जल प्रबन्धन में जवाबदारी की चुनौती

9 Jan 2015
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water management
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जिस तरह कैंसर का निदान उसके स्रोत से किया जाता है, उसी तरह प्रदूषण का निपटारा भी उसके स्रोत पर ही किया जाना चाहिए। मल हो या कचरा दोनों को ढोकर ले जाना सिर्फ सामाजिक व नैतिक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक रूप से भी पाप है। भू-जल शोषण नियन्त्रण का उपाय भू-जल स्रोतों का नियमन, लाइसेंसीकरण या रोक नहीं हो सकता।भारत में कितने ही इलाके हैं, जहाँ बारिश में बाढ़ आती है और बारिश गुजर जाने के मात्र तीन महीने बाद ही नदियाँ सूख जाती हैं और भू-जल खुद में एक सवाल बनकर सामने खड़ा हो जाता है। यह सवाल ’तालों में ताल भोपाल ताल’ के इलाके पानी पर भी है और कभी झीलों के लिए प्रसिद्ध रहे बंगलुरु के पानी पर भी। न्यूनतम 100 मि.ली. बारिश वाला जैसलमेर भी आज पेयजल की कमी वाले इलाके में शुमार है और अधिकतम 11,400 मिली मीटर वर्षा वाला चेरापूंजी भी तथा नदियों के शानदार संजाल वाला उत्तराखण्ड भी। गुणवत्ता को लेकर पँचनद वाले पंजाब के भू-जल पर भी आज सवालिया निशान है और अपनी सब स्थानीय नदियों को सुखा चुकी दिल्ली के भू-जल पर भी। दिलचस्प है कि भू-जल में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे खतरनाक रसायन वाले इलाके सबसे अधिक बाढ़ वाले बिहार में भी मौजूद हैं और हर साल सूखा से सूखते राजस्थान में भी।

यह विरोधाभासी परिदृश्य स्वयंमेव प्रमाण है कि भारत में पानी की कमी नहीं, पानी के प्रबन्धन में कमी है। प्रमाण इस बात के भी हैं कि पानी का प्रबन्धन न सरकारों को कोसने से ठीक हो सकता है, न रोने से और न किसी के चीखने-चिल्लाने से। हम इस मुगालते में भी न रहें कि नोट या वोट हमें पानी पिला सकते है। वोट पानी पिला सकता, तो देश में सबसे ज्यादा वोट वाले उत्तर प्रदेश के बाँदा-महोबा-हमीरपुर में पानी की कमी के कारण आत्महत्याएँ न होती। सिर्फ नोट से ही यदि पानी का सुप्रबन्धन सम्भव होता, तो सबसे अधिक बाँध और हमारी पंचवर्षीय योजनाओं में पानी का सबसे अधिक बजट खाने वाले महाराष्ट्र में इस वर्ष गर्मी आने से पहले ही सिंचाई और पेयजल का संकट न गहराया होता। यदि कोई कहे कि कोई कच्छ, चेन्नई और कलपक्कम की तरह करोड़ों फेंक कर खारे समुद्री पानी को मीठा बनाने की मंहगी तकनीक के बूते सभी को पानी को पिला देगा, तो यह भी हकीकत से मुँह फेर लेना है।

