जब नदियां करने लगीं तांडव...

9 Sep 2014
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कश्मीर में बाढ़ एक सामान्य मौसमी बदलाव होता है जिससे कोई असाधारण भय या आशंका पैदा नहीं होती। घाटी में बहने वाली प्रमुख नदी वितस्ता या झेलम शायद ही कभी रौद्र रूप धारण करती हो। लोग इस सरल और शांत नदी के साथ जीना सीख गए हैं, वे भी जिनके तटवर्ती घरों के आंगन में बरसात में कभी-कभी यह प्रवेश कर ही जाती है। नदी का घरों में घुसना भी इतना शांत होता है मानो जैसे आने से पहले अनुमति लेना चाहती हो। यह कुछ गांवों में थोड़ी-बहुत हानि भी कर जाती है लेकिन अधिकतर लोग इसके लिए तैयार रहते हैं।

वुलर झील में प्रवेश करके उसके तटों पर बने खेतों को भी यह अवश्य डुबो देती है लेकिन वहां के किसानों की खेती इस तरह होती है कि सामयित आपातकाल से कम-से-कम घाटा हो। नावों में रहने वाले लोग अपनी-अपनी नावों को किनारे से अच्छी तरह बांध कर रखते हैं। हां, रातों की नींद हराम होती है। कहीं पानी बढ़ने के कारण नाव को और ऊंचा न बांधना पड़े। जम्मू, जो पहाड़ी पर बसा है, तवी से कभी ऐसा त्रस्त नहीं रहा कि घबरा जाए। हां, पहाड़ी से नीचे फैलते नगर के कुछ इलाकों में चिंता होना स्वभाविक तो होता ही है। जम्मू और पुंछ के देहात में पानी घुस जाता है और कभी-कभी गांव वालों को घर खाली करने पड़ते हैं। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि यह पिछले साल की बात है या पिछले दशक की।

दरअसल, इस बरस तो पानी इतना बरसा कि एक भुक्तभोगी के अनुसार लगा कि आकाश ही पिघलकर जमीन पर गिर जाएगा। नदी-नाले सारी मर्यादाएं भूल गए और तांडव करने लगे। क्या घाटी, क्या पहाड़ी इलाके? सारे राज्य में ही जलप्लावन आ गया। जम्मू कश्मीर में हर बड़ी नदी के मुख्य स्रोत पहाड़ी नाले और छोटी नदियां ही हैं। पानी के घट-बढ़ जाने के बावजूद बरसों से मुख्य नदियों में पानी के बहाव का अनुमान लोगों को भी लग गया है और वे बचाव का प्रबंध कर लेते हैं। नदियां भी इतने पानी को संभालने की अभयस्त हो चुकी थी लेकिन इस साल एक तो कई दिनों तक मूसलाधार बारिश की मात्रा का किसी को अनुमान नहीं था, दूसरा-बरसात का प्रकोप उस समय आया जब बारिश का मौसम समाप्ति पर था और लोग सूखे की चिंता करने लगे थे।

जो नाले बड़ी नदियों के जल की आपूर्ति करते हैं, वे सब ऊंचाई से नीचे की ओर उतरते हैं। पानी वहीं सबसे अधिक बरसा और वे लबालब भर गए। अपनी तीव्र गति और असाधारण ऊर्जा के कारण वे अपने किनारों को भी बहाकर ले आए। मुख्य नदियां तब तक कुछ नियंत्रण में रहीं जब तक वे तंग घाटी मार्ग से गुजरती थीं। लेकिन बाहर निकलते ही पूरे मैदानी इलाके पर छा गई और देखते-देखते हरे भरे खेतों को बड़ी-बड़ी झीलों में बदल दिया। कुछ गांव जलमग्न हो गए तो कुछ बस्तियां टापुओं में बदल गई जिनका बाकी दुनिया से संबंध ही कट गया।

