जल सत्याग्रह: न्याय का आग्रह

देश में चल रही बड़ी परियोजनाओं का दो कारणों से जनविरोध है। पहला ज्यादातर परियोजनाएं गांव, जंगल और नदियों, समुद्र के आसपास हैं और उन पर लोगों की आजीविका ही नहीं बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान भी निर्भर करती है इसलिए उन परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लोग प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा चाहते हैं। वे एक एकड़ जमीन के बदले 10 लाख रुपए नहीं, बस उतनी ही जमीन चाहते हैं। वे एक सम्मानजनक पुनर्वास चाहते हैं। दूसरा, लोग यानी समाज जानता है कि यदि जंगल खत्म हो गए, नदियां सूख गईं और हवा जहरीली हो गई तो मानव सभ्यता खत्म हो जाएगी। मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में स्थित घोघलगांव और खरदना गांव में 200 लोग 17 दिनों तक नर्मदा नदी में ठुड्डी तक भरे पानी में खड़े रहे। वे न तो कोई विश्व रिकार्ड बनाना चाहते थे और ना ही उन्हें अखबार में अपना चित्र छपवाना था। बल्कि विकास के नाम पर उनकी जलसमाधि दी जा रही थी, जिसके विरोध में उन्होंने जल सत्याग्रह शुरू किया। उनका कहना था कि यदि यह बांध देश के विकास के लिए बना है तो इससे उनके जीवन के अधिकार को क्यों खत्म किया जा रहा है। वैसे भी जमीन, पानी और प्राकृतिक संसाधन ही उनके जीवन के अधिकार के आधार हैं। मध्यप्रदेश में दो बड़े बांधों - इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर से बिजली बनती है और इनसे थोड़ी बहुत सिंचाई भी होती है। इन बांधों के दायरे के बाहर की दुनिया को इन बांधों से बिजली मिलती है और उनके घर इससे रोशन होते हैं। रेलगाड़ियां भी चलती हैं। नए भारत के शहरों को, उन उद्योगों को, जो रोजगार खाते हैं, मॉल्स और हवाई अड्डों को भी यही की बिजली रोशन करती है।

खरगोन, खंडवा, हरदा, देवास ये वे जिले हैं, जहां लगभग 2 लाख परिवारों की भूमि का अधिग्रहण कर उन्हें उनकी जड़ों से उखाड़ा गया। यह कदम बताता है कि देश और समाज (शहर और एक खास वर्ग) की विलासिता के लिए तुम्हें अपना बलिदान देना होगा। स्वतंत्रता के बाद से लगातार देश में लोगों को विस्थापित किया जाता रहा है। विस्थापन के अधिकतर शिकार आदिवासी, दलित और भूमिहीन ही रहे हैं। इन बांधों या किसी और भी परियोजना में जिन पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा उनकी जिंदगी प्राकृतिक संसाधनों जैसे - जमीन, पानी, जंगल और पारम्परिक उद्योगों पर निर्भर रही है। वे मुद्रा नकद यानी कागज की सम्पदा में रमते ही नहीं हैं। ऐसे में उन्हें उनकी जमीनों के बदले मुआवजे के तौर पर नकद राशि देने की व्यवस्था बनायी गई। यह सरकार के हिसाब से सबसे सस्ता, आसान और सहज विकल्प था। परन्तु लोगों के लिए यह जीवन खत्म कर देने वाला विकल्प साबित हुआ।

इसे इस उदाहरण से समझाते हैं: 1980 के दशक में जब रानी अवंतीबाई परियोजना यानि बरगी बांध बना, तब लोगों को उनकी जमीन के बदले 800 से 1500 रुपए प्रति एकड़ के मान से मुआवजा दिया गया। जैसे ही आसपास के लोगों को पता चला तो सभी यह मानने लगे अब तो विस्थापित जमीन खरीदेंगे क्योंकि यह उनकी मजबूरी है। दो तीन दिनों के भीतर वहां जमीन के दाम बढ़े। एक हजार रुपए एकड़ की जमीन कुछ दिनों में 3500 रुपए एकड़ तक पहुंच गई। ऐसी स्थिति में लोगों को जो नकद राशि मिली थी उसके कोई मायने ही नहीं रह गए। सरदार सरोवर में मिले नकद मुआवजे से जमीन खरीदने के लिए जो व्यवस्था बनाई गई, उसमें पटवारी से लेकर राजस्व अधिकारी, वकीलों और भू-अर्जन अधिकारी के गिरोह को सक्रिय कर दिया, जिन्होंने मिलकर आदिवासियों और विस्थापितों के चील कौवों की तरह नोंचा। सर्वोच्च न्यायालय में भी मामला गया और मध्यप्रदेश सरकार कहती रही हमारे पास परियोजना प्रभावितों को देने के लिए तो जमीन नहीं है, पर डुबोने के लिए जमीन थी।

वैसे सरकार के पास जमीन तब भी थी और आज भी है। यदि सरकार की मंशा होती तो परियोजना प्रभावितों का स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तरह का सम्मान होता और उन्हें सामान्य इंसान से थोड़ा तो ज्यादा माना ही जाता। उन्हें अपने ही देश में गैरकानूनी अप्रवासी और अतिक्रमणकारी और अधूरे नागरिक का दर्जा नहीं दिया जाता। जो अपनी पूरी सम्पदा देश के विकास के लिए दे रहा है, उसके लिए जबरन बेदखली की प्रक्रिया चलाना क्या कोई न्यायोचित कृत्य है? जब समुदाय ने यह सच्चाई बताने की कोशिश की तो उसे विकास विरोधी और राष्ट्रद्रोह के मुकदमों में फंसाया गया। इतना ही नहीं राज्य सरकार के प्रतिनिधि मंत्री ने संदेश दिया कि मुट्ठीभर जल सत्याग्रही हमें कमजोर न समझे। हमें सरकार चलाना आता है और हम दबेंगे नहीं। हम अपना काम करेंगे और ठीक 20 घंटे के बाद पुलिस बल ने ताकत का प्रयोग करके इंदिरा सागर बांध डूब क्षेत्र में सत्य के आग्रह को ठुकरा दिया।

