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जंगल की पीड़ा

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एक अकेला थक जाएगा...।

साथी हाथ बढ़ाना…!

उज्जैन जिले की तराना तहसील के कनार्दी गाँव की कहानी भी कुछ इसी रंग में रंगी है। यह गाँव जनसहयोग वाले गाँव के रूप में ख्यात है। यहाँ एक परम्परा है, जिसका निर्वाह इस दौर में भी किया जा रहा है। दो स्कूल भी जनसहयोग से बहुत सालों पहले तैयार किये जा चुके हैं। लोग गाँव के विकास के लिये एकजुट रहते हैं। कभी यह गाँव खूब घने जंगलों से आबाद था। काचियाखेड़ी, गोदराखेड़ी और फिलहाल सरकारी पड़त भूमि पर खेर, खेजड़ा, करौंदी, सीताफल, आम व इमली के जंगल हुआ करते थे। जब जंगल आबाद थे, तो पानी भी पर्याप्त था। यह सभी जानते हैं कि पानी और जंगल एक-दूसरे के पूरक हैं। आसमान से बूँदें धरती पर आती हैं, तो जंगल होने की वजह से सबसे पहले वे पत्तियों और तनों से रूबरू होती हैं। यह उनकी गति का पहला अवरोध होता है।

इसे जंगल या पृथ्वी की ओर से उनकी पहली मनुहार भी कहा जा सकता है। इसके बाद वे नीचे आती हैं। यहाँ घास के तिनके बंदनवार लेकर उनका स्वागत करते हैं। यह दूसरी मनुहार है। यह सिलसिला जारी रहता है। पेड़ों की जड़ें उन्हें मिट्टी में समाने की अपील करती हैं। वे इसे स्वीकार भी करती हैं। पानी मिट्टी में समाता जाता है। यह देखा गया है कि घने जंगलों के साये में बहने वाले पहाड़ी नाले बहुत काल तक जिन्दा रहते हैं। जंगलों से पहाड़ और पहाड़ से रिसकर यह पानी इन नालों में आता है। जनाब, कनार्दी में इसलिये पानी की बहुलता थी, लेकिन कालान्तर में जंगल काट डाले गये। फिर क्या हुआ…?

बूँदें तो बरसीं, लेकिन उनकी मनुहार करने वाला कोई नहीं था। वे सीधी मिट्टी से टकराईं। नाराज तो वे थी हीं, अपने साथ मिट्टी के उस कण को भी लिया और लगीं बहने। पहले छापरा, फिर नाला, नदी और अन्ततः समुद्र। कनार्दी में उन्हें रोकने वाला ही कोई नहीं था। जमीन और पथरीली होती गई। जंगल नहीं रहे तो बादल कैसे आकर्षित होते? पानी का समृद्ध गाँव शनैः-शनैः पानी के अकाल वाले गाँव के रूप में पहचाना जाने लगा। पानी के लिये जाग गये गाँव-समाज, राष्ट्रीय मानव बसाहट एवं पर्यावरण केन्द्र के मुकेश बड़गइया और पानी समिति के अध्यक्ष रामचंद्र दानी के साथ हम विशाल तालाब के सामने खड़े हैं। इस तालाब का नाम गंगा तालाब है। उसे गाँव-समाज के पूर्वजों ने सौ साल पहले तैयार करवाया था। कालान्तर में इस तालाब की स्थिति यह हो गई थी कि इसने एक नाले का रूप धारण कर लिया। थोड़ा पानी गिरता और उथला होने की वजह से पूरा बहने लगता। बरसात के बाद जल्दी ही सूख भी जाया करता था।

गाँव में जब जल संचय की बात चली, तो समाज ने इस तालाब के गहरीकरण की बात कही। समाज ने इस गहरीकरण के कार्य में उत्साह से भाग लिया। प्रायः हर घर से लोगों ने किसी-न-किसी रूप में यहाँ शिरकत की। इससे निकली मिट्टी का उपयोग कर लोगों ने अपनी बंजर जमीनों को खेती योग्य बना दिया। तालाब में रबी के मौसम में भी आठ फीट पानी आज भरा है। इसका वेस्टवियर फिर तैयार किया गया। जब आप गंगा तालाब से गाँव की ओर लौटेंगे, तो खेतों में लहलहाती फसलें मौन क्रान्ति की कहानी सुनाती नजर आ जाएँगी…!

