कैसे बचे यमुना

13 Jan 2010
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कैसे बचे यमुना

यमुना का पर्वतीय जल-ग्रहण क्षेत्र काफी सिमटा हुआ है अत: यह और भी जरूरी है कि इसका बहुत सावधानी से ध्यान रखा जाए। यहां प्राकृतिक वनों की रक्षा, मिट्टी व जल संरक्षण कार्य बहुत जरूरी है। इस ओर ध्यान केन्द्रित करने के स्थान पर यमुना व उसकी सहायक नदियों पर जल्दबाजी में बहुत संदिग्ध उपयोगिता की बांध व पनबिजली परियोजनाएं बनाई जा रही हैं। इनसे मूल समस्या कम नहीं होगी बल्कि और बढ़ेगी। मूल समस्या तो यह है कि यमुना का प्राकृतिक प्रवाह बहुत कम हो गया है व एक बड़े क्षेत्र में लुप्त हो गया है।

गंगा की यह सबसे महत्पूर्ण मानी जाने वाली सहायक नदी सदा करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केन्द्र रही। कृष्ण कन्हैया की अठखेलियों से सदा के लिए जुड़ी रही यह नदी न जाने कितने ही गीतों, कविताओं, कहानियों-किस्सों, पर्व-त्यौहारों की समृद्ध, साझी संस्कृति के केन्द्र में रही है। पर हाल के अनेक वर्षों में यमुना नदी बुरी तरह संकटग्रस्त रही है। दिल्ली व आसपास के क्षेत्र में नदी की स्थिति के बारे में राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान नागपुर ने अपनी वर्ष 2005 की रिपोर्ट में ही कह दिया था, 'ऊपर से ताज़ा पानी न मिलने के कारण नदी अपनी प्राकृतिक मौत मर चुकी है।' अत: यमुना नदी की मौत की बात कोई आंदोलनकारियों की अतिशयोक्ति नहीं है। इसे देश के प्रमुख पर्यावरण इंजीनियरिंग संस्थान के विशेषज्ञों ने अपनी एक चर्चित रिपोर्ट के आरंभ में ही घोषित किया है। इस समय यमुना नदी की सही स्थिति समझने के लिए उसे तीन भागों में बाँटा जा सकता है। पहला भाग उसके उद्गम स्थल से ताजेवाला के पास तक का है। यह मुख्य रूप से नदी का पहाड़ी क्षेत्र है। यहां नदी अभी तक काफी सुंदर व साफ है पर बड़े पैमाने पर बांध निर्माण से यहां भी निकट भविष्य में यमुना व उसकी सहायक नदियों जैसे गिरि व टोंस की स्थिति बिगड़ सकती है।

नदी का दूसरा क्षेत्र ताजेवाला से इटावा तक है। यह यमुना का बुरी तरह संकटग्रस्त क्षेत्र है जिसमें दिल्ली, आगरा व मथुरा जैसे प्रमुख ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व के नगर भी स्थित हैं। यदि नदी के किसी क्षेत्र में बीओडी (बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड) 6 एमजी/लीटर से अधिक हो तो, उसे अत्यधिक प्रदूषित माना जाता है। योजना आयोग ने 11वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज़ में जो सरकारी आंकड़े दिए हैं उनके अनुसार निजामुद्दीन पुल (दिल्ली) में बीओडी 31 है, आगरा नहर में 28 है व मथुरा, आगरा तथा इटावा में 15 के आसपास है। इस क्षेत्र में हिंडन जैसी अति प्रदूषित सहायक नदी का मिलन यमुना के प्रदूषण को और बढ़ाता है। इटावा जिले में साहों गांव के पास चंबल नदी अपनी भारी-भरकम जल-राशि के साथ यमुना में मिलती है तो यमुना को जैसे यहां नवजीवन मिलता है व सिंध, केन, बेतवा जैसी अन्य सहायक नदियों के भी मिल जाने से प्रयागराज में गंगा से संगम होने तक यमुना की स्थिति काफी ठीक बनी रहती है। पर इन सहायक नदियों से भी जिस तरह खिलवाड़ आरंभ हो चुका है। (विशेषकर चंबल में बढ़ते प्रदूषण से व प्रस्तावित केन-बेतवा लिंक योजना से) इस कारण भविष्य में इस क्षेत्र में भी नई समस्याएं आरंभ हो सकती हैं। फिलहाल इस समय चिंता का मुख्य केन्द्र है ताजेवाला से इटावा तक का क्षेत्र व इसमें भी विशेषकर दिल्ली, आगरा, मथुरा, इटावा का क्षेत्र। प्रदूषण कम करने के सबसे अधिक प्रभाव दिल्ली व उसके आसपास के क्षेत्र में केन्द्रित रहे हैं। योजना आयोग द्वारा वर्ष 2007 में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार देश में सीवेज के उपचार की कुल क्षमता 6190 मिलियन लीटर प्रति दिन है जिसमें से 40 प्रतिशत क्षमता दिल्ली में स्थापित की गई है। इसके बावजूद दिल्ली में यमुना का प्रदूषण (विशेषकर वजीराबाद से ओखला तक 22 किमी के बीच) असहनीय हो चुका है। हालांकि यमुना के प्रदूषण को नियंत्रित करने की बात बहुत कही गई है व इसके लिए काफी पैसा भी आया है, पर इसके खर्च करने से पहले न तो समस्याओं की सही समझ बनाई गई न उचित प्राथमिकताओं को तय किया गया। वर्ष 1993 में आरंभ किए यमुना एक्शन प्लान के लिए 700 करोड़ रुपए जापान से आए थे व भारतीय सरकार की अपनी राशि अलग थी। पर इसमें सबसे अधिक खर्च सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण पर किया गया जबकि यमुना नदी की रक्षा में इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ने वाला था और न ही पड़ा।