हकीकत यह है कि हमें हमारी जरूरत का कुल पानी न समुद्र पिला सकता है, न ग्लेशियर, न नदियाँ, न झीलें और न हवा व मिट्टी में मौजूद नमी। पृथ्वी में मौजूद कुल पानी में सीधे इनसे प्राप्त मीठे पानी की हिस्सेदारी मात्र 0.325 प्रतिशत ही है। आज भी पीने योग्य सबसे ज्यादा पानी (1.68 प्रतिशत) धरती के नीचे भू-जल के रूप में ही मौजूद है। हमारी धरती के भू-जल की तिजोरी इतनी बड़ी है कि इसमें 213 अरब घन लीटर पानी समा जाए और हमारी जरूरत है मात्र 160 अरब घन लीटर। भारत सरकार खुद मानती है कि मानसून के दौरान बहकर चले जाने वाली 36 अरब घन लीटर जलराशि को हम भू-जल बैंक में सुरक्षित कर सकते हैं। केन्द्रीय जल संसाधन मन्त्री श्री हरीश रावत जी ने एक बैठक में माना कि सरकार के पास कोई आँकड़ा नहीं है कि हम कुल वर्षाजल का कितना प्रतिशत संचित कर पा रहे हैं लेकिन सच यही है कि निकासी ज्यादा है और संचयन कम। ऐसे में पानी के खातेदार कंगाल हो जाएँ, तो क्या आश्चर्य!

हमारी जरूरत का कुल पानी न समुद्र पिला सकता है, न ग्लेशियर, न नदियाँ, न झीलें और न हवा व मिट्टी में मौजूद नमी। पृथ्वी में मौजूद कुल पानी में सीधे इनसे प्राप्त मीठे पानी की हिस्सेदारी मात्र 0.325 प्रतिशत ही है। आज भी पीने योग्य सबसे ज्यादा पानी (1.68 प्रतिशत) धरती के नीचे भू-जल के रूप में ही मौजूद है। सच यह भी है कि अभी तक देश में जल संरचनाओं के चिह्नीकरण और सीमांकन का काम ठीक से शुरू भी नहीं किया जा सका है। भारत के पास कहने को राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर पर अलग-अलग जलनीति जरूर है, लेकिन हमारे पानी प्रबन्धन की चुनौतियों को जिस नदी नीति, बाँध नीति, पानी प्रबन्धन की जवाबदेही तथा उपयोग व मालिकाना सुनिश्चित करने वाली नीति, जलस्रोत से जितना लेना, उसे उतना और वैसा पानी वापस लौटाने की नीति की दरकार है, वह आज भी देश के पास नहीं है। बावजूद इसके सभी के सच तो यही है कि यदि आज भी हमें हमारी जरूरत का पूरा पानी यदि कोई पिला सकता है, तो वे हैं सिर्फ और सिर्फ बारिश की बूंदे। जाहिर है कि भू-जल प्रबन्धन ही पानी प्रबन्धन की सबसे पहली और जरूरी बुनियाद है।

बूंदों पर टिकी बुनियाद


बारिश की बूंदों को सहेजने की हमारी संस्कृति पिछले दो दशक से सरकारी योजनाओं, दस्तावेजों और बयानों में उतर जरूर आई है; स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ की बहुप्रचारित शब्दावली सीख ली है; लेकिन देश के एक बहुत बड़े समुदाय को अभी भी यह समझने की जरूरत है कि छोटी और परम्परागत इकाइयाँ ही हमें वह जल सुरक्षा वापस लौटा सकती हैं, जो खाद्य सुरक्षा और औद्योगिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोशिशों में हमने पिछले 66 वर्षों में खोई है।

यह दावा कागज पर समझाना मुश्किल है, लेकिन लद्दाख, करगिल, लाहौल और स्पीति जैसे शुष्क पहाड़ी और ठण्डे रेगिस्तानों के जिंग और कूलों को देखकर समझा जा सकता है कि यदि जल संचयन का स्थानीय कौशल न हो, तो वहाँ आज भी आबादी का रहना मुश्किल हो जाए। सूरत में हीरों का व्यापार करने वाले मथुर भाई सवानी बता सकते हैं कि सौराष्ट्र के अपने गाँव खोपला में जल संचयन इकाइयाँ बनाने का काम क्यों किया।