अपने ही घर से विस्थापित होते किसानअपने ही घर से विस्थापित होते किसानजो लोग घोघलगांव और खरदना में 15 से 17 दिन पानी में इसलिए खड़े रहे ताकि उनकी बात सुनी जाए जो अन्य इंसानी तरीकों से तो व्यवस्था सुन ही नहीं रही थी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश और पुनर्वास नीति कहती है कि जब तक पुनर्वास पूरा नहीं होगा तब तक बांधों में जलभराव के स्तर को इंदिरा सागर में 260 मीटर और ओंकारेश्वर में 189 मीटर तक रखा जाएगा। परन्तु इन बांधों में दो मीटर से ज्यादा जलभराव का स्तर बढ़ा दिया गया, जिससे 100 ऐसे गांव प्रभावित हुए, जिनका सर्वेक्षण तक नहीं हुआ था। खेत, जंगल और घर डूब में आए। सरकार और योजनाकार रणनीति के तहत पुनर्वास की प्रक्रिया में विलम्ब करते जाते हैं और दूसरी तरफ जलस्तर बढ़ाते जाते हैं ताकि जमीनें डूबती जाएं। जब घर और जमीन ही डूब जाती हैं तो फिर सर्वेक्षण नहीं हो पाता। ऐसे में जमीनी स्तर पर भू-अर्जन अधिकारी, पटवारी, पंजीयक और स्थानीय प्रशासन का गठजोड़ ग्रामीणों की जिन्दगी में से संभावनाओं की आखिरी बूंद तक को निचोड़ लेता है। जिनका सब कुछ डूब रहा होता है वे कर्जे लेकर इन अधिकारियों को रिश्वत देते हैं। औरतें अपने घर के बर्तन और गहने बेचने को सिर्फ इस उम्मीद पर मजबूर हुई कि यदि जमीन मिल गई तो जिन्दगी चल जायेगी। सरदार सरोवर परियोजना में नकद मुआवजे और जमीन की खरीदी में अब तक 600 करोड़ रुपए का घोटाला और भ्रष्टाचार सामने आ चुका है।

लोग अपना शरीर गलाते हैं, हो सकता है ये उनका बाल हठ हो? पर क्या प्रदेश के मुख्यमंत्री घटना जानने बाद भी उनके पास जा नहीं सकते थे? उनसे एकबार बात कर पूछ नहीं सकते थे कि बताओ अम्मा क्या बात है? हम आज ही समस्या हल करेंगे। वे कहते हैं कि सरकार को विस्थापितों से सीधे बात नहीं करने दिया गया? लेकिन आपने सत्ता और माफिया के गठजोड़ को जानते हुए भी क्यों नहीं तोड़ा और क्यों इसे झूठे अहम् का मुद्दा बनाया? आप के संज्ञान में यह बात क्यों नहीं लाई गई कि लोग और आंदोलन अब तक कुल मिलाकर 487 ज्ञापन मुख्यमंत्री कार्यालय को दे चुके हैं, 8 बार भोपाल में उनसे या उनके प्रतिनिधियों से मिले हैं, 170 दिन का अनशन कर चुके हैं, जिला स्तर और जल विद्युत परियोजना कंपनी को दिए गए आवेदनों की गिनती अभी भी जारी है। इतने सबके बाद आप यह कहते हैं बांध भरेगा, किसी को कोई कुछ और नहीं मिलेगा और दूसरे मंत्री कहते हैं हम दबेंगे नहीं। दबना या दबाना तो पीड़ितों की मंशा ही नहीं रही है। उनकी मंशा तो संविधान को गले लगाने की है?

देश में चल रही बड़ी परियोजनाओं का दो कारणों से जनविरोध है। एक, चूंकि ज्यादातर परियोजनाएं गांव, जंगल और नदियों, समुद्र के आसपास हैं और उन पर लोगों की आजीविका ही नहीं बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान भी निर्भर करती है इसलिए उन परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लोग प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा चाहते हैं। वे एक एकड़ जमीन के बदले 10 लाख रुपए नहीं, बस उतनी ही जमीन चाहते हैं। वे एक सम्मानजनक पुनर्वास चाहते हैं। दूसरा, लोग यानी समाज जानता है कि यदि जंगल खत्म हो गए, नदियां सूख गईं और हवा जहरीली हो गई तो मानव सभ्यता खत्म हो जाएगी। यह बात सरकार और पूंजी समर्थक नव उपनिवेशवादी नीति निर्माता समझने को तैयार नहीं हैं। लोग पर्यावरण और जैव संस्कृति के अहित पर निजी विकास नहीं चाहते हैं। जब सत्ता इस मंतव्य को समझती नहीं है तब टकराव होना स्वाभाविक है। व्यापक समाज मूल्य आधारित बात करता है और राज्य अपनी ताकत का इस्तेमाल करता है। विडम्बना देखिये कि सरकार जनहित में विकास की योजना को लागू करने के लिए जनता के ही खिलाफ हिंसा, दमन और शोषण का रास्ता अख्तियार करती है।

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