कीटनाशक बने मानवनाशक

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वैसे तो नोएडा की पहचान एक उभरते हुए विकसित इलाके के तौर पर है लेकिन यहाँ के कई गाँव वहाँ रच-बस चुकी कैंसर की बीमारी के कारण जाने जाते हैं। अच्छेजा गाँव में बीते पाँच साल में दस लोग इस असाध्य बीमारी से असामयिक काल के गाल में समा चुके हैं। अब अच्छेजा व ऐसे ही कई गाँवों में लोग अपना रोटी-बेटी का नाता भी नहीं रखते हैं। दिल्ली से सटे पश्चिम उत्तर प्रदेश का दोआब इलाका, गंगा-यमुना नदी द्वारा सदियों से बहाकर लाई मिट्टी से विकसित हुआ था। यहाँ की मिट्टी इतनी उपजाऊ थी कि पूरे देश का पेट भरने लायक अन्न उगाने की क्षमता थी।

अब प्रकृति इंसान की जरूरत तो पूरा कर सकती है, लेकिन लालच को नहीं। और ज्यादा फसल के लालच में यहाँ अन्धाधुन्ध खाद व कीटनाशकों का जो प्रयोग शुरू हुआ कि अब यहाँ पाताल से, नदी, से जोहड़ से, खेत से, हवा से हवा-पानी नहीं मौत बरसती हैं। बागपत से लेकर ग्रेटर नोएडा तक के लगभग 160 गाँवों में हर साल सैकड़ों लोग कैंसर से मर रहे हैं। सबसे ज्यादा लोगों को लीवर व आँत का कैंसर हुआ है।

बाल उड़ना, किडनी खराब होना, भूख कम लगना, जैसे रोग तो यहाँ हर घर में हैं। सरकार कुछ कर रही है, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण भी कुछ नोटिस दे रहा है, लेकिन इलाके में खेतों में छिड़कने वाले जहर की बिक्री की मात्रा हर दिन बढ़ रही है। दुखद है कि अब नदियों के किनारे ‘विष-मानव’ पनप रहे हैं जो कथित विकास की कीमत चुकाते हुए असमय काल के गाल में समा रहे हैं। हमारे देश में हर साल कोई दस हजार करोड़ रूपए के कृषि-उत्पाद खेत या भण्डार-गृहों में कीट-कीड़ों के कारण नष्ट हो जाते हैं। इस बर्बादी से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा है।

जहाँ सन् 1950 में इसकी खपत 2000 टन थी, आज कोई 90 हजार टन जहरीली दवाएँ, देश के पर्यावरण में घुल-मिल रही हैं। इसका कोई एक तिहाई हिस्सा विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अन्तर्गत छिड़का जा रहा है। सन् 1960-61 में केवल 6.4 लाख हेक्टेयर खेत में कीटनाशकों का छिड़काव होता था। 1988-89 में यह रकबा बढ़कर 80 लाख हो गया और आज इसके कोई डेढ़ करोड़ हेक्टेयर होने की सम्भावना है। ये कीटनाशक जाने-अनजाने में पानी, मिट्टी, हवा, जन-स्वास्थ्य और जैव विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं।

इसके अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से पारिस्थितिक सन्तुलन बिगड़ रहा है, सो अनेक कीट व्याधियाँ फिर से सिर उठा रही हैं। कई कीटनाशियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ गई है और वे दवाओं को हजम कर रहे हैं। इसका असर खाद्य शृंखला पर पड़ रहा है और उनमें दवाओं व रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर पर आ गई है। एक बात और, इस्तेमाल की जा रही दवाइयों का महज् 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होता है, बकाया जहर मिट्टी, भूगर्भ जल, नदी-नालों का हिस्सा बन जाता है।

