जैविक विनाश के खतरों से जूझती धरती

जैविक
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आज पृथ्वी पर जैविक विनाश का खतरा मंडरा रहा है। वैज्ञानिकों के शोध और अध्ययन इस तथ्य को प्रमाणित कर चुके हैं। “प्रोसिडिंग्स ऑफ दि नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज’’ में प्रकाशित अध्ययन में खुलासा किया गया है कि लोग प्राकृतिक दुनिया पर जैविक विनाश थोप रहे हैं। वैज्ञानिक और पर्यावरणविद इस बात पर एकमत हैं कि वन्य जीवन का नुकसान वास्तव में जैविक विनाश है। यह मानव सभ्यता की नींव पर भयानक हमला है। गौरतलब है कि यह अध्ययन कुल मिलाकर 27,500 रीढ़दार जीव प्रजातियों के आंकड़ों पर आधारित है। अध्ययन के अनुसार दुनिया में तकरीबन 33 फीसदी प्रजातियों की आबादी व उसके दायरे में बीते दशकों में तेजी से भारी कमी आई है। 50 फीसदी से अधिक स्तनधारियों ने बीते सौ सालों में अपने 80 फीसदी दायरे को गँवा दिया है। यही नहीं आने वाली सदियों में जीव प्रजातियों का तकरीब 75 फीसदी हिस्सा पूरी तरह विलुप्त हो जायेगा।

समूची दुनिया में हजारों प्रजातियों के करीब एक तिहाई हिस्से की आबादी तेजी से घट रही है। लेकिन उन प्रजातियों को अभी तक संकटग्रस्त घोषित नहीं किया गया है। यह जानते हुए भी कि पृथ्वी पर मौजूद तमाम जीव प्रजातियों का तीन चौथाई हिस्सा आने वाली सदियों में लुप्त हो जायेगा। यही वह अहम कारण है जिसके चलते समूची दुनिया में प्रजातियों के अस्तित्व के संकट को लेकर पर्यावरणविद, वनस्पति और जीव वैज्ञानिक खासे चिंतित हैं।

जहाँ तक मानव सभ्यता का सवाल है, अब तक के अनुमानों के आधार पर मानव सभ्यता करीब एक लाख वर्ष से भी ज्यादा पुरानी है। मोरक्को के मारकेश शहर से करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जेबेल इरहाउद की एक गुफा की खुदाई में मिले मानव अवशेषों के आधार पर नृविज्ञानियों और भूविज्ञानियों ने यह निष्कर्ष निकाला है। यहाँ पर खुदाई करने वाले दल को पाँच लोगों की हड्डियाँ, दाँत और पत्थर से बने कुछ औजार मिले। अवशेषों की उम्र जानने के लिये दल ने रेडियों कार्बन डेटिंग टेस्ट का सहारा लिया था। गौरतलब है कि अभी तक मानव सभ्यता का उद्गम स्थल इथियोपिया में ओमो किबिश स्थान को माना जाता था। लेकिन जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर इवोल्यूशनरी ऐन्थ्रोपोलॉजी के नृविज्ञानियों और भूविज्ञानियों के दल ने इस मान्यता को खारिज कर दिया जिसके आधार पर मानव सभ्यता के अस्तित्व को तकरीबन दो लाख वर्ष पुरानी माना जाता था। नई खोज के आधार पर अब यह साबित हो गया है कि मानव सभ्यता तीन लाख वर्ष से भी ज्यादा पुरानी है। उस दशा में जीव प्रजातियों की उत्पत्ति के काल का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

