जल प्रदूषण

जल प्रदूषण
जल प्रदूषण

ग्रामीण इलाकों में पानी की गुणवत्ता खराब करने या प्रदूषण फैलाने में खेती में लगने वाले हानिकारक रसायनों का योगदान है। ये रसायन पानी में घुलकर जमीन के नीचे स्थित एक्वीफरों में या सतही जल भंडरों में मिल जाते हैं। रासायनिक फर्टीलाइजरों, इन्सेक्टिसाइड्स और पेस्टीसाइड्स इत्यादि का सर्वाधिक इस्तेमाल सिंचित क्षेत्रों में ही होता है; इसलिए उन इलाकों की फसलों में इन हानिकारक रसायनों की उपस्थिति दर्ज होने लगी हैं यह बदलाव सेहत के लिए गंभीर खतरा बन रहा है।

पानी की गुणवत्ता और जल प्रदूषण का सरोकार रसायनशास्त्री या पर्यावरणविद सहित समाज के सभी संबंधित वर्गों के लिए समान रूप से उपयोगी है। हाल के सालों में तेजी से हो रहे बदलावों के कारण पानी की गुणवत्ता और जल प्रदूषण की समझ का प्रश्न, उसकी आपूर्ति से अधिक महत्वपूर्ण बनता जा रहा है। इसीलिए सभी देश प्रदूषण के परिप्रेक्ष्य में पानी की गुणवत्ता के मानक तय करते हैं, उन पर विद्वानों से बहस कराते हैं और लगातार अनुसंधान कर उन्हें परिमार्जित करते हैं।

मानकों में अंतर होने के बावजूद, यह प्रक्रिया भारत सहित सारी दुनिया में चलती है। भारत सरकार ने भी पेयजल, खेती, उद्योगों में काम आने वाले पानी की गुणवत्ता के मानक निर्धारित किए हैं। इन मानकों का पालन कराना और सही मानकों वाला पानी उपलब्ध कराना, आज के युग की सबसे बड़ी चुनौती और दायित्व है।

सभी जीवधारियों के लिए पानी की बिगड़ती गुणवत्ता या बढ़ता जल प्रदूषण सबसे बड़ा खतरा है। इसे विकास की देन या उसका साइड इफेक्ट मानने वालों की संख्या कम नहीं है। वे लोग विकास से जुड़ी सुविधाओं और धन पैदा करने वाली गतिविधियों को गुणवत्ता बिगड़ने का कारण मानते हैं। अनुसंधानों और रासायनिक परीक्षणों के परिणामों से लगातार पता चल रहा है। कि सारी दुनिया में प्रदूषण की मात्रा और उसके आयाम तेजी से बढ़ रहे हैं। बहुत से लोग इसे सभी जीवधारियों के भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती और किसी हद तक गुणवत्ता प्रबंध की विफलता मानते हैं।

जल प्रदूषण या पानी की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले तीन प्रमुख कारक- घरेलू कचरा और मानव मल, औद्योगिक अपशिष्ट और खेती में काम आने वाले कृषि रसायन हैं।

व्यवस्था से जुड़े अधिकांश लोगों का मानना है कि नगरीय क्षेत्रों में पानी की गुणवत्ता को खराब करने में घरेलू कचरा, उद्योगों के अपशिष्ट और मानव मल की प्रमुख भूमिका है। इन्हीं के कारण जल प्रदूषण उत्पन्न होता है। कई लोग व्यवस्था सुधार को समस्या का हल मानते हैं।

नगरीय अपशिष्ट की मात्रा और उसके निपटान में लगने वाले पानी की विशाल मात्रा को उपलब्ध कराने की विफलता के कारण कुछ लोग अन्य विकल्पों को भी लागू करने के पक्षधर हैं। इसी तरह औद्योगिक अपशिष्ट जिसमें अनेक प्रकार के गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले कारक मौजूद हैं, भविष्य का सबसे बड़ा खतरा है। यह खतरा कल-कारखानों और यातायात के साधनों से उत्सर्जित हानिकारक रसायनों के कारण है। ये हानिकारक रसायन सतही और भूजल दोनों प्रकार के भंडारों को प्रभावित कर जल प्रदूषण फैला रहे हैं।

