जल संचय की रणनीति

boondon ke teerth
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...आसान लक्ष्य का क्या मजा! लक्ष्य तो कठिन होना चाहिए ताकि चुनौती स्वीकारने में आनंद की अनुभूति भी हो।

जल संचय में उज्जैन के समाज ने इसे साबित कर दिखाया है...उज्जैन का समाज 50 हजार डबरियां बनाने के लक्ष्य को स्वीकार कर चुका है, लेकिन वह इस लक्ष्य को भी पार कर जाएगा।

...यदि एक बेहतर रणनीति के साथ आयोजना की जाए तो समाज चप्पे-चप्पे पर जल संरचनाएँ तैयार कर सूखे को आँखें दिखा सकता है और अकाल के सालों में भी आम मौसम की तरह रबी की फसल ले सकता है।

उज्जैन जिले के अनेक गाँवों में पानी रोककर बदलाव की कहानियाँ हमने देखीं, सुनी, जानी और समाज के अनुभवों की पोटली में से कुछ समझने की भी कोशिश की। प्रशासन और व्यवस्था यदि अपने ‘सामाजिक-चेहरे’ वाले किरदार को बखूबी निभाने की कोशिश करे तो वहाँ का समाज खुद आगे आने लगता है। उज्जैन में जल संचय पर अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण बिंदु प्रशासन और व्यवस्था की भूमिका का था। इसका हमने अनेक स्थानों पर उल्लेख भी किया है, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह भी रहता है कि जिला प्रमुख इस सफलता के लिये क्या रणनीति बनाते हैं और जल संचय पर इनकी व टीम की सोच क्या रहती है।

इन्हीं कुछ मुद्दों पर समय-समय पर जिला कलेक्टर व वाटर मिशन लीडर श्री भूपालसिंह से हुई चर्चा तथा उनके अनुभवों को हम यहाँ उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत कर रहे हैं-

हम सभी जानते हैं कि पानी हमारे जीवन एवं सभ्यता का मूल तत्व है। जिस तरह हमारी दृष्टि व शैली बदलती रही है, हमारी सभ्यता के दौर बदलते रहे हैं, उसी तरह पानी के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदलता रहा है। आज हम इस दौर में हैं - जब पानी एक न मिलने वाली बेशकीमती वस्तु हो गई है। पहले मालवा के सन्दर्भ में कहा जाता था कि ‘मालव-माटी गहन गंभीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर’। इतनी प्रचुर मात्रा में जल यहाँ उपलब्ध था। पिछले कुछ सालों से जिस प्रकार हमने जल का दोहन किया, उससे यह लगता है कि पाँच हजार साल की यात्रा पहली बार संकट में नजर आ रही है।

इस क्षेत्र में 1960-70 के दशक में एक फसली खेती हुआ करती थी और जो गेहूँ बोया जाता था, वह ऐसा था जिसको अधिक पानी की जरूरत नहीं थी। 1970 का दशक हमारे देश में कृषि उपलब्धियों का दशक रहा है। यह दशक उज्जैन के सन्दर्भ में बिजली की उपलब्धि का दशक भी रहा है। हरित क्रांति का यही दौर था। यह वही समय था, जब उज्जैन जिला मध्यप्रदेश का सबसे पहला विद्युतीकृत जिला बना और बड़नगर तहसील शत-प्रतिशत बिजली वाली पहली तहसील।

बूंदों के तीर्थहरित क्रांति में अधिक पैदावार देने वाली किस्में सामने आईं। यह किस्में अधिक पानी की जरूरत वाली थीं। स्वाभाविक रूप से यदि किसान इन फसलों को लगाएगा तो अधिक पानी की व्यवस्था भी किसान को करनी पड़ेगी और इसी दौरान हमने ट्यूबवेल को प्रमोट किया। सोयाबीन का भी यही समय था। राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय बाजारों में सोयाबीन की बहुत अच्छी कीमतें ली गईं। किसान को बहुत पैसे मिले इस सोयाबीन को बेचकर। जो पैसे मिले उससे ट्यूबवेल खोदना शुरू किया, क्योंकि आसानी से उनको बिजली उपलब्ध हो रही थी। सरकारी एजेंसियाँ भी कह रही थीं कि ट्यूबवेल लगाओ। होते-होते यह हुआ कि आज हमारे जिले में लगभग एक लाख से ज्यादा ट्यूबवेल हैं।

अब यह हो गया कि हमारी सबसे समृद्ध तहसीलें बड़नगर, खाचरौद पानी के अभाव के हिसाब से भी सबसे भयानक संकट से जूझ रही हैं। हमें हरित क्रांति के लिये एक भारी कीमत चुकानी पड़ी। पानी का मोल उस वक्त हमने नहीं पहचाना।