बाढ़ और भूकंप जैसी तबाहियां जहां भारी मात्रा में जनहानि और संपत्ति का नाश करती हैं वहीं कथित प्रगति और विकास की पोल भी खोलती हैं। जम्मू कश्मीर में भयानक बाढ़ के दो पहलू हैं। एक यह कि इस साल अकस्मात बहुत पानी बरसा और पहाड़ी इलाका होने के कारण बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुआ। खेती तबाह हुई और घर उजड़ गए। ये किसी भी बाढ़ के स्वाभाविक परिणाम होते हैं चाहे वह कहीं भी आए। दूसरा पहलू है कि जम्मू कश्मीर में इस बाढ़ के असाधारण रूप से गांवों में विनाश लीला की। जितने घर उजड़ गए, जितनी जमीन पानी के नीचे आई, बेशक वह असाधारण थी। जितनी सड़कें उखड़ गईं, जितने पुल टूट कर पानी में बह गए, उसका भी कश्मीर के पिछले सौ साल के इतिहास में कोई मिसाल नहीं है। कश्मीर में हर पहाड़ी राज्य की तरह आकस्मिक बाढ़ आ जाती है जिसे अक्सर ‘फ्लैश फ्लड’ कहा जाता है। लेकिन ऐसी पहाड़ी नदियों में आकस्मिक बाढ़ को भी मर्यादित किया जा सकता था। इनसे जनहानि कम-से-कम होती थी। इन नालों पर पुल इसीलिए बनाए जाते थे कि असामान्य स्थितियों में नदियों को पार करने वाली सड़कें चालू रहें। लेकिन इस बार सबसे पहले यही पुल नालों के शिकार हो गए। ये ऐसे उखड़ गए जैसे कच्ची मिट्टी के बने हों। इन छोटे पुलों की बात ही क्या? बड़े पुलों का भी बाढ़ ने सबूत नहीं रहने दिया। या तो पुल ही टूट गए या उनको जोड़ने वाली सड़कें ही गायब हो गईं।

पहाड़ी पर बसा जम्मू शहर तवी नदी से कभी ऐसा त्रस्त नहीं रहा कि घबरा जाए। जम्मू और पुंछ के देहात में पानी घुस जाता है और कभी-कभी गांव वालों को घर खाली करने पड़ते हैं, लेकिन इस बरस तो पानी इतना बरसा कि लगा जैसे आकाश पिघकर जमीन पर आ जाएगा। नदी नाले सारी मर्यादाएं भूल गए और तांडव करने लगे। क्या घाटी, क्या पहाड़ी इलाके? सारे राज्य में ही जलप्लावन की स्थिति है। पुनर्वास आयुक्त विनोद कौल के अनुसार 50 छोटे-बड़े पुल जिनमें तवी पर बना एक पुल भी शामिल है, बहाव के कारण या तो बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए या बह गए। साथ ही सैकड़ों किलोमीटर पक्की सड़कें भी पानी में बह गईं। जिन निदों पर अधिकांश पुल पानी का बहाव नहीं झेल सके, अक्सर देखा गया है कि उन नदियों में हर बरसात में पानी उफान पर होता है। वजह यह भी है कि उनमें से अधिकतर बरसाती नदियां ही हैं जिनका कोई बड़ा स्थाई स्रोत नहीं है। हर बार पानी खतरे के निशान से आगे तक चला जाता है।

सड़क निर्माता यह विचार करके ही निर्माण करते हैं कि पुल और इन्हें जोड़ने वाली सड़कें पानी के असाधारण बहाव को आसानी से सह लेंगे। इस तरह के आपातकाल की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही निर्माण कार्य होता है। लेकिन जम्मू कश्मीर में पिछली बड़ी बाढ़ 1994 में आई थी, यानी बीस साल पहले। इनमें से अधिकतर पुल इन्हीं दो दशकों के विकास कार्यक्रमों का नतीजा थे। लेकिन लगता है कि सरकारें और उनके आयोजक इंजीनियर यह मान चुके थे कि यह तो इतिहास है और देसी बाढ़ दुबारा नहीं आएगी।