ग्रामीण इलाकों में पानी की गुणवत्ता खराब करने या प्रदूषण फैलाने में खेती में लगने वाले हानिकारक रसायनों का योगदान है। ये रसायन पानी में घुलकर जमीन के नीचे स्थित एक्वीफरों में या सतही जल भंडरों में मिल जाते हैं।

रासायनिक फर्टीलाइजरों, इन्सेक्टिसाइड्स और पेस्टीसाइड्स इत्यादि का सर्वाधिक इस्तेमाल सिंचित क्षेत्रों में ही होता है; इसलिए उन इलाकों की फसलों में इन हानिकारक रसायनों की उपस्थिति दर्ज होने लगी हैं यह बदलाव सेहत के लिए गंभीर खतरा बन रहा है। इसके अलावा गहरे एक्वीफरों से भूजल दोहन के कारण नए-नए इलाकों के भूजल में फ्लोराइड, नाईट्रेट और आर्सेनिक इत्यादि की उपस्थिति के प्रमाण देखने में आ रहे हैं।

वाराणसी में प्रदूषित गंगा नदीउचित होगा कि अन्य प्रदूषणों की बात नहीं करते हुए पानी की गुणवत्ता से जुड़ी चंद मोटी-मोटी बातों को थोड़ा विस्तार से जान लें। सबसे पहले प्राकृतिक रूप से मिलने वाले पानी की बात करें। प्राकृतिक रूप से मिलने वाला यह पानी भी पूरी तरह शुद्ध नहीं होता। इसमें भी थोड़ी मात्रा में गैसें और चंद ठोस पदार्थ मिले रहते हैं।

पानी के धरती के संपर्क में आने के बाद इसकी गुणवत्ता में बदलाव शुरू होता है और अनेक प्रकार के घुलनशील और अन्य पदार्थ इसमें मिल जाते हैं। सुरक्षित सीमा तक मिले रसायन स्वाद, सेहत और उत्पादन के लिए मुफीद होते हैं। पर जब वे अपनी सीमा लांघ जाते हैं या उनमें सड़े गले पदार्थ और जीवाणु मिल जाते हैं तब उसकी गुणवत्ता खराब होती है और उसका उपयोग सेहत के लिए खतरनाक हो जाता है।

पानी में मिलने वाले पदार्थों की मात्रा बहुत कम होती हैं पूर्व में इस मात्रा को दस लाख भाग में एक भाग (पीपीएम) में और उससे भी कम मात्रा में मिलने वाले पदार्थों को दस खरब भाग में एक भाग (पीपीबी) में दर्शाया जाता था। आजकल इसे मिलीग्राम या माइक्रोग्राम प्रति एक लीटर में दर्शाया जाने लगा है। पानी में बहुतायत से मिलने वाले प्रमुख घुलित रसायन सोडियम, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्निशियम, क्लोराइड, कार्बोनेट, बाइकार्बोनेट और सल्फेट हैं। इन प्रमुख रसायनों के अलावा पानी में अल्प मात्रा में लोहा, मैगनीज, फ्लोराइड, नाइट्रेट, स्ट्रांशियम और बोरान भी पाए जाते हैं।

इन रसायनों की मात्रा, पहली सूची के प्रमुख रसायनों की तुलना में कम होती है। इनके अलावा कुछ तत्व बहुत ही कम मात्रा में पाए जाते हैं उनके नाम हैं आर्सेनिक, सीसा, कैडमियम और क्रोमियम। इन रसायनों के अलावा पानी में ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड एवं नाइट्रोजन जैसी गैसें भी मिलती हैं। इन गैसों के अलावा पानी में कहीं-कहीं मीथेन और हाइड्रोजन भी मिलती हैं। खनिज भंडारों के निकट के पानी में उन खनिजों के घुलनशील अंश मिलते हैं तो ज्वालामुखियों के पास मिलने वाले पानी में सल्फर एवं अन्य गैसें तथा तत्व भी घुले रूप में मिलते हैं।