जल संचयन में सिर्फ विदर्भ के गोण्ड परिवारों का पलायन रोकने की क्षमता ही नहीं है, जूनागढ़ और पोरबन्दर की 15 तहसीलों में पानी का खारापन भी नियन्त्रित हुआ है। अपनी बनाई हजारों चालों के बूते ही ऊरैखाल, दूधतोली (जिला-पौड़ी गढ़वाल) के 38 गाँवों अपनी सूखीगौला नदी का नाम बदलकर गढ़गंगा रखने का गौरव हासिल कर सके हैं। जल संचयन के ऐसे संकल्प व उपयोग के अनुशासन के कारण ही जिला-अलवर (राजस्थान) की नदी ’अरवरी’ के पुनर्जीवन का प्रयास वर्ष-2003 के अन्तरराष्ट्रीय नदी महोत्सव (ब्रिसबेन, ऑस्ट्रेलिया) की अन्तिम सूची में सम्मान दिया गया। अब यदि मारवाड़ के 38वें राठौर प्रधान महाराजा गजसिंह उर्फ बापजी, उद्योगपति रुइया व डालमिया परिवार से लेकर पीएचडी चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स या सी.आई.आई जैसे प्रतिष्ठित व्यापारिक संगठन भी जल संचयन का काम कर खुद को धन्य मानते हैं, तो आखिर कोई तो चमत्कार होगा, मेघों की नन्ही बूंदों को सहेजने में।

लद्दाख, करगिल, लाहौल और स्पीति जैसे शुष्क पहाड़ी और ठण्डे रेगिस्तानों के जिंग और कूलों को देखकर समझा जा सकता है कि यदि जल संचयन का स्थानीय कौशल न हो, तो वहाँ आज भी आबादी का रहना मुश्किल हो जाए। पानी की बूंदों को सहेजने के ये उदाहरण नये जमाने के लिए भले ही नये हों, लेकिन दुनिया में इनका इतिहास बहुत पुराना है। ताल, पाल, झाल, चाल, खाल, बंधा, बावड़ी, जोहड़ कुण्ड, पोखर, पाइन, तालाब, झील, आपतानी आदि अनेक नामों से जल संचयन की अनेक प्रणालियाँ भारत में समय-समय पर विकसित हुईं। जिनके पास नकद धेला भी नहीं था, उन्होंने भी बारिश के पहले अक्षया तृतीया से अपने पुराने पोखरों की पालें ठीक करने का काम किया। बारिश के बाद देवउठनी एकादशी से जागकर इस देश ने लाखों-लाख तालाब बनाए। तालाबों की तलहटी से गाद निकासी का काम कभी रुकने नहीं दिया। अपनी आय के दो टके का 10 फीसदी कुँआ-बावड़ी-जोहड़ आदि धर्मादे में लगाने के कारण ही सेठ-साहूकार एक समय तक महाजन यानी ’महान जन’ कहलाए। समयानुसार नहरों के माध्यम से नदी-जल का सीमित उपयोग भी समाज ने अपनी पानी जरूरत की पूर्ति के लिए किया। सतही व भू-जल के अपने इस सुन्दर प्रबन्धन के कारण ही सदियों तक भारत पानीदार बना रह सका।

क्यों टूटा साझा प्रबन्धन?


इतनी सुन्दर और उत्तम प्रणालियाँ टूट क्यों गईं? समाज व सरकारें इन्हें जीवित क्यों नहीं रख सकीं? इतिहास गवाह है कि पानी का काम कभी अकेले नहीं हो सकता। पानी एक साझा उपक्रम है। अतः इसका प्रबन्धन भी साझे से ही सम्भव है। वैदिक काल से मुगल शासन तक शामिलात संसाधनों का साझा प्रबन्धन नरिष्ठा, सभा, समिति, खाप, पंचायत आदि के नाम वाले संगठित ग्राम समुदायिक ग्राम्य संस्थान किया करते थे। अंग्रेजी हुकूमत ने भूमि-जमीन्दारी व्यवस्था के बहाने नये-नये कानून बनाकर ग्राम पंचायतों के अधिकारों में खुला हस्तक्षेप प्रारम्भ किया। इस बहाने पंचों को दण्डित किया जाने लगा। इससे साझे कार्यों के प्रति पंचायतें धीरे-धीरे निष्क्रिय होती गईं। नतीजन सदियों की बनी-बनाई साझा प्रबन्धन और संगठन व्यवस्था टूट गई। रही-सही कसर अंग्रेजी हुकूमत ने राजस्व बटोरने की दृष्टि से नदी, नहर व वनों को सरकारी नियन्त्रण में लेकर पूरी कर दी।

