जलवायु परिवर्तन और परचून की दुकानें

1 Jan 2017
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जलवायु परिवर्तन की सालाना बैठक हमारे सिर आ खड़ी हुई है। भारत सरकार ने पेरिस संधि की पुष्टि कर दी है। जब एक साल पहले इस संधि पर समझौता हुआ था, तभी यह स्पष्ट था कि राष्ट्रवाद की धौंस में फँसे दुनिया के सभी देश असल में वह नहीं करना चाहते जिसे करने की जरूरत है। केवल लीपापोती होती है। इसीलिये जलवायु परिवर्तन की बातचीत चाशनी में भिगोई हुई लगती है। ‘पृथ्वी को बचाना’, ‘वसुंधरा की रक्षा’, ‘हमारा संयुक्त भविष्य’ ...इस तरह के जुमले राष्ट्रवाद में बँटे अन्तरराष्ट्रीय समाज का अन्धापन ढँकने के काम आते हैं। यह शोर हमारा बहरापन छुपा देता है, ऐसे समय में जब चारों तरफ खतरे की घंटी जोर-जोर से चिल्ला रही है।

सईद अकबरुद्दीन गाँधीजी की तस्वीर के आगे खड़े थे। हाथ में संधि की पुष्टि के कागज थे। उनके सामने थे संयुक्त राष्ट्र संघ के नुमाइंदे। दिन था 2 अक्तूबर 2016, गाँधी जयंती। जगह थी अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय। श्री अकबरुद्दीन संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि हैं। उनके हाथ में पेरिस संधि की पुष्टि के वे कागज थे, जिन्हें चार दिन पहले भारत के मंत्रिमण्डल ने स्वीकार किया था। राजदूत ने औपचारिक कागज संयुक्त राष्ट्र को जमा किये। सभी ने गाँधीजी की शान्ति और सद्भाव की विरासत का हवाला दिया।

संयुक्त राष्ट्र के एक आला अफसर ने कहा कि गाँधीजी भारत सरकार द्वारा अन्तरराष्ट्रीय संधि की पुष्टि से अत्यन्त प्रसन्न हो उठते, क्योंकि इससे संधि की वैधता और मान्यता को बड़ा सम्बल मिला है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली से टिप्पणी की कि गाँधीजी का सन्देश हम सभी को प्रेरणा देता है। श्री मोदी ने कहा कि भारत दुनिया के साथ हमेशा ही काम करेगा जलवायु परिवर्तन से उबरने के लिये और इसे एक हरित ग्रह बनाने के लिये। हम क्या हरित मानते हैं वह हमारी आँख पर निर्भर करता है। जलवायु परिवर्तन से हरियाली बढ़ भी सकती है, यानी वनस्पति को फायदा हो सकता है।

जब हवा में कार्बन की मात्रा ज्यादा होती है तब परिस्थितियाँ पेड़-पौधों के लिये आदर्श होती हैं। पौधे हवा से कार्बन डाइऑक्साइड गैस खींचते हैं, उसे जड़ों से खींचे पानी से मिलाते हैं, और अपनी शक्कर बनाते हैं, जिसे ‘कार्बोहाइड्रेट’ कहा जाता है। इस प्रक्रिया से कचरे के रूप में ऑक्सीजन गैस निकलती है, जिसे पौधे बाहर निकाल कर फेंक देते हैं।

पौधे ऐसा जीवन के शुरुआती दिनों से ही करते आ रहे हैं, करोड़ों-अरबों साल पहले से। जब ऑक्सीजन का कचरा वातावरण में ज्यादा हो गया तब ऐसे प्राणी उभर आये जिनके लिये यह गैस ही प्राण है, प्राणवायु है। हम उन्हीं की सन्तति हैं, पेड़-पौधों के कचरे पर पलने वाले प्राणी। आज कोयला और पेट्रोलियम जला-जलाकर हमने जलवायु में ऐसे परिवर्तन ला दिये हैं जिनकी वजह से हमारा ही जीना दूभर होता जा रहा है।

