जल संरक्षण - आवश्यकता एवं उपाय

11 Oct 2019
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जल संरक्षण - आवश्यकता एवं उपाय।
जल संरक्षण - आवश्यकता एवं उपाय।

हम सभी जानते हैं कि जल सभी जीवित प्राणियों के अस्तित्व के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है। आपने यह भी जानकारी प्राप्त कर ली होगी कि प्रयोग करने योग्य पानी की कमी होती जा रही है। यहाँ पर पानी के संरक्षण के कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय, प्रत्येक व्यक्ति, समुदाय तथा जल संरक्षण में सरकार का योगदान की भूमिका के बारे में जान जाएँगे।

उद्देश्य

भारत एक विकासशील देश है, जिसका क्षेत्र विशाल है, जटिल स्थलाकृति है, परिवर्तनशील जलवायु है और एक बड़ी आबादी है। देश में अवक्षेपण तथा प्रवाह न केवल असमान रूप से वितरित है परन्तु वर्ष के दौरान में भी पानी के वितरण के समय भी असमान है। जल्दी-जल्दी आने वाली बाढ़, सूखा तथा अस्थिर कृषि उत्पादन हमेशा से एक गम्भीर समस्या रही है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के अनुसार भारत में वर्षा के केवल चालीस दिन होते हैं और फिर लम्बी अवधि के लिए शुष्क मौसम होता है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है, इसका आर्थिक विकास कृषि से जुड़ा हुआ है। बढ़ती हुई जनसंख्या और परिणामस्वरूप खाद्य-उत्पादन में वृद्धि, कृषि क्षेत्र और सिंचाई क्षेत्र में वृद्धि के कारण जल का अधिक उपयोग हो रहा है। जल संसाधनों के अत्यधिक उपयोग के कारण, देश के कई भागों में पानी की कमी हो रही है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत के आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास के लिए जल संरक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण है।

संरक्षण तकनीक

भारत में जल का प्राथमिक (मुख्य) स्रोत है दक्षिण-पश्चिम और उत्तर पूर्व मानसून। तथापि मानसून अनिश्चित होता है, वर्षा की अवधि और मात्रा हमारे देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग पाई जाती है। इसलिए सतह पर प्रवाह के संरक्षण की आवश्यकता है। सतही जल के संरक्षण की तकनीके इस प्रकार हैं:-

भंडारण द्वारा सतह के पानी का संरक्षण

विभिन्न जलाशयों का निर्माण करके उनमें जल संग्रह करना जल संसाधन का सबसे पुराना उपाय है। भंडारण की सम्भावना एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पानी की उपलब्धता और स्थलाकृतिक दशाओं पर निर्भर करती है। इस भंडारण के लिए वातावरण के अनुकूल नीति विकसित करने के लिए पर्यावरणीय प्रभाव की जांच करने की आवश्यकता है। 

वर्षा जल का संरक्षण

प्राचीन काल से हमारे देश के विभिन्न भागों में वर्षाजल संरक्षण करके कृषि के लिए प्रयोग में लाया जाता रहा है। यदि एक बड़े क्षेत्र में विरल वर्षा संग्रहित की जाए तो उससे काफी मात्रा में जल प्राप्त हो सकता है। समोच्च खेती (Contour farming) एक उदाहरण है ऐसी उपज और तकनीक का, जिसमें बहुत साधारण स्तर पर पानी और नमी का नियंत्रण किया जा सकता है। प्रायः इसमें समोच्च के कटाव के साथ रखी चट्टानों की कतारें शामिल हैं। इन बाधाओं द्वारा रोका गया जल प्रवाह भी मिट्टी को रोकने में सहायता करता है जिससे कि कोमल ढलानों के लिए कटाव नियंत्रण का तरीका बन जाता है। जिन क्षेत्रों में बहुत अधिक तेजी से वर्षा होती है तथा जो बहुत बड़े क्षेत्रों में फैली होती है-जैसे हिमालय क्षेत्र, उत्तर पूर्व राज्यों अंडमान तथा निकोबार द्वीप, उनमें यह तकनीक विशेष रूप से उपयुक्त होती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा थोड़ी कम अवधि के लिए होती है, ये तकनीकें प्रयास के योग्य हैं क्योंकि सतही प्रवाह को फिर भंडारित किया जा सकता है।

