कोबे से कच्छ तक : आपदा प्रबन्धन में नवाचार

हाल के दिनों में प्राकृतिक आपदाओं की दो सर्वाधिक प्रलयंकारी घटनाएँ 1995 का कोबे का भूकम्प और 2001 का कच्छ का भूकम्प हैं। पहली आपदा एक विकसित देश में आई जबकि दूसरी आपदा एक विकासशील देश में। दोनों ही भूकम्पों ने यह महसूस कराया कि आपदाओं से दीर्घकालीन आधार पर मुकाबला करने हेतु हमारे कार्यव्यहारों, प्रक्रियाओं और तैयारियों में सुधार की आवश्यकता है। दोनों ही घटनाओं के फलस्वरूप आपदओं के प्रबन्धन में नये एवं महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं और भविष्य के लिए कई सबक और आत्मज्ञान प्राप्त हुआ है।संयुक्त राष्ट्र की आमसभा की घोषणानुसार 1990-99 का दशक अन्तरराष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा नियन्त्रण दशक के रूप में मनाया गया। योकोहामा में 1994 में प्राकृतिक आपदा नियन्त्रण पर हुए विश्व सम्मेलन में ‘बचाव की संस्कृति का निर्माण : सुरक्षित विश्व हेतु योकोहामा रणनीति और कार्ययोजना’ पर विचार करते हुए आपदाओं से बचाव, नियन्त्रण और तैयारियों पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित रहा। 1995 में कोबे में आए भूकम्प की दसवीं वर्षगाँठ पर संयुक्त राष्ट्र ने 18 से 22 जनवरी, 2005 तक जापान में ह्योगो के कोबे में आपदा नियन्त्रण पर एक और और विश्व सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में 'आपदाओं के प्रति राष्ट्रों और समुदायों की सहनशक्ति का निर्माण : ह्योगो कार्यपद्धति हेतु कार्यक्रम 2005-2015” को अंगीकार किया गया।

यह एक विडम्बना ही है कि 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध और वर्तमान दशक के पूर्वार्द्ध में अनेक आपदाएँ आईं। जापान में आए हान्सिन-आवाजी का भीषण भूकम्प, जिसे कोबे भूकम्प के रूप में भी जाना जाता है, ने अत्यधिक विकसित देश में भयानक तबाही मचाई और अर्थव्यवस्था को हानि पहुँचाई। इसी अवधि में जो अन्य भूकम्प आए उनमें ‘लातूर’ (भारत), अलक्विन्डिया (कोलम्बिया), भरमारा (तुर्की), चिचि (ताईवान) कच्छ-गुजरात (भारत) और बाग (ईरान) में आए भूकम्प प्रमुख हैं। उड़ीसा (भारत) में आया महाचक्रवात, शताब्दी का सबसे भयावह तूफान था। निकारागुआ, फिलीपींस और वियतनाम जैसे देशों को चक्रवाती तूफानों का सामना करना पड़ा, तो चीन, बांग्लादेश, दक्षिण अफ्रीका, मेक्सिको और अल्जीरिया में भीषण तबाही मचाने वाली बाढ़ों का। हाल के दिनों में, 2004 के (सुनामी), कैटरीना तूफान और कश्मीर के भूकम्प (2005) ने भयानक तबाही मचाई। प्रस्तुत आलेख में कोबे और कच्छ के भूकम्पों के प्रकाश में पुनर्निर्माण कार्यों के सन्दर्भ में अपनाए गए नवाचार और प्राप्त अनुभवों का विश्लेषण किया गया है।

प्रत्येक आपदा तात्कालिकता की भावना को जन्म देती है और भविष्य में बेहतर तैयारी के लिए कार्यों की शुरुआत की आवश्यकता जताती है। कोबे का भूकम्प एक युगान्तकारी घटना थी, क्योंकि यह भीषण भूकम्प उस समय आया जब अन्तरराष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा नियन्त्रण दशक (आईडीएनडीआर) के हिस्से के रूप में नियन्त्रण और तैयारियों की संस्कृति के विकास के प्रयास चल रहे थे। जापान जैसे विकसित देश में भी कम से कम इस त्रासदी के तुरन्त बाद आपदा प्रबन्धन की रणनीति और तैयारी के बारे में व्यापक समीक्षा, विश्लेषण और अनुभवों से सीख लेने की प्रक्रिया शुरू हुई।