हमारी अपार सफलता ही हमें विनाश की ओर धकेल रही है। इससे कई दूसरे प्राणियों का विनाश भी होगा, लेकिन कई जीवों को इससे लाभ भी होगा। एक तरह के जीव अगर मिटते हैं, तो दूसरी तरह के जीवों की सफलता का रास्ता खुलता है। प्रकृति की जीवनलीला ऐसे ही चलती है। हमारी सफलता से आते प्रलय को रोकने का एकमात्र तरीका है कार्बन वाली गैसों का उत्सर्जन कम करना। लेकिन कार्बन का उत्सर्जन तो औद्योगिक विकास का मूलभूत चरित्र है। कह सकते हैं कि यह विकास की शर्त है।

कोयला और पेट्रोलियम जलाए बिना 250 साल पहले शुरू हुई औद्योगिक क्रान्ति घटित ही नहीं होती। आज जिसे हम आर्थिक विकास कहते हैं वह भी नहीं होता। कार्बन का उत्सर्जन रोकने का मतलब है आर्थिक विकास को रोकना।

इसीलिये दुनिया भर के सभी देश इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हैं, वे दूसरे देशों को उनकी जिम्मेदारी का एहसास दिलाते हैं और खुद कटौती न करने के नित-नए तर्क निकालते रहते हैं। जलवायु परिवर्तन का कारण अगर कार्बन के ईंधनों का जलाना है, तो इसके न रुकने का सबसे बड़ा कारण राष्ट्रवादी होड़ है।

सभी राष्ट्रीय सरकारें अपने छोटे राष्ट्रवादी हित को साधने के लिये सम्पूर्ण मनुष्य प्रजाति के भविष्य की बलि दे रही हैं। इसीलिये जलवायु परिवर्तन पर समझौता करने के लिये राष्ट्रीय सरकारें अपने सबसे चतुर कूटनीतिज्ञों को भेजती हैं। चाल पर चतुर चाल चली जाती है, दाँव पर स्वार्थी दाँव खेला जाता है। सब कुछ मीठे और आदर्शवाद में भीगे शब्दों में होता है। सन 1992 में कार्बन का उत्सर्जन घटाने की जिस संधि पर सारी दुनिया के देशों ने हस्ताक्षर किये थे उस पर आज तक कुछ नहीं हुआ है। इन 24 सालों में अगर हुआ है, तो बस खानापूर्ति। ऊँट के मुँह में जीरा।

इस सब में गाँधीजी का नाम लेना उस अगरबत्ती की तरह होता है जिसे दुर्गन्ध दूर करने के लिये जलाया जाता है। आजकल की राजनीति में गाँधीजी का उपयोग कुछ वैसे होता है जैसे नशे में डूबा शराबी बिजली के खम्भे का इस्तेमाल करता है। नशे में लड़खड़ाते शराबी को खम्भे के ऊपर से आती बल्ब की रोशनी में कोई रुचि नहीं होती। उसे तो बस कुछ पकड़कर खड़े रहने के लिये सहारा चाहिए होता है, औंधे मुँह नीचे गिरने से बचने के लिये।

सन 2016 का सितम्बर महीना जलवायु परिवर्तन के इतिहास में भारत द्वारा पेरिस संधि की पुष्टि के लिये नहीं याद किया जाएगा। यह महीना याद किया जाएगा एक लक्ष्मण-रेखा के उल्लंघन के लिये, जलवायु परिवर्तन की एक बड़ी सीमा टूटने के लिये। पृथ्वी के वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा 400 अंश के पार जा चुकी है।

हमारे जीवनकाल में इस मात्रा का इससे नीचे आना लगभग नामुमकिन है। यह गणित दिखने में जरा कठिन लगता है, लेकिन फिर भी, इसे समझना उतना मुश्किल है नहीं। इस गणित में हमारी प्रजाति के जीवन, मरण और विलुप्त होने तक के सूत्र टिके हुए हैं।

