जरूरी है विकास और पर्यावरण में संतुलन

5 Aug 2014
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जिस देश के सामने गरीबी दूर करने और करोड़ों लोगों की भोजन से लेकर ऊर्जा तक की जरूरत पूरी करने की चुनौती है, वहां विकास के अंध-विरोध को स्वीकार नहीं किया जा सकता। किसे इस त्रासदी के लिए दोषी माना जाए और किसे नहीं? उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा से हुए विनाश से देश सदमे में है और ऐसे में यह अस्वाभाविक नहीं है कि इसके कारणों की तलाश में लोग सरलीकरण की हद तक चले जाएं। अफरा-तफरी जैसे हालात के बीच मची तबाही के लिए प्रकृति दोहन पर आधारित विकास नीति को दोषी ठहरा देने की प्रवृत्ति बेहद आम है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि आपदा को अधिक विनाशकारी बनाने में समाज एवं सरकार की गलतियों एवं लापरवाही की भी बड़ी भूमिका है। पहाड़ों के पर्यटन का केंद्र बनने से मैदानी संस्कृति की विकृतियों ने पर्यावरण संतुलन को अस्त-व्यस्त किया। नदियों में पत्थरों का अवैध खनन अभी भी गायब नहीं हुआ है। यह भी बाढ़ से होने वाली विनाशक घटनाओं की वह एक बड़ी वजह है। कभी राजनीति, तो कभी अर्थनीति और कभी अनास्थावादी दर्शन के तहत हिमालयीन क्षेत्र की कई पुरानी सुंदर परंपराओं को हमने लगातार युगानुकूल बनाने की बजाय उनको सिरे से अमान्य कर दिया है, बिना यह देखे कि वे ही सदियों से इस इलाके का नैसर्गिक संतुलन और सादा जीवन का उच्च विचारों से रिश्ता कायम रखे हुए थीं।

मसलन, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने उत्तराखंड की पनबिजली परियोजनाओं के बारे में अपनी ऑडिट रिपोर्ट में आगाह किया था कि ये परियोजनाएं भागीरथी और अलकनंदा नदियों के किनारे पहाड़ियों को भारी क्षति पहुंचा रही हैं, जिससे उस इलाके में अचानक भयंकर बाढ़ आने और भारी तबाही का अंदेशा है। सीएजी ने चेतावनी दी थी कि राज्य में आपदा प्रबंधन नाम की कोई चीज नहीं है। इसके लिए अक्टूबर में प्राधिकरण का गठन जरूर हुआ, लेकिन उसकी कोई बैठक नहीं हुई।

इसी तरह गोमुख से उत्तरकाशी तक 130 किलोमीटर लंबे क्षेत्र को पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने की अधिसूचना का मसविदा तैयार होने के बावजूद उसे लागू नहीं किया गया। इस बीच अनेक प्राकृतिक दुर्घटनाओं में सैकड़ों लोगों की जान जाती रही। मगर कोई हलचल नहीं हुई। इसलिए वर्तमान विनाशलीला के लिए सरकारों की जिम्मेदारी बनती है। हिमाचल के किन्नौर व उत्तराखंड में तबाही के बाद विशेषज्ञों ने सरकारों को सलाह दी है कि प्रोजेक्ट स्थलों की जहां फिर से एंवायरनमेंट इंपैक्ट असेसमेंट रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए, वहीं लैंड स्लाइड की मैपिंग की भी आवश्यकता जताई गई है।

विशेषज्ञों के मुताबिक प्रदेश के प्रोजेक्ट स्थलों में जो सुरंगों का निर्माण हो रहा है, उसमें इस बात का अंदेशा जताया गया है कि हाइड्रोलिक ब्लास्टिंग से हटकर अन्य सामान्य व सस्ती प्रक्रिया प्रयोग में लाई जा रही है, जिससे पूरे पहाड़ कमजोर पड़ने लगे हैं। कमोवेश सड़कों के निर्माण में भी यही ढर्रा अपनाया जा रहा है। नतीजतन बरसात के मौसम में जहां लैंड स्लाइडिंग सामान्य प्रक्रिया बन चुकी है, वहीं सड़कें धंसने का क्रम भी जारी है। विशेषज्ञों ने विभिन्न सरकारी एजेंसियों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए आपदा प्रबंधन को दिशा देने की भी पैरवी की है। परन्तु शायद वहां की सरकार कुछ चेते, क्योंकि अपने यहां आम अनुभव यह है कि किसी हादसे से कुछ नहीं सीखा जाता। कुछ दिन में सब कुछ सामान्य हो जाता है और फिर शोर तभी मचता है, जब अगली कोई बड़ी विपत्ति आती है। यह नजरिया अक्षम्य है। लेकिन इन सबके लिए विकास की आवश्यकता पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा कर देना किसी नजरिए से विवेकपूर्ण नहीं है।

जिस देश के सामने गरीबी दूर करने और करोड़ों लोगों की भोजन से लेकर ऊर्जा तक की जरूरत पूरी करने की चुनौती है, वहां विकास के अंध-विरोध को स्वीकार नहीं किया जा सकता। किसे इस त्रासदी के लिए दोषी माना जाए और किसे नहीं? किंतु इतना जरूर सोचना चाहिए कि उत्तराखंड की घटनाएं संदेश दे रही हैं कि संतुलन बनाने में देर अब मुनासिब नहीं है।

(लेखक उत्तर प्रदेश में दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री हैं)

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