काँवर झील : प्राकृतिक विरासत को गँवा रहा है बिहार

11 Feb 2016
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काँवर झील के दिन फिरने के आसार हैं। राज्य सरकार को अपने सारे अधिकारों का प्रयोग करके झील का संरक्षण करने और निगरानी रखने का आदेश पटना हाईकोर्ट ने दिया है। गंगा और बूढ़ी गंडक नदियों के बीच बेगूसराय जिले में करीब एक हजार एकड़ में फैला ‘काँवर झील पक्षी-विहार’ सैकड़ों प्रवासी पक्षियों और असंख्य जीव-जन्तुओं का निवास स्थल है।

हाईकोर्ट ने आदेश में कहा है कि संरक्षण उपायों से इसकी जैव-विविधता बच सकेगी। इसमें लगभग 140 किस्म के पेड़ पौधे, 170 नस्ल के पक्षी जिसमें 58 प्रवासी पक्षी हैं, 41 तरह की मछलियाँ और अनेक तरह के कीड़े मकोड़े-अथ्रोपोडस, मुलस और फाइटो प्लैन्कोटस आदि के अलावा अनेक तरह की वनस्पति व जैविक प्रजातियों का वास है जिनका खोज होना अभी बाकी है।

प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी डॉ. सलिम अली साठ के दशक में अनेक बार यहाँ आये और इसकी संरक्षण की वकालत की। इसके महत्त्व को स्वीकार करके बेगूसराय के जिलाधिकारी ने 1986 में इसे गैर रैयती सरकारी भूमि घोषित किया और 1987 में बिहार सरकार ने पक्षी विहार घोषित किया। 1989 में संरक्षित जलक्षेत्र के तौर पर अधिसूचना हुई। वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के अन्तर्गत हुई अधिसूचना में 10 गाँवों की 6311.63 हेक्टेयर भूमि शामिल की गई।

हाइकोर्ट के न्यायाधीश समरेन्द्र प्रताप सिंह ने जयप्रकाश गुप्ता की रीट याचिका पर अपने आदेश में कहा है कि काँवर झील प्रकृति का अनुपम उपहार है। पर आसपास के खेतों में रासायनिक खादों का प्रयोग और झील की जमीन पर कब्जा, पक्षियों के शिकार की वजह से अनेक प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं, कुछ विलुप्ति की कगार पर पहुँच गई हैं। जबकि इसमें इको टूरिज्म को प्रोत्साहित किया जा सकता है। इसमें विश्व आकर्षण बनने की पूरी क्षमता है।

राज्य सरकार अपने सारे अधिकारों का प्रयोग कर इसका संरक्षण करे, सतत निगरानी के लिये वन व पर्यावरण विभाग के सचिव, जिलाधिकारी, पर्यावरणविद, स्थानीय प्रतिनिधियों की समिति गठित हो।

काँवर झील के संरक्षण व संवर्धन का मामला काफी दिनों से चल रहा है। पेंच इसके सीमांकन का है। बिहार गजट में 10 जून 1989 को प्रकाशित अधिसूचना में 6311.63 हेक्टेयर भूमि को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया। पर इस जलाभूमि (वेटलैंड) के लगभग 15 हजार एकड़ क्षेत्र में ढेर सारे लोग पीढ़ियों से रहते आये हैं। बड़े पैमाने पर खेती होती है।

पहले खेती की अपनी प्रणाली थी। बरसात के पहले धान की रोपाई हो जाती। पानी बढ़ने के साथ-साथ फसल भी बढ़ती जाती। फसल तैयार होने पर उसे काट लिया जाता। पानी घटने पर रबी- दलहन, तिलहन की खेती भी होती थी।

झील के जलग्रहण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई, कृषि कार्यों की सघनता, जलावन, चारा और दूसरे कार्यों के लिये वनस्पतियों के दोहन से धरती का हरित आवरण घटता गया, जिससे नंगी धरती का क्षरण बढ़ता गया और वह सारा सिल्ट बहकर ताल के पेंदें में इकट्ठा होता गया।

झील उथली होती गई और बाहर निकली जमीन पर बड़े किसानों ने अतिक्रमण कर लिया। जमीन की खरीद बिक्री शुरू हो गई। हालांकि बेगूसराय के जिलाधिकारी ने झील के आसपास जमीन की खरीद-बिक्री पर रोक लगा दिया था। परन्तु इसका असर केवल यह है कि झील के पास की भूमि अगर बेची या खरीदी जाती है तो उसके खिलाफ मुकदमा किया जा सकता है।

इस बीच, झील का आकार और गहराई तेजी से सिकुड़ती गई है। अब राज्य सरकार का कहना है कि केवल 1527 एकड़ भूमि ही अतिक्रमण मुक्त है।

दरअसल, सीमा विवाद के बहाने जलाभूमि के संरक्षण के बाकी काम टाल देने की मनोवृत्ति रही है। सीमा विवाद को सुलझाने की दिशा में जब सीमा त्रिपाठी जिलाधिकारी थीं तो कुछ काम हुए। डीएम की निजी रुची इसमें थी।