उपर्युक्त सभी रसायन पानी में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले रसायन हैं जो सतह पर या जमीन के नीचे बहने वाले पानी के संसर्ग में आने के कारण पानी को प्राप्त होते हैं। वैज्ञानिकों ने इनकी निरापद मात्रा का उल्लेख किया है।

जब किसी जगह के पानी में उपरोक्त रसायन की मात्रा, निरापद सीमा को लांघ जाती है, तो वह पानी, प्रदूषित पानी कहलाता है। वह सेहत के लिए खतरनाक बन जाता है। उसके इस्तेमाल से अनेक बीमारियां पैदा होती हैं।

प्रदूषित यमुना नदीइस मामले में फ्लोराइड और आर्सेनिक सबसे अधिक खतरनाक हैं। गौरतलब है कि फ्लोराइड हड्डियों, दांतों, मांसपेशियों और शरीर के अनेक भागों को प्रभावित करता है और उससे होने वाली बीमारियों का कोई इलाज नहीं है।

सारी दुनिया में इन विषैले रसायनों के कारण होने वाले खतरों पर अनुसंधान हो रहा है और उनसे बचने के लिए रास्ते खोजे जा रहे हैं। पानी के शुद्धीकरण के लिए नित नई तकनीकें खोजी जा रही हैं, संयंत्र लगाए जा रहे हैं और लोगों को उनके बुरे असर के बारे में बताया भी जा रहा है।

पेयजल, खेती और उद्योगों में लगने वाले पानी की गुणवत्ता के लिए विभिन्न अकार्बनिक, कार्बनिक, भौतिक, रेडियोएक्टिव इत्यादि मानक तय किए हैं। भारत में भी यह मानक तय किए गए हैं। इन मानकों में समय-समय पर सुधार भी किया जाता है।

नीरी (नेशनल एन्वायरमेंट इंजीनियरिंग एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट), नागपुर के लगभग 30 साल पुराने उल्लेख के अनुसार भारत का लगभग 70 प्रतिशत पानी प्रदूषित है। गंदे पानी के कारण फैलने वाली बीमारियों की वजह से कोई 7 करोड़ 30 लाख कार्य दिवस नष्ट हो रहे हैं।

योजना आयोग मानता है कि उत्तर में डल झील से लेकर दक्षिण की परियार और चालियार नदी तक, पूर्व में दामोदर और हुगली से लेकर पश्चिम में ठाणा उपनदी तक पानी के प्रदूषण की स्थिति एक जैसी भयावह है।

भारत में होने वाली दो तिहाई बीमारियां प्रदूषित पानी के कारण होती हैं। पानी के प्रदूषण का प्रभाव समुद्री जीवों पर भी पड़ रहा है। मछलियां मर रही हैं, जिसका मतलब है प्रोटीन के सस्ते एवं सुलभ स्रोत का नुकसान और मछुआरों की आजीविका का किसी हद तक छिन जाना। इस सैद्धांतिक चर्चा के बाद कुछ उदाहरणों की बात करना उचित होगा।

सबसे पहले गंगा की बात करें। गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे स्थापित उद्योगों और नगरीय निकायों के अनुपचारित पानी ने इन नदियों को अनेक स्थानों पर गंदे नाले में बदल दिया है।

सबसे अधिक और सबसे ज्यादा शर्मनाक प्रदूषण यमुना का है। दिल्ली के लगभग 48 किलोमीटर से अधिक लंबे मार्ग से बहती यमुना में गंदगी का यह आलम है कि कोलिफार्म जीवों की गिनती करना मुश्किल है। उसमें हर दिन 20 करोड़ लीटर से अधिक अनुपचारित पानी मिलता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार दिल्ली से लेकर आगरा तक यमुना का पानी नहाने के लायक नहीं है। चंबल नदी यमुना की प्रमुख सहायक नदी हैं इस नदी को कोटा नगर के खाद कारखाने, ताप और परमाणु बिजली घरों से निकलने वाला कचरा, हर दिन प्रदूषित कर रहा है। इस कचरे के चंबल में मिलने के कारण उसका पानी उपयोग के लायक नहीं रहा है। उसमें यूरिया, अमोनिया, क्लोरीन, सीसा और अन्य धातुओं के अंश मिलते हैं।