बड़ी चुनौती : अंग्रेजी हुकूमत के शासन से पूर्व प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों का मालिकाना हक था। नहरें थे, लेकिन उनसे सिंचाई पर सिंचान नहीं वसूला जाता था। इन संसाधनों के सरकारी होते ही लोगों ने इन्हें पराया मान लिया। हालाँकि ‘जिसकी भूमि-उसका भू-जल’ का निजी अधिकार पहले भी भू-मालिकों के हाथ था और आज भी लेकिन भू-जल का अदृश्य भण्डार हमें दिखाई नहीं देता। हमारा समाज आज भी यही मानता है कि जल-जंगल के सतही स्रोत सरकार के हैं। अतः पानी पिलाना, सिंचाई व जंगल का इन्तजाम उसी के काम हैं; वही करे। आज, जब केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारों ने भी अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन के अधिकार पंचायतों को सौंप दिए हैं; बावजूद इसके सरकारीपन को पराया मानने की नजीर और नजरिया आज पहले से बदतर हुआ है। इसी सोच व नासमझी ने पूरे भारत के जल प्रबन्धन का चक्र उलट दिया है। पूरी जवाबदेही अब सरकार के सिर आ गई है। समाज हकदारी खो चुका है। परिणामस्वरूप आज भारत के पानी प्रबन्धन को बाढ़-सुखाड़ से इतर तीन नये संकट से जूझना पड़ रहा है।

संकट


शोषण, अतिक्रमण और प्रदूषण : 21वीं सदी के इस दूसरे दशक में भारत के पानी समक्ष पेश नये संकट तीन ही हैं। जो उद्योग या किसान जेट अथवा सबमर्सिबल पम्प लगाकर धकाधक भू-जल खींच रहा है, उस पर कोई पाबन्दी नहीं कि जितना लिया, उतना पानी वापस धरती को लौटाए। हालाँकि अभी हाल ही में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने एक मामले में उद्योगों को ऐसे आदेश जारी किए हैं; लेकिन जब तक ‘रेलनीर’ या हमारे दूसरे सरकारी संयन्त्र खुद यह सुनिश्चित नहीं करते कि उन्होंने जिन इलाकों का पानी खींचा है, उन्हें वैसा और उतना पानी वे कैसे लौटाएँगे, तब तक सरकार गैर-सरकारी पक्ष को कैसे बाध्य कर सकती है? यही हाल अतिक्रमण का है। देश में जलसंरचनाओं की जमीनों पर सरकारी-गैर-सरकारी कब्जे के उदाहरण एक नहीं, लाखों हैं। तहसील अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक के कई ऐतिहासिक आदेशों के बावजूद स्थिति बहुत बदली नहीं है। जहाँ तक प्रदूषण का सवाल है, हमने उद्योगों को नदी किनारे बसाने के लिए दिल्ली-मुम्बई औद्योगिक गलियारा, लोकनायक गंगापथ और गंगा-यमुना एक्सप्रेस-वे आदि परियोजनाएँ तो बना ली, लेकिन इनके किनारे बसने वाले उद्योगों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण के स्रोत पर प्रदूषण निपटारे की कोई ठोस व्यवस्था योजना हम आज तक सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं; जबकि प्रदूषण प्रबन्धन का सिद्धान्त यही है।