पिछले तीन साल से लगातार औसत से कम वर्षा हो रही है। इसने इस भयावह संकट को और रेखांकित किया। लोग संकट से ही सीखते हैं। मुश्किल वाले दिन आदमी को बहुत बड़ा सबक देकर जाते हैं। जल स्तर नीचे गिरा। लोग चेतावनी दे रहे थे कि मालवा कहीं मरुस्थल न बन जाए, वह पहली बार सामने आया। तब लोगों ने महसूस किया कि इस चक्र को रोकने के लिये हमें कुछ करना चाहिए। आर्थिक संकट इस हिसाब से आया कि कृषि अच्छी नहीं होने से किसानों की आमदनी समाप्त होने लगी। सामाजिक संकट इसलिए आया कि जब आप सक्षम नहीं रहते हैं तो सारी सामाजिक व्यवस्था गड़बड़ा जाती है। इन्हीं सन्दर्भों में पहली चीज हमने महसूस की कि पानी की रिचार्जिंग होना चाहिए। दूसरा, हमने महसूस किया कि वर्षा के पानी को रोकना चाहिए। तीसरी चीज यह महसूस की कि पूरे काम को करने में समाज को आगे लाना होगा। चौथा, हर किसान के लिये आज यह जरूरी हो गया है कि वह जल संवर्द्धन के काम में अपनी भूमिका खुद तय करे। उज्जैन में इसी रणनीति पर काम प्रारम्भ हुआ।

आम आदमी आज भी पूरी तरह से जल संकट की जड़ से वाकिफ नहीं है। वह कहता है- मुझे ट्यूबवेल और खोदना है। वह समझता है कि जमीन के अन्दर पानी का अथाह भण्डार है। बस, सबसे पहली जरूरत तो यह थी कि हम इस साधारण किसान को जल की तरकीब बतायें। और इसके बाद इसको समझाने की जरूरत थी कि कैसे पानी रोकने की इस तकनीक से वह एक नई दुनिया में कदम रख सकता है। हमने पूरे जिले में जून, 2000 से जल सम्मेलन किए। सम्मेलन में मालवा की लोक जीवन शैलियों के माध्यम से संदेश लोगों तक पहुँचाए। गीत, लोकोक्तियों या भजन के जरिए, हमने लोगों को बताया कि जमीन के नीचे पानी गायब होता जा रहा है। हमको अब पानी का रिचार्जिंग करना है। पहले सरकार ने ट्यूबवेल, कुएँ के रिचार्जिंग की बात की थी। उसके लिये लोगों को प्रेरित किया। ज्यादा जरूरी यह था कि ग्रामीण क्षेत्र में नेतृत्व कर रहे लोगों को लायें और इस सत्य से परिचित करायें। उनको वो जिम्मेदारी दी जाए, जो जल के प्रति हमारे सामाजिक या आर्थिक दृष्टिकोण में ही परिवर्तन लाए। इसकी शुरुआत इस हिसाब से अच्छी थी कि जल के प्रति ग्रामीण समाज में काफी समझदार व्यक्तित्व हैं। एक ऐसा ग्रामीण नेतृत्व है, जिससे आप बात कर सकते हैं। मालवा में यदि खेती अच्छी है तो किसान भी काफी श्रेय लेता है। वह बहुत मेहनती है। बहुत कल्पनाशील है।

हमने जलसंकट के बारे में परिचित कराया। समाज ने बहुत रुझान दिखाया। इसका परिणाम यह हुआ कि हमने रिचार्जिंग बहुत बड़े पैमाने पर किया (शुरुआत के दौर में) और उसके बाद तालाब बनाने शुरू किये। जन भागीदारी की बात की जाए तो यह वही समय था - हम कह रहे थे कि हर किसान की अपनी भूमिका होनी चाहिए तो हमको बड़े पैमाने पर रिचार्जिंग के काम में नये तालाब बनाने के काम में लोगों की भागीदारी मिली। फिर लगा कि तालाबों की बजाए छोटे जल संचय पर जाएँ, ताकि हर किसान व्यक्तिगत रूप से इसका लाभ उठा सके। ...और उसी समय डबरी की अवधारणा आई। हमने इसे लोगों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया। प्रारम्भ में हमने 4-6 किसानों से शुरुआत की, जिनके पास संसाधन थे। डबरियों ने यह स्थापित कर दिया कि हर किसान की जल संवर्द्धन में भूमिका होनी चाहिए। उज्जैन जिले के नरवर को हमने पहला क्षेत्र चुना (राजीव गांधी जलग्रहण मिशन के अन्तर्गत) और साथ-साथ हम दूसरे क्षेत्र में भी कार्य कर रहे थे। हमारी अपेक्षाओं से अधिक सकारात्मक परिणाम हमारे किसानों ने दिये। किसानों ने इस साल 10 हजार डबरियां बना ली हैं। हमारी जिला पंचायत ने तय किया है कि हम इस साल 50 हजार डबरियां बनायेंगे। हमने हमेशा अपने लिये कठिन लक्ष्य तय किया है। आसान लक्ष्य तो यूँ ही मिल जाता है। हमने जो किसान सम्मेलन बुलाया व पदयात्राएँ कीं, उसमें इस तरह की प्रतिक्रियाएँ मिलीं कि हम इस लक्ष्य को पूर्ण कर लेंगे।