यह हिसाब है हमारे वायुमण्डल में कार्बन गैस की मात्रा का। वैसे, कार्बन जीवन का मूल स्रोत है। रसायनशास्त्र की दुनिया मोटे तौर पर दो भागों में बाँटी जाती है। एक शास्त्र कार्बन के रस का है, दूसरा बाकी सब तत्वों का। अंग्रेजी में इसे ऑर्गेनिक केमिस्ट्री कहते हैं, हिन्दी में प्रांगार रसायन। प्राणियों को कार्बन भोजन के रूप में पेड़-पौधों या दूसरे प्राणियों को खाने से मिलता है। लेकिन वनस्पति का स्वरूप स्वयंभू है। पेड़-पौधे अपना कार्बन हवा से खींच लेते हैं।

सन 2016 का सितम्बर महीना जलवायु परिवर्तन के इतिहास में भारत द्वारा पेरिस संधि की पुष्टि के लिये नहीं याद किया जाएगा। यह महीना याद किया जाएगा एक लक्ष्मण-रेखा के उल्लंघन के लिये, जलवायु परिवर्तन की एक बड़ी सीमा टूटने के लिये। पृथ्वी के वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा 400 अंश के पार जा चुकी है। हमारे जीवनकाल में इस मात्रा का इससे नीचे आना लगभग नामुमकिन है। यह गणित दिखने में जरा कठिन लगता है, लेकिन फिर भी, इसे समझना उतना मुश्किल है नहीं।

जमीन के ऊपर कार्बन जीवन का बुनियादी रस है। लेकिन हवा में कार्बन डाइऑक्साइड बहुत अलग व्यवहार करती है। हमारा ग्रह सूरज से आने वाली ऊष्मा को अन्तरिक्ष में लगातार छोड़ता रहता है, एक ऐसे विकिरण के रूप में जिसे हमारी आँख देख नहीं सकतीः इंफ्रारेड।

अगर हमारा वायुमण्डल इस विकिरण को अन्तरिक्ष में विसर्जित न होने देता तो सारी-की-सारी पृथ्वी एक जलते हुए रेगिस्तान का रूप ले लेती। वायुमण्डल का 90 प्रतिशत से ज्यादा केवल दो गैसों से बना है- नाइट्रोजन और ऑक्सीजन।

दोनों ही इंफ्रारेड विकिरण को रोकती नहीं हैं। लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड के कण इस विकिरण का अवरोध करते हैं और इसकी ऊष्मा को यहाँ-वहाँ फेंकते हैं, धरती की ओर वापस भी। इसका फायदा भी होता है। हवा में इस गैस के होने से पृथ्वी बर्फीली सर्दी से बच जाती है।

पृथ्वी के 450 करोड़ साल के इतिहास में जब-जब वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा घटी है, हमारा ग्रह शीत युग में चला गया है। विशाल हिमखण्ड में इतना पानी जमा हो गया था कि समुद्र का स्तर नीचे गिरता गया। यह हिमखण्ड कुछ जगह तो एक-डेढ़ किलोमीटर से ज्यादा ऊँचे थे और महाद्वीपों के बड़े हिस्सों को ढँके हुए थे। फिर इस शीतकारी का ठीक उल्टा भी हुआ है।

हवा में कार्बन की मात्रा बढ़ने से हमारा ग्रह बहुत गर्म हुआ है। नतीजतन सारी बर्फ पिघली है और समुद्र में पानी का स्तर इतना बढ़ा है कि महाद्वीपों के कई हिस्से समंदर के नीचे डूबे हैं। कार्बन की यह आँखमिचौली पृथ्वी पर जीवन के खेल का हिस्सा रही है।