समाधान


जिस तरह कैंसर का निदान उसके स्रोत से किया जाता है, उसी तरह प्रदूषण का निपटारा भी उसके स्रोत पर ही किया जाना चाहिए। मल हो या कचरा दोनों को ढोकर ले जाना सिर्फ सामाजिक व नैतिक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक रूप से भी पाप है। भू-जल शोषण नियन्त्रण का उपाय भू-जल स्रोतों का नियमन, लाइसेंसीकरण या रोक नहीं हो सकता। हाँ! अकाल आदि आपदाकाल छोड़कर सामान्य दिनों में जल-निकासी की अधिकतम गहराई सीमित कर भू-जल शोषण कुछ हद तक नियन्त्रित अवश्य किया जा सकता है। ऐसा करने से स्थानीय उपभोक्ताओं को जल संचयन के लिए भी कुछ हद तक बाध्य किया जा सकेगा। किन्तु सभी प्रकार के शोषण रोकने का यदि कोई सबसे पहला और बुनियादी सिद्धान्त है, तो वह यह कि हम जिससे जितना लें, उसे उतना और वैसा वापस लौटाएँ। यह सिद्धान्त पानी पर भी पूरी तरह लागू होता है। अतिक्रमण रोकने के लिए जल संरचनाओं का चिह्निकरण और सीमांकन कर अधिसूचित करना एक सफल उपाय साबित हो सकता है।

हकदारी-जवाबदारी की जुगलबन्दी जरूरी


इन सिद्धांतों को व्यवहार में लाकर हम इन संकटों से निजात पा सकते हैं, लेकिन बाजार के लालच और प्राकृतिक उपक्रमों के प्रबन्धन को लेकर सरकार की तरफ ताकने की सामाजिक आदत से निजात पाने का रास्ता एक ही है : प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन की जवाबदारी तथा मालिकाने व उपयोग की हकदारी सुनिश्चित करना। वन प्रबन्धन में वनवासियों की सहभागिता और लाभ में भागीदारी प्रावधान के परिणाम बेहतर आए हैं। क्यों? क्योंकि अतिक्रमण, शोषण और प्रदूषण हमारे प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने के कारण नहीं हैं। ये परिणाम है, प्राकृतिक संसाधनों के प्रति परायेपन की हमारी सोच का।

यूँ देखें, तो जहाँ-जहाँ समाज ने मान लिया है कि ये स्रोत भले ही सरकार के हों, लेकिन इनका उपयोग तो हम ही करेंगे, वहाँ-वहाँ चित्र बदल गया है। वहाँ-वहाँ समाज पानी के संकट से उबर गया है। समाज और शासन-प्रशासन के साझे से संकट पर विजय के उदाहरण भी इस देश में भी कई हैं। उत्तर प्रदेश के जिला सहारनपुर में पाँवधेई नदी की प्रदूषण मुक्ति की कथा आज भी प्रशासनिक पहल, औद्योगिक सहयोग और जननिगरानी की साझी मिसाल के तौर पर जानी जाती है। पंजाब की कालीबेई की प्रदूषण मुक्ति की मिसाल भी साझी ही है। महाराष्ट्र में अग्रणी नदी पुनर्जीवन की जारी कोशिश इस कड़ी में ताजा है। महोबा, मंगलौर और देवास में तालाबों-झीलों को जीवन लौटाने के नये काम ऐसे ही साझे के उदाहरण हैं लेकिन हर जगह का समाज व प्रशासन ऐसे ही हों, जरूरी नहीं है। अतः हकदारी और जवाबदारी की जुगलबन्दी जरूरी है। सरकार के प्रति परायेपन के भाव से समाज को उबारने का यही तरीका है। तीन सवाल भारतीय पानी प्रबन्धन के समक्ष नई चुनौती बनकर खड़े ही हैं : प्राकृतिक संसाधनों का मालिक कौन? शासन-प्रशासन प्राकृतिक संसाधनों की ठीक से देखभाल न करे, तो जनता क्या करे? जलापूर्ति पर निर्णय का अधिकार किसका? पानी के व्यावसायीकरण ने यह चुनौती और बढ़ा दी है।

