कावेरी पर कलह, पहला हक किसका

17 Sep 2016
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एक लोककथा है, जिसमें राजा के पास लोग जाते हैं और शिकायत करते हैं कि उनके गाँव के पास से बहने वाली नदी पर एक शराब बनाने वाले ने बाँध बनाकर पानी रोक दिया है। इससे उन्हें पीने का पानी नहीं मिल रहा इस पर राजा नदी से पूछते हैं तो नदी कहती है कि उस पर सबसे पहला अधिकार शराब बनाने वाले का नहीं बल्कि वहाँ के समाज का है।

समाज यानी वहाँ के लोग जहाँ से नदी बहती है। नदी बोल नहीं सकती लेकिन इस लोक कथा का गूढ़ार्थ यही है कि हम अपने जलस्रोतों की प्राथमिकता तय करें कि आखिर उन पर पहला अधिकार किसका है, निश्चित तौर पर समाज का या उन लोगों का जो उसके पानी को किसी व्यावसायिक प्रयोजन के लिये नहीं बल्कि अपने जीने के लिये इस्तेमाल करते हैं। उल्लेखनीय है कि पानी जीवन के लिये सबसे ज्यादा जरूरी है पानी नहीं होने पर जीवन की कल्पना भी सम्भव नहीं।

ताजा सन्दर्भ कावेरी नदी के पानी को लेकर मचे कोहराम का है। कावेरी नदी के पानी को लेकर जहाँ दो राज्य आमने-सामने नजर आ रहे हैं वही पानी को लेकर सड़कों पर भी अब हिंसक झड़पें होने लगी हैं। दरअसल इस सवा सौ साल पुरानी लड़ाई ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि नदियों के पानी पर पहला अधिकार किसका होना चाहिए। यह सवाल बीते 50 से 80 सालों में लगातार यहाँ-वहाँ उठता रहता है। करीब-करीब तभी से, जबसे हमने अपने पानी को लेकर समाज की चिन्ता करने के बजाय यहाँ-वहाँ स्वार्थों को देखना शुरू किया है।

नदियाँ सदियों से सैकड़ों सालों से अपने समाज की चिन्ता करती रही हैं तथा नदी और उसके अंचल के बीच हमेशा से ही एक आत्मीय और मधुर सम्बन्ध बने रहे हैं। कई नदियाँ तो पूरे अंचल की माँ की तरह पहचानी और पूजी जाती हैं। नदियों से वहाँ की खेती, खुशियाँ और राग-रंग जुड़े रहे हैं। नदियाँ सदानीरा होकर उन्हें निर्बाध पानी और पानी से अनाज मुहैया कराती रही हैं।

और कावेरी को लेकर भी यही स्थिति रही है लेकिन फिलहाल कर्नाटक हो या तमिलनाडु दोनों ही राज्यों के लिये पानी सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि बीते साल दोनों ही राज्यों में बारिश बहुत कम हुई है। बारिश कम होने की वजह से इन राज्यों के लोगों को खेती के लिये पानी की सबसे ज्यादा जरूरत है। तभी तो ठीक इसी समय में पानी पर रार मची हुई है। देश की बड़ी नदियों में गिनी जाने वाली कावेरी नदी के पानी को लेकर एक अनार सौ बीमार जैसी स्थिति है।

एक तरफ तमिलनाडु के किसानों को इसकी जरूरत है। तमिलनाडु में बारिश कम हुई है तो कमोबेश कर्नाटक में भी किसानों को कावेरी के पानी की जरूरत है ताकि वह अपनी फसल बचा सकें। कोई भी किसान अपनी आँखों के सामने अपनी फसल को सूखते हुए नहीं देख सकता हालांकि दोनों ही राज्यों में अन्य जल संसाधन और जलस्रोत की व्यवस्थाएँ हैं, लेकिन अनियंत्रित और अनियोजित व्यवस्थाओं के चलते पानी के किसी एक विकल्प को ही हमारे यहाँ केन्द्रीकृत कर दिये जाने की रवायत सी हो चुकी है और यही शायद हमारे परेशानियों का सबब भी है।

नदियाँ हमारे पानी के लिये सदियों से सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण संसाधन रही है लेकिन बीते कुछ सालों में जिस तरह से अनियोजित विकास और जल संसाधन का नाम देकर उनके पानी के दुरुपयोग और मनमाने दोहन शुरू किये गए हैं, लगभग तभी से नदी और उसके पूरे तंत्र के पर्यावरण को खासा नुकसान हुआ है।

हमने जगह-जगह नदी को बाँधकर बड़े-बड़े बाँध तो बना दिये लेकिन उसके पानी के सदुपयोग पर अब तक हमारी कोई निश्चित कार्य योजना नहीं है यही हाल अन्य योजनाओं का भी है। हमने नदियों पर मनमाने तरीके से योजनाएँ बनाई और उन्हें पूरा किया लेकिन कभी यह देखने की कोशिश नहीं की कि आखिर इससे नदी और उसके पानी पर क्या प्रभाव पड़ेंगे। बुरे या अच्छे।

इस दौरान पर्यावरण विचारकों ने इनके बुरे असर के बारे में चेताया भी, लेकिन एक बार योजना बन जाने के बाद पीछे हटना सरकारों को मंजूर नहीं होता लिहाजा करोड़ों अरबों खर्च करते हुए जमीन पर योजना तो पूर्ण हो गई लेकिन अधिकांश स्थानों पर इसका पर्याप्त और अपेक्षित फायदा नहीं मिल सका।