हरियाली अधिक हो तो पानी भी अधिक रुकता है। किसान भी यही समझ रहे हैं कि जंगल नहीं हैं, इस कारण पानी कम गिर रहा है। पुराने जमाने में बहुत अधिक जंगल थे तो पानी भी अधिक गिरता था। जब हमने आबादी से दोगुने पौधे रोपने का लक्ष्य लिया (25 लाख पौधे), तो मेरे मन में भी संकोच था कि यह बहुत कठिन है, परन्तु समाज भागीदार बन जाए तो हम 25 लाख तो क्या 50 लाख पौधे रोप सकते हैं। इस वक्त इतने पौधे लगे हैं कि हम गिनती भी नहीं कर सकते हैं। उसी तरह से हमने 50 हजार डबरियों का लक्ष्य रखा है। विश्वास है कि समाज इससे भी ज्यादा डबरियां बनाएगा। जल संचय का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये हम गाँव-गाँव पहल करते हैं। गीत-संगीत का प्रयोग करते हैं। गाँव का आदमी संगीत को शहर के लोगों से ज्यादा पसन्द करता है। नाटक, भजन मंडली को भी पानी का संदेश देने का एक माध्यम बनाते हैं। उसके जीवन में अपने संदेशों को मिला देते हैं। पोस्टर, बैनर व पर्चों का भी उपयोग करते हैं। हमारी ग्राम स्तरीय एजेंसियों का योगदान भी महत्त्वपूर्ण होता है। जब जल संवर्द्धन की बात कहते हैं तो कोई एक विभाग इसको गाँव में पहुँचाने वाला नहीं होता है। सभी विभाग एक साथ इस संदेश को पहुँचाते हैं। ग्राम के नेतृत्व से हमारा सीधा सम्पर्क है। सरपंच हमसे लगातार मिलते रहते हैं। हमलोग गाँव में बहुत भ्रमण करते हैं। हमारे जिले में यदि 1100 गाँव हैं तो मैं कह सकता हूँ कि 700 से ज्यादा गाँवों का भ्रमण तो मैंने स्वयं किया है। यह जीवन्त सम्पर्क भी बहुत काम आता है।

हमारे लक्ष्य के मुताबिक जब ये डबरियां बन जाएँगी तो जल क्षेत्र बढ़ेगा। इन डबरियों का पहला फायदा है कि हर गाँव में रिचार्जिंग का एक बहुत बड़ा तंत्र उपलब्ध हो जाएगा। अभी भी जिन गाँवों में लोगों ने डबरियां बनाई हैं, वहाँ रबी की फसल ले सकते हैं। उनके ट्यूबवेल एवं कुँओं का जलस्तर बढ़ा है। पहली उपलब्धि तो यह होगी कि किसान आत्मविश्वास हासिल कर सकेगा कि वह खुद इस संकट से निपटने के लिये सक्षम है। इस सिद्धांत एवं इस सच्चाई को वो जीवित रूप में महसूस करेगा।

बूंदों के तीर्थदूसरा फायदा यह है कि नौजवान किसान व उनके बच्चे पानी के महत्त्व से वाकिफ होंगे। पानी के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाएँगे। यह आने वाले दिनों के लिये एक अच्छा संकेत रहेगा। ये किसान बड़े होकर खेती की बाग-डोर संभालेंगे तो वे उनके दादा-परदारा से बेहतर नजरिया रखेंगे - पानी के प्रति। वे पानी के नये संस्कार लेंगे। पानी के साथ उनका नया रिश्ता बनेगा।

तीसरी बात यह होगी कि खेती में व्यापक सुधार होगा और अब किसान यह समझ गये हैं कि अधिक अन्न उपजाने वाली किस्मों को छोड़ना पड़ेगा। एकदम तो यह संभव नहीं है, क्योंकि इन्हीं से उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होती है। पर, उनकी समझ में यह बात आ गई है कि ऐसी किस्मों की तरफ भी जाएँ, जो कम पानी की हों। ऐसा करने पर उनके हाथ में कम पैसा आएगा, इसलिये हम किसानों से कह रहे हैं कि वह अपना लागत व्यय घटाने के बारे में भी सोचें। यदि पैसा कम आ रहा है तो उनकी लागत भी कम होना चाहिए, ताकि उनका लाभांश कम न हो। इसीलिये हम जैविक खाद को भी बड़े पैमाने पर साथ-साथ चला रहे हैं।