गौरतलब है कि पृथ्वी पर जीवों की तकरीब 10 खरब प्रजातियाँ मौजूद हैं। लेकिन असलियत यह भी है कि उनमें से 99.99 फीसदी के बारे में हमें शायद ही कोई जानकारी है। सूक्ष्म जीवों के अब तक के सबसे बड़े आंकड़े के विश्लेषण से इस तथ्य का खुलासा हुआ है। इंडियाना यूनीवर्सिटी के जीव वैज्ञानिकों ने सरकार, वैज्ञानिक स्रोतों व नागरिकों से सूक्ष्म जीवों के, वनस्पतियों व जंतु समुदाय के ब्योरे जुटाकर आंकड़े तैयार किये। गौरतलब है कि इसमें दुनिया के समुद्रों, महादेशों में स्थित 35 हजार स्थानों की 56 लाख सूक्ष्म और गैर सूक्ष्म प्रजातियों का पूरा ब्यौरा है। दरअसल पृथ्वी पर मौजूद प्रजातियों की तादाद का आंकलन करना जीव विज्ञान की सबसे बड़ी चुनौतियों में शामिल रहा है। असलियत में यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता।

जैव वैज्ञानिकों की सर्वसम्मत राय है कि यदि पौधों की एक प्रजाति लुप्त होती है तो उस परिस्थिति में कीटों, जानवरों और वन्य पौधों की तकरीबन 30 और उससे भी अधिक प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर पहुँच जाती हैं। यही नहीं यदि इसका सिलसिलेवार जायजा लें तो पता चलता है कि साल 2020 तक डेढ़ हजार से अधिक पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुकी हैं। जहाँ तक बाघ का सवाल है, कारण बाघ ही आजकल सर्वाधिक चर्चा का विषय रहा है, क्योंकि बाघ हमारा राष्ट्रीय पशु है। आज कल उसी के संरक्षण और संवर्धन पर सबसे अधिक जोर दिया जा रहा है। उसकी रॉयल बंगाल टाइगर, साइबेरियन, साउथ चाइना, इंडो-चाइनीज व सुमात्रा प्रजाति ये कुल पाँच प्रजातियाँ ही दुनिया में शेष बची हैं। जबकि एक समय उसकी आठ प्रजातियाँ हुआ करती थीं। वर्तमान में बाघ की बाली, जावा व एक अन्य प्रजाति तो विलुप्त ही हो चुकी है।

सबसे बड़ी बात गौर करने की तो यह है कि सरकारें विकास के नशे में मदहोश हैं। यह सही है कि किसी भी देश की समृद्धि के लिये विकास जरूरी है लेकिन वह पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए। जो मौजूदा सरकारें कर रही हैं। पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार इस तरीके से तो आ नहीं सकता। हकीकत यह है कि सरकारें पर्यावरण की जगह विकास को अधिक तरजीह दे रही हैं। उसका परिणाम जलवायु परिवर्तन के रूप में हमारे सामने है। उसका प्रभाव भी हमारे सामने है और हम सब उससे किसी भी दशा में अछूते नहीं हैं। असलियत में आज जो हालत है उसमें मानव जीवन ही नहीं, जैव विविधता, वन्यजीव, पक्षी, वायु, जल चक्र, पांरपरिक जलस्रोत जो परिंदों को आकर्षित करते थे और प्राणी जगत के जीवन के आधार थे, वर्षा और स्वास्थ्य सभी बुरी तरह से प्रभावित हैं। या इसे यदि यूँ कहें कि यह सभी आज अपने अस्तित्व के लिये जूझ रहे हैं तो यह कहना वर्तमान में किसी भी दशा में गलत नहीं होगा।

