जन-आंदोलनों की आंच और परमाणु सपना

26 Sep 2011
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इसमें शक नहीं है कि देश में परमाणु सुरक्षा का स्तर काफ़ी निम्न है। हालांकि परमाणु बिजली का उत्पादन का स्तर भी काफ़ी कम है और दुनिया के देशों से कोई मुकाबला नहीं है। देश में परमाणु ऊर्जा के विकास की जिम्मेदारी डिपार्टमेंट ऑफ़ एटॉमिक एनर्जी (डीएइ) को है। इसके कामकाज में पारदर्शिता नहीं है, न ही स्थानीय लोगों से कोई संवाद है। परमाणु संयंत्र स्थापित करने से पहले लोगों के बीच जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत होती है, लेकिन डीएइ की ओर से लोगों के मन में बैठे भय को खत्म करने का कोई प्रयास नहीं हुआ है।

तमिलनाडु के कुडनकुलम में स्थानीय निवासियों के आंदोलन के मद्देनजर एक-एक हजार मेगावाट के दो निर्माणाधीन परमाणु रिएक्टर का भविष्य अधर में दिख रहा है। तमिलनाडु सरकार ने एक संकल्प के जरिये केंद्र से परियोजना कार्य रोकने की अपील की है। अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु समझौते के बाद परमाणु ऊर्जा के सहारे देश को बिजली आपूर्ति के मामले में पूरी तरह सक्षम बनाने का जो सपना दिखाया गया था, वह जन-आंदोलनों के सामने टूटता दिख रहा है। देश में परमाणु ऊर्जा के वर्तमान और भविष्य की पड़ताल करता आज का समय।

आजादी के बाद देश में बढ़ती ऊर्जा की मांग को देखते हुए परमाणु ऊर्जा संयत्रों की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। वर्ष 1950 में अमेरिका भारत को तारापुर परमाणु संयंत्र के निर्माण में मदद और ईंधन मुहैया कराने को तैयार हो गया। शर्त थी, परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल शांति के कार्यो में किया जायेगा। जैसे-जैसे समय बीता दुनिया में परमाणु हथियारों की होड़ बढ़ने लगी। बढ़ती होड़ और परमाणु परीक्षण को रोकने के लिए परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) को अमल में लाया गया।

वर्ष 1968 में अमेरिका ने भारत पर परमाणु अप्रसार संधि स्वीकार करने का दबाव डाला। लेकिन भारत ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया। भारत के पास तब परमाणु हथियार नहीं थे। भारत ने अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखा और 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया। बौखलाहट में अमेरिका ने सहयोग करना बंद कर दिया और कई प्रतिबंध लगा दिये। भारत तब तक रूस की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका था। इसके बाद भारत-अमेरिका के खराब संबंधों का दौर शुरू हुआ, जो कई दशक तक चला। इस बीच तकनीकी ज्ञान में भारत ने पहचान बनायी और दुनिया में बड़ा उपभोक्ता बाजार बनकर उभरा। इसी दौरान दुनिया भर में कई राजनीतिक और कूटनीतिक परिवर्तन देखने को मिले। जिसके बाद अमेरिका और भारत फ़िर से करीब आने लगे। दोनों देशों के बीच साझेदारी का दौर वर्ष 2000 से शुरू हुआ। अमेरिका और भारत परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग के लिए सहयोग पर राजी हुए।

वर्ष 2006 में परमाणु करार पर सहमति बनी। इसके तहत भारत अपने 22 में से 14 परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को अंतर्राष्ट्रीय निगरानी मे रखने को तैयार हो गया, बदले में भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल 45 देशों से परमाणु ऊर्जा मिलनी थी और सभी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध हटा लिया जाना प्रस्तावित था।
 