भूमिगत संरक्षण

भूमिगत जल की विशेषताएँ

  • सतह जल की तुलना में अधिक भूमिगत जल है।
  • भूमिगत जल कम खर्चीला है एवं लगभग प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध है।
  • भूमिगत जल, पानी की आपूर्ति के लिए, अधिक टिकाऊ संपोषणीय तथा विश्वसनीय स्रोत है।
  • भूमिगत जल प्रदूषण के प्रति अपेक्षाकृत कम संवेदनशील है।
  • भूमिगत जल रोगजनक जीवों से मुक्त है।
  • भूमिगत जल का प्रयोग करने से पहले थोड़े से उपचार की आवश्यकता होती है।
  • भूमिगत आधारित पानी आपूर्ति में वाहनों का कोई नुकसान नहीं है।
  • भूमिगत जल को सूखे से कम खतरा है।
  • भूमिगत जल शुष्क और अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए जीवन की कुंजी होता है।
  • भूमिगत जल सूखे मौसम में नदियों और धाराओं के प्रवाह का स्रोत है।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, भारत में कुल 4000 बीसीएम (अरब घन मीटर) प्रवाह के लगभग 45mhan (लाख हेक्टेयर मीटर) भूमिगत जल प्रवाह के रूप में रिस जाता है। सम्पूर्ण भूमिगत जल संसाधनों का दोहन सम्भव नहीं हो सकता। भूमिगत क्षमता केवल 490 बीसीएम (अरब घन मीटर) है। जैसे कि हमें सीमित जल उपलब्ध है, यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम इसका प्रयोग बहुत मितव्ययता तथा विवेकपूर्ण ढंग से करें और अधिकतम संरक्षण करें।

भूमिगत जल प्रबंधन और जल संरक्षण की कुछ तकनीके :-

कृत्रिम पुनर्भरण

जिन क्षेत्रों में पानी दुर्लभ (कमी) है, वहाँ भूमिगत जल पर निर्भरता बढ़ रही है। कम और अनिश्चित वर्षा के कारण, जल तालिका में जल्दी गिरावट आती है। कृत्रिम उपायों से भूमिगत जल को भरना ही एकमात्र विकल्प है। भूमिगत जल का कृत्रिम रूप से प्रबन्धन और विकसित करने की कई तकनीके हैं। इनमें से एक उपाय है  जिसमें पानी फैले हुए क्षेत्र में अधिक समय के लिए मिट्टी के सम्पर्क में रहता है जिससे कि पानी को मैदान में प्रवेश करने का अधिकतम अवसर मिल सके।

टपकन टैंक विधि

टपकन टैंक कृत्रिम पुनर्भरण के लिए जल कोर्स (Across water course) बनाए जाते हैं। महाराष्ट्र में किया गया अध्ययन दर्शाता है कि औसतन 1.2 किमी 2 की टपकन से प्रभावित क्षेत्र में औसतन भूमिगत जल वृद्धि 2.5 मीटर तथा भूमिगत के प्रत्येक टैंक से वार्षिक कृत्रिम पुनर्भरण 1-5 hec-m (हेक्टे.मी.) थी।

जलग्रहण क्षेत्र संरक्षण, कैंप (Catchment Area Protection-CAP)

जलग्रहण सुरक्षा योजना को सामान्यत: जल संरक्षण की योजना या प्रबंधन कहा जाता है। ये जलागम (वाटरशेड) जल संरक्षण और जल की गुणवत्ता की रक्षा करने के महत्त्वपूर्ण उपाय हैं। पहाड़ी क्षेत्रों की नदियों के ऊपर चेक-बाँध (Check Band) का निर्माण अस्थाई रूप से जल के प्रवाह की मदद करता है ताकि जल को भूमि में रिसने के लिए अधिक-से-अधिक समय मिल जाए। ये उपाय उत्तर-पूर्वी राज्यों और पहाड़ी क्षेत्र के आदिवासी बेल्ट में उपयोग में लाए जाते हैं। यह तकनीक मृदा संरक्षण में भी सहायता करती है। जलग्रहण क्षेत्र में वनरोपण भी मृदा संरक्षण के लिए काम में लिया जाता है।