कोबे स्थित आपदा नियन्त्रण एवं मानव नवीकरण संस्थान के पूर्व परियोजना प्रबन्धक माशिको मुराता के शोधपत्र से निम्नलिखित पहलू प्रकाश में आए :

1. स्थानीय सरकारों के आपदा प्रबन्धन वाले मुख्यालयों के क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण प्रारम्भिक प्रतिक्रिया (कार्रवाई) बहुत धीमी थी। यातायात प्रणाली और दूरसंचार प्रणाली, यहाँ तक कि उपग्रह संचार प्रणाली भी बाधित रही। तबाही के विस्तार का अन्दाज लगाने में ही राष्ट्रीय सरकार को तीन दिन लग गए।
2. विभिन्न संगठनों के बीच परस्पर समन्वय की समस्या थी। चूँकि स्थानीय सरकारें प्रभावित थीं, वे राष्ट्रीय सरकार और अन्य एजेंसियों से सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकीं।
3. यातायात और संचार प्रणालियों के बाधित होने और सूचना के अभाव के कारण राहत सामग्री की आपूर्ति और वितरण की व्यवस्था के बारे में लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रही।
4. अस्सी प्रतिशत से अधिक मौतें इमारतों के गिरने से हुई। नष्ट हुई इमारतों में से अधिकांश में भवन निर्माण के नियमों का पालन नहीं किया गया था।
5. गिरी हुई इमारतों में से लोगों को बचाने का अधिकांश काम स्थानीय समुदायों के प्रयासों से हुआ।

दि ग्रेट हान्शिन-आवाजी अर्थक्वेक ऐज सीन नाम की एक दिलचस्प पुस्तक का प्रकाशन 1995 के भूकम्प के उपरान्त किया गया था। पुस्तक के लेखक ने भूकम्प के फौरन बाद अनुभव की गई कुछ समस्याओं का वर्णन इस प्रकार किया है :

1. देश के विभिन्न भागों से आने वाले सहायता दल यातायात जाम में फँस गए थे।
2. तीन अग्निशमन केन्द्र के पूरी तरह से नष्ट होने के कारण वे सेवा के योग्य नहीं रह गए थे।
3. अग्निशमन विभाग को तबाही का आकलन करने में काफी समय लगा, क्योंकि उसकी लगभग सभी टीमें बचाव अभियान में तैनात थीं।
4. देश के विभिन्न भागों से आए अग्निशमन दलों के पास संचार की एक ही फ्रिक्वेंसी थी। इससे बचाव कार्य में दिक्कतें आईं।

उसी पुस्तक में ह्योगो अग्निशमन स्टेशन का एक अनुदेशक भूकम्प के दिन के अपने अनुभव का वर्णन करता है। वह अन्त में कहता है, “मेरा मस्तिष्क ठीक से काम नहीं कर पा रहा था। भूकम्प के तुरन्त बाद मेरे मन में अनगिनत विचार उठे। मुझे खेद है कि मैं न तो इससे अधिक कुछ कर सका और न ही इससे बेहतर। तो भी जब मैं पीछे निगाह डालता हूँ तो पाता हूँ कि हम अग्निशमन दल के लोग, पूर्णतया अशक्त थे। हमें जिस चीज की जरूरत थी, वह था पानी, परन्तु वह हमारे नियन्त्रण में नहीं था। मैं बहुत निराश हूँ और शर्मिन्दगी महसूस करता हूँ। जो कुछ हम कर सकते थे, किया। अग्निशमन दल के सभी लोगों ने अच्छा काम किया।' (योशीमीटो 2002, पृ. 54)

उपर्युक्त समस्याओं और अनुभवों को देखते हुए जापान में अनेक नैदानिक कदम उठाए गए। इन कार्यों में संगठनात्मक पुनर्गठन, आपदा सूचना प्रणाली, आपातकालीन अनुक्रिया हेतु राष्ट्रव्यापी सहायता प्रणाली, नये कानून, आपदा प्रबन्धन योजनाएँ, स्वयंसेवी और सामुदायिक स्व-रक्षा संगठनों को प्रोत्साहन देने जैसे अन्य अनेक उपाय शामिल थे।

