कल की गंगा

12 Feb 2009
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रेशमा भारती/ जनसत्ता
नदियों के दोहन को मुनाफे का मुख्य आधार बना कर उत्तराखंड की कल्पना देश के एक ऊर्जा राज्य के रूप में की गई है। गंगा भी ऊर्जा उत्पादन के इन महत्वाकांक्षी मंसूबों का शिकार बन गई है, और आज अपनी ही जन्मभूमि में इसके अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है। टिहरी बांध के बाद कोटली भेल चरण-1अ, 1ब और 2, मनेरी भाली चरण-1 और 2, भैरो घाटी प्रथम और द्वितीय के अलावा पाला मनेरी, लोहारी पाला, कोटेश्वर, बद्रीनाथ, देवसरी, विष्णुगढ़-पीपलकोटी जैसी अनेक जल विद्युत परियोजनाएं गंगा को जगह- जगह पर छोटे बड़े जलाशयों और सुरंगों में कैद करने जा रही हैं। इन सबके बाद पहाड़ों में गंगा शायद कहीं भी उन्मुक्त बहती नजर नहीं आएगी।

मैदानों में गंगा प्रदूषण की स्थिति कितनी भी विकट रही हो, पर पहाड़ों से निकलती गंगा सदा शुद्ध, शीतल रही है। अब वह पहाड़ी मार्ग की जड़ी- बूटियों या पौधों का असर रहा हो या पत्थरों चट्टानों से टकरा टकरा कर टेढ़े- मेढे़ पहाड़ी रास्तों से होकर नदी का बहना, गंगाजल में शुद्धिकरण की प्रक्रिया की परंपरा मौजूद मानी गई है। बहते जल में ऑक्सीजन की अच्छी मात्रा होती है। पर जलाशयों के रुके हुए जल में ऑक्सीजन घटने लगती है और तल पर मौजूद जैविक पदार्थों के सड़ने से जल प्रदूषित होता जाता है। सुरंगों में कैद जल खुली हवा और धूप से भी वंचित रहता है। इस कारण बांधों, सुरंगों में कैद हो जाने से गंगा जल की गुणवत्ता में गिरावट आना स्वाभाविक है। जलाशयों में कैद जल और जलाशयों के इर्द गिर्द पोखरों में जमा पानी में मच्छर पनपने और मलेरिया, डेंगू जैसे रोगाणु फैलने की संभावना बढ़ जाती है।

हिमालय भूकंप और भूस्खलन की दृष्टि से वैसे भी संवेदनशील रहा है। बांधों और सुरंगों के निर्माण से इनकी आशंका ओर विनाशक क्षमता बढ़ जाती है। निर्माण कार्यों के कारण हुए विस्फोटों से यहां पहाड़ कमजोर हुए हैं, अनेक इलाकों में घरों में दरारें आई हैं, घर नीचे की ओर धस गए हैं, उनकी नींव हिल गई है और भूस्खलन बढ़ गए हैं। कुछ गांव रहने के लिए सुरक्षित नहीं रह गए है और आवागमन भी असुरक्षित हो गया है। किसी भूकंप की स्थिति में तो ये बिल्कुल ही ढह जाएंगें। भूकंप में अगर कोई बांध ध्वस्त हो गया तब तो अकल्पनीय विनाश होगा। जलाशयों या सुरंगों के इर्द गिर्द पानी के रिसाव और बढ़ती नमीं से कुछ क्षेत्रों में जमीन का धसाव या दलदलीकरण जैसी समस्याएं देखी गई हैं। कुल मिला कर जलविद्युत परियोजनाओं से हिमालय बहुत अस्थिर और असुरक्षित बन सकता है।

उत्तराखंड में बांधों, सुरंगों के निर्माण के दौरान हुए विस्फोटों से कईं स्थानों पर स्थानीय जल स्रोत-पानी के झरने, सोते नष्ट हो गए हैं। सुरंगों में कैद होती नदी का जल भी गांव वालों से छिन रहा है। निर्माण प्रक्रिया के मलबे से भी कुछ जल स्रोत बर्बाद हो रहे हैं। पानी के अभाव में लोगों का रहना और खेती बाड़ी दूभर हो जाएगी। एक स्थानीय जन संगठन माटू ने अपने प्रकाशनों में जानकारी दी है कि धनारी क्षेत्र की धनपति नदी में बांध निर्माण प्रक्रिया के दौरान सीमेंट के मलबे को बहाया गया, जिससे यह बर्बाद हो गई है। इसका पानी पीने और सिंचाई के लायक नहीं रहा। इससे जुड़ी नहरें और उन पर निर्भर खेती भी चौपट हो गई है।

जल विद्युत परियोजनाएं हिमालय के वनों और उनकी समृद्ध जैव संपदा को भी नुकसान पहुंचा रही हैं। कुछ इलाकों में बांध निर्माण या बांधों तक पहुंचने वाली सड़कों के निर्माण के दौरान अंधाधुंध पेड़ों का कटाव हो रहा है। बाहर से आने वाले निर्माण मजदूरों की ईंधन के लिए जंगलों पर निर्भरता जंगलों पर दबाव बढ़ा सकती है।

टिहरी बांध के विस्थापितों और प्रभावितों का दर्द रह-रह कर सामने आता है। इसके बावजूद स्थानीय लोगों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विस्थापन करने वाली या पहाड़ों में उनका जीवन दूभर बनाने वाली जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी मिलना लगातार जारी है। पर्यावरण स्वीकृति के लिए अपेक्षित स्थानीय जन सुनवाई के नाम पर भी महज खानापूर्ति की जा रही है और लोगों को बांधों-सुरंगों के आशंकित प्रभावों के संदर्भ में कोई ठोस जानकारी नहीं दी जा रही है। निर्माण कार्यों के लिए बाहर से मजदूर लाने के चलते न स्थानीय लोगों के लिए रोजगार जुट रहे हैं न ही उनकी परंपरागत आजीविकाओं के लिए अनुकूल स्थितियां ही बच पा रही हैं। पहाड़ों में गंगा के बंध जाने का असर मैदानों पर क्या पड़ेगा, इसे लेकर भी चिंता सामने आ रही है।

ग्लोबल वार्मिंग के दौर में अस्तित्व पर सवालिया निशान लगने लगे हैं। डूब क्षेत्र में आए या जल ग्रहण क्षेत्र से बहकर आए जैविक पदार्थ के जलाशय में सड़ने से उसमें ग्रीन हाउस गैंसों का निर्माण काफी अधिक होता है, इस आधार पर बड़े बांधों को ग्लोबल वार्मिंग का एक प्रमुख कारक बताया गया है। यही नही ग्लोबल वार्मिंग के कारण जब नदी के स्रोत पर ही खतरा मंडरा रहा है तो ऐसे में बांधों का औचित्य और भी सवालों के घेरे में आ जाता है। एक अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था इंटरनेशनल रिवर्स द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमालय में जहां वैसे भी जलवायु परिवर्तन का काफी प्रभाव पड़ा है, सैंकड़ों बांध बना देने से जलवायु परिवर्तन के असर ज्यादा विकट ही होंगे।

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