जल संरक्षण एवं सिंचाई में महिलाओं की भूमिका
हमें महिलाओं के सक्रिय सहभाग के साथ जल संसाधन प्रबंधन में उनकी दक्षता बढ़ाने की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करने के लिये हमें कानूनों तथा संस्थागत व्यवस्थाओं में बदलाव करना होगा ताकि महिलाओं को सिंचित कृषि एवं जल संरक्षण में अपनी भूमिका बढ़ाने का मौका मिले। इतिहास में अधिकतर सभ्यताओं ने जल तथा महिलाओं को जीवन का स्रोत माना है। अब महिलाओं के लिये जल की और जल के लिये महिलाओं की आवश्यकता स्वीकार करने का समय आ गया है।
लैंगिक मुद्दों का अर्थ महिलाओं एवं पुरुषों के जीवन तथा उनके बीच के सम्बन्धों को प्रभावित करने वाला पहलू है। योजना तैयार करने, रख-रखाव तथा प्रबंधन में महिलाओं की सहभागिता कम रहने से सेवाओं की गुणवत्ता तथा महिलाओं की स्थिति एवं विकास में उनकी सहभागिता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। महिलाओं तथा पुरुषों का निष्पक्ष विकास करने के लिये सभी राष्ट्रीय योजनाओं में लैंगिक पक्षों को जरूर शामिल किया जाना चाहिये।
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 121.019 करोड़ है, जिसमें महिलाओं की संख्या 58.647 करोड़ यानी कुल जनसंख्या की लगभग आधी है। महिलाओं का सशक्तीकरण देश की प्रगति के लिये बुनियादी शर्त है। जनगणना के नवीनतम आँकड़े बताते हैं कि कृषि क्षेत्र में 35 प्रतिशत से भी कम महिलाएँ प्राथमिक कामगार हैं, जबकि पुरुषों के मामले में यह आँकड़ा 81 प्रतिशत है। किन्तु इस बात में कोई विवाद नहीं है कि 9 से 10 करोड़ महिलाओं को रोजगार देने वाला कृषि उद्योग उनके श्रम के बगैर नहीं चल सकता। कृषि में काम करने वाली महिलाएँ जमीन तैयार करने, बीज छाँटने, तैयार करने तथा बोने से लेकर पौध रोपने, खाद, उर्वरक एवं कीटनाशी डालने और उसके बाद कटाई, ओसाई और थ्रेशिंग में पुरुष किसानों के मुकाबले अधिक तथा देर तक काम करती हैं। कृषि क्षेत्र में सहायक शाखाएँ जैसे पशुपालन, मत्स्य पालन और सब्जी उगाना आदि केवल महिलाओं के भरोसे चलती हैं। किन्तु नीति निर्माण में उनकी हिस्सेदारी न के बराबर है।
भूमि, जल, वनस्पति और पशुओं जैसी जीवन को सहारा देने वाली बुनियादी व्यवस्थाओं के संरक्षण में महिलाओं ने अहम भूमिका निभाई है और निभा रही हैं। कई इतिहासकार मानते हैं कि फसल वाले पौधों को घर के लायक बनाने और उनकी खेती करने का काम सबसे पहले महिला ने ही किया था और इस तरह खेती की कला तथा विज्ञान की शुरुआत भी उसी ने की थी। भोजन की तलाश में जब पुरुष शिकार पर निकल जाते थे तब महिलाओं ने आस-पास की वनस्पति से बीज इकट्ठे करने शुरू किए और भोजन, चारे, रेशे एवं ईंधन के लिये उन्हें उगाना आरम्भ कर दिया। कृषि श्रमशक्ति में महिलाओं की बहुत अधिक सहभागिता होने के बाद भी निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनका कहना इसीलिए कम सुना जाता है क्योंकि आमतौर पर अपने परिवार में उन्हें प्राथमिक कमाई वाली तथा भूमि सम्पदा की स्वामिनी नहीं माना जाता है। इसीलिए पुरुषों की तुलना में उनकी भूमिका ऋण हासिल करने, बाजार पंचायतों में हिस्सा लेने, फसल-चक्र का अनुमान लगाने और निर्णय लेने एवं सरकारी प्रशासकों से बातचीत करने भर की रह जाती है।