कोबे में आपदा नियन्त्रण एवं मानव नवीकरण संस्थान (डीआरआई) की स्थापना की गई। जिसका उद्देश्य हान्शिन-आवाजी की भीषण भूकम्प से हासिल अनुभवों को भविष्य के लिए लोगों तक पहुँचाना था।दस वर्ष का कार्यकाल मानकर ‘रचनात्मक पुनर्निर्माण’ की नयी धारणा का शुभारम्भ हुआ। इसमें अनेक प्रकार की सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ शामिल की गई थीं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आपदा की रोकथाम और मानवीय सहायता की ओर भी दिशा देने के प्रयास किए गए। कोबे में आपदा नियन्त्रण एवं मानव नवीकरण संस्थान (डीआरआई) की स्थापना की गई। जिसका उद्देश्य हान्शिन-आवाजी की भीषण भूकम्प से हासिल अनुभवों को भविष्य के लिए लोगों तक पहुँचाना था। इसमें मानव संसाधन विकास, आपदा प्रबन्धन, नेटवर्किंग गतिविधियाँ और भूकम्प से सम्बन्धित सामग्रियों के संग्रहण और संरक्षण पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया था। बड़े पैमाने पर प्रदर्शन, फिल्में और अन्य कागजात तैयार किए गए। भूकम्प के विभिन्न पहलुओं को दर्शाने वाले संग्रहालय और शोध केन्द्रों की भी स्थापना की गई है। हान्शिन-आवाजी के भीषण भूकम्प का स्मारक भी बनाया गया है। इनमें से अधिकांश कार्य पिछले तीन-चार वर्षों में ही पूरे हुए। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र विकास केन्द्र (यूएनसीआरडी), संयुक्त राष्ट्र मानवीय कार्य समन्वयन कार्यालय (यूएनओसीएचए), एशियाई आपदा नियन्त्रण केन्द्र (एचडीआरसी) और विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्वास्थ्य विकास केन्द्र ने कोबे में अपनी-अपनी इकाइयाँ स्थापित कीं, ताकि आपदा प्रबन्धन और विकास पर ध्यान केन्द्रित किया जा सके।

2001 में कच्छ में आए भूकम्प के तुरन्त बाद का अनुभव भी ठीक वैसा ही था जैसा कोबे का था। राहत बचाव और पुनर्वास कार्यों के लिए इसमें भी भौगोलिक विस्तार के कारण जबरदस्त चुनौतियाँ पेश आईं। शुरू के कुछ घण्टों के दौरान ऐसा प्रतीत होता था, कि यह भूकम्प सरकार, लोगों और सभ्य समाज को ही लील जाएगा। दिलचस्पी की बात यह रही कि यह भी कोबे जैसा ही भूकम्प था, जो अपने-आप में एक मील का पत्थर बन चुका था। कोबे में विशाल स्तर पर पुनर्निर्माण के जो कार्यक्रम चलाए गए, उनका कोई सानी नहीं था। इससे आपदा प्रबन्धन में रास्ता दिखाने वाले दीर्घकलीन दृष्टिकोण का परिचय लोगों को मिला। एक विपति को अवसर में बदल दिया गया।

आवास निर्माण, कक्षाओं की मरम्मत पुनर्निर्माण, सामाजिक और भौतिक बुनियादी ढाँचों की बहाली और रोजी-रोटी कमाने के अवसरों को मुहैया कराने के लिए किए गए कार्य के आकार और तादाद को देखा जाए तो लगता है कि वास्तव में शानदार काम किया गया है। पुनर्वास का क्षेत्र काफी व्यापक था और विशाल भी, फिर भी उल्लेखनीय कार्य हुआ। केवल भौतिक परिसम्पत्तियों के पुनर्निर्माण तक ही यह सीमित नहीं था, प्रभावित लोग रोजी-रोटी कमा सकें, इस पर भी विशेष रूप से ध्यान दिया गया था। आपदा प्रबन्धन के लिए क्षमता के विकास हेतु महत्त्वपूर्ण प्रयास किए गए। काम की जटिलता को देखते हुए, पहले तीन वर्षों में जो प्रगति हुई है, उनका अन्यत्र कोई सानी नहीं। दरअसल, पहले साल से ही प्रगति में तेजी आ गई थी, जो अगले तीन वर्षों तक लगातार जारी रही, यह सब उपलब्धियों से साफ जाहिर होता है।