जीवन खत्म करता आर्सेनिकलखनऊ शहर के निकट गोमती नदी का लगभग 34 किलोमीटर लंबा हिस्सा कागज और लुगदी उद्योग तथा नगरीय अपशिष्ट के कारण गंभीर रूप से प्रदूषित है। इस प्रदूषण का असर अनेक किलोमीटर दूर तक देखने में आता है। बनारस में गंगा प्रदूषण का यह आलम है कि उसके पानी में नहाना या उसका स्पर्श करना भी बीमारी को न्योतने के बराबर है।

दामोदर नदी को छोटा नागपुर इलाके में सबसे पहले खदानों का और फिर बोकारो और सिंदरी के कारखानों के अपशिष्ट मिलते हैं। नदी का दुर्भाग्य यहीं समाप्त नहीं होता। आसनसोल से दुर्गापुर के बीच के औद्योगिक क्षेत्र से निकले कचरे और औद्योगिक अपशिष्टों ने इस नदी को गंदे नाले में बदल दिया है, मछलियों का मरना आम है और नदी अपनी मौत की तरफ बह रही है।

मध्य प्रदेश के रतलाम शहर में अल्कोहल का संयंत्र लगा है। बरसों से इसका असर आसपास के इलाकों में पानी और हवा के प्रदूषण तथा दुर्गंध से त्रस्त है। रतलाम के संयंत्रों से निकले जहरीले पानी के कारण आसपास के इलाके की खेती और जल स्रोत बर्बाद हो गए हैं। मुंबई के उल्लासनगर और अंबरनाथ इलाकों से कालू नदी बहती है। इस नदी में औद्योगिक उपनगरों का खतरनाक कचरा मिलता है जिसके कारण अंबीवाली के पास पारे की मात्रा खतरनाक हद तक पहुंच गई है। इस नदी के पास पैदा होने वाली घास में पारे का अंश पहुंच गया है। दुधारू गायें इस घास को चरती हैं और उनके दूध के रास्ते आहार चक्र में पारे का प्रवेश हो रहा है।

इंदौर की खान नदी, भोपाल के पातरा नाले और जबलपुर के ओमती नाले में इतनी गंदगी और खतरनाक रसायन हैं कि उस पानी का उपयोग किसी भी काम में करना संभव नहीं रहा है। खान नदी में इंदौर का पूरा अपशिष्ट और कूड़ा कचरा मिलता है जिसके कारण लगभग पूरी नदी रोगाणुओं से पटी पड़ी है। मिर्जापुर में कागज और रासायनिक कारखानों के जहरीले अपशिष्टों के कारण नदी का पानी मछलियों के लिए अत्यधिक घातक है। गोदावरी में राजमहेंद्री के पास स्थापित कागज के कारखाने का कचरा मिलता है। इस कचरे के कारण उस इलाके की मछलियां मर गई हैं। पानी की गुणवत्ता खराब हो गई है और पानी का उपयोग निरापद नहीं रहा। कृष्णा, कावेरी, पेरियार, चोलियार इत्यादि नदियों का पानी कारखानों के अपशिष्टों के कारण दूषित है तो कानपुर के चमड़े के उद्योग ने पानी को किसी लायक नहीं छोड़ा।

छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा के पास बैलाडीला में लौह खनिज की खदानें हैं। इन खदानों से हेमाटाइट (लोहे का खनिज) निकाला जाता हैं इस खनिज की धूल लाल रंग की होती है। यह धूल बहकर वहां की शंखनी और डंकनी नदियों में मिल रही है। नदियों में लोहे का अंश मिलने के कारण पानी का रंग लाल हो गया है, पानी प्रदूषित हो गया है और नदियों के आसपास की फसलें खराब होने लगी हैं। यह हालत उन सभी जगह है जहां लोहे या अन्य खनिजों की खुली खुदाई (ओपन कास्ट माइनिंग) होती है।

