किसका श्रम और किसको खैरात

उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध सरकार के दुराग्रह का एक और नमूना जिस पर पी साईनाथ सामने रखते हैं। उनके अनुसार हर साल बजट में उद्योगपतियों को लगभग 5 लाख करोड़ रुपए की छूट दी जा रही है। वर्षा 2005-6 से लेकर अब तक औद्योगिक घरानों को 36.5 लाख करोड़ रुपयों की छूट दी गई है। इतने पैसों से नरेगा को 105 साल तक और पीडीएस को 31 वर्ष तक फंड किया जा सकता था। ऐसे में जब भारत में विषमता, गरीबी और लाचारी बढ़ रही है, नरेगा और अधिकार आधारित अन्य कानूनों को कमजोर करने के ऐसे प्रयास 40 प्रतिशत से भी ज्यादा देशवासियों के मूलभूत मानवीय अधिकारों के साथ खिलवाड़ है।पिछले साल के 33 हजार करोड़ रुपए के आबंटन को एक हजार करोड़ बढ़ाकर इस वर्ष 34 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया है, लेकिन 2014-15 के केंद्रीय बजट को बारीकी से देखने पर भाजपा सरकार का मनरेगा के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट होता है। आंकड़े झूठ नहीं बोलते लेकिन वे गुमराह जरूर कर सकते हैं। वास्तव में आज की कीमतों के मुताबिक ये आवंटन पिछले साल के खर्चे से एक तिहाई कम हैं और इससे पता चलता है कि इस ऐतिहासिक कानून को जानबूझकर लगातार कमजोर करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

अधिकार-आधारित कानूनों का विरोध कोई नई बात नहीं है। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 7 जून, 2014 को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी को लिखे पत्र में इस कानून के खिलाफ अपनी असली मंशा को प्रकट किया है। वे लिखती है, ‘ये बहस का विषय है कि क्यों ग्रामीण रोजगार की गारंटी एक कानून से ही मिलनी चाहिए और क्यों एक योजना के जरिए ऐसा रोजगार नहीं दिया जा सकता। इस कानून के शायद ही कोई फायदे हों सिवाय इसके कि विभिन्न प्रकार की संस्थाओं को मुकदमेबाजी करने का मौका मिल जाएगा। यह एक कानून हो या स्कीम ये बहस और निर्णय का विषय है।’ राजे का यह सुझाव इस देश के ग्रामीण मजदूरों की भावनाओं पर सीधी चोट है क्योंकि यह कानून लोगों की और संसद की इच्छाओं को अभिव्यक्त करता है। क्रियान्वयन में कमियों के बावजूद नरेगा ग्रामीण मजदूरों के लिए एक जीवनरेखा है।

यह सुविदित है कि समाज के अमीर तबकों के कड़े विरोध के बावजूद नरेगा कानून संसद में एकमत से पारिस किया गया था। यह कानून ऐसे चुनावी नतीजे के बाद अस्तित्व में आया जिसने यह घोषित किया कि भारत उदय नहीं हुआ है। इसने उन लोगों को सहारा देने और मजबूत बनाने की जरूरत को रेखांकित किया जो ना केवल भारत की बहुप्रचारित आर्थिक वृद्धि दर के लाभों से वंचित रह गए थे बल्कि उन्होंने इसकी कीमत भी चुकाई थी। नरेगा को सिर्फ एक स्कीम में बदलने का सुझाव इस कानून पर दोहरा प्रहार है। एक ये कानूनी तौर पर जनता को मिले हक को छीन रहा है और दूसरे सत्ता में बैठे लोगों को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने की मुहिम कमजोर कर रहा है।

वास्तविक पात्र व्यक्तियों तक पैसा नहीं पहुंचने के आरोप नरेगा के ऊपर लगते रहे हैं। इसके बावजूद नरेगा का व्यापक प्रभाव हुआ है। जमींदार, ठेकेदार, बागान और खदानों के मालिक तथा उद्योगपतियों की शिकायत है कि उन्हें मजदूर मिलने में मुश्किल हो रही है। यह इस बात का संकेत है कि नरेगा ने मजदूरों के श्रम के मूल्य को बढ़ाया है। नरेगा की वजह से न्यूनतम मजदूरी भारत के अति शोषित मजदूरों के लिए एक सुरक्षा कवच का काम करने लगी है।