मकानों के पुनर्निर्माण और मरम्मत के मामले में जो शानदार सफलता हासिल हुई है, उसकी व्यापक सराहना भी हुई है। मकानों के पुनर्निर्माण में हालांकि मकान मालिकों की अहम भूमिका होती है, और उसमें गैर-सरकारी संगठन के प्रयास भी शामिल होते हैं, फिर भी जनवरी 2004 तक, यानी शुरू के तीन वर्षों में ही 1 लाख 87 हजार मकानों का पुनर्निर्माण, वास्तव में एक उल्लेखनीय उपलब्धि रही। इसी अवधी में नौ लाख एक हजार एक सौ पचास मकानों की मरम्मत भी की गई। परन्तु मरम्मत की गुणवत्ता को लेकर वितीय और तकनीकी समस्याएँ खड़ी हुईं। भूकम्प के पहले भूकम्परोधी निर्माण और रेट्रो फिटिंग के बारे में चेतना नहीं के बराबर थी। कुशल मानव संसाधनों की तब भी कमी थी और आज भी है। अतः यह आशा करना कि ये सभी इमारतें रेट्रो फिट हो जाएँगी अवास्तविकता होगी। परन्तु जहाँ तक सम्भव था उनका मजबूती के साथ मरम्मत किया गया था।

तीन वर्ष की इसी अवधि में 42 हजार 678 कक्षाओं की मरम्मत भी की गई और 7 हजार 469 कक्षाओं का पुनर्निर्माण किया गया। मरम्मत का काम गाँवों की निर्माण समितियों के माध्यम से कराया गया। इन समितियों में अन्य लोगों के अलावा विद्यालय के प्रधानाध्यापक और ग्राम पंचायत के सरपंच भी शामिल थे। निर्माण में जनभागीदारी का यह शानदार उदाहरण था।तीन वर्ष की इसी अवधि में 42 हजार 678 कक्षाओं की मरम्मत भी की गई और 7 हजार 469 कक्षाओं का पुनर्निर्माण किया गया। मरम्मत का काम गाँवों की निर्माण समितियों के माध्यम से कराया गया। इन समितियों में अन्य लोगों के अलावा विद्यालय के प्रधानाध्यापक और ग्राम पंचायत के सरपंच भी शामिल थे। निर्माण में जनभागीदारी का यह शानदार उदाहरण था। भौतिक बुनियादी ढाँचों, जैसे सार्वजनिक भवनों, सड़कों और पुलों, ग्रामीण जलापूर्ति, बिजली सम्प्रेषण, वितरण प्रणाली और छोटे एवं मझोले बाँधों की आपात मरम्मत के कार्यों में पर्याप्त प्रगति हुई। शहरी क्षेत्रों में कार्यों को अंजाम देने में कुछ अधिक समय लगा, क्योंकि वहाँ का काम कुछ जटिल भी था और उसके लिए वैज्ञानिक अध्ययनों और सर्वेक्षणों की आवश्यकता थी। स्वास्थ्य सम्बन्धी बुनियादी सुविधाओं का पुनर्निर्माण अपेक्षया धीमा रहा, क्योंकि उसके लिए संगठनात्मक समस्याएँ थीं, फिर भी चिकित्सा सेवाओं और निगरानी कार्य को अन्तरिम रूप से शीघ्र ही प्रभावी ढंग से शुरू कर दिया गया। प्रभावित लोग अपनी रोजी-रोटी फिर से कमा सकें, इसके लिए कृषि सामग्री, हस्तशिल्प, हथकरघा और लघु उद्योग सम्बन्धी गतिविधियों पर जोर दिया गया। महिलाओं, बच्चों, वृद्धों, खासकर बेसहारा लोगों, विधवाओं और विकलांगों की मदद के लिए भी व्यापक उपाय किए गए।