वहीं, इससे बड़ी के आने का तो सवाल ही नहीं था। राज्य के लोगों का मानना है कि इस लापरवाही के पीछे लेन-देन का वह व्यापक तंत्र है जो हमारे देश में ऐसे कार्यों में चलता रहा है और जो जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में तो यह कोई नई बात ही नहीं है। आमतौर पर मुख्य नदियों के किनारों पर बस्तियों के प्रति सरकारें सचेत रहती हैं लेकिन छोटी नदी-नालों को नजरअंदाज किया जाता है जबकि पहाड़ी राज्यों में जितनी तबाही बड़ी नदियां नहीं करतीं, उतनी ये छोटी नदियां करती हैं। इसका उदाहरण कश्मीर की राजधानी श्रीनगर ही है।

झेलम श्रीनगर को कोई बड़ा नुकसान पहुंचा बगैर ही निकल रही है लेकिन नगर के बगल से बहने वाली झेलम की एक चोटी सहायक नदी दूध गंगा ने नगर के एक निचले इलाके को डुबो दिया। बेमिना श्रीनगर का एक बड़ा इलाका है जहां दूध गंगा का तटबंध टूट जाने के कारण रातों रात पानी भर आया। जन हानि इसलिए अधिक होने की आशंका है क्योंकि लोगों को समय रहते चेतावनी नहीं दी गई थी।

हालांकि मौसम विभाग ने पहले ही बता दिया था कि बरसात पूरे सप्ताह होती रहेगी। जब प्रशासन को स्वयं अनुमान नहीं था कि इतनी बरसात का क्या प्रभाव हो सकता है तो बचावी कार्रवाई के लिए तैयार कैसे होती। गनीमत है कि ऐसे मौकों पर कश्मीर में सेना सामने आ जाती है और प्राथमिक मदद पहुंचाती है। जम्मू कश्मीर में आपदा प्रबंधन आज भी शैशव अवस्था में है इसलिए पुनर्वास में लोगों की जितनी सहायता की जा सके, उतनी तो होनी चाहिए लेकिन यह भी आवश्यक है कि भावी मुसीबतों से निपटने के लिए आपदा आकलन और प्रबंधन की जिम्मेदारी का एहसास भी राज्य सरकार को दिलाया जाना चाहिए।

जम्मू बाढ़ ने याद दिलाई उत्तराखंड की त्रासदी


कश्मीर में आज जिस तरह के हालात हैं, उसने पिछले साल की उत्तराखंड त्रासदी की यादें ताजा कर दी हैं। 16 जून 2013 को उत्तराखंड में आए सैलाब में कई हजार लोग मारे गए थे। वहीं, पांच हजार से ज्यादा अब भी लापता हैं। पिछले दिनों राज्य सरकार ने किसी तरह चार धाम यात्रा शुरू तो करवा दी थी लेकिन एक ओर डर के कारण जहां तीर्थयात्रियों की संख्या कम थी वहीं दूसरी ओर यात्रा के दौरान तीर्थयात्रियों को काफी परेशानियों का सामना भी करना पड़ा।

देवों की भूमि कही जाने वाली इस जगह में आज भी सड़कें मरम्मत को मोहताज हैं। बगल में तेज धार से बहती मंदाकनी, अलकनंदा और भगीरथी नदियों ने पहाड़ों को चीरते हुए अपने साथ जो मलबा बहाया था, वह आज भी बिखरा हुआ दिखता है। उजड़े हुए घरों की मरम्मत अब भी नहीं हो सकी है और आधे से ज्यादा पुल टूटकर नदियों के आगे नतमस्तक पड़े हैं। इस आपदा की सबसे ज्यादा मार झेल रहे हैं राज्य के गढ़वाल इलाके के स्थानीय लोग।