इस लीला के प्रत्यक्ष प्रमाण विलुप्त हो गए जीवों के अवशेषों में मिलते हैं, जीवाश्मों में। अब तक दुनिया भर से मिले जीवाश्मों और उनके आकलन से पता चला है कि पृथ्वी पर पाँच महाप्रलय आ चुके हैं। इनमें सबसे भयावह था तीसरा महाप्रलय, जो आज से 25 करोड़ साल पहले आया था। इसे विज्ञान की दुनिया में ‘द ग्रेट डाइंग’ या ‘महामृत्यु’ कहा जाता है। इसमें 90 प्रतिशत जीव प्रजातियाँ काल के गाल में समा गई थीं। आज जो भी वनस्पति और प्राणी मौजूद हैं वे इस प्रलय से बच गई 10 फीसदी प्रजातियों की ही सन्तति हैं। इस समय वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा में अपार वृद्धि हुई थी।

इस बढ़त का कारण क्या था इसका अन्दाजा हमें आज से दो साल पहले लगा। कुछ वैज्ञानिकों ने दिखलाया कि सम्भवतः इस समय कुछ जीवाणुओं ने समुद्रतल पर मौजूद कार्बन के कचरे को खाकर पचाना सीख लिया था। इस भोजन को खाने के बाद जो कार्बन का कचरा निकलता था वे उसे प्राकृतिक गैस या ‘मीथेन’ के रूप में छोड़ देते थे। (कुछ इसी तरह के जीवाणु हमारे पेट में भी रहते हैं और हमारे भोजन का एक हिस्सा खाकर प्राकृतिक गैस बनाते हैं, जिसे हमारा शरीर पाद के रूप में निकाल देता है।) ये जीवाणु बहुत कामयाब हुए, और उनकी आबादी में बेतहाशा इजाफा हुआ। हवा में कार्बन की मात्रा भी बढ़ी। और फिर आया महानतम प्रलय।

मनुष्य भी इन्हीं जीवाणुओं की ही तरह पृथ्वी की एक सन्तान है। हमारे औद्योगिक विकास से जो कार्बन वायुमण्डल में इकट्ठा हो रहा है उसका असर धीरे-धीरे बढ़ती गर्मी में दिखने लगा है। आजकल ऐसे उपकरण हैं, जो हवा में किसी एक गैस के अंशों को गिन सकते हैं, हवा में उस गैस की कुल मात्रा भी बता सकते हैं।

इन उपकरणों से हवा के दस लाख अंशों में कार्बन के अंश गिने जा सकते हैं। यही नहीं, ऐसे उपकरण भी हैं जो हजारों-लाखों साल पहले हमारे वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा क्या थी, यह बता सकते हैं। इन उपकरणों से पता चला है कि जिस तरह की जलवायु में मनुष्य उत्पन्न हुआ था उसमें कार्बन की मात्रा आज की तुलना में काफी कम थी।

जो भी प्रमाण मिले हैं वे सभ्यता के उदय को आज से 10,000 साल पहले आँकते हैं। तब से हवा में कार्बन की मात्रा 275 अंश बनी रही है। औद्योगिक क्रान्ति के बाद कार्बन के ईंधन जलाने में क्रान्तिकारी बढ़ोत्तरी हुई है। हर साल हवा में 2 अंश कार्बन बढ़ जाता है। इसे पचाने को जितने वनस्पति चाहिए, वे न जमीन के ऊपर हैं और न समुद्र के भीतर।

वैज्ञानिक मानते हैं कि जैसी हमारी दुनिया है वह कार्बन के 350 अंश तक वैसी ही बनी रहेगी। अगर कार्बन की मात्रा वायुमण्डल में इससे ज्यादा बढ़ी और फिर घटी नहीं, तो पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन आना निश्चित है। वैसे, हवा में कार्बन की मात्रा मौसम के हिसाब से बदलती भी रहती है।