भूकम्प के तुरन्त बाद ही गुजरात राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण (जीएसडीएमए) नाम का एक नया संगठन गठित किया। प्राधिकरण ने शुरू से ही क्षमता विकास, सूचना प्रसार, सामुदायिक चेतना और सामुदायिक तैयारी जैसी अनेक गतिविधियों पर ध्यान दिया। सिर्फ इसी कार्य से वह अन्यत्र चलाए गए इसी तरह के कार्यों से अपना अलग स्थान बना सका। इसी तरह की गतिविधियाँ काफी देर से शुरू हुई थीं। एक और उल्लेखनीय पहलू, प्रतिष्ठित संस्थाओं, विशेष ज्ञान एवं अनुभव वाले व्यक्तियों को, इन सब कार्यों में शामिल करना था।

निस्सन्देह, जीएसडीएमए को महाराष्ट्र के पुनर्निर्माण कार्यक्रम, संयुक्त राष्ट्र प्रणाली और बहुपक्षीय एजेंसियों के अनुभवों से लाभ लेने का अवसर मिला। परन्तु सच्चाई है कि प्राधिकरण में दूसरों के अनुभवों से सीखने और उनको अपनी आवश्यकतानुसार ढालने की प्रतिबद्धता, इच्छाशक्ति और योग्यता थी और उसने गुजरात की स्थिति के अनुसार नयी पहल के साथ अनेक गतिविधियाँ प्रभावित क्षेत्रों में चलाई।

आपदा प्रबन्धन को वैज्ञानिक ढाँचे, नियामक सुधारों, प्रशिक्षण और ज्ञान आधारित नेटवर्क के जरिये संस्थागत रूप देने के लिए प्रभावी एवं निर्णायक कदम उठाए गए। शुरुआती स्तर पर ही आपदा प्रबन्धन नीति और आपदा प्रबन्धन अधिनियम को अन्तिम रूप दे दिया गया था। छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजन, जोखिम और असुरक्षा विश्लेषण, हानि औ ह्रास की आकलन पद्धति, प्रारम्भिक चेतावनी और आपातकालीन संचार जैसे पहलुओं पर शोध अध्ययन किए। भवन निर्माण संहिता, विकास नियन्त्रण नियमन और जोखिमरहित निर्माण जैसी समस्याओं के समाधान के प्रयास कारीगरों को प्रशिक्षण दिया गया। पाठ्यक्रमों में संशोधन और तकनीकी संस्थाओं के शिक्षकों के प्रशिक्षण का काम हाथ में लिया गया जिससे लम्बे समय तक गुणवत्ता और कौशलयुक्त सेवाएँ मिलती रहें। कारीगरों को प्रमाणपत्र देकर उनकी योग्यता का पता लगाने की नयी व्यवस्था लागू की गई।

जनभागीदारी, सामुदायिक तैयारी और गैर-सरकारी संगठनों के साथ भागीदारी इस अनूठे पुनर्निर्माण कार्यक्रम के महत्त्वपूर्ण पहलू थे। सभी स्तरों पर शुरू से ही लोगों को शामिल किया गया था। सामुदायिक चेतना और तैयारी के लिए समन्वित, व्यापक और सघन प्रयास किए गए थे।

यहाँ पूर्व में कुछ अन्य देश में आए भूकम्पों के पुनर्निर्माण कार्यों की तुलना कच्छ के कार्यों से करना समीचीन होगा। मरमरा, मेक्सिको सिटी, कोलम्बिया और कोबे में जो भूकम्प आए उनमें से ज्यादातर ने शहरी क्षेत्रों को ही प्रभावित किया। कच्छ के भूकम्प में भी शहरी और ग्रामीण दोनों तरह के इलाकों पर असर पड़ा था।