गोमती नदीसंक्षेप में कहें तो देश की वे सारी नदियां जिनके किनारे औद्योगिक इकाइयां और महानगर स्थापित हैं और जो अनुपचारित अपशिष्ट नदी में आंशिक या पूरी तरह छोड़ रहे हैं, वहां का पानी प्रदूषित हो चुका है। हर राज्य में प्रदूषण मंडल हैं, कानून हैं, पर जमीनी हालात पूरी तरह नियंत्रण में नहीं आ पा रहे हैं।

भूमिगत जल के प्रदूषण को सबसे अधिक जटिल माना जाता है। इस कारण वैज्ञानिक इस प्रदूषण से बचने की सलाह देते हैं। सामान्यतः यह प्रदूषण औद्योगिक क्षेत्रों, उपनगरीय एवं ग्रामीण इलाकों के भूमिगत जल में भी बहुतायत से पाया जाने लगा है। इसके स्रोत एवं प्रकार अनेक हैं। औद्योगिक प्रदूषण में सामान्यतः वे तत्व पाए जाते हैं जो कारखाने द्वारा बिना उपचार किए बाहर निकाल दिए जाते हैं।

अमेरिका जैसे उन्नत देश में औद्योगिक प्रदूषक तत्वों में ट्राइक्लोरोइथाइलीन, ट्राइक्लोरोइथेन, टेट्राक्लोरोइथेन, बेंजीन और कार्बन टेट्राक्लोरीन पाए जाते हैं। उपनगरीय इलाकों के भूमिगत जल में मुखतः नाइट्रेट की बहुतायत देखी जाती है। यह रसायन लान में उपयोग में लाए फर्टीलाइजरों और सेप्टिक टैंक से उत्सर्जन के कारण प्राप्त होता है। सेप्टिक टैंकों और घरेलू नालियों से निकले गंदे पानी में सामान्यतः अनेक धातुएं, अधात्विक पदार्थ, आर्गेनिक पदार्थ, दुर्गंध पैदा करने वाले यौगिक और रोग पैदा करने वाले जीवाणु पाए जाते हैं।

इन धातुओं में एल्यूमीनियम, आर्सेनिक, बेरियम, कैडमियम, क्रोमियम, तांबा, लोहा, सीसा, लीथियम, मैगनीज, पारा, निकल, जस्ता सामान्य हैं। भूमिगत पेट्रोलियम टैंकों से हुए लीकेजों के कारण भूमिगत जल में पेट्रोलियम के अंश मिलना सामान्य है। नगरीय इलाकों में मानव निर्मित प्रदूषण से प्रभावित एक और इलाका है जहां नगरीय कचरे को जमा करने और उसका समुचित उपचार नहीं करने के कारण प्रदूषण का जन्म होता है।

नगरीय इलाकों के भूजल का प्रदूषण बीमारी फैलाने में अहम भूमिका निभाता है और मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद नुकसानदायक होता है क्योंकि नगरीय इलाके की जमीन में नीचे उतरा पानी बैक्टीरियामुक्त होने, शुद्ध होने और बहुत अधिक दूरी तक प्रवाहित हो पाने के पहले ही नलकूपों और कुओं द्वारा उपयोग में आ जाता है।

वहीं कृषि क्षेत्रों में उपयोग में आए फर्टीलाइजर, पेस्टीसाइड और इन्सेक्टीसाइड के अंश भूजल में मिलते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका जैसे उन्नत देश में एक से दो प्रतिशत एक्वीफर प्रदूषित हो चुके हैं। इस मामले में भारत के एक्वीफर अछूते नहीं है। एक्वीफर के प्रदूषित पानी की जानकारी संबंधित विभागों के पास संकलित होती रहती है और कार्यशालाओं और वैज्ञानिक संगोष्ठियों में वैज्ञानिकों और सरकार को मिलती रहती है।