अक्तूबर के महीने में यह बढ़नी शुरू होती है और मार्च तक अपने शीर्ष तक पहुँच जाती है। फिर घटना शुरू होती है और सितम्बर के आखिरी हफ्ते तक सबसे नीचे गिर जाती है। ऐसा इसलिये होता है कि अक्तूबर से मार्च तक उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दी का मौसम होता है।

सूरज की रोशनी में कमी से पेड़-पौधों का भोजन बनाना कम हो जाता है, बहुत-सी जगह तो रुक ही जाता है। बहुत से वनस्पति की पत्तियाँ झड़ जाती हैं और उनमें मौजूद कार्बन हवा में उड़ने लगता है। चूँकि ज्यादातर जमीन उत्तरी गोलार्द्ध के महाद्वीपों में है, तो अधिकतर वनस्पति भी उत्तरी गोलार्द्ध में हैं। जब यहाँ गर्मी का मौसम आता है तो पेड़-पौधों का भोजन बनाना भी बढ़ जाता है। सितम्बर के महीने में जब उत्तर में ग्रीष्म ऋतु का अन्त होता है, तब तक हवा में कार्बन की मात्रा सबसे नीचे आ चुकी होती है।

सन 2016 में भी ऐसा ही हुआ है। हर साल की तरह सितम्बर में वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा सबसे कम थी। प्रशान्त महासागर के मध्य में, हवाई के द्वीपों पर स्थित एक वेधशाला है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 3,400 मीटर है। यहाँ पर हवा का नाप सम्पूर्ण ग्रह के वातावरण का अच्छा संकेत देता है, क्योंकि यह महाद्वीपों और घनी बसाहट से बहुत दूर है।

इस साल ऐसा पहली बार हुआ कि यहाँ पर नापा हुआ कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे निचला स्तर भी 400 अंश तक नहीं पहुँचा था और वह है अंटार्कटिका महाद्वीप पर। दक्षिण ध्रुव के ऊपर स्थित इस वेधशाला में 23 मार्च 2016 को कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 400 अंश के ऊपर दर्ज हुई। इसका अर्थ वैज्ञानिक यह निकालते हैं कि अब हमारे जीवनकाल में तो वायुमण्डल में कार्बन 400 अंश के नीचे नहीं आएगा।

वह दुनिया जिसे हम जानते-समझते हैं, जिसे हम अचल-अटल मानते हैं, वह एक नए दौर की तरफ तेजी से बढ़ रही है। गर्म दौर की तरफ। ऐसा नहीं है कि 399 अंश पर टिके रहना 400 अंश के पार चले जाने से बहुत बेहतर है। काल की दिशा और दशा, प्रकृति के विशाल चक्र हमारे एक-दो अंशों के आँकड़ों से नहीं चलते। लेकिन सन 1992 में, जब जलवायु परिवर्तन पर संधि हुई थी, तब से 400 अंश का आँकड़ा एक तरह लक्ष्य बना हुआ था।

बार-बार दोहराया जाता था कि हमें 350 अंश के आसपास ही कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को रोक देना चाहिए। इन दो दर्जन सालों में ‘विकास’ लगातार बढ़ता ही रहा है। हम अपनी ही बनाई सीमा में रहने के लिये कतई तैयार नहीं हैं। आज अगर हर तरह का कार्बन वाला ईंधन जलाना हम एकदम रोक दें तो भी हमारे जीवनकाल में वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा 400 अंश के नीचे नहीं आएगी, ऐसा वैज्ञानिक मानते हैं क्योंकि उद्योगों से पहले से ही इतना कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हो चुका है कि उसके प्राकृतिक रूप से ठिकाने लगाने में बहुत समय लगेगा। औद्योगिक क्रान्ति जब शुरू हुई थी तब से अब हमारी दुनिया का औसततापमान लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। कोई पूछ सकता है: डेढ़ डिग्री की बढ़त से क्या होता है?