कच्छ के भूकम्प में पुनर्निर्माण और मरम्मत किए गए मकानों की संख्या काफी थी, क्योंकि भूकम्प ने काफी बड़े भू-भाग को तहस-नहस कर दिया था। यह तर्क दिया जा सकता है कि शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों के मकान छोटे होते हैं और उनको बनाना भी सरल हो जाता है। परन्तु भौगोलिक विस्तार के कारण क्रियान्वयन की समस्याएँ हो सकती हैं। जैसा पहले बताया जा चुका है, लगभग 20 प्रतिशत मकानों में गैर-सरकारी संगठनों की पूरक भूमिका थी। कच्छ का भूकम्प पुनर्निर्माण कार्यक्रम सम्भवतः पहला ऐसा कार्यक्रम था जिसमें मकान मालिकों को ही फिर से अपने-अपने मकान बनाने के लिए तैयार किया गया, और यह काम बखूबी अंजाम दिया गया; संख्या के मामले में और गुणवत्ता के मामले में भी।

निम्नलिखित तुलना उल्लेखनीय है :

1. कोबे में 48,300 मकानों में 6 वर्ष का समय लगा।
2. मेक्सिको में 72 हजार मकानों ने 5 वर्ष का समय लिया।
3. तुर्की के 43 हजार मकानों ने 4 वर्ष का समय लिया।
4. कोलम्बिया के 80 हजार मकानों के लिए 3 वर्ष का समय लगा।
5. ताइवान में 38 हजार 935 मकानों में 4 वर्ष का समय लगा।
6. लातूर में 1 लाख 80 हजार मकानों के मरम्मत और 37 हजार के पुनर्निर्माण में 6 वर्ष का समय लगा।
7. गुजरात में केवल दो वर्ष में 1 लाख 43 हजार मकानों का पुनर्निर्माण और 8 लाख 92 हजार मकानों की मरम्मत की गई।

हाल के वर्षों में आए भूकम्पों में पुनर्निर्माण के कार्यों में विश्व बैंक ने आर्थिक मदद की है। अधिकांश मामलों में लेनदार देश को परियोजना तैयार करने, बातचीत करने और ऋण की स्वीकृति में ही एक वर्ष का समय लग गया। केवल तुर्की और गुजरात के मामलों में ही विश्व बैंक से ऋण की स्वीकृति तीन महीने से भी कम समय में मिल सकी। गुजरात के लिए एशियाई विकास बैंक से भी सहायता मिली थी। ज्यादातर मामलों में पुनर्निर्माण कार्यों में 4 से 5 वर्ष या इससे भी अधिक समय लगा।

अधिकांश निर्माण कार्यों की परियोजनाओं पर अमल के लिए नया संगठनात्मक ढाँचा खड़ा किया गया। ऐसा इसलिए किया गया ताकि पूरा ध्यान कार्यक्रम पर ही रहे और संगठन को पूरी स्वायत्तता रहे तथा काम करने के लिए लचीला वातारण मिले।

मकानों का पुनर्निर्माण ज्यादातर निजी क्षेत्र के ठेकेदारों से और कुछ क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र के मार्फत कराया गया। अनेक मामलों में मरम्मत का काम मकान मालिकों से ही करवाया गया। उन मामलों में जहाँ गैर-सरकारी सगंठनों ने पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी ली, वहाँ निजी ठेकेदारों से काम करवाया गया। लातूर के मामले में जहाँ पुनर्निर्माण के लिए नयी जगह पर जाना था, यह काम ठेकेदारों के मार्फत करवाया गया, हालांकि मरम्मत और मकानों को मजबूत बनाने का काम गृह स्वामियों ने सवयं किया। कच्छ में मकानों के पुनर्निर्माण की विशेषता यह रही कि यह काम अधिकतर मकान मालिकों ने गैर-सरकारी संगठनों के सहयोग से स्वयं किया। विश्व भर में व्यापक स्तर पर किए गए पुनर्निर्माण और पुनर्वास कार्यक्रमों के सन्दर्भ में यह काम एक मील के पत्थर जैसा है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस काम में लोगों को अपनी जगह से ज्यादा हटाना नहीं पड़ा। इसके अलावा, कार्यक्रम के सभी स्तरों पर लोगों से विस्तारपूर्वक सलाह-मशविरा किया गया और इस काम में सभी की सहमति और सहभागिता रही।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, कच्छ में भूकम्प के परिणामस्वरूप गुजरात राज्य (जीएसडीएमए) नाम का एक नया संगठन गठित किया गया। प्रारम्भ से ही इसने न केवल पुनर्वास और पुनर्निर्माण पर जोर दिया, बल्कि आपदा से निपटने और तैयारी के मध्यमकालिक और दीर्घकालिक उपायों पर भी ध्यान केन्द्रित किया। इस प्राधिकरण का गठन एक नये युग की शुरुआत थी। एक नया नीतियाँ, कार्यक्रम, पद्धतियाँ और विधान अपनाकर राज्य के लिए आपदा प्रबन्धन ढाँचा तैयार करने के उपाय किए गए। जीएसडीएमए ने निम्नलिखित विस्तृत क्षेत्रों में विविध गतिविधियों का सफलतापूर्वक संचालन किया है :

