जल की गुणवत्ता : एक ज्वलंत मुद्दा

30 Mar 2020
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जल की गुणवत्ता : एक ज्वलंत मुद्दा
जल की गुणवत्ता : एक ज्वलंत मुद्दा

प्राचीनकाल में अधिकांश सभ्यताओं का उदय नदियों के तट पर हुआ है, जो इस बात को इंगित करता है कि जल, जीवन की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये अनिवार्य ही नहीं, बल्कि महत्त्वपूर्ण संसाधन भी रहा है। विगत कई दशकों में तीव्र नगरीकरण, आबादी में निरंतर बढ़ोतरी, पेयजल आपूर्ति तथा सिंचाई हेतु जल की मांग में वृद्धि के साथ ही औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार इत्यादि ने जल-संसाधनों पर दबाव बढ़ा दिया है। एक ओर जल की बढ़ती मांग की आपूर्ति हेतु सतही एवं भूमिगत जल के अनियंत्रित दोहन से भूजल स्तर में गिरावट होती जा रही है तो दूसरी ओर प्रदूषकों की बढ़ती मात्रा से जल की गुणवत्ता एवं उपयोगिता में कमी आती जा रही है। अनियमित वर्षा, सूखा एवं बाढ़ जैसी आपदाओं ने भूमिगत जल पुनर्भरण को अत्यधिक प्रभावित किया है।

आज विकास की अंधी दौड़ में औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार एवं तीव्र नगरीकरण ने देश की प्रमुख नदियों विशेष रूप से गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, नर्मदा एवं कृष्णा को प्रदूषित कर दिया है। जल की गुणवत्ता में गिरावट का एक प्रमुख कारण बढ़ता जल प्रदूषण है।

नवंबर 2019 को भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards-BIS) द्वारा जल की गुणवत्ता पर प्रकाशित रिपोर्ट में यह बताया गया है कि जल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये अति आवश्यक है तथा बेहतर पारिस्थितिकी के निर्माण में इसकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। रिपोर्ट द्वारा प्रदर्शित आँकड़ों ने एक बार पुनः जल की गुणवत्ता संबंधी प्रश्न को चर्चा के केंद्र में ला दिया है।

रिपोर्ट संबंधी प्रमुख तथ्य

  • जल जीवन मिशन के अंतर्गत वर्ष 2024 तक सभी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने संबंधी उद्देश्य के तत्त्वावधान में भारतीय मानक ब्यूरो ने 21 महानगरों में जल की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिये सैंपल एकत्र किये।
  • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में लिये गए जल के सैंपल भारतीय मानक ब्यूरो के परीक्षण में 28 मानकों में से 19 मानकों पर विफल साबित हुए।
  • रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि भारत एक गंभीर जल संकट की चपेट में है, जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगातार कम होती जा रही है।
  • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में जनगणना 2011 के आँकड़ों के अनुसार, लगभग 33.41 लाख परिवार निवास करते हैं जिनमें से 27.16 लाख अर्थात 81.30% घरों में पाइप आपूर्ति प्रणाली के माध्यम से जल उपलब्ध कराया जाता है। हालाकि मात्र 75.20% घरों में ही उपचारित जल की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है।
  • वर्ष 2030 तक पेयजल आपूर्ति की मांग बढ़कर वर्तमान मांग (1508 क्यूबिक मीटर) से दोगुनी हो जाएगी।
  • भारतीय मानक ब्यूरो ने वर्ष 2018 में प्रकाशित नीति आयोग की रिपोर्ट के हवाले से बताया कि लगभग 600 मिलियन लोग गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। इसलिये स्वच्छ जल की गुणवत्ता मानवीय अस्तित्व के लिये बहुत आवश्यक है।

जल जीवन मिशन

  • जल जीवन मिशन जल शक्ति मंत्रालय के पेयजल एवं स्वच्छता विभाग द्वारा क्रियान्वित एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना है।
  • केंद्रीय बजट 2019-20 में इस मिशन की घोषणा की गई थी।

उद्देश्य

  • यह योजना देश भर में स्थायी जल आपूर्ति प्रबंधन के अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये केंद्र और राज्य सरकार द्वारा चलायी जा रही अन्य सभी योजनाओं को समाहित करेगी।
  • सभी लोगों को वर्ष 2024 तक सुरक्षित और पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराना।
  • हर घर तक पाइप द्वारा जलापूर्ति सुनिश्चित करना।