जम्मू कश्मीर में बाढ़धर्मशालाएं और चाय-नाश्ते के होटल वीरान पड़े हैं और होटलों के कर्मचारी बाहर सड़कों पर रास्ते से गुजरती गाड़ियों को हाथ हिलाकर अपने यहां न्यौता देते दिखाई पड़ते हैं। हालात ऐसे हैं कि यहां होटलों ने अपने दाम भी गिरा दिए हैं फिर भी पर्यटक नहीं मिलते।

गुप्तकाशी स्थित एक होटल के मालिक के मुताबिक, ‘4,000 रुपए का कमरा हम आपको 1,200 रुपए में देंगे, लेकिन हमारे यहां ही रुकिए।’ रुद्रप्रयाग से दोनों धामों की ओर जाने वाली सड़क पर एक बड़ी धर्मशाला है। सुजान सिंह बिष्ट इसमें आठ वर्षों से काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया, ‘पिछले साल 16 मई से धर्मशाला खाली हुई तो आज तक दो से ज्यादा तीर्थयात्री नहीं आए। हमें तो यहीं रहना है, पेट कैसे भरें।’ वह आगे कहते हैं, ‘हर साल इस देवभूमि में तीर्थ यात्रियों की भारी भीड़ उमड़ती थी, लेकिन इस साल यहां वीरानगी छाई है। सड़कें खाली हैं, वादियां सूनी हैं। न तो बसें भरी हुई हैं और न ही टैक्सियां।’ बहरहाल, जम्मू में आई बाढ़ ने एक बार फिर से हमें उत्तराखंड त्रासदी की याद दिला दी है। एक बार फिर वही डर सबकी आंखों में तैरता दिख रहा है।

नर्क बन गया है ‘धरती का स्वर्ग’


जम्मू कश्मीर के हालात खराब हैं। साठ साल बाद देश का स्वर्ग कुदरत के इस भयावह कहर से जूझ रही है। लगातार बारिश और नदियों में आई बाढ़ की वजह से कश्मीर घाटी में बहुत से लोग मारे गए हैं और बड़ी तादाद में लोग बेघर भी हुए हैं। सेना के मुताबिक अब तक अलग-अलग इलाकों से आठ हजार लोगों को बचाया गया है जबकि 2000 लोगों के रहने-खाने की व्यवस्था की गई है।

वहीं मौसम विभाग का कहना है कि बारिश का कहर कम होगा, लेकिन अगर ऐसे ही बारिश होती रही तो स्थिति और बिगड़ जाएगी। बता दें कि राज्य के पर्यटन मंत्री भी अनंतनाग इलाके में अपने घर में तीन दिन से फंसे रहे। जम्मू की तवी नदी पर बना मजबूत पुल तेज बहाव में पानी की ताकत से बह गया। पुलों को बंद कर दिया गया है। मंदिर डूब गया, गांव डूब गए हैं। बाढ़ और बारिश ने देश का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की सूरत ही बिगाड़ कर रख दी है। कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में लोगों का जीना दुश्वार हो चुका है। यहां जिंदगी नर्क में बदल गई है। एक घर से दूसरे घर जाने के लिए भी लोग नाव का इस्तेमाल कर रहे हैं। पतली गली में नावें चल रही हैं। घरों के आगे गाड़ियों की जगह बोट दिखाई दे रही हैं।

श्रीनगर के कई इलाकों में तो हालात बद से बदतर हो गए गए हैं। हालात खराब हैं और बचाव दल के लोग जुटे हुए हैं। बीमार, बच्चों, महिलाओं को सुरक्षित सगहों पर पहुंचाया जा रहा है। श्रीनगर में चाहे मोहल्ला हो, सड़क हो, रेलवे लाइन हो या फिर एयरपोर्ट का इलाका, हर जगह सिर्फ पानी है। कश्मीर के अन्य इलाकों का भी यही हाल है। नदियां उफान मार रही हैं। आसमान में घने बादल छाए हैं। बारिश रुक नहीं रही और स्थिति दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है। जम्मू के हालात भी कुछ ठीक नहीं हैं। जिस तरह से तवी नदी में पानी बढ़ रहा है, खतरा भी बढ़ता जा रहा है। नदी का बढ़ता पानी लोगों की जान के लिए भी खतरा बनता जा रहा है। सैकड़ों लोग मर चुके हैं।