हालात गवाह है कि दिन-ब-दिन तापमान बढ़ रहा है, जंगलों का कटान जारी है, नतीजन 25 हजार वनक्षेत्र हर साल घटता जा रहा है, मिशन ग्रीन इंडिया भी इस दिशा में कुछ खास कर पाने में नाकाम रहा है, बारिश की मात्रा में कमी आ रही है, आबोहवा खराब ही नहीं, वह बदतर हो चुकी है। ध्वनि प्रदूषण बढ़ रहा है, परिंदे नजर नहीं आ रहे, या यूँ कहा जाये कि वे अब दिखाई ही नहीं देते, उन्हें उपयुक्त वातावरण ही नहीं मिल पा रहा है, उनके आश्रय स्थल पेड़ खत्म होते जा रहे हैं, हरियाली घटती जा रही है। वन्यजीवन इस कदर प्रभावित है कि उनके पर्यावास और भोजन की समस्या गंभीर है। वन्यजीवों की घटती तादाद के पीछे वन्यजीव तस्करों द्वारा उनके शिकार पर अंकुश न होना भी एक प्रमुख कारण है, जबकि यह कटु सत्य है कि वन्य जीव पारिस्थितिकी संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं।

जंगल में अतिक्रमण और प्रशासनिक कुप्रबंधन ने जंगलों की दिनचर्या को ही तबाह करके रख दिया है। चारागाह सिमट गए हैं। जंगल के अंदर के तालाबों और झीलों पर मानव की पाशविक प्रवृत्ति के कुप्रभाव के चलते वन्यजीव जंगल से पलायन कर मानव आबादी की ओर जाने को विवश हैं। नतीजतन उनका जीवन तो खतरे में है ही, मानव और उनके बीच संघर्ष में बढ़ोतरी भी हो रही है। इसके अलावा कचरा प्रबंधन के अभाव में देश की अधिकांश आबादी जानलेवा बीमारियों के चंगुल में है, घरेलू और इलैक्ट्रॉनिक कचरे की समस्या विकराल होती जा रही है, इसके निपटान में सरकारें खुद को असमर्थ पा रही हैं, जैविक और गैर जैविक कूड़े को अलग-थलग करने की व्यवस्था का पूरी तरह अभाव है या इसके प्रति लोग जागरूक ही नहीं हैं।

इसमें दोराय नहीं कि हमारे यहाँ पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता का पूर्णतः अभाव है। हाँ कुछेक फीसदी शहरी लोग इसके प्रति जागरूक जरूर हैं जो स्वीकार करते हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव आम लोगों के जीवन पर ही नहीं समूचे प्राणी जगत पर स्पष्टतः दिखाई दे रहे हैं। यह उन्हें अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में भी दिखाई दे रहा है। उनके अनुसार विकास के बहाने पर्यावरण से खिलवाड़ कदापि नहीं होना चाहिए। लेकिन उनका यह भी मानना है कि पर्यावरण के नाम पर विकास भी बाधित नहीं होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि विकास और पर्यावरण के बीच सामंजस्य होना बेहद जरूरी है। विडम्बना यह कि इस दिशा में सरकारों का सोच ही नहीं है।

यहाँ एक बात और गौर करने लायक है कि शैक्षणिक शोध संस्थान भी पर्यावरण चेतना जाग्रत करने की दिशा में जमीनी स्तर पर कुछ खास नहीं कर रहे हैं। पर्यावरण की गुणवत्ता में बदलाव तभी संभव है जबकि इसके प्रति लोगों में चेतना हो। वह जागरूक हों। देश की ग्रामीण आबादी की बात तो दीगर है, कुछेक फीसदी शहरी आबादी जरूर जलवायु परिवर्तन के खतरों को महसूस कर रही है। यह एक अच्छा संकेत हैं लेकिन यह काफी नहीं है। अभी बहुत कुछ करना बाकी है। यह तभी संभव है जब हम प्रकृति का सम्मान करें, उससे सीखें, उसकी रक्षा करें और उसके अनुरूप अपनी जीवनशैली तथा तकनीक विकसित करें। फोटो सिंथेसिस प्रक्रिया का अमल पर्यावरण सुधार की दिशा में एक अहम और कारगर प्रयास हो सकता है। इसके काफी सुखद नतीजे सामने आयेंगे। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। तभी हम धरती और मानव जीवन की रक्षा कर सकते हैं, अन्यथा नहीं।
 

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