किराड़िया में जनसहयोग से बनाए गए व स्टापडेमइस साल हम 10 हजार नाडेप बना रहे हैं। उसका भी अभियान हमने चलाया है। 4 हजार नाडेप बन चुके हैं। पिपलौदा द्वारकाधीश में भी 110 नाडेप बन चुके हैं, और भी बन रहे हैं। जैविक खाद की तरफ प्रेरित करने का उद्देश्य यह है कि रासायनिक खाद के खर्च में 50 प्रतिशत तक की कमी आए। यह किसान समझ रहा है। आप उज्जैन जिले के हर गाँव में जाइयेगा, आपको 10-20 नाडेप तो मिलेंगे ही। यह गति जारी है। कई गाँवों में 50-100 नाडेप मिलेंगे। यह जल संवर्द्धन अभियान का हिस्सा भी है।

मेरा मानना रहा है कि विद्यमान सामाजिक सन्दर्भ को नये ढंग से परिभाषित करने की जरूरत है। समस्याओं के समाधान के लिये समाज की रचनात्मक शक्ति को स्पर्श या जागृत करने की देर है। परिवर्तन विचार से आता है। एक नया विचार लोगों तक पहुँचे, ये व्यक्तिगत रूप से मेरा प्रयास रहा है। उदाहरण के तौर पर हमने जनसंख्या स्थिरीकरण की नीति बनाई। हमारा प्रदेश नहीं, बल्कि देश का एकमात्र जिला है - जिसकी अपनी जनसंख्या नीति है। हमारी इस जनसंख्या नीति की देश-विदेश में बहुत सराहना हुई है। ये गाँव स्तर पर जनसंख्या समस्या पर सीधा हस्तक्षेप करने वाला उपक्रम है।

हमने सास-बहुओं की बात की। सास-बहु सम्मेलन करने की सोच यह थी कि एक तो महिलाओं तक जनसंख्या स्थिरीकरण का मुद्दा पहुँचे। दूसरी सोच यह भी कि परिवार में सास एक बहुत शक्तिशाली संस्था है। इससे हमें बाल विवाह रोकने में मदद मिली। इसी तरह उज्जैन में अलग-अलग बिरादरियों को भी बुलाकर बातचीत की गई।

बुनियादी तौर पर उज्जैन धार्मिक नगरी है। यहाँ एक ग्रामीण समाज भी अपनी परम्पराओं, विश्वास के प्रति अधिक समर्पित है। हम अपनी बात समाज की व्यवस्था के तहत ही रखते हैं। यहाँ के समाज में भी यही मान्यता है कि कोई भी शुभ काम शुभ मुहूर्त में ही प्रारंभ किया जाता है। जब पानी का महाअभियान प्रारंभ करने की बात हुई तो यहाँ के पंडितों ने स्वाति नक्षत्र का मुहूर्त निकाला। जिले के पूरे ग्यारह सौ गाँवों में लोग एक ही समय पर एकत्रित हुए। एक साथ मुहूर्त में रैलियां निकाली गईं और जल संचय हेतु संरचनाओं के निर्माण की शुरुआत हुई। लोगों ने ‘पानी रोको’ पर बात की।

...जब शुभ मुहूर्त में ही आयोजन हो, नेक इरादों के साथ उस पर अमल भी हो तो फिर क्या बात है - जो उज्जैन के जल संचय के महायज्ञ में कोई विघ्न डाल दे।

ईंशा अल्लाह, उज्जैन में पानी संचय योजना की रणनीति भी अन्य क्षेत्रों के लिये प्रेरणादायी बने।

...व्यवस्था और प्रशासन के सामाजिक चेहरे के आभामंडल के साथ।

 

 

बूँदों के तीर्थ

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

बूँदों के ठिकाने

2

तालाबों का राम दरबार

3

एक अनूठी अन्तिम इच्छा

4

बूँदों से महामस्तकाभिषेक

5

बूँदों का जंक्शन

6

देवडूंगरी का प्रसाद

7

बूँदों की रानी

8

पानी के योग

9

बूँदों के तराने

10

फौजी गाँव की बूँदें

11

झिरियों का गाँव

12

जंगल की पीड़ा

13

गाँव की जीवन रेखा

14

बूँदों की बैरक

15

रामदेवजी का नाला

16

पानी के पहाड़

17

बूँदों का स्वराज

18

देवाजी का ओटा

18

बूँदों के छिपे खजाने

20

खिरनियों की मीठी बूँदें

21

जल संचय की रणनीति

22

डबरियाँ : पानी की नई कहावत

23

वसुन्धरा का दर्द

 

 

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