जम्मू स्थित तवी नदी पर चार पुल हैं जो जम्मू शहर और कटरा को जोड़ते हैं। इनमें से पुराने जम्मू को नए जम्मू से जोड़ने वाला पुल बह गया है। देश का स्वर्ग बदरंग हो गया है। बाढ़ का मटमैला पानी और भू-स्खलन लोगों की जान ले रहा है। सेना, स्थानीय प्रशान और एनडीआरएफ की टीम बचाव कार्य में जुटी हुई हैं। पूंछ के राजौरी इलाके से पचास लोगों को सेना ने सुरक्षित बाहर निकाला है। ये लोग कई दिनों से वहां बाढ़ में फंसे हुए थे। राज्य सरकार का दावा है कि वह अपनी हर संभव कोशिश कर रही है।

गौरतलब है कि यहां ऐसे हालात तब हैं जब लोकसभा में पिछले महीने विभिन्न दलों के सदस्यों ने देश में मानसून की कमी के कारण बने सूखे के हालात तथा कई क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा था कि प्राकृतिक आपदा जैसी समस्याओं का स्थायी समाधान निकाला जाना चाहिए। अनेक सदस्यों ने बाढ़ और सूखे के संतुलन के लिए नदियों को जोड़ने की योजना पर काम शुरू करने की जरूरत भी बताई थी। देश में बाढ़ और सूखे की स्थिति पर नियम 193 के तहत सदन में हुई चर्चा को आगे बढ़ाते हुए भाजपा के रामसिंह राठवा ने कहा था कि अटल बिहारी वाजपयी की सरकार में नदियों को जोड़ने की जिस योजना पर विचार किया गया था, उस पर जल्दी काम शुरू किया जाना चाहिए। ऐसा होने से देश में सूखा और बाढ़, दोनों से बचाव हो सकेगा।

जम्मू कश्मीर में बाढ़

पड़ोस में भी हालात खराब


पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी बारिश का कहर जारी है। यहां भी बारिश और बाढ़ से सैकड़ों लोग मारे गए हैं और तीन लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने सियालकोट जिले के बाढ़ प्रभावित इलाकों का दौरा किया और पंजाब सरकार को पीड़ितों की मदद के लिए हरसंभव कदम उठाने के निर्देश दिए। उन्होंने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के अध्यक्ष को बाढ़ से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए इलाकों का दौरा करने और लोगों को आपात से राहत उपलब्ध कराने के निर्देश भी दिए हैं।

सतलुज नदी में बढ़ते पानी की वजह से वेहारी जिले के पांच उपमंडलों को भी सतर्क कर दिया गया है। एनडीएमए ने बाढ़ प्रभावित इलाकों में बाढ़ पीड़ित लोगों के लिए 44 राहत शिविर लगाए हैं। सेना प्रभावित इलाकों के लोगों को सुरक्षित जगहों पर ले जाने में मदद कर रही है और उन्हें भोजन, पानी और दवाइयां उपलब्ध करा रही है।

बारिश की वजह से शहरी इलाकों में भी समस्याएं आ रही हैं । कराची, लाहौर और रावलपिंडी जैसे बड़े शहर भी बाढ़ का सामना कर रहे हैं। कराची में भारी बारिश से व्यापक क्षति हुई है है। 160 से ज्यादा लोग इसमें मारे गए हैं। मौसम विभाग ने आने वाले दिनों में और बारिश होने का अनुमान लगाया है। पाकिस्तान ने अब तक अंतरराष्ट्रीय राहत के लिए किसी तरह की अपील नहीं की है। इससे पहले वर्ष 2010 में पाकिस्तान में अब तक की सबसे विनाशकारी बाढ़ में 1800 से अधिक लोग मारे गए थे।

जम्मू कश्मीर में बाढ़

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