सच्चाई यह है कि नरेगा ग्रामीण भारत में शक्ति संतुलन के केंद्र बदलने लगा है। लेकिन नरेगा को कुछ निहायत ही अतिशयोक्तिपूर्ण और बेबुनियाद आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। जैसे कि यह तर्क कि नरेगा पर हुए खर्च ने महंगाई को बढ़ाया है, किसी धरातल आधारित अध्ययन के द्वारा स्थापित नहीं हुआ है। इन विषयों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

नरेगा में खर्च के सभी स्तरों पर पारदर्शिता के लिए सूचना के अधिकार के सिद्धांतों को शामिल किया गया है। वर्कसाइट से लेकर वेबसाइट तक सभी रिकॉर्ड की पारदर्शिता, मजदूरों का कानूनी हक और सामाजिक अंकेक्षण के प्रावधानों ने जनता को इस खर्चेे पर नजर रखने में मदद की। इसने फर्जी कामों और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण किया है। आंध्र प्रदेश एक ऐसा सफल उदाहरण है जहां सरकार ने ये दिखाया है कि जनता की मदद से सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूती से लड़ा जा सकता है।

आंध्र प्रदेश में नरेगा के सामाजिक अंकेक्षण ने लगभग 180 करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार को उजागर किया, 30 करोड़ रुपए से ज्यादा की वसूली की, 25 हजार से ज्यादा कर्मचारियों को दंडित किया, 5220 भ्रष्ट कर्मचारियों को बर्खास्त किया और 164 प्रथम सूचना रपटें पुलिस में दाखिल की गई। जवाबदेही के ऐसे नतीजे पूरे देश और शायद दुनिया में और कहीं देखने को नहीं मिले। सामाजिक अंकेक्षण की ऐसी व्यवस्था को सभी राज्यों में लागू किया जाना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्यवश बाकी सभी राज्यों में प्रशासनिक विरोध ने कैग द्वारा अनुशंषित स्वतंत्र सामाजिक अंकेक्षण इकाइयों को बनने और नियमों को लागू होने से रोक रखा है।

आंध्र प्रदेश में नरेगा के सामाजिक अंकेक्षण ने लगभग 180 करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार को उजागर किया, 30 करोड़ रुपए से ज्यादा की वसूली की, 25 हजार से ज्यादा कर्मचारियों को दंडित किया, 5220 भ्रष्ट कर्मचारियों को बर्खास्त किया और 164 प्रथम सूचना रपटें पुलिस में दाखिल की गई। जवाबदेही के ऐसे नतीजे पूरे देश और शायद दुनिया में और कहीं देखने को नहीं मिले। नरेगा मजदूर आलसी व कामचोर हैं यह कहना तथ्यों का निहायत ही घटिया प्रस्तुतीकरण है। देश के कई नामचीन शिक्षण संस्थानों से हर साल मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) में आने वाले प्रशिक्षुओं केे प्रशिक्षण का एक हिस्सा नरेगा में काम करना भी होता है। वे किसी भी नरेगा कार्यस्थल पर आधे दिन (4 घंटे) मजदूरों के साथ काम करते हैं। हाल ही में दिल्ली से आई एक वकील ने अपने अनुभव साझा करते हुए लिखा, ‘राजस्थान में नरेगा में औरतें सुबह 6 बजे से दिन में 3 बजे तक कठोर शारीरिक श्रम करती हैं जबकि तापमान 45 से 50 डिग्री सेल्सियस तक होता है... मेरे उदारवादी मित्रों की तरह भले ही मैं यथार्थवादी नहीं हूं परंतु यह कह सकती हूं कि इस काम को ‘मुफ्त की रोटी’ कहना सच्चाई से एकदम परे हैं।’ हालांकि नरेगा कामों को बेहतर तरीके से योजनाबद्ध और प्रबंधित किया जा सकता है, इससे बनाई गई संपत्तियों को सिरे से नकार देना तथ्यात्मक तौर पर बिल्कुल गलत है।