1. भूकम्प पुनर्निर्माण कार्य
2. नीतियों और विधानों को तैयार करना
3. आपदा प्रबन्धन योजनाओं का तैयारी
4. पूर्व तैयारी की पहल
5. क्षमता विकास
6. शमन के उपाय, और
7. जनचेतना एवं सामुदायिक तैयारी

सूत्रधार (नोडल) एजेंसी के रूप में जीएसडीएमए ने भारत सरकार, राज्य सरकार के विभागों और स्थानीय अधिकारियों से सम्पर्क स्थापित करने के लिए कड़ा परिश्रम किया। प्राधिकरण ने गैर-सरकारी संगठनों, शोध-संस्थाओं, सरकारी और निजी क्षेत्र के उपक्रमों और अन्य इच्छुक लोगों के साथ भी बेहतर तालमेल बिठाने के लिए अथक प्रयास किए जिससे परस्पर ज्ञान व अनुभव के आदान-प्रदान के साथ-साथ समन्वय हेतु व्यवस्था बनाई जा सके और क्षमता का विकास हो सके। प्राधिकरण रणनीति तैयार करता है और अन्य विभागों एवं एजेंसियों की मदद से उस पर अमल किया जाता है। वर्ष 2003 में गुजरात राज्य आपदा प्रबन्धन अधिनियम के बन जाने के बाद जीएसडीएमए ने वैधानिक स्थिति प्राप्त कर ली है।

एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि इतने कम समय में जीएसडीएमए ने इतना सब कुछ कैसे हासिल कर लिया। इसके पीछे तीन कारक हैं- राजनितिक प्रतिबद्धता, ढाँचागत और प्रचालनीय लचीलापन और प्रतिबद्ध एवं समर्पित कर्मचारियों ने यह शानदार सफलता दिलाई है।

गुजरात सरकार और भारत सरकार ने अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। कुछ पर अभी भी अमल हो रहा है। जरूरत उनको पूर्ण करने और सुदृ़ढ़ बनाने की है। इस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि भूकम्प की यादें और तबाही के मंजर अभी भी आँखों के सामने नाच रहे हैं। परन्तु क्या जब यादें धूमिल हो जाएँगी तब भी दिलचस्पी और उत्साह बचा रहेगा? क्या हमारे नये उपायों को जारी रख सकने वाली प्रणालियाँ और प्रक्रियाएँ सलामत हैं? उदाहरणार्थ हजारों कारीगरों और इंजीनियरों को भूकम्परोधी निर्माण कार्यों का प्रशिक्षण दिया गया है, पर उनका क्या जो बाकी रह गए हैं प्रशिक्षण से? भूकम्प के बाद जिनको प्रशिक्षण दिया गया था उनको गहन प्रशिक्षण की जरूरत हो सकती है। इंजीनियरिंग महाविद्यालयों के प्राध्यापकों का प्रशिक्षण अभी भी एक चुनौती बना हुआ है।

