जीर्ण-शीर्ण स्थिति में खरड गांव का महाभारत कालीन तालाब

20 May 2013
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प्राचीन काल से ही तालाबों, पोखरों, जोहड़, नदियां आदि प्रकृति की देन है। सृष्टि के आरम्भ में लोग कृषि एवं जीवनयापन के लिए इन्हीं के किनारे बसते थे। जिससे जीवनयापन आसान हो सके। लेकिन अब प्रदूषण, कब्ज़ा, कूड़ा-करकट भराव आदि विकृति समाज में आ गई है। जिससे इन प्राकृतिक धरोहरों को जैसे मानव ने नष्ट करने के लिए ठान लिया है। जिसका दुष्परिणाम आने वाली पीढ़ियाँ अवश्य भुगतेंगी। इसी प्रकार मेरठ- करनाल सड़क मार्ग से 3 किलोमीटर की दूरी पर गांव खरड है। यहां पर महाभारतकालीन तालाब जर्जर स्थिति में है। अब तक गांव के लोग इस तालाब से मिट्टी का खनन करते रहे। जिससे यह तालाब उबड़-खाबड़ और गहरा हो गया। तालाब के एक तरफ पंचायत ने पक्का कर दिया। लेकिन बाकी मेड़ों का बुरा हाल है। गांव के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के कारण ही इस तालाब का अस्तित्व बचा हुआ है। वैसे भी जिला मुख्यालय से अधिक दूरी होने के कारण भी प्रशासन का इस ओर ध्यान नहीं जाता। यह तालाब लगभग 6 एकड़ में बना है।

इस तालाब के चारों ओर खाण्डव वन क्षेत्र था यह वन अब भी थोड़ा बहुत बचा है। इस वन में कदम्ब के पेड़ हैं जो पहले महाभारत काल में ही होते थे। इस वन में होने के कारण लोग इसे बनी का तालाब भी कहते हैं। यह तालाब इस क्षेत्र का सबसे बड़ा तालाब है। ऐसे तालाब वर्षा जल संरक्षण के अच्छे प्राकृतिक स्रोत हैं जो हमारी मिट्टी में भी नमी बनाए रखते हैं।

गांव के बुजुर्ग लोग इस तालाब के बारे में बताते हैं कि महाभारत के श्लोक के अनुसार युद्घ की समाप्ति पर दुर्योधन युद्घ क्षेत्र से आकर तालाब में छिप गया तो भीम ने पीछा करके अपने उत्तेजित वाणी से उसे बाहर निकाला। तब भीम ने कृष्ण का इशारा पाकर गदायुद्ध के नियमों के विपरीत दुर्योधन की जांघ तोड़ दी और दुर्योधन मारा गया। यहीं पर बलराम व कृष्ण का विवाद हुआ। अब भी इस तालाब के चारों ओर गड्ढे हैं। ज़मीन भी इस जगह पर ऊंची-नीची है। इस कारण गांव का नाम भी खरड पड़ा। महाभारत में उस तालाब को द्वैपायन कहा गया है। आज भी इस तालाब के पास धार्मिक स्थान विद्यमान है। यह इसका प्रमाण है कि प्राचीन काल से ही लोग त्योहारों पर तालाबों पर भी दिए जलाते हैं और इनके संरक्षण की भगवान से कामना करते हैं।

इस तालाब के नज़दीक माई का मेला भी प्रतिवर्ष लगता है। अगर स्थानीय प्रशासन/पंचायत प्रतिनिधि इस तालाब का सौन्दर्यीकरण कराए तो लोग इसके किनारे बैठ सकते हैं तथा लोग इस तालाब की प्राचीनता को भी जान सकते हैं। अब धन दौलत की भाग दौड़ में लोग अपनी प्राचीन व ऐतिहासिक धरोहरों से अनजान होते जा रहे हैं। उनके पास इन सब चीजों के लिए समय ही नही है। अगर यही हाल रहा तो धीरे-धीरे लोग इन ऐतिहासिक धरोहरों को खो देंगे। हम सब का दायित्व है कि इन धरोहरों को सहेज कर रखें। ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में हमारे बुजुर्गों ने पीढ़ी दर पीढ़ी हमें इनका ज्ञान स्थानान्तरण किया। अगर हम इन धरोंहरों को बचाएंगे नहीं तो आने वाली पीढ़ियों को इसके बारे में कैसे बताएंगे।

इस प्राचीन तालाब के उत्तर की ओर एक घाट बना है। जिसमें 12 सीढ़ियां बनी हुई हैं। इसके बायीं ओर शिला पर कुछ लिखा हुआ है। जो अधिक समय होने के कारण स्पष्ट रूप से नहीं पढ़ा जा सका। तालाब के पास मन्दिर होने के कारण साधु संतों का निवास रहा है। हमें ऐसे तालाबों के संरक्षण की जरूरत है। इन्हें बचाने के लिए सरकार को भी पहल करनी होगी। इन तालाबों की सबसे अधिक जरूरत स्थानीय लोगों को है। इसलिए ग्रामीण समुदाय को भी इसकी पहल के लिए आगे आना होगा। पहले लोग अपने गांव के सार्वजनिक स्थानों के लिए श्रम दान करते थे। फिर से उसी प्रवृत्ति को जागृत करना होगा। श्रमदान के माध्यम से ही हम अपनी इन ऐतिहासिक धरोहरों को बचा पायेंगे।

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