जैविक खेती को अपनाता उत्तराखंड

30 Oct 2019
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जैविक खेती को अपनाता उत्तराखंड
जैविक खेती को अपनाता उत्तराखंड

जैविक खेती से होने वाले फायदे और नुकसान एक बार फिर से चर्चा में हैं। रासायनिक छिड़काव और पेस्टीसाइड से भले ही किसानों को अधिक पैदावार मिल जाती है, लेकिन अक्सर इसमें लाभ से कहीं अधिक नुकसान ही रहा है। एक तरफ जहां इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति ख़त्म होती जा रही है, वहीं दूसरी ओर यह भूजल में मिलकर प्राकृतिक जल स्रोतों को दूषित कर रहा है। इन दोनों सूरतों में खामियाज़ा इंसानी ज़िंदगी को गंभीर बिमारी के रूप में चुकाना पड़ रहा है। दूसरी ओर जैविक खेती से अपेक्षाकृत लाभ तो कम है, लेकिन धीरे धीरे इसे फायदे का सौदे के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। 

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल क़िला की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी किसानों को रसायन और पेस्टीसाइड के कम से कम प्रयोग की सलाह दे चुके हैं। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने अपील की थी कि हमें धरती मां को बीमार बनाने का हक़ नहीं है। प्रधानमंत्री के संबोधन से साफ़ है कि सरकार इस दिशा में किसी ठोस परिणाम के लिए गंभीर हैं। इससे पहले अपने पूर्ण बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी ज़ीरो बजट खेती का एलान कर जैविक खेती को बढ़ावा देने की सरकार की मंशा को साफ़ कर चुकी हैं। वर्तमान में केंद्र सरकार जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए अनेकों प्रयास कर रही है। जिसमें परंपरागत कृषि विकास योजना शामिल है। इसके तहत सरकार किसानों की आय बढ़ाने पर विशेष ज़ोर दिया जा रहा है। इस योजना के तहत तीन साल के लिए प्रति हेक्टेयर 50 हजार रुपये की मदद दी जाएगी। देश के किसानों का ध्‍यान जैविक खेती की तरफ आकर्षित करने के लिए 2004-05 में राष्‍ट्रीय परियोजना की शुरुआत की गई थी। नेशनल सेंटर ऑफ आर्गेनिक फार्मिंग के मुताबिक 2003-04 में भारत में जैविक खेती सिर्फ 76,000 हेक्टेयर में हो रही थी, जो 2009-10 में बढ़कर 10,85,648 हेक्टेयर हो गई। केंद्रीय कृषि मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार अभी देश में कुल 27.70 लाख हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती की जा रही है।

देश के कई राज्यों में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए विशेष योजनाएं चलाई जा रही हैं। इसके लिए राज्य सरकार के साथ साथ केंद्र की ओर से भी विशेष पैकेज दिए जा रहे हैं। देव भूमि कहे जाने वाले पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में भी जैविक खेती को बढ़ावा देने पर विशेष ज़ोर दिया जा रहा है। इसके लिए केंद्र की ओर से 1500 करोड़ रूपए की योजना भी स्वीकृत की गई है। जिसमें 10 हज़ार ऑर्गेनिक क्लस्टर बनाने की दिशा में कार्य प्रगति पर है। इसके लिए राज्य के कई स्वयंसेवी संस्थाओं को भी जोड़ा गया है। रानीखेत से लगभग 21 किमी की दूरी पर स्थित अल्मोड़ा ज़िले के द्वाराहाट ब्लॉक में उगता सूरज स्वायत्य सहकारिता संस्था द्वारा कामा गांव में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए 2018 से विशेष योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिसमें रीजनल काउंसलिंग के तौर पर सर्टिफिकेशन दिलाने का काम सुविधा संस्था द्वारा किया जा रहा है। 

उगता सूरज की ओर से योजना के अंतर्गत तीन क्लस्टरों के माध्यम से गांव के सदस्यों को जोड़ा जा रहा है। ताकि धीरे धीरे लोग इसके प्रति जागरूक हो सकें। रासायनिक खेती से होने वाले नुकसान पर चर्चा करते हुए उगता सूरज संस्था की अध्यक्षा कमला देवी का कहना था कि दस साल पहले की अपेक्षा वर्तमान में उत्पादन कम होता जा रहा है। कम समय में अधिक फसल की लालच में किसानों ने रसायनों का अत्यधिक प्रयोग कर मिट्टी की उर्वरा शक्ति को ख़त्म कर दिया है। ऐसे में उन्हें रासायनिक खेती से जैविक खेती की तरफ मोड़ना एक बड़ी चुनौती थी। 

उगता सूरज ने किसानों को इसका लाभ बताने के लिए ज़मीनी स्तर पर कई कार्यक्रमों का आयोजन करना शुरू किया। उन्हें एक तरफ जहां जैविक खेती के लाभ बताये गए वहीं रासायनिक खेती से होने वाले नुकसानों से भी अवगत कराया गया। इसके साथ ही सरकार द्वारा किसानों को जैविक खेती के लिए मुफ्त उपलब्ध कराये जाने वाले बीज, खाद और प्राकृतिक रूप से तैयार कीटनाशक दवाओं की जानकारी भी उपलब्ध कराई जाने लगी। ताकि किसान की आर्थिक स्थिति प्रभावित हुए बिना उनके उत्पादन को बढ़ाया जा सके। किसानों को गोबर से बनने वाली खाद की उपयोगिता से भी अवगत कराया जाने लगा। ध्यान रहे कि गोबर की खाद का प्रयोग करने से जहां ज़मीन में नमी की मात्रा बढ़ती है, वहीं पानी की भी कम आवश्यकता पड़ती है। जैविक खेती के तहत लगभग एक तिहाई भाग में पानी की आवश्यकता होती है। जो कि वर्षा के पानी को रेन वॉटर हार्वेसिं्टग टैंक और बरसाती टैंक बनाकर वर्ष में दो फसल उगाई जा सकती है। 

उगता सूरज स्वायत्य सहकारिता संस्था द्वारा की जा रही इस पहल के सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं। पहले की अपेक्षा अधिक से अधिक किसान अब जैविक खेती पर ज़ोर देने लगे हैं। इसका एक लाभ यह भी हुआ है कि महुआ और झुंगरा जैसी परंपरागत खेती की तरफ किसान एक बार फिर मुड़ने लगे हैं। संस्था की अध्यक्षा कमला देवी के अनुसार जैविक खेती को बढ़ावा देने के साथ साथ संस्था उन्हें बाज़ार भी उपलब्ध कराती है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र में सबसे अधिक समस्या मार्केट की होती है। ऐसे में उन्हें स्थानीय बाज़ार उपलब्ध कराकर उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस पहल से किसानों में आशा जगी है कि जो स्थानीय स्तर पर उत्पादन किया जा रहा है, उसमें सहकारिता संस्था उन्हें बाज़ार उपलब्ध कराने में सहयोग करेगी। जिससे उत्पादन का उन्हें उचित दाम मिलेगा। 

वास्तव में आज रासायनिक खेती की अपेक्षा जैविक उत्पादन की पहचान राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी है। जिससे किसानों को लाभ हो रहा है। वहीं आने वाले समय में उन्हें और अधिक पहचान मिलेगी। जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में जहां सुधार होगा वहीं लोगों के स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यही कारण है कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए इसे सतत विकास लक्ष्य में भी प्रमुखता से जोड़ा गया है। (चरखा फीचर्स)
 

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