जब तक ‘रेलनीर’ या हमारे दूसरे सरकारी संयन्त्र खुद यह सुनिश्चित नहीं करते कि उन्होंने जिन इलाकों का पानी खींचा है, उन्हें वैसा और उतना पानी वे कैसे लौटाएँगे, तब तक सरकार गैर-सरकारी पक्ष को कैसे बाध्य कर सकती है?इन्ही सवालों के कारण पानी के स्थानीय, अन्तर्राज्यीय व अन्तरराष्ट्रीय विवाद हैं। इसी के कारण लोग पानी प्रबन्धन के लिए एक-दूसरे की ओर ताक रहे हैं। इसी के कारण सूखती-प्रदूषित होती नदियों का दुष्प्रभाव झेलने के बावजूद समाज नदियों के पुनर्जीवन के लिए व्यापक स्तर पर आगे आता दिखाई नहीं दे रहा। अभी आम धारणा यह है कि सार्वजनिक जरूरतों की पूर्ति करना शासन-प्रशासन का काम है। उनके काम में दखल देना कानून अपने हाथ में लेना है। प्राचीन रोमन साम्राज्य द्वारा स्थापित पब्लिक ट्रस्टीशिप के वैधानिक सिद्धान्त समेत दुनिया भर के आधुनिक ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त इसे खारिज करते हैं। भारतीय संविधान की धारा 21 और 32 इन सिद्धांतों को समर्थन देती हैं।

स्पैन मोटल प्राइवेट लिमिटेड द्वारा बनाए जा रहे रिजोर्ट के लिए हिमाचल प्रदेश में ब्यास नदी की धारा के खि़लाफ दायर याचिका़ संख्या-182 (वर्ष 1996) पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने बाकायदा न सिर्फ पब्लिक ट्रस्टीशिप सिद्धान्त का हवाला दिया है, बल्कि इसे भारतीय कानून का हिस्सा भी बताया है। वर्ष 1997(1) सर्वोच्च न्यायालय मामला संख्या-388 में आदेश देते न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह और सागीर अहमद ने सरकार की भूमिका और अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या इंगित की है। पब्लिक ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के मुताबिक जंगल, नदी, समुद्र, हवा जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों की सरकार सिर्फ ट्रस्टी है, मालिक नहीं। ट्रस्टी का काम देखभाल करना होता है। अदालत ने ऐसे संसाधनों को निजी कम्पनी को बेचने को अन्यायपूर्ण माना है।

इस शानदार फैसले के बावजूद यह बहस तो फिलहाल खुली ही है कि यदि सरकार ट्रस्टी है, तो इन प्राकृतिक संसाधनों का मालिक कौन है? सिर्फ सम्बन्धित समुदाय या प्रकृति के समस्त स्थानीय जीव? दूसरा, यह कि मालिक यदि मालिक समुदाय या समस्त जीव हैं, तो क्या उन्हें हक है कि वे सौंपे गए संसाधनों की ठीक से देखभाल न करने की स्थिति में सरकार को ट्रस्टीशिप से बेदखल कर, इन संसाधनों की देखभाल खुद अपने हाथ में ले ले? जो जवाबदारी के लिए हकदारी जरूरी मानते हैं, उन्हे आज भी इन सवालों के जवाब की प्रतीक्षा है। लेकिन उन्हें यह कब याद आएगा कि जवाबदारी निभाने से हकदारी खुद-ब-खुद आ जाती है? याद रखने की जरूरत यह भी है कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ इंसाऩ के लिए नहीं हैं, दूसरे जीव व वनस्पतियों का भी उन पर बराबर का हक है। अतः उपयोग की प्राथमिकता पर हम इंसान ही नहीं, कुदरत के दूसरे जीव व वनस्पतियों की प्यास को भी सबसे आगे रखें।

(लेखक पत्रकार हैं एवं जल तथा पर्यावरण सम्बन्धी विषयों के विशेषज्ञ हैं)
ई-मेल : amethiarun@gmail.com

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