एशिया वेटलैंड मैनेजमेंट के विशेषज्ञों के साथ जिला प्रशासन की एक अहम बैठक 13 मई 2015 को हुई जिसमें अधिसूचित भूमि और उसमें बसी आबादी की समस्या उठी। सीमा विवाद सुलझाने में एक फार्मुला सामने आया कि झील की पारिस्थितिकी को बहाल करने के लिये जितनी जमीन जरूरी हो, उसका संरक्षण निश्चित रूप से हो। जरूरत हो तो निजी मिल्कियत की जमीन का अधिग्रहण सरकार करे।

झील के आसपास भूमि-सौदों पर रोक लगाने के अतिरिक्त झील के संरक्षण के लिये कुछ करने की ठोस कोशिश सरकार की ओर से नहीं हुई। झील के उत्तर की जमीन थोड़ी ऊँची है। पश्चिम और दक्षिण में बुढ़ी गंडक नदी है। दक्षिण की ओर करीब 15 किलोमीटर लम्बा नाला झील को बुढ़ी गंडक से जोड़ता है।

नाला सिल्ट से पूरी तरह भर गया है जिससे झील के जीव-जन्तु, वनस्पति और समूची पारस्थितिकी को गहरा नुकसान हुआ है। पूरे इलाके में बाढ़ का खतरा इस नाला के भरने से उत्पन्न हुआ है। बाढ़ के बचाव के लिहाज से 1951 में इस नाले की खुदाई हुई थी।

ताल को नदी से जोड़ने वाला यह नाला आसपास के खेतों की सिंचाई का स्रोत भी रहा है। बरसात के समय झील में पानी बढ़ने पर वह नदी में चला जाता था या नदी में पानी बढ़ने पर वह ताल में आकर विश्राम करता था। पानी की इस आवाजाही में ताल के पानी की सफाई होती थी और उसकी ताजगी बनी रहती थी।

यहाँ की पारिस्थितिकी बहाल करने के लिये नाले का पुनरुद्धार एकदम आवश्यक है। जबकि 1994 में राज्य सरकार ने इस नाले से होकर ताल का समूचा पानी बहा देने और उससे निकली जमीन पर खेती करने की योजना पर अमल शुरू किया। योजना बुरी तरह नाकाम हुई। ताल की जमीन पर कुछ अधिक लोगों का कब्जा जरूर हो गया।

उल्लेखनीय है कि पर्यावरण विज्ञानी प्रोफेसर अशोक घोष ने इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया है। उसमें पता चला कि झील का आकार 1984 में 6,786 हेक्टेयर था, 2004 में घटकर 6043.825 हेक्टेयर रह गया और 2012 में घटकर महज 2032 हेक्टेयर रह गया है। झील की गहराई भी तेजी से घटी है।

हर साल 3.8 सेंटीमीटर सिल्ट तल में जम रहा है। बड़ी मात्रा में सिल्ट जमने से ताल का बडा इलाका दलदल में बदल गया है जिसमें जहरीले खरपतवार पनप गए हैं और पानी में पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं घुल पाता। इससे जैविक व्यवस्था बिगड़ रही है। झील की प्राकृतिक विविधता नष्ट हो रही है। झील में पानी आने-जाने की राह बन्द हो गई है। पानी अम्लीय और गन्दा हो गया है।

डिजाल्व्ड ऑक्सीजन 7.6 मिलीग्राम प्रति लीटर पाया गया है जो जीव-जन्तुओं के लिये हितकर नहीं है। आसपास के जो लोग इसके पानी का इस्तेमाल करते हैं, उनमें त्वचा और पाचन सम्बन्धी रोग फैलने लगे हैं।

पर्यावरण प्रेमियों का मानना है कि इलाके का विकास कृषि सह पक्षी विहार के रूप में किया जा सकता है जिसमें कृषि के साथ पक्षियों के बसोबास का एकीकृत ढंग से प्रावधान हो। पूरे इलाके में परम्परागत ढंग की जैविक कृषि प्रणाली को अपनाया जाये। समूचे अधिसूचित क्षेत्र का संरक्षण होना चाहिए।

केवल उन लोगों का ध्यान रखते हुए इसकी सीमाओं का निर्धारण करना चाहिए जो अधिसूचना होने के बहुत पहले से वहीं बसे थे। जलाभूमि के समन्वित प्रबन्धन में सभी हितधारक समूहों की सक्रिय हिस्सेदारी होनी चाहिए।

इस अधिसूचित क्षेत्र के संरक्षण के लिये कठोर वैधानिक उपायों की आवश्यकता है। इसके लिये झील के मौलिक स्वरूप का मानचित्रण करना और फिर अधिसूचना जारी करना होगा। झील और जलग्रहण क्षेत्र के मानचित्र का निर्धारण एक समिति करें जिसमें पंचायत प्रतिनिधि और अन्य हितधारकों की हिस्सेदारी हो ताकि फिर अतिक्रमण नहीं हो।

जलाभूमि, नदी से संयोगी नाला के सिल्ट को हटाना जरूरी है ताकि झील में पानी आने-जाने की प्रणाली काम कर सके। झील के तल में अतिक्रमण, गैरकानूनी ढंग से खेती, जलक्षेत्र में दूषणकारी पदार्थों का प्रवेश रोकना और इसे लेकर जागरुकता पैदा करना, झील के प्रबन्धन करने में हितधारकों को समर्थ बनाने के लिये विभिन्न कार्यक्रम अपनाना आवश्यक होगा।
 

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