कर्नाटक के मलनाड इलाके में सन् 1969-70 के आसपास बड़ा अजीब रोग फैला। लकवे से मिलते-जुलते इस रोग के शिकार गरीब मजदूर थे। शुरू में उनके पिण्डलियों और घुटने के जोड़ों में दर्द हुआ, फिर रोगी खड़े होने लायक भी नहीं रह गया। 1975 में हैदराबाद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन ने चेता दिया था कि ‘‘एंडमिक एमिलियिन आर्थराईटिस ऑफ मलनाड’’ नामक इस बीमारी का कारण ऐसे धान के खेतों में पैदा हुई मछली, केकडे़ खाना है जहाँ कीटनाशकों का इस्तेमाल हुआ हो। इसके बावजूद वहाँ धान के खेतों में पैराथिया और एल्ड्रिन का बेतहाशा इस्तेमाल जारी है, जबकि बीमारी एक हजार से अधिक गाँवों में फैल चुकी है।

दिल्ली, मथुरा, आगरा जैसे शहरों में पेयजल सप्लाई का मुख्य स्रोत यमुना नदी के पानी में डीडीटी और बीएसजी की मात्रा जानलेवा स्तर पर पहुँच गई है। यहाँ उपलब्ध शाकाहारी और मांसाहारी दोनों किस्म की खाद्य सामग्री में इन कीटनााशकों की खासी मात्रा पाई गई है। औसत भारतीय के दैनिक भोजन में लगभग 0.27 मिग्रा डीडीटी पाई जाती है। दिल्ली के नागरिकों के शरीर में यह मात्रा सबसे अधिक है।

यहाँ उपलब्ध गेहूँ में 1.6 से 17.4 भाग प्रति दस लाख, चावल में 0.8 से 16.4 भाग प्रति 10 लाख, मूँगफली में 3 से 19.1 भाग प्रति दस लाख मात्रा डीडीटी मौजूद है। महाराष्ट्र में बोतलबन्द दूध के 70 नमूनों में डीडीटी और एल्ड्रिन की मात्रा 4.8 से 6.3 भाग प्रति दस लाख पाई गई है, जबकि मान्य मात्रा महज् 0.66 है। मुम्बई में टंकी वाले दूध में तो एल्ड्रिन का हिस्सा 96 तक था।

कीटनाशक से जहरीला होता खाना और पानीपंजाब में कपास की फसल पर सफेद मक्खियों के लाइलाज हमले का मुख्य कारण रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाना पाया गया है। अब टमाटर को ही लें। इन दिनों अच्छी प्रजाति के ‘रूपाली’ और ‘रश्मि’ किस्म के टमाटरों का सर्वाधिक प्रचलन है। इन प्रजातियों को सर्वाधिक नुकसान हेल्योशिस आर्मिजरा नामक कीड़े से होता है। टमाटर में सुराख करने वाले इस कीड़े के कारण आधी फसल बेकार हो जाती है। इन कीड़ों को मारने के लिए बाजार में रोगर हाल्ट, सुपर किलर, रेपलीन और चैलेंजर नामक दवाएँ मिलती हैं।

इन दवाओं पर दर्ज है कि इनका इस्तेमाल एक फसल पर चार-पाँच बार से अधिक ना किया जाए। लेकिन यह वैज्ञानिक चेतावनी बहुत महीन अक्षरों में व अंग्रजी में दर्ज होती है, जिसे पढ़ना व समझना किसान के बस से बाहर की बात है। लिहाजा लालच में आकर किसान इस दवा की छिड़काव 25 से 30 बार कर देता है। शायद टमाटर पर कीड़े तो नहीं लगते हैं, लेकिन उसको खाने वाले इंसान को कई गम्भीर बीमारियों की चपेट में आने की पुष्टि भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद भी कर चुकी है।

संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. ओपी लाल के शोध में बताया गया है कि इन दवाओं से उपचारित लाल-लाल सुन्दर टमाटरों को खाने से मस्तिष्क, पाचन अंगों, किडनी, छाती और स्नायु तन्त्रों पर बुरा असर पड़ता है। इससे कैंसर होने की सम्भावना भी होती है। कीटनााशकों पर छपी सूचनाओं का पालन ना होने की समस्या अकेले टमाटर की नहीं, बल्कि बेहद व्यापक है।