ऐतिहासिक करार


भारत की ओर से डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने इसे ऐतिहासिक करार का दर्जा दिया। लेकिन इसे अमल में लाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इन अड़चनों को दूर करने में, मसलन आइएइए से सेफ़ गार्ड लेने या परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह देशों को राजी करने में, अमेरिका ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। बिना एनपीटी पर हस्ताक्षर किये किसी देश को परमाणु ईंधन देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय जगत को मनाने में अमेरिका का महत्वपूर्ण योगदान रहा। हालांकि भारत की अब तक की छवि का भी इसमें अहम रोल रहा। अंतत एक अक्तूबर 2008 को अमेरिका-भारत के बीच प्रस्तावित परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर हो गया। भारत का 34 वर्षों का वनवास खत्म हो गया। प्रतिबंध लगाये जाने के बाद देश में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम पिछड़ गया था।

हालांकि तब वैज्ञानिक उतने सक्षम नहीं थे कि बिना विदेशी मदद के इसका विकास कर सकें। समय गुजरा है और अमेरिका के साथ समझौते के बाद कई देश आर्थिक और तकनीकी मदद के लिए आगे आ रहे है। फ्रांस की मदद से तमिलनाडु के कलपक्कम में परमाणु संयंत्र का विकास किया जाना है। भारत परमाणु ईंधन हासिल करने के मामले में दुनिया से कट गया था। लेकिन अब दुनिया के परमाणु उद्योग से जुड़ा है। वर्षों बाद भी, जिस स्तर तक इस समझौते के पहुंचने की अपेक्षा की जा रही थी, वहां तक नहीं पहुंच पाया है। समझौते के पहले परमाणु ऊर्जा के मामले में देश जहां खड़ा था, आज भी कमोबेश वहीं खड़ा है। किसी भी प्रस्तावित परियोजना पर काम आगे नहीं बढ़ा है। स्थानीय लोगों के विरोध की वजह से राज्य सरकारें इससे हाथ खींचने लगी हैं।

 

 

तेज होता विरोध


देश में नये परमाणु संयंत्रों की स्थापना को लेकर विरोध का स्वर तेज होने लगा है। आंदोलन के स्तर को देखते हुए माना जा रहा है कि समय रहते लोगों की आशंकाओं को दूर करने के उपाय खोजे जाने चाहिए। अन्यथा इस क्षेत्र में वर्षों के निवेश और परमाणु समझौते पर पानी फ़िर जायेगा। जापान के फ़ुकुशिमा परमाणु दुर्घटना ने पूरी दुनिया को आशंकित कर दिया है। परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा को लेकर नये सिरे से सवाल उठाये जाने लगे हैं। हालांकि देश में हमेशा से ही कुछ लोग इसका विरोध करते रहे हैं। लेकिन वर्तमान विरोध का स्वरूप कुछ अलग है। जहां कहीं भी नया संयंत्र स्थापित करने की बात आ रही है, उसे स्थानीय लोगों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

महाराष्ट्र के जैतापुर, पश्चिम बंगाल के हरिपुर और तमिलनाडु के कुडनकुलम में स्थानीय किसान और मछुआरे बड़ा आंदोलन खड़ा करने में सफ़ल रहे हैं। आंदोलन को बड़ा आकार देने में क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों का योगदान देखा जा रहा है। लोगों को परमाणु ऊर्जा से जीवन पर खतरे के अलावा भूमि अधिग्रहण का भी डर सता रहा है। लोगों को डर है कि कोयले पर आधारित ताप विद्युत संयंत्र स्थापित करने के मुकाबले परमाणु संयंत्र के लिए ज्यादा जमीन की जरूरत होती है। क्योंकि इसमें सुरक्षा के इंतजाम ज्यादा करने होते हैं। एक बार विकिरण शुरू होने के बाद 25-30 किलोमीटर के दायरे की आबादी खतरे में पड़ जायेगी। कहीं न कहीं स्थानीय लोगों की भावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए क्षेत्रीय राजनीति को भी हवा दी जा रही है।