धातुओं और कोयले की खुदाई के कारण सतही और भूमिगत जल का प्रदूषण आम बात है। भूमिगत जल जब धातुओं के भूमिगत भंडारों से होकर बहता है तो उसमें अनेक बार धातुओं के सुरक्षित सीमा से अधिक अंश घुलकर मिल जाते हैं। इसके अलावा, खुदाई के दौरान निकले अनुपयोगी अधात्विक पदार्थों के आक्सीकरण के कारण भी अनेक प्रदूषण पैदा करने वाले पदार्थ पानी में मिलते हैं।

कई बार इन अनुपयोगी अधात्विक पदार्थों में पायराइट नाम का खनिज भी पाया जाता है जो नष्ट होकर गंधक का तेजाब बनाता है। यह तेजाब पानी से मिलकर पानी को अम्लीय बनाता है अर्थात पानी का पी-एच मान कम करता है। यह अम्लीय पानी अनेक धातुओं और कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम और सल्फेट को घोलकर पानी में मिला देता है। रेडियोएक्टिव खनिजों यथा यूरेनियम और थोरियम की खदानों के पास पानी में इन खतरनाक रसायनों का मिलना, लोगों की सेहत के लिए बहुत ही बड़ा खतरा है। इसके अलावा, बहती नदी प्रदूषण की मात्रा को कम करने में किसी हद तक सहायक होती है। इसलिए नदियों को सूखने से बचाने की जुगत करने की भी आवश्यकता है।

देश में सतही और भूजल प्रदूषणों के उदाहरणों की कमी नहीं हैं। वे कदम-कदम पर मौजूद हैं। दुख और चिंता की बात यह है कि सब उनकी अनदेखी कर रहे हैं या सुधार का प्रयास इतना लचर है कि कहीं भी अनुकरणीय उदाहरण नहीं दिखाई देते। यदि कहीं कुछ अच्छा दिखता है तो वह स्थायी नहीं है या अपवादस्वरूप मौजूद है।

सतही जल और भूमिगत जल के प्रदूषण की संक्षिप्त चर्चा के बाद उन बातों को जान लेना उचित होगा जिनको अपनाने से प्रदूषण को कम किया जा सकता है या उसका निराकरण किया जा सकता है। सामान्य समझ के अनुसार समस्या का हल उसकी जड़ पर प्रभावी प्रहार की ही रणनीति में है। सतही जल को प्रदूषित करने वाले कचरे और अपशिष्ट का उपचार कर एवं निरापद बनाकर छोड़ने की आवश्यकता है। भूमिगत जल प्रदूषण को ठीक करने के लिए अपनाए जा सकने वाले कुछ सामान्य उपाय निम्नानुसार हैं-

कारखानों का गंदा जल1. प्रदूषण पैदा करने वाले भूमिगत पदार्थ या पदार्थों को खोदकर उसका सुरक्षित निपटान। इस विधि का उपयोग बहुत ही खास परिस्थितियों में किया जाता है। कई लोग इसे अंतिम उपाय मानते हैं क्योंकि यह बहुत खर्चीला उपाय है।

2. दूसरे तरीके में प्रदूषण पैदा करने वाले भूमिगत पदार्थ या पदार्थों का संबंध आसपास के पदार्थों से समाप्त कर दिया जाता है। संबंध समाप्त करने के बाद प्रदूषक के पानी का अन्य वस्तु से संपर्क या रासायनिक प्रतिक्रिया खत्म हो जाती है अर्थात उसकी हानि पहुंचाने वाली ताकत समाप्त हो जाती है। इस तरीके में प्रदूषक के चारों ओर सामान्यतः सीमेंट की दीवार बनाई जाती है।

3. प्रदूषित भूजल को दुरूस्त करने के लिए सबसे पहले प्रदूषण पैदा करने वाले पदार्थ या पदार्थों का संबंध अपने परिवेश से खत्म किया जाता है। इसके बाद दो विधियां अपनाई जा सकती हैं। पहली विधि में एक्वीफर को प्राकृतिक तरीके से अर्थात अपने आप ठीक होने के लिए समय दिया जाता है। प्राकृतिक ताकतें जमीन के नीचे के पानी को धीरे-धीरे ठीक करती हैं या पानी के साफ होने की क्रिया को गति प्रदान की जाती है। यह विधि तभी अपनाई जा सकती है जब परिस्थितियां अनुकूल हों और स्रोत का उपयोग पेयजल पूर्ति के लिए नहीं किया जाता हो। इस विधि में प्रदूषण खत्म होने में दस साल से लेकर सैकड़ों साल तक का समय लग सकता है।