इन दिनों बाजार में मिल रही चमचमाती भिण्डी और बैंगन देखने में तो बेहद आकर्षक है, लेकिन खाने में उतनी ही कातिल! बैंगन को चमकदार बनाने के लिए उसे फोलिडज नामक रसायन में डुबोया जाता है। बैंगन में घोल को चूसने की अधिक क्षमता होती है, जिससे फोलिडज की बड़ी मात्रा बैंगन जज्ब कर लेते हैं। इसी प्रकार भिण्डी को छेद करने वाले कीड़ों से बचाने के लिए एक जहरीली दवा का छिड़काव किया जाता है।

ऐसे कीटनाशकों से युक्त सब्जियों का लगातार सेवन करने से साँस की नली बन्द होने की प्रबल सम्भावना होती है। इसी तरह गेहूँ को कीड़ों से बचाने के लिए मेलाथियान पाउडर को मिलाया जाता है। इस पाउडर के जहर को गेहूँ को धोकर भी दूर नहीं किया जा सकता है। यह रसायन मानव शरीर के लिए जहर की तरह है।

सन् 1950 में कीटनाशक की खपत 2000 टन थी, आज कोई 90 हजार टन जहरीली दवाएँ, देश के पर्यावरण में घुल-मिल रही हैं। इसका कोई एक तिहाई हिस्सा विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अन्तर्गत छिड़का जा रहा है। सन् 1960-61 में केवल 6.4 लाख हेक्टेयर खेत में कीटनाशकों का छिड़काव होता था। 1988-89 में यह रकबा बढ़कर 80 लाख हो गया और आज इसके लगभग डेढ़ करोड़ हेक्टेयर होने की सम्भावना है। ये कीटनाशक जाने-अनजाने में पानी, मिट्टी, हवा, जन-स्वास्थ्य और जैव विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं।अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) के फार्माकोलॉजी विभाग के एक अध्ययन से पता चलता है कि मच्छर, काकरोच को मारने वाली दवाओं का कुप्रभाव सबसे ज्यादा 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर पड़ता है। ग्रीनपीस इण्डिया की एक रिपोर्ट बताती है कि कीटनाशक बच्चों के दिमाग को घुन की तरह खोखला कर रहे हैं।

संस्था ने बच्चों के मानसिक विकास पर कीटनाशकों के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए देश के छह अलग-अलग राज्यों के जिलों में शोध किया। ये जिले थे - भटिण्डा (पंजाब), भरूच (गुजरात), रायचूर (कर्नाटक), यवतमाल (महाराष्ट्र), थेनी (तमिलनाडु) और वारंगल (आन्ध्र प्रदेश)। रिपोर्ट में बताया गया है कि कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध, अवैज्ञानिक व असुरक्षित इस्तेमाल के कारण भोजन और जल में रासायनिक जहर की मात्रा बढ़ रही है। इसका सेवन करने वाले बच्चों का मानसिक विकास अपेक्षाकृत धीमा है।

कीटनाशकों के कारण जैव विविधता को होने वाले नुकसान की भरपाई तो किसी भी तरह सम्भव नहीं हैं। गौरतलब है कि सभी कीट, कीड़े या कीटाणु नुकसानदायक नहीं होते हैं।

लेकिन बगैर सोचे-समझे प्रयोग की जा रही दवाओं के कारण ‘पर्यावरण मित्र’ कीट-कीड़ों की कई प्रजातियाँ जड़मूल से नष्ट हो गई हैं। सनद रहे कि विदेशी पारिस्थितिकी के अनुकूल दवाईयों को भारत के खेतों के परिवेश के अनुरूप जाँच का कोई प्रावधान नहीं है। विषैले और जनजीवन के लिए खतरा बने हजारों कीटनाशकों पर विकसित देशों ने अपने यहाँ तो पाबन्दी लगा दी है, लेकिन अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए इन्हें भारत में उड़ेलना जारी रखा है।