कृषि में महिलाओं की हिस्सेदारी की प्रकृति एवं सीमा अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग होती है। इतना ही नहीं, किसी एक इलाके के भीतर भी अलग-अलग पारिस्थितिक उप-क्षेत्रों, कृषि प्रणालियों, जातियों, पारिवारिक चक्र के विभिन्न चरणों में भी कृषि कार्यों में उनकी सहभागिता का स्तर बहुत अलग-अलग होता है। हालाँकि इन विभिन्नताओं के बावजूद कृषि उत्पादन में शायद ही ऐसी कोई गतिविधि हो, जिसमें महिलाएँ बड़ी जिम्मेदारी नहीं उठाती हों। भारत की जनसंख्या में 48.5 प्रतिशत महिलाएँ हैं और कृषि क्षेत्र महिलाओं को सबसे अधिक रोजगार देता है। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 59 प्रतिशत पुरुष कृषि कार्य करते हैं, लेकिन महिलाओं की संख्या 75 प्रतिशत है। कृषि में महिलाओं की हिस्सेदारी पुरुषों की तुलना में बढ़ रही है, जिससे कृषि पर महिलाओं की बढ़ती निर्भरता का पता तो चलता ही है, यह भी साबित होता है कि इस क्षेत्र की सतत वृद्धि और भविष्य में महिलाओं की कितनी अहम भूमिका है। कई वर्षों से पुरुष कृषि से विमुख हो रहे हैं, जिसके कारण कृषि श्रमशक्ति में महिलाओं का हिस्सा बढ़ता गया है और इस क्षेत्र में उनकी भूमिका विस्तार भी हुआ है।
जल संसाधनों के प्रयोग के प्रति नए दृष्टिकोण को बढ़ावा देने में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है, जो तकनीकी ज्ञान पर ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों पर भी आधारित होगा। इस नए दृष्टिकोण में यदि ताजे जल के भावी सीमित संसाधनों को बेहतर करने तथा सम्भालने के लिये स्त्री एवं पुरुषों के विशिष्ट ज्ञान, कौशल का पारस्परिक आदान-प्रदान तथा अवसरों की साझेदारी शामिल होती है तो यह अधिक न्यायपूर्ण एवं शान्तिपूर्ण दुनिया तैयार करने में योगदान करेगा। जल के लिये महिलाओं एवं महिलाओं के लिये जल की महत्ता को डबलिन सम्मेलन में औपचारिक मान्यता दी गई थी। डबलिन घोषणापत्र में जल की प्रभावी एवं पर्याप्त उपलब्धता के जो चार सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए थे, उनमें एक था पेयजल तथा स्वच्छता के लिये सभी योजनाओं एवं कार्यक्रमों के नियोजन तथा क्रियान्वयन में महिलाओं का पूर्ण सहभाग। संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार 2025 तक लगभग 5.5 अरब लोग यानी दुनिया की एक तिहाई जनसंख्या पानी की किल्लत से जूझेगी। जल की गुणवत्ता में कमी के कारण उसकी आपूर्ति एवं माँग के बीच असन्तुलन और बिगड़ता है। इससे दुनिया भर के अधिक से अधिक क्षेत्रों में जीवनयापन खतरे में पड़ता जाता है।
रियो में 1992 में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन में यह माना गया कि पर्यावरण में क्षरण का गरीबी विशेष रूप से महिलाओं के जीवन से सम्बन्धित गरीबी के साथ सम्बन्ध होता है। इस सम्बन्ध में रियो सम्मेलन में घोषणा हुई कि
“पर्यावरण के रख-रखाव एवं सतत विकास में महिलाओं को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। सतत विकास का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये उनकी सर्वांगीण प्रतिभागिता आवश्यक है।”
हालाँकि पानी की रोजमर्रा की आपूर्ति, रख-रखाव तथा इस्तेमाल में महिलाओं की अहम भूमिका देखते हुए यह तथ्य तो स्वीकार किया गया कि जल प्रबंधन के सभी चरणों में महिलाओं की सहभागिता से जलापूर्ति एवं स्वच्छता परियोजनाओं को लाभ मिल सकता है, लेकिन जल प्रबंधन कार्यक्रमों में उनकी सहभागिता तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाए जाने की जरूरत है।
महिलाएँ जल की प्रमुख उपयोगकर्ता होती हैं। वे खाना पकाने, धोने, परिवार की स्वच्छता और सफाई के लिये जल का प्रयोग करती हैं। जल प्रबंधन में उनकी अहम भूमिका होती है। दुनिया भर में तेजी से हो रहे सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों के कारण कई प्रकार की चुनौतियाँ एवं समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। ऐसे में यह अनिवार्य हो गया है कि जल प्रबंधन तथा सिंचाई की सुविधाओं समेत अर्थव्यवस्था एवं समाज के सभी क्षेत्रों से जुड़ी नीतियाँ बनाने में लैंगिक दृष्टिकोण को ठीक से समाहित किया जाए। घर-परिवार में तथा सिंचित अथवा वर्षा-सिंचित फसलों की किसान के रूप में पानी इकट्ठा करने, इस्तेमाल करने और उसके प्रबंधन में उनकी महत्त्वपूर्ण सहभागिता के कारण महिलाएँ जल संसाधनों की कड़ी हैं और उनके पास जल-संसाधनों की गुणवत्ता एवं विश्वसनीयता, सीमा एवं भंडारण के उचित तरीकों समेत पीढ़ियों से मिला ज्ञान है। साथ ही वे जल संसाधन विकास एवं सिंचाई की नीतियों तथा कार्यक्रमों को पूरा करने की कुंजी भी हैं।