कई अध्ययनों ने यह दिखाया है कि नरेगा की वजह से जल संरक्षण, वृक्षारोपण एवं सुदूर कई छोटे गांवों एवं ढाणियों को सड़क से जोड़ने और बंजर जमीन को विकसित करने जैसे काम हुए हैं। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय बंगलुरू के एक विद्यार्थी अनुज लिखते हैं, ‘अपनी इंटर्नशिप के दौरान मध्य और उत्तरी राजस्थान के कई नरेगा कार्यस्थलों पर मैंने पाया कि कहीं भी कोई फिजूल काम नहीं हो रहा था... मैंने लोगों को चेकडैम, छोटे तालाब या सड़कें बनाते देखा... श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ में मैंने देखा कि नरेगा के अंतर्गत नहरें और सिंचाई की छोटी नालियां बनाई जा रही थीं जिससे कि जल प्रबंधन और सिंचाई के लिए एक बेहतरीन ढांचा तैयार हुआ है। इसलिए मैं यह आक्षेप समझने में असमर्थ हूं कि नरेगा का काम धन, समय और संसाधनों की बर्बादी है।’

इस कानून को कमजोर बनाने के लिए कुछ अंतर्निहित तरीके इस्तेमाल किए जा रहे हैं। कई आलोचकों व अर्थशास्त्रियों की भविष्यवाणियों के विपरीत नरेगा के बोझ के नीचे पूरा बजट धराशाई नहीं हुआ बल्कि इसके आबंटन को गैर कानूनी तरीके से लगातार घटाया गया है। इसका आबंटन 2009-10 में 40,100 करोड़ रुपए था जो कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.87 प्रतिशत था। उसके बाद वित्त मंत्रालय ने लगातार आबंटन को घटाकर इसे सकल घरेलू उत्पाद के मात्र 0.26 प्रतिशत पर ला दिया है। 2014-15 के बजट में नरेगा के लिए 34 हजार करोड़ रुपए का आबंटन किया गया है जबकि 2013-14 में नरेगा पर कुल खर्च 38 हजार करोड़ रुपए हुआ और उसमें लगभग 6 हजार करोड़ रुपए की देनदारी बाकी है। इस देनदारी को चुकाने के बाद नरेगा के लिए सिर्फ 28 हजार करोड़ रुपए ही रह जाएंगे। मुद्रास्फीति के कारण इस वर्ष खर्चा लगभग 11 प्रतिशत बढ़ जाएगा और कुल खर्च लगभग 42 हजार करोड़ तक पहुंच जाएगा। अतः तकरीबन 14 हजार करोड़ रुपयों की कमी पड़ेगी। असली आबंटन 28 हजार करोड़ रुपए या सकल घरेलु उत्पाद का मात्र 0.22 प्रतिशत ही होगा जो 2009-10 के आबंटन का सिर्फ एक चौथाई ही रह गया है।

उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध सरकार के दुराग्रह का एक और नमूना जिस पर पी साईनाथ सामने रखते हैं। उनके अनुसार हर साल बजट में उद्योगपतियों को लगभग 5 लाख करोड़ रुपए की छूट दी जा रही है। वर्षा 2005-6 से लेकर अब तक औद्योगिक घरानों को 36.5 लाख करोड़ रुपयों की छूट दी गई है। इतने पैसों से नरेगा को 105 साल तक और पीडीएस को 31 वर्ष तक फंड किया जा सकता था। ऐसे में जब भारत में विषमता, गरीबी और लाचारी बढ़ रही है, नरेगा और अधिकार आधारित अन्य कानूनों को कमजोर करने के ऐसे प्रयास 40 प्रतिशत से भी ज्यादा देशवासियों के मूलभूत मानवीय अधिकारों के साथ खिलवाड़ है। उनके लिए ‘अच्छे दिन’ के वादों का मखौल भी है। सरकार को यह समझना चाहिए कि यह न सिर्फ एक बुरा अर्थशास्त्र है बल्कि बुरी राजनीति और बुरा राष्ट्रवाद भी है। ऐसे में कॉरपोरेट ताकतों के सामने जब मजदूर अपने हकों के लिए खड़े होंगे तो राष्ट्रवादी भाजपा किसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाएगी?

लेखक द्वय मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ कार्यरत हैं।

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