जैतापुर में शिवसेना और कुडनकुलम में वाइको आगे हैं। आम लोगों को अपनी सुरक्षा का भय सबसे ज्यादा है। परमाणु विकिरण से गंभीर खतरा होता है। भूकंप आने के बाद जापान की फ़ुकुशिमा जैसी स्थिति पैदा हो गयी तो क्या होगा। भारत में आबादी ज्यादा सघन है। यही बात लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित कर रही है। कई बार परमाणु कचरे को समुद्र में डालने की बात सामने आती है, जिससे मछुआरों और आसपास की फ़सलों को नुकसान होता है।

इसमें शक नहीं है कि देश में परमाणु सुरक्षा का स्तर काफ़ी निम्न है। हालांकि परमाणु बिजली का उत्पादन का स्तर भी काफ़ी कम है और दुनिया के देशों से कोई मुकाबला नहीं है। देश में परमाणु ऊर्जा के विकास की जिम्मेदारी डिपार्टमेंट ऑफ़ एटॉमिक एनर्जी (डीएइ) को है। इसके कामकाज में पारदर्शिता नहीं है, न ही स्थानीय लोगों से कोई संवाद है। परमाणु संयंत्र स्थापित करने से पहले लोगों के बीच जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत होती है, लेकिन डीएइ की ओर से लोगों के मन में बैठे भय को खत्म करने का कोई प्रयास नहीं हुआ है। फ़ुकुशिमा के बाद ऐसा करना और भी जरूरी हो गया है। इसके लिए संयंत्र के 30-40 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों को विकिरण से संबंधित सभी आंकड़े उपलब्ध कराने चाहिए।

सरकार रेगुलेशन अथॉरिटी बनाकर परमाणु उद्योग को और अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने की बात वर्षों से कर रही है, लेकिन इसका ठोस नतीजा अब तक नहीं निकला है। जर्मनी पहला देश है जिसने सुरक्षा कारणों को लेकर अपने सभी परमाणु संयंत्रों को बंद करने का एलान किया है। लेकिन कुछ लोग परमाणु ऊर्जा को आमतौर पर कुछ हद तक फ़ायदेमंद मान रहे हैं। उनका मानना है कि भले ही परमाणु ऊर्जा के कुछ खतरे हैं, लेकिन फ़ायदे भी बहुत हैं। इससे पर्यावरण सुरक्षित रहता है, क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नहीं होता। इसमें रेलवे से कोयला ढोने और पाइप लाइन से द्रव ईंधन लाने की जरूरत नहीं होती है।

 

 

 

 

परमाणु ऊर्जा की जरूरत


जर्मनी अपनी कुल बिजली जरूरतों का 23 फ़ीसदी परमाणु ऊर्जा और 17 फ़ीसदी परंपरागत ऊर्जा से पूरा करता है। वहीं भारत अपनी कुल बिजली जरूरतों का मात्र तीन फ़ीसदी परमाणु ऊर्जा से और 10.62 फ़ीसदी परंपरागत ऊर्जा से पूरा करता है। इसी प्रकार विभिन्न देश जैसे-जापान 30 फ़ीसदी, स्विट्जरलैंड 40 फ़ीसदी, फ्रांस 75 फ़ीसदी और अमेरिका 20 फ़ीसदी बिजली की पूर्ति परमाणु ऊर्जा से करते हैं। लेकिन पिछले कई दशकों से विकसित देशों ने अपनी जमीन पर नये परमाणु संयंत्र स्थापित नहीं किये हैं। भारत जिस रफ्तार से विकास कर रहा है, उसके अनुपात में बिजली की कमी है।