जल का अंतः बेसिन स्थानान्तरण

जल का विस्तृत विश्लेषण एवं भूमि संसाधन एवं हमारे देश के विभिन्न नदी बेसिनों की संख्या की सांख्यिकी इस बात का खुलासा करती है। ऐसे क्षेत्र जो पश्चिमी एवं पठारी क्षेत्रों, जिनमें कम जल संसाधन उपजाऊ भूमि का अनुपात तुलनात्मक रूप से कम है। उत्तरी एवं पूर्वी क्षेत्रों में गंगा एवं ब्रह्मपुत्र द्वारा जल प्रवाह से इन क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में जल संसाधन उपलब्ध हैं। इस प्रकार पानी को इन क्षेत्रों से दूसरी जगह ले जाने जहाँ पानी अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध है, वहाँ से कम जल वाले क्षेत्रों में ले जाने के लिए गंगा कावेरी लिंक के माध्यम से जल की बहुत बड़ी मात्रा गंगा बेसिन से भेजने का काम करते हैं, जो अन्त में पश्चिमी एवं दक्षिणी-पश्चिमी भारत के समुद्र में गिरती हैं। गंगा जल की अधिक मात्रा का परिवहन नियमित रूप से पानी की कमी को दूर करने के लिए सोन, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी नदियों में भेज दिया जाता है। राष्ट्रीय ग्रिड कमीशन पटना के निकट भंयकर बाढ़ की अवधि के दौरान गंगा के अधिकतम बहाव का रास्ता बदल देने का काम करता है।

ड्रिप व छिड़काव सिंचाई अपनाना

सतही सिंचाई पत्तियाँ, जिनका प्रयोग परम्परागत रूप से हमारे देश में किया जाता है, वे कम पानी वाले क्षेत्रों के लिए सर्वदा से अनुपयुक्त हैं क्योंकि जल की एक बड़ी भारी मात्रा वाष्पीकरण और रिसाव के कारण नष्ट हो जाती है। ड्रिप सिंचाई (Drip Irrigation), सिंचाई का एक उपयुक्त तरीका है। संयंत्र के पास एक सीमित क्षेत्र में ड्रिप जल से सिंचाई होती है। यह किसी भी क्षेत्र के लिए उपयुक्त तरीका हो सकता है। पानी के लिए दुर्लभ क्षेत्रों में यह पद्धति विशेष रूप से पंक्तिबद्ध फसल के लिए उपयोगी है। इसी प्रकार की छिड़काव पद्धति भी कम पानी वाले क्षेत्रों के लिए उपयोगी है। इस पद्धति से लगभग 80 प्रतिशत पानी की खपत कम की जा सकती है। बल्कि छिड़काव सिंचाई पद्धति 50-70 प्रतिशत पानी की खपत कम कर सकती है।

फसल उगाने के तरीकों का प्रबंधन

जल की कमी वाले क्षेत्रों में  फसल का चयन पानी की उपयोग दक्षता पर आधारित होना चाहिए। कम जल-क्षेत्रों के लिए जो पौधे उपयुक्त हैं वे (i) विकास के लिए कम अवधि वाले पौधे (ii) बहुत उपज प्रदान करने वाले पौधे, जिनको पानी की आपूर्ति में वृद्धि की कोई आवश्यकता नहीं। (iii) बहुत गहरी और अंदर तक फैली जड़ों वाले पौधे (iv) वे पौधे जो सतह सिंचाई नहीं सहन कर सकते हैं।

फसल की किस्मों का चयन

फसल का प्रदर्शन तथा उपज जीनोटाइप अभिव्यक्ति करके पर्यावरण के साथ लगातार पारम्परिक क्रिया करने का परिणाम होता है। प्रायः फसल की नई किस्मों को पुरानी किस्मों से अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है। यद्यपि इनको ठीक समय पर पानी की आपूर्ति की आवश्यकता है क्योंकि इनकी उत्पादकता अधिक है। उच्च पैदावार प्राप्त करने के लिए बड़े अंतराल पर भारी प्रवाहकीय सिंचाई की तुलना में निरन्तर दी जाने वाली हल्की सिंचाई अधिक लाभदायक है।

 

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