अकेले कावेरी नदी की ही बात नहीं है देश भर में कई नदियों के पानी को लेकर पड़ोसी राज्य के लोग आमने-सामने हो जाते हैं। बात राज्यों की ही नहीं अलग-अलग देशों के बीच बहने वाली नदी के पानी के विवाद भी नए नहीं हैं।

इससे पहले भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी के विवाद, भारत-चीन के बीच या भारत और नेपाल के बीच तो कभी बांग्लादेश के साथ नदियों के पानी को लेकर विवाद चलते रहे हैं। इसी तरह राज्यों में तमिलनाडु और कर्नाटक की तरह ही छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के बीच भी महानदी के पानी के विवाद को लेकर आन्दोलन चलाया गया है।

हमारे देश में ऐसे ही अन्तरराज्यीय करीब आधा दर्जन मामले लम्बित पड़े हैं। इन मामलों में विवाद कब बढ़ता है, जब राजनीति भी अपने स्वार्थों के लिये पानी के मुद्दे को लेकर लोगों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा करती है। राजनेता अपने फायदे के लिये इन्हें भ्रमित करते हैं और यह आन्दोलन एक सीमा के बाद हिंसक स्थिति ले लेता है।

कावेरी नदी की ही तरह गंगा नर्मदा ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों को सहेजने सँवारने और उनकी रक्षा करने का यह समय है। एक तरफ बारिश कम हो रही है तो दूसरी तरफ हमारा भूजल भण्डार लगातार कम होता जा रहा है। समुद्र का पानी हमारे यहाँ पर्याप्त है लेकिन उसका उपयोग न तो पीने या निस्तारी कामों में किया जा सकता है और ना ही खेती में। साफ है कि हम अपने दैनिक कामों और खेती के लिये नदी के पानी पर ही निर्भर हैं। पानी हमारी साझी विरासत है और इस पर किसी एक का अधिकार नहीं हो सकता। राजनेताओं को लगता है कि पानी ऐसा मुद्दा है जिस पर लोगों को इकट्ठा किया जा सकता है और उनसे मनमाने तरीके से अपनी बात मनवाई जा सकती है। राजनेता अपने लिये वोट बैंक तैयार करने के लिये इस तरह के हथकंडे अपनाते रहते हैं।

तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी नदी के विवाद को लेकर भी कमोबेश यही स्थिति है कि दो पड़ोसी राज्यों के लोग जो कल तक भाई-भाई की तरह रहते आये हैं, वे आखिर कैसे एक दूसरे के खिलाफ इस हद तक हिंसक हो सकते हैं। पानी हमेशा से जोड़ता रहा है पानी के स्वभाव में तोड़ना नहीं होता और फिर नदी का पानी तो हमेशा से अपने अंचल के सुख-दुख में सहभागी रहता ही है।

ऐसी स्थिति में जबकि अंचल के लोग स्थानीय नदी को अपनी माँ की तरह मानते और पूजते हैं। उनके लिये यह विवाद का, हिंसा का कारण कैसे हो सकती है। नदी हमेशा से कल्याणकारी भूमिका में होती है कावेरी नदी भी इसका अपवाद नहीं है लेकिन बीते कुछ सालों में इन दोनों राज्यों के राजनेताओं ने अपने फायदे के लिये इसके पानी को मुद्दा बनाने की कोशिश की है।

नदियाँ लड़ने का कारण नहीं हो सकती बल्कि उनके लिये लड़ने की जरूरत है, उनकी सफाई के मुद्दे को लेकर, उनके सदानीरा बनाए जाने के मुद्दे को लेकर, उनके प्रदूषण को रोकने को लेकर, नदी-जल बँटवारे का हल लोगों को आपस में बैठकर तय करना चाहिए। इस तरह इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर या सड़क पर हिंसा और विवाद करने से इस तरह के मुद्दे हल नहीं होते।

कावेरी नदी की ही तरह गंगा नर्मदा ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों को सहेजने सँवारने और उनकी रक्षा करने का यह समय है। एक तरफ बारिश कम हो रही है तो दूसरी तरफ हमारा भूजल भण्डार लगातार कम होता जा रहा है। समुद्र का पानी हमारे यहाँ पर्याप्त है लेकिन उसका उपयोग न तो पीने या निस्तारी कामों में किया जा सकता है और ना ही खेती में। साफ है कि हम अपने दैनिक कामों और खेती के लिये नदी के पानी पर ही निर्भर हैं।

पानी हमारी साझी विरासत है और इस पर किसी एक का अधिकार नहीं हो सकता। सदियों से नदियाँ और हमारे अन्य जलस्रोत समाज की धरोहर रहे हैं और उनकी चिन्ता भी समाज ही करता रहा है समाज के लिये इन धरोहरों की विरासत को सहेजना और उन्हें अगली पीढ़ी तक उसी तरह, उसी समृद्धि के साथ लौटाना भी हमारा दायित्त्व होना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय हमारे यहाँ न्याय देने वाली सर्वोच्च संस्था है और गहन अध्ययन व विचार-विमर्श के बाद जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक को तमिलनाडु के लिये पानी देने की बात कही है उसे मानना जरूरी है।

संवैधानिक, मानवीय और नैतिक दृष्टि से भी। यहाँ व्यक्तिगत हित के बजाय दोनों राज्य के लोगों को बड़ा दिल करते हुए एक-दूसरे के लिये दरियादिली दिखाने की जरूरत है। बजाय इसके कि दोनों ही एक-दूसरे के खिलाफ सड़कों पर खड़े हों।

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