कच्छ के भूकम्प के परिणामस्वरूप भूकम्परोधी निर्माण के बारे में लोगों में जागृती आई है। लेकिन भवन निर्माण के नियमों का पालन कराने के लिए हमें अभी काफी कुछ करना है। निर्माण के कार्य व्यवहार में कुछ सुधार दिखाई पड़ने लगा है। सम्भवतः भवन निर्माता और अभियन्ता अब ज्यादा जागरूक और सावधान हो गए हैं। नगरपालिका कानूनों को संशोधन किया जा रहा है। फिर भी अनुभव यही है कि प्रभावी प्रणाली स्थापित होने में अभी समय लगेगा। सुयोग्य तकनीकी अभियन्ताओं की क्षमता का विकास करने वाला कार्यक्रम हाथ में लेना आवश्यक है। हालांकि नगरनिगमों के साथ-साथ नगरपालिकाओं और अन्य शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं की ओर भी ध्यान देना जरूरी है।

कच्छ के भूकम्प के परिणामस्वरूप भूकम्परोधी निर्माण के बारे में लोगों में जागृती आई है। लेकिन भवन निर्माण के नियमों का पालन कराने के लिए हमें अभी काफी कुछ करना है।गुजरात राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण को ढाई वर्ष के अपने छोटे से कार्यकाल में किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए अक्तूबर, 2003 में संयुक्त राष्ट्रसंघ का प्रतिष्ठित सम्मान − सासाकावा पुरस्कार प्रवीणता प्रमाणपत्र प्राप्त हुआ। इसे अप्रैल 2004 में विश्व बैंक का ग्रीन अवार्ड भी मिला। यह पुरस्कार पुनर्निर्माण प्रयासों में पर्यावरणीय पहलुओं को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए दिया गया था। 27 अक्तूबर, 2004 को सिंगापुर में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में, जिसमें अनेक देशों से करीब 400 लोगों ने भाग लिया था, जीएसडीएमए को स्वर्ण पुरस्कार प्रदान किया गया। यह पुरस्कार राष्ट्रमण्डल लोक प्रशासन और प्रबन्धन संघ (सीएपीएएम) का सर्वोच्च पुरस्कार है और यह ‘शासन में नवाचार’ के लिए दिया जाता है। पुरस्कार समिति ने कहा कि ‘भूकम्प के बाद पुनर्वास और पुनर्निर्माण का वृहद कार्यक्रम, कामकाज के पारम्परिक तरीकों, आपदा-उपरान्त शमन कार्यक्रम और तैयारियों के लिहाज से पूर्णतया भिन्न था और मकान मालिकों को पुनर्निर्माण कार्य में शामिल करना, समुदाय की भूमिका और उसकी भागीदारी, पारदर्शिता, एक समान प्रक्रिया और क्षमता विकास के विभिन्न प्रयास अपने-आप में शासन में नवाचार के उदाहरण है’।

1995 के बाद के दशक में विभिन्न विकसित और अविकसित देशों में अनेक बड़े भूकम्प आए हैं। प्रत्येक आपदा ने तात्कालिकता की भावना और आपदा प्रबन्धन की मौजूदा प्रणाली में सुधार के लिए नयी पहल करने की आवश्यकता को उजागर किया है। परन्तु यह देखा गया है कि किसी भी देश या सन्दर्भ में, तात्कालिकता की भावना समय गुजरने के साथ ही समाप्त हो जाती है, खासकर तब जब उस दौरान कोई आपदा न घटी हो। कोबे और कच्छ के भूकम्पों ने आपदा प्रबन्धन के मध्यमकालिक और दीर्घकालिक पहलुओं पर जोर देते हुए उन्हें व्यापक और समन्वित प्रयासों का रूप दे दिया। इस तरह के उपाय विचारों, रणनीतियों और प्रचालन सम्बन्धी पहलुओं से जुड़े थे, जो हाल के आपदाओं पर भी लागू होते हैं तथा कार्रवाई के लिए एक ढाँचागत पद्धति प्रदान करते हैं। यह आवश्यक है कि इस तरह के सभी प्रयासों और नवाचारों को खूब प्रसारित किया जाए तथा अन्य देशों एवं क्षेत्रों को दीर्घकालिक आधार पर मुहैया कराया जाए।

(लेखक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना मण्डल के सदस्य सचिव हैं। वह गुजरात में अपने शासकीय निर्धारित कार्य के दौरान 2001 में कच्छ के भूकम्प के दौरान राहत एवं पुनर्वास कार्यों में गहराई से जुड़े थे)

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