देश आज औद्योगक विकास के मुहाने पर खड़ा है। इसे आगे बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में बिजली की जरूरत है। विशेषज्ञ कहते रहे हैं कि भारत के लिए स्रोत ज्यादा मायने नहीं रखता। बिजली ज्यादा मायने रखती है। कब तक देश के बड़े भाग अंधेरे में रहेंगे। यदि उत्पादन बढ़ाना है, तो उद्योगों की स्थापना करनी होगी। लेकिन बिना बिजली के उद्योग नहीं चल सकते हैं। तमिलनाडु में पिछले कुछ वर्षों से उद्योग सेक्टर में तेजी आयी है, जिससे बिजली की मांग बढ़ी है। लेकिन मांग की तुलना में पूर्ति कम होने से उद्योग बंद पड़े हैं।

सरकार ने लोगों की सुरक्षा चिंताओं का समय रहते निवारण नहीं किया तो परमाणु बिजली का सपना अधर में रह जायेगा। यह सच है कि उत्पादन बढ़ाने के लिए उद्योगों की स्थापना करनी होगी, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि विकास किसी की जान की कीमत पर नहीं हो सकता। साथ ही परमाणु ऊर्जा को ही अंतिम सच नहीं माना जाना चाहिए। इसके भी विकल्पों पर ध्यान देना चाहिए। परंपरागत ऊर्जा के साधनों के अलावा भारत में थोरियम का बड़ा भंडार मौजूद है और इस पर आधारित तकनीक भी सुरक्षित है।

 

 

 

 

देश के विभिन्न क्षेत्रों में उठे विरोध के स्वर


हरियाणा:- 2800 मेगावाट क्षमता की परियोजना के लिए फ़तेहाबाद जिले के गोरखपुर गांव में जमीन अधिग्रहण का किसान विरोध कर रहे हैं। स्थानीय लोगों ने अपनी ओर से कई वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं, जैसे प्रशांत भूषण ओद को मैदान में उतारा है। आंदोलन तेज होने की उम्मीद है।

मध्यप्रदेश:- चुटका परियोजना के एवज में मिलने वाली सरकारी सुविधाओं का तीन गांवों के किसान बहिष्कार कर रहे हैं। ग्रामसभा ने एक संकल्प पास किया है, जिसमें किसानों को जमीन खाली नहीं करने का सुझाव दिया गया है।

गुजरात:- जसपारा, मिठी विरदी, खादरपुर, मांडवा और सोसिया गांवों के किसान जमीन अधिग्रहण का भारी विरोध कर रहे हैं। परियोजना स्थापित करने के लिए 877 हेक्टेयर जमीन की जरूरत है। कई महीनों से लोग आंदोलन कर रहे हैं। स्थिति तनावपूर्ण है। यहां 6000 मेगावाट क्षमता का संयंत्र लगाना है।

महाराष्ट्र:- स्थानीय लोगों के भारी विरोध के बावजूद राज्य सरकार फ्रांस के सहयोग से प्रस्तावित जैतापुर परियोजना का कार्य आगे बढ़ा रही है। ग्रामीणों ने परियोजना स्थल पर काम कर रहे मजदूरों के राशन पानी की आपूर्ति को बाधित कर दिया है। यहां भारत और फ्रांस के बीच 9900 मेगावाट क्षमता का रिएक्टर स्थापित करने पर करार हुआ है। लोगों का कहना है कि एक तो यह असुरक्षित है, वहीं इससे जीविका के स्रोत जैसे आम और मछली के रोजगार प्रभावित होंगे। यहां आंदोलन कर रहे कुछ लोगों की जान भी गयी है।

आंध्र प्रदेश:- विरोध के कारण राज्य सरकार ने 10000 मेगावाट क्षमता वाले परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। कोवादा पहला संयंत्र था जिसका निर्माण अमेरिकी करार के बाद किया जाना था।

तमिलनाडु:- आंदोलनकारी चाहते हैं कि मुख्यमंत्री परियोजना को बंद करने के लिए तत्काल कोई कड़ा कदम उठाएं।

पश्चिम बंगाल:- लोगों के विरोध को देखते हुए राज्य सरकार ने रूस के सहयोग से बनाये जा रहे हरिपुर परमाणु संयंत्र स्थापित करने की परियोजना को खारिज कर दिया।

 

 

 

 

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