इसके अतिरिक्त यमुना किनारे से गरीब लोगों की झोंपड़ियों को हटाने पर बहुत जोर दिया गया जबकि प्रदूषण का मुख्य स्रोत वे कभी नहीं रहे और एक वैकल्पिक सोच सरकार अपनाती तो उन्हें यमुना की सफाई में भागीदार भी बनाया जा सकता था। इसके स्थान पर जरूरी यह है कि नदी के आसपास रहने वाले लोगों की भागीदारी को प्राप्त कर एक बहुत व्यापक जन-अभियान यमुना की समग्र रूप से रक्षा के लिए चलाया जाए। समग्रता का अर्थ यह है कि हमारे प्रयास हिमालय व शिवालिक में स्थित यमुना के जल-ग्रहण क्षेत्र से ही आरंभ हो जाने चाहिए। यमुना का पर्वतीय जल-ग्रहण क्षेत्र काफी सिमटा हुआ है अत: यह और भी जरूरी है कि इसका बहुत सावधानी से ध्यान रखा जाए। यहां प्राकृतिक वनों की रक्षा, मिट्टी व जल संरक्षण कार्य बहुत जरूरी है। इस ओर ध्यान केन्द्रित करने के स्थान पर यमुना व उसकी सहायक नदियों पर जल्दबाजी में बहुत संदिग्ध उपयोगिता की बांध व पनबिजली परियोजनाएं बनाई जा रही हैं। इनसे मूल समस्या कम नहीं होगी बल्कि और बढ़ेगी। मूल समस्या तो यह है कि यमुना का प्राकृतिक प्रवाह बहुत कम हो गया है व एक बड़े क्षेत्र में लुप्त हो गया है। यदि बांधों व नहरों से इन नदियों के प्राकृतिक प्रवाह से और जल हटाया जाएगा तो इससे समस्याएं और विकट होंगी।

इस समय ताजेवाला या उसके आसपास बने बैराजों के माध्यम से यमुना का लगभग सारा पानी पूर्वी व पश्चिमी यमुना नहर में प्रवाहित कर दिया जाता है। स्थानीय स्तर पर बहुत से मल-जल का उपचार कर उसके अवशेषों का उपयोग सिंचाई व खाद के रूप में हो सकता है। वाराणसी में गंगा के संदर्भ में संकटमोचन फाउंडेशन ने एक सराहनीय मॉडल तैयार किया है जिससे जल-मल को गंगा में प्रवेश से रोका जा सके। चूंकि पिछले उपाय बहुत महंगे होने पर भी सफल सिद्ध नहीं हुए अत: इस तरह के नई सोच पर आधारित प्रयासों को आगे बढ़ने का अवसर मिलना चाहिए व लोगों का सहयोग व्यापक स्तर पर मिला तो यह नई सोच काफी सफल हो सकती है। यमुना की रक्षा के लिए जन-जागृति बढ़ाने में 'यमुना जिए अभियान' व 'यमुना सत्याग्रह' जैसे प्रयास सार्थक रहे हैं। किसानों को जैविक टिकाऊ खेती के लिए प्रेरित करना चाहिए। विभिन्न निर्माण कार्यों का इन पर अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। नदी के आसपास के क्षेत्रों की एक मुख्य पर्यावरणीय भूमिका वर्षा के जल व नदियों की बाढ़ के जल को संजोने व भूजल के रूप में संरक्षित रखने की है। इठलाती-घूमती हिमालय की नदियों को वैसे भी आसपास बड़े खुले क्षेत्र की जरूरत होती है अत: महंगे निर्माण कार्यों के लिए भूमि खाली करवाने हेतु इन्हें तंग चैनल में तटबंधों से बांधने के प्रयास खतरनाक हैं। यदि हमने प्राथमिकताएं ठीक से तय की व इस पवित्र कार्य को एक जन-अभियान बनाया तो हम आज की विकट स्थिति में भी यमुना की रक्षा कर सकते हैं।
 

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