जारी है अधिकार में क्षरण का सिलसिला

8 May 2015
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मछुआरे और नाविक सदियों से गंगा नदी में निवास करते रहे हैं और गंगा ही उन्हें आजीविका उपलब्ध कराती रही है। उनके परिवार के भरण-पोषण का यही एक मात्र जरिया रहा है। कुछ मछुआरे मछली पकड़ने का काम करते रहे हैं, तो कुछ यात्री और माल ढुलाई के कामों में लगे रहे। वे इन पेशों में अदला-बदली भी करते रहे हैं। एक समय सत्ताधारियों को इनकी जरूरत नौसैनिक गतिविधियों के वास्ते हुआ करती थी, लेकिन ब्रिटिश शासनकाल में राजस्व नीति में आए आधारभूत बदलाव की वजह से मछुआरों और नाविकों के पारम्परिक अधिकारों में क्षरण आरम्भ हुआ। 19वीं सदी के औपनिवेशिक शासनकाल में आरम्भ हुई क्षरण की वह प्रक्रिया आज तक नहीं रुकी है।

19वीं सदी के दस्तावेज और तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों की रचनाएँ बताती हैं कि औपनिवेशिक काल में निजी सम्पदा की समझ जमीन से होते हुए कैसे जल और जंगल तक पहुँच गई। वे दस्तावेज मालिकाना हक के स्वरूप, नदियों के जल पर राज्य के मालिकाना हक और व्यवस्थागत नियन्त्रण के स्वरूप पर भी प्रकाश डालते हैं।

1822 में बुकानन-हेमिल्टन की एक किताब आई थी, जिसका शीर्षक था ‘फिशरीज आॅफ गंगा’। इसी तरह 1849 में डॉ. जॉर्डन ने दक्षिण भारत के मीठे जल के मत्स्य पालन पर चार आलेख लिखे। इन दोनों ब्रिटिश अधिकारियों की ये रचनाएँ दो प्रश्नों पर केन्द्रित थीं। पहला प्रश्न था- नदियों की मछली पर व्यक्ति, समूह या राज्य में से किसका पारम्परिक अधिकार है? वहीं दूसरा प्रश्न है कि राजस्व वृद्धि के लिए मछलियों पर राज्य का अधिकार स्थापति होने की दशा में जन साधारण के जरिए मछली मारे जाने को दण्ड की श्रेणी में लाना कितना उपयुक्त होगा?

इसी क्रम में ध्यान देने लायक तथ्य यह है कि 1810 के बुकानन रिपोर्ट में इस तथ्य का उल्लेख है कि नदी की मछलियाँ किसी की निजी सम्पदा नहीं थी। उसकी स्थिति वैसी ही थी जैसे आसमान में परिंदे और जंगल में जानवर। 1822 में प्रकाशित पुस्तक ‘फिशरीज आॅफ गंगा’ में भी बुकानन-हेमिल्टन ने गंगा की मछलियों की प्रजातियों का विवरण तो दिया है, लेकिन गंगा से प्राप्त होने वाली मछलियों पर राज्य के मालिकाना हक पर कोई चर्चा नहीं की है। वहीं डॉ. जॉर्डन ने 1849 के अपने आलेखों में मछलियों की प्रजातियों और मछली मारने की पद्धतियों पर चर्चा के क्रम में नदियों में लगातार कम होती मछलियों पर चिन्ता जाहिर की है। इन आलेखों में नदियों की मछलियों पर पारम्परिक अधिकार से जुड़े कुछ मौलिक प्रश्न भी उठाए गए हैं।

यह विमर्श चल ही रहा था कि बोर्ड आॅफ रेवेन्यू ने 1859 में अचानक गंगा और हुगली नदी की मछलियों पर राज्य के दावे को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर दिया। इस घोषणा में मछुआरे या अन्य किसी व्यक्ति के जरिए मछलियों पर अधिकार का दावा करने पर क्षतिपूर्ति की व्यवस्था की गई थी। इस निर्णय का सैद्धांतिक आधार बैडेन पावेल की समझ थी। इस समझ के अनुसार अंग्रेजी शासन से पहले भी जमीन, जंगल और जल पर राज्य का अधिकार किसी न किसी रूप में था। बैडेन पावेल के अनुसार अगर निजी सम्पदा के सिद्धांत को जमीन पर लागू किया जा सकता है, तो उसका विस्तार जंगल और जल पर क्यों नहीं किया जा सकता है!