स्वच्छ जल की गुणवत्ता

जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर विद्यमान संसाधनों में जल सबसे महत्त्वपूर्ण है। जल का सबसे शुद्धतम रूप प्राकृतिक जल है, हालाकि यह पूर्णतः शुद्ध रूप में नहीं पाया जाता। कुछ अशुद्धियाँ जल में प्राकृतिक रूप से पायी जाती हैं।

वर्षा का जल प्रारंभ में तो विशुद्ध रहता है, लेकिन भूमि के प्रवाह के साथ ही इसमें जैव एवं अजैव खनिज द्रव्य घुल जाते हैं। इस प्रकार प्राकृतिक जल में उपस्थित खनिज एवं अन्य पोषक तत्व, मानव सहित समस्त जीवधारियों के लिये स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक ही नहीं वरन महत्त्वपूर्ण भी हैं। गुणवत्ता की दृष्टि से पेयजल में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिये-

भौतिक गुणवत्ता : जल पूर्णतया रंगहीन, गंधहीन, स्वादयुक्त एवं शीतल होना चाहिये।
रासायनिक गुणवत्ता : जल में घुलनशील ऑक्सीजन, पीएच मान तथा खनिजों की मात्रा स्वीकृत सीमा में होनी चाहिये।
जैविक गुणवत्ता : जल जनित रोगकारक अशुद्धियों से पूर्णतया मुक्त होना चाहिये।

जल की उपलब्धता एवं मांग

  • संपूर्ण जल का लगभग 97.25% हिस्सा महासागरों में विद्यमान है जो खारा होने के कारण पीने योग्य नहीं है। शेष 2.75% पेयजल सतही एवं भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है। मृदु होने के कारण यह जल पीने तथा अन्य कार्यों के लिये सर्वथा उपयुक्त होता है। एक अनुमान के अनुसार, पृथ्वी पर कुल 8.4 घन किलोमीटर स्वच्छ जल विशेषतः हिमपेटियों एवं हिमनदों, नदियों, झीलों, झरनों, तालाबों, जलाशयों में सतही तथा धरातल के भूगर्त में भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है।
  • वर्ष 2025 तक देश की जनसंख्या लगभग 1.396 बिलियन हो जाएगी और पानी की वार्षिक खपत 1093 घनमीटर होगी।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के दौरान, भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5177 घनमीटर तथा वर्ष 2001 में 1820 घनमीटर थी। नवीनतम आंकलनों के अनुसार वर्तमान में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1486 घनमीटर है जो वर्ष 2050 तक घटकर प्रति व्यक्ति 1140 घनमीटर रह जाएगी।

जल प्रदूषण

  • जल में हानिकारक पदार्थों जैसे सूक्ष्म जीव, रसायन, औद्योगिक, घरेलू या व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से उत्पन्न दूषित जल आदि के मिलने से जल प्रदूषित हो जाता है। वास्तव में इसे ही जल प्रदूषण कहते हैं।
  • इस प्रकार के हानिकारक पदार्थों के मिलने से जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणधर्म प्रभावित होते हैं। जल की गुणवत्ता पर प्रदूषकों के हानिकारक दुष्प्रभावों के कारण प्रदूषित जल घरेलू, व्यावसायिक, औद्योगिक कृषि अथवा अन्य किसी भी सामान्य उपयोग के योग्य नहीं रह जाता।
  • पीने के अतिरिक्त घरेलू कार्यों, सिंचाई, कृषि कार्य, मवेशियों के उपयोग, औद्योगिक तथा व्यावसायिक गतिविधियों आदि में जल की भारी खपत होती है तथा उपयोग में आने वाला यह जल उपयोग के उपरान्त दूषित जल में बदल जाता है।
  • इस दूषित जल में अवशेष के रूप में वाणिज्यिक गतिविधियों के दौरान जल के सम्पर्क में आए पदार्थों या रसायनों के अंश रह जाते हैं। इनकी उपस्थिति पानी को उपयोग के अनुपयुक्त बना देती है।
  • यह दूषित जल जब किसी स्वच्छ जलस्रोत में मिलता है तो उसे भी दूषित कर देता है। दूषित जल में कार्बनिक एवं अकार्बनिक यौगिकों एवं रसायनों के साथ विषाणु, जीवाणु और अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीव रहते हैं जो अपनी प्रकृति के अनुसार जलस्रोतों को प्रदूषित करते हैं।

जल प्रदूषकों का वर्गीकरण

जल में व्यापक रूप से पाए जाने वाले कार्बनिक एवं अकार्बनिक रसायनों, रोगजनकों, भौतिक अशुद्धियों और तापमान वृद्धि जैसे संवेदी कारकों को जल प्रदूषकों में शामिल किया जाता है। जल प्रदूषकों को उनके गुणधर्म एवं मापदंडों के आधार पर निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