दूसरी विधि में उपचार का काम रासायनिक या बायोलॉजिकल पदार्थों की मदद से किया जाता है। इन पदार्थों को नलकूप की मदद से जमीन के नीचे उतारा जाता है और निचले इलाके में बने दूसरे नलकूप से जमीन के नीचे के प्रदूषित पानी को बाहर निकाल कर रीसाइकिल किया जाता है। इस प्रक्रिया में प्रदूषण को समाप्त करने वाले रसायनों का उपयोग कर भूमिगत प्रदूषण को सुरक्षित सीमा तक घटाया जाता है या यदि संभव हुआ तो समाप्त किया जाता है।

नेशनल वाटर पालिसी 2002 में पानी की गुणवत्ता के बारे में स्पष्ट उल्लेख है कि-

1. सतही एवं भूजल की गुणवत्ता जानने के लिए नियमित मानीटरिंग की जानी चाहिए।
2. अपशिष्टों को सुरक्षित सीमा तथा स्टैंडर्ड मानक तक उपचारित करने के बाद ही प्राकृतिक जल स्रोतों में छोड़ना चाहिए।
3. बारहमासी नदियों में इकोलॉजी और सामाजिक सरोकारों के लिए न्यूनतम जल प्रवाह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
4. प्रदूषण करने वाले को उसकी कीमत अदा करनी चाहिए। प्रदूषण के प्रबंध में इस सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए।
5. मौजूदा जल संरचनाओं के संरक्षण के लिए आवश्यक कानून बनाना चाहिए ताकि उनके अतिक्रमण और गुणवत्ता को रोका जा सके।

उपलब्ध प्रावधानों और प्रचलित नियम कानूनों के अंतर्गत पानी को प्रदूषण मुक्त रखने या पानी की गुणवत्ता को मानक स्तर तक बनाए रखने की पूरी जिम्मेदारी सरकारी विभागों की है।

कुछ लोगों का मानना है कि प्रदूषण को ठीक करने के लिए प्रदूषण पैदा करने वाले उद्योग से उसकी कीमत वसूली जानी चाहिए और सरकार को प्रदूषण समाप्त करने के लिए संयंत्र लगाने चाहिए तो कुछ लोगों का मानना है कि मानीटरिंग तंत्र को अधिक सक्षम और जवाबदेह बनाना चाहिए। मानीटरिंग में पारदर्शिता लाना चाहिए। यह सच है कि पानी की गुणवत्ता का मामला अत्यंत जटिल है। उसमें एकरूपता नहीं है। वह अलग-अलग मामलों में अलग-अलग है। उसे ठीक बनाए रखने में जागरूकता, तकनीक, धन और जिम्मेदारी इत्यादि के अलावा तकनीकों को लगातार परिष्कृत करना पड़ता है।

दामोदर नदी को प्रदूषित करता गंदा पानीमानक निर्धारित करना होता है और उन मानकों के पालन की निगरानी रखनी होती है। मानकों के चूक या अनदेखी की यदाकदा घटनाओं की पृष्ठभूमि में लेखक को लगता है कि मौजूदा व्यवस्था की इस अपारदर्शिता को दूर करने के लिए समाज की भागीदारी आवश्यक है। चूंकि प्रजातांत्रिक परिवेश में समाज की भागीदारी की अनदेखी बहुत समय तक संभव नहीं होती इसलिए समाज की भागीदारी को कानूनी आधार देकर किसी हद तक प्रदूषण पर काबू पाया जा सकता है। प्रदूषण रोकने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति भी बहुत जरूरी होती है। संक्षेप में प्रदूषण रोकने के यही पहले और अंतिम उपाय हैं।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading