्रण पर शोध की व्यवस्था संभव हो। इतना ही नहीं, ऐसे सभी जीवाणुओं के प्रति वैक्सीनों का उत्पादन, जीवाणुओं के स्पोर पाउडर की पहचान कर सकें। जन समुदाय में इन खतरों के प्रति जागृति के लिये भी पर्याप्त प्रचार-प्रसार करना समय की मांग है, जिससे किसी भी संशय को टालने की बजाय वे तुरंत किसी चिकित्सक या उपयुक्त संस्था में जाकर आवश्यक निदान करा सकें। अत: जैव आतंकवाद से निबटना केवल सरकार का काम नहीं है। इसका सामना करने के लिये प्रशिक्षण, सामुदायिक जागरूकता एवं सतर्कता अनिवार्य है।

जैव-प्रौद्योगिकी : खतरे की आहट भीभारतीय वैज्ञानिकों ने जैविक एवं रासायनिक हथियारों के मद्देनजर रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की शाखा डी. एस. एस. आर. डी. ई. ने सेना के लिये नाभिकीय वस्त्र (Nuclear Biological Clothing -एनबीसी) तैयार किया है। इस पर जैविक एवं रासायनिक हथियार का कोई असर नहीं होता है, परंतु संपूर्ण मानव जाति के लिये इन वस्त्रों को उपलब्ध कराना एवं बचाना संभव नहीं है। जैव एवं रासायनिक हथियारों को बेअसर करने वाले वस्त्र का उत्पादन भारत में शुरू हो गया है।

मानवता का संकट


कृत्रिम प्रजनन तकनीक, जीन प्रतिरोपण तकनीक तथा अन्य जैव-तकनीकों के द्वारा ऐसे जंतु बनाना संभव है, जिनका आज तक कोई अस्तित्व नहीं है। आज भले ही वैज्ञानिकों को नए जंतु बनाने की उत्सुकता हो, पर यदि बनते-बनते कहीं कोई ऐसा जंतु बन गया, जो अधिक विकराल हो और मनुष्यों का सफाया करने लगे, तो इससे सारी मानव जाति संकट में पड़ सकती है। इसी प्रकार क्लोनिंग द्वारा एक ही प्रकार के अनेक मनुष्य तैयार किए जा सकते हैं। यहाँ तक कि केवल एक क्लोनित मानव-कोशिका से संपूर्ण मनुष्य तैयार किया जा सकता है। जैविक प्रयोग मनुष्य पर आजमाने में नैतिक खतरे आते हैं। ‘सुपर मैन’ या अतिमानव का जैव-प्रौद्योगिकी द्वारा बनाना नैतिक रूप से उचित नहीं ठहराया जाता है।

मानव-जीनोम संबंधी कानूनी एवं सामाजिक समस्याएँ


जैसा पूर्व में वर्णित किया जा चुका है, आधुनिक अनुसंधान में मिली अभूतपूर्व सफलता के कारण वैज्ञानिकों ने अब मानव जीवन की असली जन्म-कुंडली को जान लिया है, इसका मानचित्र भी तैयार कर लिया है तथा इसका क्रमिक सिलसिला भी प्रस्तुत कर दिया है। वैज्ञानिक अब मानव जीनोम को उसी तरह से पढ़ सकते हैं जैसे किसी विश्वकोष को। वैज्ञानिक अब पहचानने लगे हैं कि कौन सा जीन या जीन-समूह क्या कार्य करता है एवं किस चीज को जन्म देता है। अब हम किसी बैक्टीरिया, पौधे, चूहे, यहाँ तक कि मानव की भी, आनुवंशिकीय संरचना में सोद्देश्य परिवर्तन करने में समर्थ हैं।

परमाणु ऊर्जा के विध्वंसक रूप की तरह मानव-कुंडली या जीनोम का उद्घाटन समूची मानव जाति के लिये परमाणु बमों से भी कहीं अधिक प्रलयंकारी सिद्ध हो सकता है। ‘जीवन-कुंडली’ का उपयोग करके न केवल दूसरी प्रजातियों के क्लोन तैयार किए जा रहे हैं, वरन कुछ वैज्ञानिकों ने मानव का भी क्लोन बनाने के प्रयास आरंभ कर दिए हैं, परंतु यह जानकारी हमारी चिंताओं को बढ़ाएगी, व्यक्तिगत संबंधों में अप्रिय बदलाव लाएगी तथा हमारे जीवन को भी कलंकित करेगी। तो आइए, हम जानें कि मानव क्लोनिंग के खतरे क्या-क्या हैं -

1. मानव क्लोनिंग से प्रजनन में पुरुष की भूमिका समाप्त हो जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। अब यह स्त्री की इच्छा पर निर्भर करेगा कि वह किसके बच्चे की माँ बनना चाहती है, परंतु इसे समाज स्वीकार नहीं करेगा। क्लोन के संदर्भ में केंद्रक प्रदाता, डिंब देने वाली महिला और प्रतिनिधि (सरोगे) माँ की कानूनी स्थिति हमेशा संदेहास्पद रहेगी। अत: मानव क्लोनिंग से ऐसी अनेक सामाजिक एवं कानूनी समस्याएँ उत्पन्न होंगी।

2. अनुसंधानवेत्ताओं ने पाया है कि ‘डॉली’ की कोशिकाओं की आयु वास्तविक आयु से छह वर्ष अधिक है। वस्तुत: जिस भेड़ की कोशिका लेकर डॉली का क्लोन तैयार हुआ, उसकी आयु छह वर्ष थी, अर्थात क्लोन की आयु उतनी ही होगी जितनी पितृ कोशिका की थी और जिसके केंद्रक को मादा अंडाणु में डाला गया था। इसी तरह यदि मानव क्लोन तैयार किया जाता है तो उसकी आयु अपनी पितृ कोशिका के बराबर हो जाएगी, जबकि अभी वह नवजात शिशु ही होगा।

3. क्लोनिंग में बहुत सारी चिकित्सकीय समस्याएँ हैं। कई पशु क्लोन में ही मर जाते हैं। पैदा भी होते हैं तो उनमें मधुमेह, गूर्दों में खराबी और लंबी जीभ जैसी विकृतियाँ देखने में आई हैं। आरंभ में स्वस्थ दिखने वाले क्लोन भी बाद में भयावह विकृतियों के शिकार हो सकते हैं। मानव क्लोनिंग में भी ऐसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।

4. व्यस्क कोशिकाओं से तैयार होने वाले क्लोन के बारे में एक और आनुवंशिक खतरा है। पर्यावरण के संपर्क में आने के कारण हमारे जीवनकाल में उत्परिवर्तक (Mutagen) विकिरण आदि के कारण डीएनए में उत्परिवर्तन तथा अन्य विकृतियाँ उत्पन्न होकर वे विभिन्न कोशिकाओं में एकत्र होती रहती हैं। लैंगिक प्रजनन के तहत माता-पिता के जीन, जो एक-दूसरे के परिपूरक होते हैं, संयोजित हो जाते हैं और इस प्रकार ऐसी विकृतियाँ व्यक्त नहीं हो पातीं, परंतु अलैंगिक प्रजनन में ऐसी विकृतियों से मुक्ति पाने का कोई उपाय नजर नहीं आता। संचित आनुवंशिक विकृतियों के प्रकट होने की संभावना मानव क्लोन बनाने के मामले में एक बहुत बड़ा खतरा है।

5. मानव क्लोन से अपराध बढ़ने की आशंका है। जिस व्यक्ति की कोशिका से भ्रूण बनता है, क्लोन उसका सही प्रति होता है, अर्थात क्लोनिंग से एक ही प्रकार के कई लोग पैदा हो सकते हैं। ऐसे में बहुत संभव है कि अपराध कोई करे और पकड़ा कोई और जाए। एक ही व्यक्ति के एक साथ कई क्लोन तैयार होने पर और भी अनेक प्रकार की सामाजिक व नैतिक समस्याएँ उत्पन्न हो जायेंगी।

6. इस बात की भी विपुल संभावना है कि मुर्दे का क्लोन तैयार हो जाए, यद्यपि इसमें तकनीकी कठिनाइयाँ है। मृत्यु के बाद डीएनए बहुत जल्दी खराब हो जाता है, परंतु मृत या मरणासन्न व्यक्ति की कोशिकाओं को सही अवस्था में सुरक्षित रखा जाए तो उनसे क्लोन तैयार हो सकेंगे। ऐसी स्थिति में बहुत सारी नैतिक, सामाजिक तथा कानूनी समस्याएँ उत्पन्न होंगी।

7. कुछ विचारकों का मत है कि मानव क्लोनिंग से प्राप्त ‘अमरता’ के साथ कई भयावह अभिशाप भी जुड़े हुए हैं। क्लोन शारीरिक रूप से भले ही समरूप हो, परंतु मानसिक स्थिति, स्मृतियाँ, अनुभव, सामाजिक एवं नैतिक मूल्य हमेशा व्यक्तिगत होते हैं। क्लोन समरूप वक्ति तो बन सकता है, परंतु उसका आचरण नितांत भिन्न होगा। मनुष्य के व्यक्तित्व में वातावरण का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। क्लोनिंग से स्मृतियों तथा अनुभवों का सातत्य संभव नहीं हो सकेगा। अत: यह सही अर्थ में अमरता नहीं होगी।

8. मानव क्लोनिंग के और भी अनेक नैतिक एवं सामाजिक भय हैं, जैसे सौदागर वृत्ति के कुछ लोग बड़ी संख्या में युवतियों के क्लोन तैयार कर लेंगे। इससे देह-व्यापार, नारी शोषण एवं अपराध को बढ़ावा मिलेगा। अत: मानव क्लोनिंग के संभावित खतरों का कोई अंत नहीं है।

9. जैव-प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप लिंग चयन टेक्नोलॉजी भी हमारे देश में भयावह एवं सामाजिक दृष्टि से उपादेय नहीं होगी।

अत: 21वीं शताब्दी में हमें विज्ञान की इन उभरती जैव-प्रौद्योगिकी शाखा का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा। यद्यपि सतत विकास के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जैव-प्रौद्योगिकी के समेकित उपयोग हेतु विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रयत्न किए जा रहे हैं तथा इस दिशा में हमने बहुत सफलता भी प्राप्त कर ली है, परंतु संधारणीय विकास के लिये अभी हमें बहुत विवेकपूर्ण कार्य करने होंगे।

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