इसी बीच 1873 में नॉर्दन इंडिया कैनाल्स एंड ड्रेनेज एक्ट लागू कर दिया गया। इस कानून के पारित होने से पहले भी एक लम्बा विमर्श चला। समझ थी कि निजी सम्पदा होते हुए भी सार्वजनिक कार्यों के लिए जमीन पर यदि राज्य का अधिकार हो सकता है, तो नहर निर्माण और स्टीमर चालन जैसे सार्वजनिक कार्यों के लिए नदियों और जंगलों पर क्यों नहीं। इस विमर्श के दौरान पहली बार राज्य की सार्वभौमिकता के प्रश्न को उठाया गया। इस कानून के पीछे समझ थी कि सार्वभौमिक शक्तियों के तहत नदियों पर ब्रिटिश राज्य का स्वाभाविक आधिपत्य है और वह सार्वजनिक हित के कार्यों को निर्बाध रूप से कर सकता है। इसी वर्ष फ्रांसिस डे का एक रिपोर्ताज ‘फ्रेश वाटर फिश एंड फिशरीज आॅफ इंडिया’ प्रकाशित हुआ। डॉ. डे ने इसकी भूमिका में स्वीकार किया कि नदियों से सम्बन्धित बहुत कम जानकारी उपलब्ध है और इसके अनेक पहलू तकरीबन अनछुए हैं। इसी कारण उन्होंने जो तथ्य एकत्रित किए, उसमें काफी मशक्कत करनी पड़ी है। सर्वप्रथम उन्होंने एक प्रश्नावली बनाकर सभी कमिश्नरों को भेजा, जिसमें उनके क्षेत्र की नदियों में मिलने वाली मछलियों का विवरण, उसकी प्रजाति और उसपर मालिकाना हक सम्बन्धी विस्तृत विवरण माँगे गए थे। क्षेत्रीय विभिन्नताओं के कारण इसे एकत्रित करना और ढाँचागत व्यवस्था के अनुरूप इसकी व्याख्या करना चुनौतीपूर्ण, लेकिन रुचिकर कार्य था।

डॉ. डे जिन सवालों का जवाब ढ़ूँढ़ना चाहते थे, उनमें महत्त्वपूर्ण सवाल थे- ब्रिटिश काल के पहले किसी तबके को मछली मारने का अधिकार यदि राज्य की ओर से दिया जाता था, तो उसका आधार क्या था? नदी किनारे बसे लोगों को मछली मारने का कोई खास अधिकार अगर था, तो वह कब शुरू हुआ? मछली मारने के तरीके क्या-क्या थे? नदियों से मछलियों का दोहन अत्यधिक तो नहीं हो रहा है? यदि हो रहा है तो, उसे कैसे रोका जाए?

डॉ. डे की इस पड़ताल का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह था कि उनकी रिपोर्ट नदी की मछलियों की अखिल भारतीय नीति की आधारशिला बनी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया था कि नदी की मछलियों का दोहन अंधाधुंध तरीके से किया जा रहा है। उसे व्यवस्थित तरीके से नियन्त्रित करने की जरूरत है। डॉ. डे ने अपनी रिपोर्ट में यह सुझाया था कि मछलियों का दोहन अगर नियन्त्रित तरीके से किया जाए तो, राज्य के राजस्व में इससे काफी इजाफा हो सकता है। इसी पृष्ठभूमि में 1880 में नदी की मछलियों से सम्बन्धित एक सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया गया था। कुछेक संशोधन के साथ डॉ. डे की रिपोर्ट को तकरीबन स्वीकार कर लिया गया। इसी के आधार पर 1897 में इंडियन फिशरीज कानून लागू किए गए।

इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि गंगा एवं अन्य नदियों के मछुआरों की जीविका औपनिवेशिक राज्य की नीतियों से बुरी तरह प्रभावित हुई। मछलियाँ, भोज्य पदार्थ की जगह राजस्व बढ़ाने का माध्यम बन गईं। नदियों पर मछुआरों का वह नैसर्गिक अधिकार फिर से वापस नहीं हो सका।

लेखक मुजफ्फरपुर स्थित लंगट सिंह कॉलेज में इतिहास विभाग के प्राध्यापक हैं।
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