भौतिक प्रदूषक- भौतिक प्रदूषकों में उन पदार्थों एवं अवयवों को सम्मिलित किया जाता है जो जल के रंग, गंध, स्वाद, प्रकाश भेद्यता, संवाहक, कुल ठोस पदार्थ तथा उसके सामान्य तापक्रम इत्यादि को प्रभावित करते हैं। इनमें मुख्यतः जलमल, गाद, सिल्ट के सस्पंदित ठोस एवं तरल अथवा अन्य घुले कणों के अलावा कुछ विशेष दशाओं में तापशक्ति बिजली-गृहों एवं औद्योगिक इकाइयों से निकले प्रदूषित अवशेष इत्यादि शामिल हैं।

जैविक प्रदूषक- जैविक प्रदूषकों में उन अवांछित जैविक सामग्रियों को सम्मिलित किया जाता है जो जल में घुलनशील ऑक्सीजन, जैविक ऑक्सीजन मांग, रोगकारक क्षमता इत्यादि को प्रभावित करते हैं। इनमें जैविक सामग्रियाँ, रोगकारक जीवाणु, कॉलीफार्म बैक्टीरिया, शैवाल, जलकुंभी, जलीय फर्न तथा परजीवी कीड़ों के अलावा जलप्लवक इत्यादि प्रमुख हैं।

रासायनिक प्रदूषक- रासायनिक प्रदूषकों में मुख्यतः कार्बनिक एवं अकार्बनिक रसायन, भारी धातुएँ तथा रेडियोधर्मी पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है। ये प्रदूषक जल की अम्लीयता, क्षारीयता एवं उसकी कठोरता, रेडियोधर्मिता, विलयित ऑक्सीजन की उपलब्धता तथा रासायनिक ऑक्सीजन मांग इत्यादि को प्रभावित करते हैं।

जल प्रदूषण के कारण

  • औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप आज कारखानों की संख्या में वृद्धि हुई है और इन कारखानों के अपशिष्ट पदार्थों को नदियों, नहरों, तालाबों आदि किसी अन्य स्रोतों में प्रवाहित कर दिया जाता है जिससे जल में रहने वाले जीव-जंतुओं व पौधों पर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है साथ ही जल पीने योग्य नहीं रहता और प्रदूषित हो जाता है।
  • गाँव में लोगों के तालाबों, नहरों में नहाने, कपड़े धोने, पशुओं को नहलाने एवं बर्तन साफ करने आदि से भी ये जल स्रोत दूषित होते हैं।
  • यदि जल में परमाणु परीक्षण किये जाते हैं तो जल में इनके नाभिकीय कण मिल जाते हैं और ये जल को दूषित करते हैं।
  • ऐसे शहर जो नदी के किनारे बसे हैं वहाँ पर व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसका शव पानी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस शव के सड़ने व गलने से पानी में जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है, जिससे जल प्रदूषित होता है।
  • प्राकृतिक क्षरणयोग्य चट्टानों के अवसाद, मिट्टी पत्थर तथा खनिज तत्त्व इत्यादि को जल स्रोतों में प्रवाहित करने से जल प्रदूषित होता है।
  • व्यावसायिक पशुपालन उद्यमों, पशुशालाओं एवं बूचड़खानों से उत्पन्न कचरों का अनुचित निपटान।

जल प्रदूषण के प्रभाव

  • समुद्रों में होने वाले परमाणु परीक्षण से जल में नाभिकीय कण मिल जाते हैं जो कि समुद्री जीवों व वनस्पतियों को नष्ट करते हैं और समुद्री पारिस्थितिकी संतुलन को बिगाड़ देते हैं।
  • जल में कारखानों से मिलने वाले अवशिष्ट पदार्थ, गर्म जल, जल स्रोत को दूषित करने के साथ-साथ वहाँ के वातावरण को भी गर्म करते हैं जिससे वहाँ की वनस्पति व जंतुओं की संख्या कम होगी और जलीय पर्यावरण असंतुलित हो जायेगा।
  • प्रदूषित जल पीने से मनुष्यों में हैजा, पेचिस, क्षय, उदर संबंधी आदि रोग उपन्न होते हैं।
  • प्रदूषित जल का सेवन करने से गर्भवती महिलाओं के शरीर में हार्मोनल बदलाव होते हैं, जिससे गर्भस्थ शिशु में विकार उत्पन्न हो सकते हैं या उसकी मृत्यु हो सकती है।
  • कुछ शोधों से यह स्पष्ट हुआ है कि त्वचा कैंसर का एक प्रमुख कारण प्रदूषित जल का सेवन है।
  • पोलियो के कारण होने वाली अपंगता का भी एक प्रमुख कारण प्रदूषित जल का सेवन है।