भारत में पिछले कई वर्षों से हमने देखा है कि जल संसाधन नीतियों तथा कार्यक्रमों ने महिलाओं के जल-सम्बन्धी अधिकारों को खतरे में ही डाला है और इसी कारण जल का सतत प्रबंधन एवं प्रयोग भी खतरे में पड़ा है। पारम्परिक सिंचाई जैसे हस्तक्षेप पुरुषों तथा महिलाओं के स्वामित्व सम्बन्धी अधिकारों, श्रम विभाजन तथा आय में मौजूद असंतुलन पर ध्यान नहीं दे सके हैं। सिंचाई से भूमि की कीमत बढ़ती है और सामाजिक परिवर्तन आता है, जिसमें आमतौर पर पुरुषों का पलड़ा भारी रहता है। लैंगिक विश्लेषण सिंचाई योजनाओं का प्रदर्शन सुधारने में सिंचाई योजनाकारों तथा नीति निर्माताओं की मदद कर सकता है। सिंचित कृषि उत्पादन प्रणालियों में मोटे तौर पर तीन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है, जिनमें स्थानीय परिस्थितियों के अधिक गहन, स्त्री-पुरुष आधारित विश्लेषण से सिंचाई की अधिक प्रभावी, निष्पक्ष एवं सतत नीतियाँ तथा कार्यक्रम बनाने में मदद मिलेगी। भूमि तथा सिंचाई के जल को प्रयोग एवं नियंत्रित करने का महिलाओं का अधिकार सुनिश्चित करना सबसे पहली आवश्यकता है। अध्ययनों से महिलाओं के लिये भूमि एवं सिंचाई के स्वतंत्र अधिकारों का भूमि एवं श्रम की अधिक उत्पादकता से सीधा सम्बन्ध पता चलता है। इसलिये सिंचाई योजनाओं के अन्तर्गत भूमि व्यक्तिगत किसानों को आवंटित की जानी चाहिए, पूरे परिवार को नहीं ताकि कृषि में लगी लाखों महिलाओं को लाभ मिल सके।
लैंगिक मुद्दों का अर्थ महिलाओं एवं पुरुषों के जीवन तथा उनके बीच के सम्बन्धों को प्रभावित करने वाला पहलू है। योजना तैयार करने, रख-रखाव तथा प्रबंधन में महिलाओं की सहभागिता कम रहने से सेवाओं की गुणवत्ता तथा महिलाओं की स्थिति एवं विकास में उनकी सहभागिता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। महिलाओं तथा पुरुषों का निष्पक्ष विकास करने के लिये सभी राष्ट्रीय योजनाओं में लैंगिक पक्षों को जरूर शामिल किया जाना चाहिये। विकासशील देशों में लैंगिक पक्षों का अर्थ है विकास एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की अधिक सहभागिता। चूँकि महिलाओं की आय पुरुषों की अपेक्षा काफी कम होती है और सिंचित फसलों में निवेश के लिये अधिक पूँजी की आवश्यकता पड़ सकती है, इसलिये सिंचाई करने वाली महिलाओं के लिये ऋण की व्यवस्था उपलब्ध कराई जानी चाहिए। ऋण उपलब्ध होने से सिंचाई करने वाली महिलाएँ तकनीक प्राप्त कर सकेंगी। हमें महिलाओं के सक्रिय सहभाग के साथ जल संसाधन प्रबंधन में उनकी दक्षता बढ़ाने की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करने के लिये हमें कानूनों तथा संस्थागत व्यवस्थाओं में बदलाव करना होगा ताकि महिलाओं को सिंचित कृषि एवं जल संरक्षण में अपनी भूमिका बढ़ाने का मौका मिले। इतिहास में अधिकतर सभ्यताओं ने जल तथा महिलाओं को जीवन का स्रोत माना है। अब महिलाओं के लिये जल की और जल के लिये महिलाओं की आवश्यकता स्वीकार करने का समय आ गया है।
लेखक परिचय
लेखिका डॉ. शशिकला पुष्पा राज्यसभा की सांसद हैं और डॉ. बी. रामास्वामी एपीजी शिमला विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति एवं सांसद महोदया के विधिक सलाहकार हैं। ईमेल : sasikalapushpamprs@gmail.com