पहले इस क्षेत्र में नहर के पानी से सिंचाई होती थी। यह नहर मोदीझरी बाँध की थी। भीषण सूखे के चलते पिछले तीन सालों से बाँध ही नहीं भरा, सो नहर के चलने का प्रश्न ही नहीं रहा। इन तीन सालों में कुछ खेतों में ही रबी की फसल ले पाते थे, लेकिन इस साल भीषण सूखे के बावजूद दो सौ बीघा जमीन में रबी की फसल ली जा रही है। खेतों की प्रसन्नता से इस बात का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

...और वह दृश्य तो हम लोग देख ही नहीं पाये, जिसमें पानी आन्दोलन का जज्बा चरम पर था। खुद रामचंद्र गामी और उनके साथियों ने छह दिन तक लगातार तालाब के वेस्टवियर की तरी की। इस तालाब के जिन्दा होने से नीचे की साइड से कुछ और ट्यूबवेल जिन्दा हो गये। मुकेश बड़गइया और रामचंद्र गामी कहने लगे-

“मोटे अनुमान के मुताबिक दो सौ बीघा जमीन इस तालाब की वजह से सिंचित होने के कारण कुल 7-8 लाख रुपये के लगभग एक मौसम में अधिक आय बढ़ने का अनुमान है।”

तालाब से लाभान्वित होने वाले प्रमुख किसानों में रमेशचंद्र जैन, मुंशी खां, घासीराम पाटीदार, बद्रीलाल पाटीदार, रहमान खां, सत्तार खां, मंगू, ताराचंद्र, मांगीलाल खुमानजी आदि शामिल हैं। इनमें से अनेक के कुएँ लबालब भरे हैं। ट्यूबवेल भी अच्छे चल रहे हैं। इस तालाब के लिये समाज ने कुल एक लाख रुपये की राशि का विविध रूपों में जनसहयोग दिया है। गाँव की शुरुआत में इसी साल एक तालाब और बनाया गया है, जिसकी लागत चार लाख रुपये है। पहला साल और बरसात कम होने के कारण यह एक बार पूरा रिचार्ज हो गया। नीचे की ओर इससे भी 25 कुएँ रिचार्ज हो गये हैं। गाँव में पीने के पानी के संकट के चलते कुआँ भी खोदा गया है। इसमें 20 फीट के लगभग पानी भरा है। ऊपर बने स्टॉपडैम व अन्य जल संरचनाओं से पानी यहाँ रिसकर आया है।

...यह महादेव वाला नाला है। मन्दिर के पास से गुजरने की वजह से इसे यह नाम दिया गया। यह नाला भी किसी ‘नाली-संरचना’ में तब्दील हो गया था। समाज ने इसे 1 किलोमीटर तक गहरा करवा दिया। इससे आस-पास की वे कुंडियाँ जिंदा हो गईं, जो अगस्त-सितम्बर में ही सूख जाया करती थीं। तालाब से थोड़ी दूर हमने पानी समिति अध्यक्ष के खेत पर बनाई डबरी भी देखी। वे कहने लगे-

“डबरियों के प्रति लोगों में अजीब उत्साह है। लोग खुद पीछे पड़ रहे हैं कि हमारे खेत में भी ये संरचनाएँ बनवा दीजिये।”

इस गाँव में 65 डबरियाँ भी तैयार हो चुकी हैं। इसके अलावा पहाड़ियों पर कंटूर ट्रेंच, 6 नाला बंधान, लूज बोल्डर संरचना, दो आर.एम.एस. भी तैयार हो चुके हैं। एक स्टॉपडैम कम रपट भी तैयार की गई है। इससे 10-12 गाँव सीधे कनार्दी से जुड़ गये हैं। इसमें देवीखेड़ा, जूनापानी, बेरछी, उसवागांव, कृष्णनगर, जवाहरनगर आदि प्रमुख हैं। गाँव के देवनारायण पाटीदार कहने लगे-

“कुदरत ने तो इस बार भी पानी गिराने में कोताही बरत दी, लेकिन गाँव का बेहतर तरीके से जल प्रबन्धन होने से समाज को बहुत फायदा हो रहा है।”

अनोखीलाल जोशी कहने लगे- “पानी जब बहुत अच्छा गिरेगा, तो इस जल प्रबन्धन व्यवस्था से गाँव की तस्वीर ही बदल जायेगी।”

हमने कहा था, गाँव में प्रारम्भ से ही जनसहयोग की वृत्ति रही है। समाज बाहर से आये व्यक्ति को अस्सी के दशक में बने स्कूल-भवन और सड़क को भी बताना नहीं भूलता है, जो समाज ने स्वयं तैयार करवाई थी। जल प्रबन्धन के कार्यों पर तराना के लाल बहादुर शास्त्री विचार मंच और खादी ग्रामोद्योग ने पानी समिति अध्यक्ष रामचंद्र गामी को सम्मानित भी किया है।

जंगल-बहुल रहे गाँव में नीम सहित अन्य पौधे उगाने की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है।

...जंगल कट गये, पानी गायब हुआ-यह तो बुरा हुआ, लेकिन अच्छा यह रहा कि गाँव की तस्वीर बदलने के लिये समाज ने निराशा को अपने पास फटकने नहीं दिया।

यही वजह है कि गाँव में पानी दिखने लगा है।

काश! ऐसा हर गाँव सोच ले, जो जंगल गायब होने के बाद की पीड़ा झेल रहा है।

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