जहरीले होते खाद्य उत्पाद


सामान्य खाद्य पदार्थों के मामले में तो यह स्पष्ट हो ही गया था कि इनमें घातक कीटनाशकों की मात्रा मानक स्तर से कई गुना अधिक तक पहुँच गई है। परन्तु रसायन मुक्त कहे जाने वाले अनेक अत्यन्त महँगे जैविक या आर्गेनिक खाद्य पदार्थों में इनकी मौजूदगी भारत में विद्यमान अनैतिकता व भ्रष्टाचार का नया अध्याय खोल रही है।

सब्जियों फलों और खाने पीने की अन्य चीजों में कीटनाशकों के खतरनाक स्तर पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने चिन्ता जाहिर की है। सरकार द्वारा विभिन्न खुदरा और थोक बिक्री दुकानों से इकट्ठा की गई सब्जियों, फलों, दूध और अन्य खाद्य उत्पादों के नमूनों में कीटनाशक के जो अंश पाए गए हैं वे मानव जीवन के लिए बेहद खतरनाक है। कृषि मन्त्रालय की रिपोर्ट के हवाले से आई इन खबरों में कहा गया है कि जहर की मात्रा पिछले छः बरस में तय मानकों से दोगुना हो गई है। यहाँ तक कि जैविक उत्पादों की बिक्री करने वाले संस्थानों से इकट्ठा किए नमूनों में भी कीटनाशक के अंश तयशुदा मात्रा और स्तर से अधिक पाए गए हैं।

गौरतलब है कि 2005 में प्रारम्भ हुई केन्द्रीय कीटनाशक अपशिष्ट निगरानी योजना के अन्तर्गत देशभर से इकट्ठा किए गए तकरीबन बीस हजार से ज्यादा नमूनों में से लगभग बारह फीसदी से ज्यादा कीटनाशक पाए गए हैं। देशभर की मंडियों, खेतों और खुदरा बिक्री कन्द्रों से लिए गए नमूनों में सबसे ज्यादा 56 फीसदी नमूने सब्जियों के अमानक साबित हुए हैं। आश्चर्य का विषय यह भी रहा कि दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों में हालात ज्यादा खतरनाक और चिन्ताजनक मिले। यहाँ सब्जियों के 8342 नमूनों में से 1875 नमूनों में कीटनाशक की मात्रा अधिक पाई गई। वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान इकट्ठा किए गए इन नमूनों की जाँच देश की पच्चीस विभिन्न प्रयोगशाला में की गई थी।

कीटनाशकों के खतरनाक स्तर पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य जस्टिस डी. मुरुगेसन ने फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथाॅरिटी आॅफ इंडिया, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों का नोटिस जारी करते हुए इसी वर्ष दिसम्बर के प्रथम सप्ताह जवाब तलब किया है। नोटिस में पूछा गया है कि सब्जियों, फलों, दूध और अन्य खाद्य उत्पादों में कीटनाशकों की मात्रा और स्तर कम करने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं और उठाए जा रहे हैं ? गौरतलब है मीडिया में छपी रिपोर्टाें के आधार पर आयोग ने खुद ही संज्ञान लेकर कार्रवाई की है।

सर्वोच्च न्यायालय लगातार यह व्यवस्था देता रहा है कि खाने पीने का अधिकार संविधान के तहत जीवन के मूल अधिकार के तहत आता है और सरकार का यह सर्वोच्च कर्तव्य है कि वह लोगों के जीवन की रक्षा करे एवं स्वास्थ्य को ठीक रखने के दिशानिर्देश भी सुनिश्चित करें। किन्तु खेद का विषय है कि हमारी सरकारें ऐसा कुछ भी सुनिश्चित कर पाने में सामान्यतः असफल ही रही हैं। तभी तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को खुद ही संज्ञान लेना पड़ा और इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय को भी व्यवस्था देनी पड़ती है। ऐसा क्यों होता है कि मानव जीवन के स्वास्थ्य के प्रति सरकारें सोती रहती हैं और उत्पादन बढ़ाने के चक्कर में कीटनाशकों का अंश और स्तर बदस्तूर अमानक पाया जाता रहता है? अगर खाद्य उत्पाद हानिकारक हैं तो क्या यह जीवन के मूल अधिकार के साथ ही साथ मानवाधिकार का भी उल्लंघन नहीं है? अपने नागरिकों के जीवन की रक्षा की जिम्मेदारी यदि सरकार की नहीं है तो फिर किसकी है? बाजार में बिकने और उपलब्ध होने वाले खाद्य उत्पाद अंततः किसके भरोसे छुट्टे छोड़ दिए गए हैं ?