असुरक्षित कृषि रसायनों से पर्यावरण खराब होने से बचाने के लिए केन्द्र सरकार ने जून-93 में 12 कीटनाशकों पर पूर्ण प्रतिबन्ध और 13 के इस्तेमाल पर कुछ पाबन्दियों की औपचारिकता निभाई थी। प्रतिबन्धित की गई दवाओं में एक ‘सल्फास’ के नाम से कुख्यात एल्यूमिनियम फास्फाईड भी है। आज शायद ही ऐसा कोई दिन जाता होगा जब अखबारों में सल्फास खाकर खुदकुशी करने की खबर ना छपी हो।

डीडीटी और बीएचसी जैसे बहुप्रचलित कीटनााशक भी सरकारी रिकार्ड में प्रतिबन्धित हैं। ऐसी अन्य दवाएँ हैं -डाय ब्रोमो क्लोरो, पेंटा क्लोरो नाईट्रो बेंजीन, पेंटा क्लोरो फेनाल, हेप्टा क्लोरो एल्ड्रिन, पैरा क्वाट डाई मिथाईल सल्फेट, नोईट्रोफेन और टेट्राडाईफेन। लेकिन ये सभी दवाएँ अलग-अलग नामों से दिल्ली से लेकर दूरस्थ गाँवों तक कहीं भी खरीदी जा सकती हैं।

कीटनाशक से जहरीला होता खाना और पानीसरकारी महकमों की खरीद के नाम पर इनके कारखानों के लाईसेंस धड़ल्ले से जारी किए जाते हैं और कारखाने अपने उत्पादों को पीछे के दरवाजे से बाजार में बेचते हैं। सल्फास, डीडीटी, बीएचसी और मैलाथियान जैसे कीटनाशकों के दाम बेहद कम होने के कारण ये छोटे किसानों में बेहद लोकप्रिय हैं। चूँकि सरकार ने इन दवाओं की बिक्री पर प्रतिबन्ध (भले ही कागजों पर) लगाया है, लेकिन उत्पादन पर नहीं। सरकारी महकमों के लिए खरीद के नाम पर इनके कारखानों के लाईसेंस धड़ल्ले से जारी किए जाते हैं, जबकि इनमें बना माल बेरोकटोक पीछे के दरवाजे से बाजार में भेज दिया जाता है।

यह विडम्बना है कि देश में हरित क्रान्ति का झण्डा लहराने वालों ने हमारे खेतों व उत्पादों को विषैले रसायनों का गुलाम बना दिया है। नतीजतन एक बारगी तो लगता है कि पैदावार बढ़ गई है, लेकिन जल्दी ही इसके कारण जमीन के बंजर होने और उसका भक्षण करने वालों को शारीरिक विसंगतियों की चपेट में आने का सामना करना पड़ता है। इससे खेती की लागत बढ़ रही है, साथ ही मानव संसाधन का नुकसान तथा स्वास्थ्य पर खर्चों की बढ़ोतरी हो रही है।

हमारा देश कई सदियों- युगों से खेती करता आ रहा है। हमारे पास कम लागत में अच्छी फसल उगाने का पारम्परिक ज्ञान है। लेकिन यह ज्ञान जरूरत तो पूरी कर सकता है, लिप्सा को नहीं। अन्तरराष्ट्रीय बाजार गुणवत्ता, उपभोक्ता और प्रशोधन जैसे नारों पर खेती चाहता है, जबकि हमारी परम्परा धरती को माता और खेती को पूजा मानने की है। हमारे पारम्परिक बीज, गोबर की खाद, नीम, गौमूत्र जैसे प्राकृतिक तत्वों के कीटनाशक शायद पहले से कम फसल दें, लेकिन यह तय है कि इनसे जहर नहीं उपजेगा।

कीटनाशक से जहरीला होता खाना और पानीइन दिनों देश में कइ जगहों पर बगैर रासायनिक दवा व खाद के फसल उगाने का प्रचलन बढ़ा है, लेकिन यह फैशन से ज्यादा नहीं है और ऐसे उत्पादों के दाम इतने ज्यादा हैं कि आम आदमी इसे खरीदने से बेहतर आम जहरीले उत्पाद खरीदना श्रेयस्कर समझता है।

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