आज अगर हर तरह का कार्बन वाला ईंधन जलाना हम एकदम रोक दें तो भी हमारे जीवनकाल में वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा 400 अंश के नीचे नहीं आएगी, ऐसा वैज्ञानिक मानते हैं क्योंकि उद्योगों से पहले से ही इतना कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हो चुका है कि उसके प्राकृतिक रूप से ठिकाने लगाने में बहुत समय लगेगा। औद्योगिक क्रान्ति जब शुरू हुई थी तब से अब हमारी दुनिया का औसत तापमान लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। कोई पूछ सकता है: डेढ़ डिग्री की बढ़त से क्या होता है?

आखिर गर्मी और सर्दी में हमारे यहाँ कई जगहों में तापमान में 40 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा का अन्तर आ जाता है। यह समझने के लिये जलवायु और मौसम का अन्तर याद कर लेना चाहिए, जो असल में काल अन्तर है। मौसम का माने एक छोटे समय में आबोहवा के हालात से है, जिसमें बदलाव होता ही रहता है।

जलवायु का मतलब एक बड़े कालखण्ड से लिया जाता है। जब दृश्य इतना बड़ा हो तो उसमें सभी बदलावों का ढर्रा दिखने लगता है, और वह बारीक सन्तुलन भी दिखाई पड़ता है जो आसानी से बदलता नहीं है। इस सन्तुलन में परिवर्तन आने से मौसमी बदलाव की जिस बानगी की हमें आदत है वह भी बदलने लगती है। औसत तापमान में जो 1.5 डिग्री सेल्सियस का अन्तर जलवायु में आया है वह गर्मी-सर्दी के उतार-चढ़ाव से कहीं ज्यादा गम्भीर है।

इस बढ़ोत्तरी का बहुत बड़ा हिस्सा पिछले दो दशकों में दर्ज हुआ है। मौसम के समयसिद्ध ढर्रे बदल रहे हैं, यह तो सर्वविदित है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के नतीजे क्या होंगे यह ठीक से कोई बता नहीं सकता। हमारा ग्रह इतना विशाल है, इतना जटिल है कि यह बताना लगभग असम्भव है। लेकिन कुछ मोटी-मोटी बातें निश्चित हैं। जैसे हिमखण्ड पिघलेंगे और समंदर में पानी की मात्रा बढ़ेगी। इससे समुद्र तल ऊपर उठेगा और तटीय इलाकों में जमीन लील लेगा। बारिश की मात्रा और सामयिकता में बदलाव आएगा। कई बीमारियों का प्रकोप बढ़ेगा, खासकर मच्छरों से फैलने वाले रोगों का।

आशंका यह है कि भारत पर जलवायु परिवर्तन की जैसी गाज गिरेगी वैसी किसी भी दूसरे बड़े देश पर नहीं गिरेगी। हमारा देश पूरी तरह चौमासे की बारिश पर निर्भर रहता है, जिसका स्वभाव बदलने के प्रमाण वैज्ञानिक कई सालों से बता रहे हैं। सदानीरानदियाँ हिमालय के हिमनदों से बह कर आती हैं, जो जलवायु परितर्वन की वजह से लगातार पिघल रहे हैं। अकाल और सूखे का प्रकोप भी बढ़ेगा और बाढ़ का भी।

मच्छरों से फैलने वाले रोग तेजी से नए इलाकों में पहुँच रहे हैं। इस मानसून में डेंगू और चिकुनगुनिया के प्रकोप से देश के कई हिस्से अभी तक उबरे नहीं हैं। आजकल कुछ ऐसा चलन हो गया है कि लोग किसी भी समस्या को समझने के पहले ही उसका समाधान पूछने लगते हैं। जैसे जलवायु परिवर्तन का समाधान किसी परचून की दुकान या किसी टीवी चैनल के स्टूडियो में मिलता हो। हम जलवायु परिवर्तन को कैसे देख सकते हैं और अपने लिये क्या कर सकते हैं, इसकी चर्चा विस्तार से अगले अंक में करेंगे।

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