कृषि मन्त्रालय द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक कृषि उत्पाद विपणन समिति, जैविक उत्पाद बेचने वाली दुकानों और खुदरा व थोक बाजारों से सब्जियों, फल, दूध, चाय, अंड़े, मांस, मसाले, लाल मिर्च, कडी पत्ते, दाल, चावल, गेहूँ, मछली, सामुद्रिक खाद्य उत्पाद आदि के नमूने इकट्ठे किए थे और इन सभी में खतरनाक कीटनाशकों का अंश और स्तर अमानक पाया गया है जो स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। इतना ही नहीं जैविक उत्पादों की गुणवत्ता दावा भी गलत दिशा में ही जा रहा है।

हमारे देश में कीटनाशक नियन्त्रण हेतु तीन बड़ी संस्थाएं कार्यरत हैं। ये हैं सेंट्रल इंसेक्टिसाइड्स बोर्ड एंड रजिस्ट्रेशन कमेटी, फूड सेफ्टी एंड स्टैंडडर्स अथाॅरिटी आॅफ इंडिया और एग्रीकल्चर एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्टस एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथाॅरिटी। ये तीनों संस्थान क्रमशः कृषि, स्वास्थ्य और वाणिज्य मन्त्रालयों के तहत काम करते हैं, लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि इनके कामकाज में आपसी तालमेल का नितान्त अभाव है। इस वजह से प्रतिबंधित कीटनाशकों की बिक्री सरेआम खुले बाजार में हो रही है। इनकी बिक्री के लिए लाइसेंस देने की प्रक्रिया भी बेहद लचर ही है। सरकारी ढीलेपन का आलम यह है कि कीटनाशक प्रबंधन विधेयक 2008 अभी तक पारित ही नहीं हो पाया है।

दरअसल ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि सरकार की प्राथमिकता अधिक पैदावार हासिल करना और अधिक से अधिक लोगों के लिए खाद्य उत्पाद उपलब्ध करवाना ही है। जाहिर है कि ऐसे में कीटनाशक नियन्त्रण का प्रकरण पीछे छूटता जाता है। दूसरी ओर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सर्वोच्च न्यायालय सहित अनेक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय संगठन इस सन्दर्भ में लगातार चिन्ता व्यक्त करते हुए चेतावनी दे रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में इस बात पर ‘‘गहरी चिन्ता और नाराजगी व्यक्त की गई है कि जहाँ एशिया के प्रमुख देशों में मोनोक्रोटोफाॅस जैसे कीटनाशकों को सिरे से ही प्रतिबंधित कर दिया गया है। वहाँ भारत में इसका उत्पादन, इस्तेमाल और दूसरे देशों को निर्यात का सिलसिला अब भी सतत जारी है। कुछ अर्सा पहले बिहार के एक विद्यालय में मध्यान्ह भोजन में खतरनाक और प्रतिबंधित कीटनाशक मोनोक्रोटोफाॅस मिला हुआ पाया गया था। जिसके परिणामस्वरूप बीस बच्चों की असामयिक मौत हो गई थी।”

एकाधिक सर्वेक्षणों सs यह भी ज्ञात हुआ है कि ऐसे ही और इसी तरह के कई प्रतिबंधित कीटनाशकों के इस्तेमाल की वजह से देश में कैंसर के अलावा गुर्दे और यकृत जैसे विशिष्ट अंगों के निष्क्रिय हो जाने के मामलों में इजाफा हुआ है। कुछ ऐसे ही कीटनाशकों के कारण कई जगहों पर भूजल का जहरीला हो जाना भी पाया गया है। आखिरकार कीटनाशकों के मामलों में सरकार सख्ती क्यों नहीं दिखा पा रही है और सरकार का जिम्मेदार अमला चुस्त दुरस्त हो जाने का परिचय क्यों नहीं दे पा रहा है? आज सरकारी अमला प्रतिबंधित कीटनाशकों की बिक्री और उपयोग को रोक पाने में निरन्तर असफल साबित हो रहा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सर्वोच्च न्यायालय की चिन्ता और चेतावनी के बावजूद सरकार प्रतिबंधित कीटनाशकों की बिक्री और उपयोग को खुलेआम छोड़ देने का अपराध कर रही है। प्रतिबंधित कीटनाशकों के अनियमित इस्तेमाल से अधिसंख्य खाद्य उत्पाद दूषित होते हैं और निष्क्रियता में डूब रही सरकार की ओर से मात्र यह कह दिया जाना क्या पर्याप्त मान लिया जाए कि उसकी एजेंसियाँ कीटनाशकों के नियन्त्रण में लगी हुई हैं ?

प्रतिबंधित कीटनाशकों के सन्दर्भ में हालत इतने बदतर हो चुके हैं कि सरकार द्वारा पेश की जा रही सफाई और गम्भीरता मात्र मजाक ही लगती है। खुद सरकार के ही सर्वेक्षणों के आंकड़े बता रहे हैं कि हमारे खाद्य उत्पाद किस हद तक जहरीले हो गए हैं? सामान्य से सामान्य खाद्य उत्पादों का खतरनाक स्तर तक जहरीला हो जाना सरकार की गम्भीर असफलता ही कही जाएगी।

श्री राजकुमार कुम्भज वरिष्ठ कवि एवं लेखक हैं।

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