समाधान के उपाय

देश में जल प्रदूषण को नियंत्रित करने तथा उसकी गुणवत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये वर्ष 1974 में जल प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण अधिनियम बनाया गया। जल प्रदूषण के भिन्न-भिन्न स्रोत हैं, ऐसे में इनके प्रभावी नियंत्रण के लिये उत्पन्न होने वाले स्रोतों को बंद कर समुचित प्रबंधन एवं शोधन उपचार द्वारा शुद्ध किया जाना आवश्यक है। इस समस्या के समाधान हेतु निम्नलिखित उपाय प्रयोग में लाए जा सकते हैं-

  • जल बहुत ही मूल्यवान संसाधन है देश के सभी निवासियों को इसके महत्व को ध्यान में रखकर इसे संरक्षित एवं प्रदूषित होने से बचाने में स्वैच्छिक योगदान देना चाहिये।
  • जल का पुनर्नवीनीकरण एवं इसका पुनः उपयोग, प्रदूषण नियंत्रण के सर्वोत्तम तरीकों में से एक है, जहाँ तक संभव हो सके इसे अपनी आदत में शामिल करना चाहिये।
  • जिन क्षेत्रों में औद्योगिक इकाइयों का समूह हो उन क्षेत्रों में सामान्य प्रवाह उपचार संयंत्रों को स्थापित करने में औद्योगिक समूहों को मिल कर कदम उठाना चाहिये, जिससे जल की गुणवत्ता प्रभावित न हो पाए।
  • उपचार संयंत्रों से प्राप्त अपशिष्ट जैसे- लौह एवं अलौह सामग्रियाँ, कागज और प्लास्टिक कचरे के पुनर्नवीनीकरण द्वारा अन्य उपयोगी सामग्रियों के उत्पादन हेतु नए विकल्पों की तलाश की जानी चाहिये जिससे प्रदूषकों की मात्रा को स्रोत स्थल पर कम किया जा सके।
  • मृदा परीक्षण द्वारा फसलों की आवश्यकता अनुसार समुचित मात्रा में उर्वरकों के उपयोग से जलाशय में इनके रिसाव को कम कर प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
  • किसानों को पोषक तत्व प्रबंधन तथा वाणिज्यिक उर्वरकों का सही एवं समुचित मात्रा में उपयोग करना चाहिये।
  • वर्तमान से लेकर आगे आने वाले समय में औद्योगिक बहिर्स्राव से उत्पन्न प्रदूषण नियंत्रण के लिये व्यापक योजना तैयार कर समयबद्ध तरीके से इनका कार्यान्वयन कराया जाना चाहिये।
  • बिना उपचारित औद्योगिक बहिर्स्रावों को निष्पादित करने वाली प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों को पानी की आपूर्ति प्रतिबंधित कर उनके लाइसेंसों को रद्द कर देना चाहिये।
  • पर्यावरण अनुकूल घरेलू उत्पाद एवं प्रसाधनों का उपयोग, पर्यावरण पर बहुत कम हानिकारक प्रभाव डालता है इनका उपयोग प्रदूषण को रोकने में मददगार एवं सक्रिय भूमिका निभा सकता है।

निष्कर्ष

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में स्वच्छता आंदोलन की तरह ही जन-मन की सक्रिय सहभागिता के साथ जल संरक्षण आंदोलन चलाने का आह्वान किया है। इस संकट से उबरना अकेले सरकार के वश में नहीं है। प्राप्त पेयजल का घरों में विभिन्न उपयोगों में सावधानीपूर्वक उपभोग करना, वर्षा जल का संचयन करना तथा उपयोग किये गए जल को पुनः उपयोग योग्य बनाने (वाटर रिसाइकिलिंग) के क्षेत्र में स्थानीय, प्रांतीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करना होगा। हमें शून्य जल की स्थिति से बचने के लिये कटिबद्ध होना पड़ेगा। सरकार को छोटे घरेलू वाटर रिसाइकलिंग प्लांट बनवाकर बहुमंजिली इमारतों तथा महानगरों की कालोनियों में लगाना अनिवार्य करना होगा, क्योंकि पानी की सर्वाधिक बर्बादी इन्ही इलाकों में होती है। इन पर सख्ती से रोक लगनी चाहिये। सर्वाधिक आवश्यकता जनता के स्वयं जागरूक होने की है, जैसा कि कहा भी गया है “रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून”।


लेखक

डाॅ. दीपक कोहली, उपसचिव

वन एवं वन्य जीव विभाग, उत्तर प्रदेश


 

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